नीर-क्षीर-विवेक
माँ ये आत्ममुग्ध है
या बौराए हुए
निहित स्वार्थों के
तुच्छ घालमेल में
कि मंदिर तुम्हारा बनाते हैं
जात अपनी लिखाते हैं
बीज भावी पीढ़ी के लिये रोपते हैं
उर्वरक जमीं को बंजर बनाने वाले डालते हैं
डालते हैं वहाँ वैमनस्य की विषैली मिट्टी
और जातिवाद का खारा पानी
कच्चे कोरे दिमागों को बरगलाने
फैलाते हैं प्रदुषण
ऊँच-नीच छोटे-बड़े शोधक-शोषित के
फर्जी हव्वे खड़े कर के
ठीक वहीं मारते हैं करारी चोट
जहाँ मार खाकर तिलमिला उठे कोई
फिर करते हैं नाटक मरहम पट्टी का
सरासर फर्जी
ये क्या जाने माँ सरस्वती के मंदिर में
चला नहीं करती कोई चाल
कर्म ही इंसान को प्रमाणित करते हैं
उसकी जात कुल और गोत्र
माँ शारदा के आराधना के लिये
कड़ी साधना के फूलों की
श्रद्धा के नैवैद्य की अपेक्षा होती है
तभी होती है देवी प्रसन्न
देती है तब वर विवेक का
जो स्वयं कर सकता है
नीर-क्षीर विवेक