क्या लिखू अपने बारे में

आदरणीय बहल साहब ने कहा - कुछ अपने बारे मे लिख भेजिए हमंे।


क्या लिखू अपने बारे में -


अच्छा लगता है जीवन के हर रिश्ते को जीना। मानवीय रिश्तों के रेशम जाल मे उलझे तारों के चक्रव्युह मे सेंघ लगा ‘‘उन‘‘ कुछ क्षणों को जी लेना। उनके अर्थ ढूढ़ना, गहराइयों में पैठ उनके दर्द उनकी मजबूरियाँ उनकी हसरतों के अनबोले शब्दों को महसूस करना, खुशियों के गीत छन्द, भावों की आहट को सुनना और अच्छा लगता है अतीत की गलियों में भटकना। बचपन की दहलीज़, पितामही के आंगन मे पैर पसार बैठना (आज भले कल्पना मे ही सही)


लेखक, शिक्षक पिता - अनेक पुस्तकों के रचयिता। विभिन्न पुरस्कारों एवं राष्ट्रपति सन्मान से सन्मानित। निष्ठा एवम् पूर्ण समर्पण के संग उनका विपुल लेखन एवं शिक्षा के क्षेत्र में उनके द्वारा किये गए अद्वितीय कार्य।


आदिवासी इलाके से धीरे, गोमती पटासुर और भैरवी, तीनों नदियों के बीच बसे उस छोटे से गाँव में बिताया हुआ मेरा बचपन। उस गाँव की घरती पर पिता के साहित्य सृजन से उपजा वह बंसवाड़ा जिस पर टिका था शिक्षा, संस्कृति संस्कार का विशाल मंच।


पिता के रचना संसार से मिली प्रेरणा, घर परिवार के वातावरण ने अहसास दिये, उनके संग जीना सिखाया। उन अहसासों के स्पन्दन ने शब्दों को उकसाया कागज़ के पन्नों पर उतरने को।


बचपन मे जिज्ञासा भरा मन लिए अन्वेषण की तैयारी मे निरन्तर बिचार मग्न मैं फिरकी की तरह घूमती ही रहती। नदी नाले, गली कूँचे, कुआँ, पेड़, बाग बगीचो के बीच। मन के अन्दर हजारों प्रश्न लिए. तितलियों के पंख रंग बिरंगे कैसे होते हैं? फूलो का बाहरी रंग पीला तो बीच मे बैगनी कहाँ से हो जाता है? आम के नए और पुराने पत्तो का रंग अलग अलग क्यों होता है? पेड़ों में मंजर कैसे लगते हैं और फिर आम के टिकोरे कैसे बन जाते हैं? बड़ा होकर पक कैसे जाते हैं और सबसे महत्वपूर्ण पक जाने पर पेड़ से टूट कर गिर कैसे जाते हैं? क्या कोई उन्हे धक्का दे देता है जैसे उस दिन नदी किनारे खड़े “बन्सी बाबा‘‘ के सौतेले पुत्र ने उन्हे धक्का दे दिया, जिस कारण वे नदी की तेज धारा में गिर पड़े और बह गए.... फिर शाम मंे क्यों उनके घर के लोग रोने लगे यह कहकर कि दादा जी डूब कर मर गए?


विद्यालय के दिनो में न जाने ऐसे कितने प्रश्न और शब्द उकेरती भावों के पन्नों पर। कभी पिता को पढ़ सुनाती कभी चाची और बुआ को। कभी विद्यालय की पत्रिका में अपने पन्नो को पाती। विश्वविद्यालय तक आते आते ये पन्ने पत्र पत्रिकाओं मे यदा-कदा स्थान पाने लगे। धर्मयुग और कादम्विनी की चर्चाओं में भाग लेना रूचिकर लगने लगा। राँची विश्वविद्यालय से हिन्दी-साहित्य में स्नातक एवंम मगध विश्वविद्यालय के पंचम वर्ष (साहित्य) की छात्रा की यात्रा के मध्य घर परिवार गृहस्थी का चक्र भी चलता रहा. बिरासत मे मिली पितामही की समाज के प्रति ज़िम्मेदारी का अहसास इतने गहरे पैठा था कि जब न तब किसी न किसी सामाजिक संस्था से जुड़ी ही रही चाहे वह पटना मे मदर टेरेसा के मिशनरीज ऑफ चैरिटी का कार्य हो या फिर पुणे के अपंग सहकारी संस्था या फिर हो लायन्स इन्टरनेशनल द्वारा प्रदत कार्यो की जिम्मेदारी। इसी दरम्यान “जाणीव‘ (। भ्वउम वित जीम ेमदपवत बपजप्रमदे) का सपना देखा, जहाँ हम कुछेेक अपने बुजुर्गों की देख रेख कर सकें। और जाणीव का जन्म 1993 मे पुणे से छब्बीस किलोमीटर की दूरी पर फुलगाँव मे हुआ । संस्था की काया को रुप मिला। तब से आज तक जाणीव से जुड़ी हुई हूँ। उसे सुचारु रूप से चलते और खुशियाँ बिखेरते देख बरबस ही हृदय प्रसन्न हो उठता है।


जीवन की सर्पिल पगदण्डियों पर चलते हुए हरदम ही रिश्ते नाते, समाज से जुड़े सरोकार और प्रकृति के रुप एंव रंग हमसाये की तरह संग रहे हैं। इनके हर रंग रुप ने हमेशा ही हमंे लुभाया है। अपनी संस्कृति सम्यता और विरासत मंे मिली हमारी परम्पराओं का मान रखने की कोशिश करती जब भी “कुछ” मन को छू गया, हृत्तंत्री झंकृत हो उठी, तो शब्द उतर आते हैं पन्नो पर। स्वतंत्र लेखन ही जीवन का पर्याय है मेरा। खुशी मिलती है मुझे अपने आप को शब्दों में व्यक्त कर। सुकुन मिलता है मन को और शान्त चित्त ‘स्वयं’ से मिलन की अनुभूति होती है ऐसे क्षणांे में। बस जी लेना चाहती हूं इन क्षणों को........।



विनु जमुआर


 


-मुकुंदनगर, पुणे, मो. 08390540808


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