प्रणय, प्राण और प्रारब्ध महिला दिवस पर प्रेम की प्रतिमूर्त ‘पारो’ को समर्पित

कितनी उदासियाँ पहनीं, ओढीं और अपने भीतर बसाई मैंने, जब ‘प्राण और प्रारब्ध’ में बंधे ‘पारो’ और ‘देवदास’ की अनोखी कहानी ‘‘पारो उत्तर कथा’’ में परत-दर-परत अपनी नज़रों के सामने खुलती पाई मैंने।


जितना भी कम या ज्यादा मैंने पढ़ा, सुना और फिल्मों में देखा और जाना या इन दोनों के बारे में, तो उस आधार पर मैं यही सोचती थी कि, पारो से छूटके भी न छूटा देव, जब मरने से पहले अपना वादा निभाने उस के ससुराल के गाँव में पहुंच, उसके घर से थोड़ी दूर उसका नाम पुकारता है तो अपने मन में ही उसकी पुकार सुन के पागलों सी पारो मुख्य द्वार की ओर बेतहाशा दौड़े पड़ी ठाकुर वीरेन ने हरिया से द्वार बंद करने को कहते हैं तो पारो ठिठक कर रह जाती है। पारो उन ऊँची दीवारों के भीतर और बाहर दम तोड़ता हुआ देवदास-कहानी का अंत हो जाता है।


सुदर्शन प्रियदर्शिनी की ‘पारो-उत्तर कथा’ किताब हाथ में ली तो पता चला कहानी वहाँ खत्म नहीं हुई, वहाँ से शुरु हुई है। यकीनन कहानी का वहाँ से शुरु होना मेरी सोच के दायरे से बाहर था। पर हाँ, अतीत में झाँकूं तो पाठक के नाते, दर्शन के नाते, मानवीय संवेदना और मन की बाल-सुलभ जिज्ञासा के चलते इतना मेरे मन में ज़रूर आता रहता था कि न जाने पारो के साथ आगे क्या हुआ होगा? हो सकता है किसी पल मैंने बड़ी शिद्दत से महसूस किया होगा देवदास और पारो की पीड़ा को, आंधियों में जलते रहे उस प्रेम के दिये की लौ की लगन और हौसले को, कि मेरी छटपटाहट को पंख लगे और वो पहुंच गई लेखिका के पास और ठीक वहीं से शुरु हुई कहानी जहाँ से उस का अंत हुआ था और वो अंत मेरे भीतर कुछ कचोटता रहता था। मैं सोचती रहती थी पारो की ज़िन्दगी आगे कैसे चली होगी,  बहू, पत्नी, माँ, हवेली की मालकिन, इन सब रूपों में किस-किस तरह ढली होगी पारो!


सब सवालों के जवाब मिले, उस बहुत ही संवेदनशील और मनोवैज्ञानिक तरीके से गढ़ी गई कहानी में। नाॅवल के शुरू में ही ‘‘पारों के मुख से स्वप्न में ही मुखर रूप लेता ‘देवदास’-पारो के प्रति राय-साहब के अहम को लील गया’’.... ये पढ़ते ही लगा, उफ!!! ये स्वप्न और हकीकतों का टकराव जाने क्या रंग लाएगा। हैरत हुई मुझे, बहुत ही सुखद हैरत कि स्वप्न में देवदास को पुकारने का जो कलंक पारो के माथे पे लगा, पारो के अंर्तमन मंे बसे देवदास ने पग-पग, उसे उसकी जिम्मेदारियों का अहसास दिला के, उसे उसकी वर्तमान परिस्थितियों की हकीकतों से रूबरू कराके, उसी कलंकित पारो को रायसाहब के माथे का चंदन-तिलक बना दिया। इतना साहस कौन प्रेमी पुरुष कर सकता है? प्रेम-पीड़ा की या अधूरी इच्छाओं की वेदना की बेड़ी नहीं बल्कि उस नयी उड़ान के पंख भी बन सकता है, आप में करुणा भर के, आप को अपने इर्द-गिर्द बसे सभी रिश्तों को भरपूर जीने का विस्तार दे सकता है, आप के हृदय की संकीर्णता को समाप्त कर आप के हृदय को विशालतम इकाई दे सकता है, यह जानना व्यक्तिगत रूप में मुझे बेहद सुखद लगा।


यह सच है कि मैंने बहुत अधिक साहित्य नहीं पढ़ा, लेकिन जितना भी मेरा अनुभव है, मैं यही सोचती थी कि दो लोगों के प्यार के दरम्यां परिवार, परम्पराएं, सामाजिक, धार्मिक या आर्थिक असमानताएं वगैरह, वगैरह अवरोध रूप में खड़ी होती हैं, लेकिन दो लोगों के मिलन में आत्म-अनात्म का भेद, धरती-अंतरिक्ष की दूरी भी रूकावट बनती है, ऐसा मैंने पहली बार महसूस किया। और उस पर यह ताज्जुब की बात कि ऐसी अजीबों-गरीब रूकावटों के बावजूद सूक्ष्म रूप में पारो के चेत-अचेत में बसा देवदास, साक्षी भाव में पारो के अंग-संग रहकर उसने मिजाज, अहम, दुःख-दर्द, कर्म, कत्र्तव्य और उसके चैगिरदे में मौजूद सभी किरदारों उसके प्रति भाव, इन सब को कैसे अपनी तार्किक बुद्धि से तौलता रहता है। यह महसूसना एक औरत होने के नाते बड़ा सुखकर था मेरे लिए।


कितना जुड़ जाते हैं प्रेम में लोग कि जाकर भी नहंी जाते दिलों से यादों में ही नहीं, आप के अपने वुजूद में ही बस जाते हैं- रगों में लहू की तरह दौड़ते हैं, आप का हिस्सा बन जाते हैं। और फिर एक दिन उदासियों की, निराशा की, मनमें चल रहे अंर्तद्वन्द की धुंध को छिटका देने वाले सूरज हो जाते हैं-ये जाना मैंने ‘पारो’ पढ़कर।


अजीब सी संजीदगी और सोच से भरी, मन के लम्बे गहरे, पेचीदा से रहस्यों को किरदारों के उवदवसवहनम से उभारती, काल्पनिक होकर भी ज़मीनी हकीकतों से जुड़ी, आप के चेत-अचेत पे उस जादुई सी छाप छोड़ती जाती अनोखी यह कहानी। दाद देती हूँ लेखिका की सोच की, उनके मानवीय मन के गहरे विश्लेषण की, तन, मन, आत्मा के हर छोर से रिश्तों के सभी पहलूओं को उधाड़ने की उनकी सहज, सरस क्षमता की।


राय साहब के सामंती, अहंकारी किरदार में उठ रहे मानवीय प्रेम के नर्म भावों को नकारते हुए, अस्वीकृति की देहरी पर सर उठाके खड़े पारो के अहम को, देवदास के मुक्ति की करुण पुकार को सुन, समर्पण में ढलता देखना एक अलौकिक पल था मेरे लिए। इस ेनेचतपेपदह ंइतनचज मदकपदह को महसूस करते हुए मेरे मन में जो भाव हिलोरें ले रहे थे-काश कि कोई ऐसा कैमरा होता जो उन पलों की, तस्वीर खींच सकता।


पारो क्यों न स्वीकार करती राय-साहब के निमंत्रण को, क्योंकि ये पारो ही तो है जिसने उनके घर में एक ही छत के नीचे होकर भी अपने-अपने अवसादों में अलग-थलग पड़े, जी रहे हर रिश्ते को अपने आँचल के समेट लिया था।


माँ और बेटे के बीच युगों से भी लम्बी दूरी खत्म की, मासूम सी कच्ची उम्र में ब्याह दी गई कंचन, जो कभी अपने माँ-बाप का स्नेह न पा सकी, उसे पिता के दुलार से बाँध दिया, मेहन जो अन्दर ही अन्दर मर-मर के जी रहा या, अपनी झूठी मुस्कानों तले पहाड़ सा दर्द दबाए, उस के मन का दर्द मिटा के उस में फिर से जीने की आस जगाई, माँ का भरपूर वात्सल्य लुटा दिया बच्चों पर, लीलावती को यह दिलासा दे दिया कि हवेली की भुरी भुरी दीवारों को उन का सम्बल मिल गया है। अगर पारो हर किसी को बदल रही थी तो फिर उसके अपने बदलने में भी क्या ही दिक्कत थी? यह समर्पण पारो को मेरी नज़र में और ऊँचा कर गया। क्यों हम ये समझते हैं कि प्यार में पड़ी औरत, अपना कत्र्तव्य नहीं निभा सकती? वो आयाम दे दिया है पारो ने औरत को जिसकी हकदार हर औरत है।


ये सच है मेरी साहित्य की जानकारी कम है लेकिन फिर भी अधिकतर प्यार में नाकाम औरत को भटकते ही पाया है मैंने, अधूरी सी, प्यासी रहे भी कितनों का आश्रय-स्थल बन कर, स्वयं को अंन्ततः एक रिश्ते पर समर्पण भाव से न्योछावर कर दे- यह रंग, यकीन जानिए ‘परो उत्तर कथा’ का बाकी सब रंगों को धूसर कर, मेरे मन पे एक रंगीन सा खिला हुआ


इन्द्रधनुष बन के पसर गया।



मिनाक्षी मेनन


-होशियापुर, मो. 9417477999


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