महिला दिवस: खुद की हिफाजत और जीने के संवैधानिक अधिकार की जद्दोजहद में आज की महिलाएं

‘‘मैं’’ हूँ मिट्टी सी


प्यार, ममता और करूणा से बनी मिट्टी


आशा का बीज बो दो मुझमें


तो जिंदगी हो जाये अंकुरित सी


उतार देना चाहती हूँ


समाज की दोहरी मानसिकता के ज़ेवर को


और मुक्त होकर बेलगाम नाचने देना चाहती हूँ अपनी ख्वाइशों को


अब नहीं पहनना मुझे पितृसत्तात्मक ताज


फोड़ना चाहती हूं अब ये ठीकरा


समाज के ही सिर पर


बताना है मुझे कि


व्याकुल कर दूँ ध्वनि को भी


मैं ऐसा मौन हूँ


और शोर भर दूँ निर्वात में भी


कि मैं वो शंखनाद हूँ.....


ऐसा माना गया है कि वेद पुराणों में, श्रुतियों- स्मृतियों में नारी का स्थान सदैव से ऊँचा रहा है। गृहलक्ष्मी, अर्धांगिनी, वात्सल्यमयी आदि जितने भी सुंदर शब्द हैं इन सबसे स्त्रियाँ ही सुशोभित हैं। हमारे परिवार, समाज में जो भी लावण्य, मंगलकारी है उसकी कल्पना नारी को ध्यान में रखकर की गई है। पर, ऐसे विचारों की सार्थकता तो तब ही होगी जब न केवल घर बल्कि बाहर भी उनकी शुचिता व अस्मिता का मान रखा जाय और उनके साथ समानता का व्यवहार हो, इसके लिये उन्हें भय व तानेमुक्त पारिवारिक परिवेश मिले ताकि वे बिना किसी बेवजह रोक टोक के निर्बाध व स्वच्छंद उड़ान भर सकें। यह कहना गलत न होगा कि हमारे भारतीय परिवारों में पुरुषों की कंडीशनिंग ऐसी होती है कि उन्हें बचपन से ही छीनना, बलपूर्वक जीतना आदि सिखाया जाता है और दूसरी तरफ महिलाओं को खुद को पुरुषों से कमतर आँकना सिखाया जाता है। यहाँ मैं पुरुषों को जिम्मेदार नहीं ठहरा रही हूँ। कई घरों में पुरुष व अन्य घरवाले भी इस बात का यानि  महिलाओं की बराबरी का विरोध नहीं भी करते हों  पर उन्हें आगे बढ़ने में भी कोई मदद नहीं करते हैं । इसीलिये आजतक पुरुषवर्ग कभी सहानुभूति से तो कभी सामाजिक सरोकार के मद्देनजर ही महिलाओं की समस्या या उनकी उपलब्धियों की चर्चाएँ करते दिखते हैं। जबकि इतिहास भी इस बात का गवाह है कि नारी अपने पति और पुत्र को स्वयं अपने हाथों से उनके माथे पर तिलक लगाकर और तलवार हाथ मे देकर रणभूमि में भेजती थीं पर,आज वस्तुस्थिति एकदम उलट है। महिलाओं को आधुनिक समाज में स्थान तो दे दिया गया पर यह स्थान लालसाओं की मोहावृत प्रतिमूर्ति के रूप में मिली है।


बच्चों के लालन पालन, शिक्षा दीक्षा में सरस्वती, गृह प्रबंधन व संचालन में लक्ष्मी और अन्याय का प्रतिकार या दुष्टों का संहार करना हो तो शक्ति का पर्याय माँ दुर्गा का रूप इनमें विद्यमान रहता है।  वैसे भी कौन नहीं जानता कि भारतवर्ष में ‘‘अर्धनारीश्वर’’ आदर्श रहे हैं।सच कहूँ  तो यदि भारतवर्ष की नारी अपने नारी धर्म का परित्याग कर देतीं तो हिंदुस्तान की छवि विश्व पटल पर अब तक गिर गयी होती। वैसे भी नारी को स्वयंसिद्धा कहा गया है। अगर एक बार वे मन मे कुछ करने की ठान ले तो कुछ भी मुश्किल नहीं, तभी तो आजतक पर्याप्त मात्र सुविधा व सहूलियतों के भी अपनी राह बनाने में संघर्षरत हैं और साथ ही दूसरों के लिये भी प्रेरणा बन रही है। तभी तो विवेकानंद ने कहा था कि ‘‘नारी शक्ति का प्रतीक है। सृष्टि में ऐसी कोई शक्ति नहीं जो उन्हें शक्ति प्रदान कर सके, उन्हें तो केवल बोध कराने की आवश्यकता है, शेष तो वे स्वयं अपना कार्य कर लेंगी’’। आज साल दर साल कई महिलाएँ ऐसी मिसालें कायम करती आ रही हैं। उनकी यही सकारात्मक सोच व संघर्ष आधी आबादी को सशक्त बनाती है। यही कारण है कि महिलाओं की सुरक्षा से सम्बंधित तमाम चिंताओ और संदेहों के बावजूद सामज के व्यवहारिक सोच में परिवर्तन की बयार को हम साफ साफ देख व समझ सकते हैं। यद्यपि मानसिकता में यह परिवर्तन बहुत बड़े पैमाने पर तो नहीं पर हाँ, शुरू हो चुकी है।


यह कहना गलत न होगा कि नारी ने अपनी जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं को देखते हुए उन महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को स्वयं पहचाना है, जहाँ वह समस्त संसार को अपनी तेजस्विता, त्याग, बलिदान, वात्सल्य, करुणा आदि के अमृत प्रवाह से आप्लावित कर सकें। कैसी विडंबना है यह कि हर क्षेत्र में अपनी काबिलियत के दम पर पहचान बनाने वाली महिलाएं और जीवन के हर मोर्चे पर अपने दमखम को साबित करने के बावजूद अपने ही अस्तित्व के लिये जूझती नज़र आ रही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि आज भी महिलाओं के साथ दुष्कर्म या छेड़छाड़ जैसी घटनाओं पर घर-परिवार, ऑफिस, समाज में दोयम दर्जे का व्यवहार होता है जो समाज के कुत्सित व पिछड़ी मानसिकता को दर्शाता है क्योंकि इन सबके पीछे का कारण हमारे परिवार और समाज के बुनियादी ढाँचे में ही मौजूद है। यह बेहद शर्मनाक और चिन्तनीय पैरामीटर है जो हमारे गिरते पारिवारिक मूल्यों और दम तोड़ने के कगार पर खड़े हमारे संस्कारों का, जिसमें बेटियाँ न जाने कितनी बार अपने ही घर में अपनों से ही यौन शोषण की शिकार होती है। सच कहूँ तो समाज का एक तबका इतना असंवेदनशील है जहाँ माँ भी बेटी की सिसकियों की आवाज नहीं सुन पाती। हमें इन मुद्दों को संवेदनशील नज़रिये से देखने व समझने की ज़रूरत है। महिला दिवस मना लेना या उनके सशक्तिकरण पर परिचर्चा कर लेना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि परिवर्तन लाने के लिये महिलाओं के इर्द गिर्द मौजूद सत्ता के तानेबाने में भी बदलाव लाना जरूरी है। विभिन्न तरह के प्लेटफॉर्म पर हम केवल चर्चा करते रहते हैं कि महिलाओं की बेहतरी के लिये ,उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिये पुरुषों को अपनी मानसिकता में बदलाव लाना होगा पर क्या हमने अपने बच्चों या युवाओं को ऐसी कोई ठोस या मौलिक रणनीति कभी सुझायी या बतायी है जिसकी वजह से वे पितृसत्तात्मक समाज की रूढ़िवादी सोच को बदल सकें?  ऐसा नहीं है कि हम पुरुषों के मुद्दे पर काम करते हुए महिला विमर्श या सशक्तिकरण के प्रयास  जारी नहीं रखे जा सकते बल्कि ऐसा करके हम अपनी कोशिशों को और भी ठोस रुप दे पायेंगे।


संवेदनाओं के तार से बुना होता है परिवार और इन तारों को जोड़े रखना परिवार की महिलाओं की ज़िम्मेदारी होती है। आज भी महिलायें रिश्तों की अहमियत को समझती हैं और भावनात्मक मूल्यों को सर्वोपरि मानते हुए अपने घर व कार्यस्थल पर बखूबी सामंजस्य बिठा ले रही हैं। अगर परिवार और समाज का मजबूत आधार मिल जाये तो नवसृजन असंभव नहीं है। पिछले साल ही गणतंत्र दिवस की परेड में पहली बार  बाइक पर हैरतअंगेज कारनामे दिखातीं बी. एस. एफ. की महिला दस्ते को शामिल किया गया। नारियों के अद्भुत कारनामांे में हाल ही कुछ वर्षों पहले पुनीता अरोड़ा का भी नाम आया है जो भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर तैनात रही हैं। इसी कड़ी में दुनियाँ की सबसे लंबी ऑल वुमन फ्लाइट का नेतृत्व करने वाली उत्तराखंड की क्षमता बाजपेयी ,जिन्होंने नई दिल्ली से सेनफ्रांसिस्को तक विमान का संचालन किया। करीब चालीस पचास साल पहले  की बात करें तो महिलाओं की सामाजिक आर्थिक स्थितियों उनके सशक्तिकरण, संघर्षों एवं उपलब्धियों, उनकी रची कविताओं, साहित्य और अवधारणाओं पर कभी भी चर्चा नहीं होती थी। पुरूष वर्ग ने कभी सहानुभूति तो क्या कभी सामाजिक सरोकार के मद्देनजर ही महिलाओं की समस्या या उनकी उपलब्धियों की चर्चा की हो। फिल्म निर्देशन, कॉर्पोरेट जगत, फ्लाइंग क्लब, साहित्य जगत आदि क्षेत्रों में  महिलाओं को सम्माननीय दर्जा भी प्राप्त नहीं  था बल्कि एक सीमित दायरे और सीमित संसाधनों के घेरे में रहकर ही वे अपना कार्य कर सकती थीं।


साहित्य व लेखन में भी इन्हें अनदेखा ही किया गया, जबकि कई नामचीन साहित्यकारों ने अपने उपन्यास व कहानियों के द्वारा जीवंत स्त्री पात्र रचे हैं। मन्नू भंडारी के उपन्यास ‘‘आपका बंटी’’  को अमूमन हर साहित्यकार अपनी किताबों की अलमारी में रखना अपनी शान समझता है। यह उपन्यास हर काल व समय का सच होने के कारण कालातीत भी है। यहाँ इस क्षेत्र में भी महिलाएँ अपनी कार्यक्षमता, बुद्धिमत्ता व आत्मविश्वास के ज़रिये इस किले में भी सेंध लगा चुकी हंै। वास्तव में  पुरूष सत्ता की नींव हमारे समाज मे इतने गहरे पैठ बना चुकी है कि इसे ध्वस्त करना एक लंबी लड़ाई लड़ने के बराबर है।


अगर वाकई समाज में बदलाव की चाहत रखनी है तो हमें अपने युवाओं को एक ऐसा मंच प्रदान करने की ज़रूरत है जहाँ वे बेहिचक बिना किसी पूर्वाग्रह के पितृसत्ता, लैंगिक भेदभाव, लड़कियों के साथ दुष्कर्म आदि मुद्दों पर खुलकर अपने विचार रख सकें, इसके लिए हमें कुछ अलग व नई तरह की रचनात्मक गतिविधियाँ आयोजित करनी होगी जो राजनीतिक व धर्मांधता से परे हों और निष्पक्ष नज़रिया बनाने में सहयोगी हो। चाहे ऐसे कार्यक्रम स्पोर्ट्स के जरिये हो या फिर फिल्मों के माध्यम से हो, इनकी एकमात्र यही शर्त होगी कि ये समाज की दोहरी मानसिकता व नकारात्मकता पर


आधारित पहचान से आज़ाद हों , तभी सही मायने में महिला दिवस की सार्थकता समझी जायेगी।



रश्मि सुमन


-पटना (बिहार), मो. 9006467685


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