आलेख

 


साहित्य क्या हाशिये पर?


अभी हाल ही में कहानी में ये नहीं होना चाहिये या वो क्यों है, इस पर लम्बी बहस पढ़ी! सबसे उत्तम उन कई 
विद्वानों की सूझबूझ है, जिन्होंने उदाहरणों सहित अपने उस मत की पुष्टि की। मैं भी चार दशकों से कथा क्षेत्र में सक्रिय हूं! धर्मयुग, सा. हिन्दु. सारिका, नवनीत कादम्बनी, आऊटलुक, इंडिया टुडे के अतिरिक्त रविवार, हंस नई 
धारा, पाखी, अभिनव इसरोज से होते हुए अब भी लिख रही हूं। लिखेंगे तो प्रकाशक से भी रूबरू होना ही पड़ेगा! खैर मात्र इत्तफाक ही है कि मेरे 18 कहानी, संग्रह व 18 उपन्यास कई प्रकाशकों ने छापे हैं।


लेकिन इधर रचनाओं के प्रकाशन संबंध में बड़े प्रकाशकों से भी एक यह उत्तर मिला। ‘‘मैडम अब साहित्य कौन पढ़ता है? हमें छापने में बहुत श्रम करना पड़ता है। दूसरे जो हमें ग्रांट मिलती थी, वो भी बन्द हो गई है। अब हमें तो जो नई पीढ़ी पैसे देती है, तो हम उन्हें छापने पर बाध्य है! वैसे आपसे वरिष्ठ लोगो की तो हमें भी तलाश होती ही है। वैसे साहित्य अब कौन-कौन पढ़ता है?’’ उनका यह कथन मन में प्रसन्नता व खिन्नता दोनों ही भर गया। अन्यथा कुछ समय पूर्व एक प्रसिद्ध पत्रिका की सम्पादिका ने ताव से कहा। ‘‘कृष्णाजी आप बहुत छप गई, हम आपको नहीं छापेंगे।’’ लेखन भी क्या युवा व बूढ़ा होता है? इसी संदर्भ में लेखन में अश्लीलता व शीलता का प्रश्न उभरा है। यथार्थ हो, यथार्थ कडुआ हो सकता है, पर जरूरी नहीं कि वो यदि अश्लील न हुआ तो वह यथार्थ ही नहीं।



युग में परिवर्तन तो स्वाभाविक है। टी.एस. इलियट का यह कथन सत्य है, ‘कि पेड़ के पुराने पत्ते झड़ते हैं, तो नये आते ही हैं!’ यह भी सच है, लेकिन यदि नये पत्तों में कीड़े लगे हो तो क्या हम उन्हे निकालेंगे नहीं? नये पत्ते पुरानों से बेहतर है, तो उनका स्वागत होना चाहिए। यदि वे पुराने से खराब है, तो कृपया खाद पानी पर ध्यान दें, उन्हें अच्छा बनायें और ये स्वीकारें कि पुराने भी अच्छे हरे-भरे थे।



एक पुरानी परिभाषा है कि साहित्य समाज का दर्पण है। किसी तथ्य तक पहुंचने हेतु हमें पुराने वे नये में भेदभाव नहीं करें, न अतीत के गौरव को नकारें। तुलसी, कालीदास के पक्ष की दुहाई दे स्वयं के नकारात्मक प्रारूप को श्रेष्ठ करार करने का भी दुस्साहस क्यों?


युगोनुसार परम्पराओं का अपना महत्व है। जब मैं स्वयं स्वातंज्र्यातर कहानी पर पी.एच.डी. कर रही थी, उस समय जैनेन्द्रजी ने मुझसे पूछा था कि तुम भी नामवर की तरह परम्परा को नकारोगी? मैं एक साधारण लेखक थी। शांत स्वर में मेरा उत्तर था। ‘‘जब कपास का बीज बनेगा और लगेगा तब तो  कपास होगा तो ही सूत बनेगा, सूत होगा तो कपड़ा बनेगा’’, वे हंसे बेहद स्नेह से कंधे पर हाथ रखा ‘‘खूब लिखो खुश रहो।’’


माँ-बाप होंगे तो ही संतान होगी, सभी में कुछ न कुछ कमियां होती हैं, लेकिन कुछ अभावों से उसकी योग्यता का आकलन करना ठीक नहीं होता। सम्पूर्ण योग्यता ही कसौटी होती है। यदि अतीत सुन्दर, सत्य है तो उससे युवाओं को कुछ सीखना चाहिए। उसकी त्रुटियो को हाईलाइट करना बेमानी है। वर्तमान साहित्य की परिभाषाओं में ढेरों विचार हैं, पर सुदृढ़ता सकारात्मकता की परिभाषाएं ही नहीं है। प्रत्येक देश की सभ्यता व संस्कृति एवं साहित्य की अपनी परम्परा व इतिहास होता है। इसलिये अपनी संस्कृति छोड़ दूसरों से प्रभावित होना हमारी मानसिक कमज़ोरी है। हमारे यहां कुमारसंभव का उदाहरण दे अश्लीलता का सहारा लिया जाता है, पर शिव-पार्वती ने अद्र्धानारेश्वर रूप सार्थक किया वो उनकी कामलीलाएं गुप्त - वास में थी, ताकि वे एक सुन्दर स्वस्थ बालक उत्पन्न कर राक्षसों से मुक्त हों। उसमें उद्देश्य है, कोई परिस्थिति है इन दोनों कसौटी पर ही रचना कसी जाती है! यदि लिखने का कोई अर्थ नहीं, कोई उद्देश्य नहीं तो विवरण तो आलेख में भी होता ही है।


अब तक साहित्य में वृत्तियों के शमन एवं उनके उदात्तिकरण पर बहस होती रही। अब यौन विवरण के सुनहरे पिंजरे में साहित्य रूपी पक्षी को कैद करने की मनोवृत्ति बढ़ रही हैं। यथार्थ के नाम पर बेहूदी घटनाएं चित्रित करना साहित्य की सोद्देश्यपूर्णता पर जोरदार आघात है, उसे तहस-नहस करना है। 


आधुनिकता का अर्थ रूढ़ियों व सड़ी गली रीति रस्मों को तोड़ना है न कि आधुनिकता को नग्नता का वस्त्र पहनाना है। 
तुलसी ने सीता को वाटिका में राम की प्रतीक्षा में यह कहना कि, “का वर्षा जब कृषि सुखानी” एक महिला की चाहत है जो प्राकृतिक है! पैंट खोल असभ्यता को आमंत्रित करना नहीं। ऐसी फूहड़ परिभाषाएं व तुलना समाज व साहित्य को नष्ट करती है। राजेन्द्र यादव में व्यक्तिगत कुछ दोष थे। कुछ लेखकों को उन्होंने नहीं छापा तो क्या लेखक जो नहीं छपे तो उन्हें तो खुश होना चाहिए कि वे एक खराब पत्रिका में नहीं छपे। उन महिलाओं व पुरुषों का क्या जो छपने के लिये सम्पादकों के आसपास जी हजूरी करते हैं व करते थे।


कामुकता व अश्लीलता में बारीक रेखा है, जो उन्हें विभाजित करती है। काम वासना तो प्राकृतिक है, पर अश्लीलता नग्नता है। वैसे भी नारी विमर्श भी दुचिता, मानसिकता पर आधारित है। आज विज्ञान के समय में चांद के बारे में हम जब जानते हैं, पर आज की लड़कियां सजी-धजी, आडम्बर में फंसी चांद को देख व्रत खोलती है, ये जड़ता है, आडम्बर है, अच्छे वस्त्र पहन फोटो छपवाओ, यह शौक, दिखावा है। एक ओर नारी हवा में उड़ रही है, दूसरी ओर घर को तोड़फोड़ कर वृद्धों को छोड़, अकेले रहने के लिये झगड़ा करती है। आपसी ईष्र्या में व्यस्त है।


किसी ने कहा है नारी में पुरुषोचित गुण अच्छे नहीं लगते पर आये दिन ढंके मुंह, पुरुषों के साथ मोटरसाईकल में छोटा सा पैंट पहने नग्न हो घूमना, पार्कों की बैंच पर लपटना, झपटना क्या मित्रता है? युवा होने का यह अर्थ नहीं कि आप उच्छृखल हो जायें। खंडहरों व सूने टूटे-फूटे मकानों में कामवासना पूरी करना, क्या आधुनिकता है? कौन सा उद्देश्य आप सिगरेट व वाइन में डूब पूरा कर रही हैं? 


भौतिकवादिता में लपटी कुछ लड़कियां अमीरजादों के साथ डिनर खाती है, तो क्या यही मित्रता है? या दुष्कर्म को मौका देने का आमंत्रण है? क्या यही लेखन में लाने से साहित्य निम्न स्तर पर नहीं जा रहा है। मानते हैं कि यह मसला अलग है, पर यह निश्चित है कि अश्लील वातावरण देख, पढ़कर ही युवा व छोटे लड़के तक इस आदत में फंस रहे हैं। ऐसे में साहित्य में भी नग्नता परोसने की क्यों बाध्यता है? हम से पहले की पीढ़ी जैसे कृष्णा सोबती जी की आवाज थी। ‘‘स्त्री-पुरुष की भांति एक हाड़ मांस रक्त की बनी प्राणी का है, उसे पुरुष के समकक्ष अधिकार देना चाहिए, ‘ज़िन्दगीनामा’ सी श्रेष्ठ कृति उपन्यास की रचयिता ने सूरजमुखी उपन्यास में खुला लिखा! पर वो प्रतीकात्मक है! इस पर भी वे कटु आलोचना की शिकार बनी ‘चित कोबरा’ की लेखिका ने कूठगुलाब जैसी रचना लिखी, आप अच्छाई पकड़ें, तब बुराई को न पकडे़ं तब यह न कहें कि हम भी बुराई ही अपनायेंगे? कचरा लिखकर कोई भी श्रेष्ठ नहीं हो सकता। स्वात्रयोत्तर मायनों में प्रेमचंद के बाद के नये कहानिकारों ने स्त्री को दोयम दर्जा देकर उसका भोग्या रूप ही अधिक प्रस्तुत किया व उसकी अस्मिता की खिल्ली उड़ाई, इसलिये सोबती जी ने नारी अस्मिता के प्रत्येक क्षेत्र को चुना उसे पुरुष के समकक्ष माना कि वो भी यदा-कदा शील तोड़ सकती है, जैसा कि ‘सूरजमुखी’ अंधेरे में है।


ऋग्वेद व पुराण में कहानी के बीज है, पर मात्र उन्हीं का आज की कहानी में उदाहरण देना अनुचित है, क्योंकि प्रत्येक युग में युगानुकूल भावनाएं ही कहानी में रहीं। बैताल पच्चीसी के उदाहरण दे आज के युग की रचनात्मकता को नहीं तौला जा सकता। यह वैज्ञानिक युग है। जहाँ कल्पना से काम नहीं चलेगा। 


प्रेमचंद ने अपने समय की नब्ज पर हाथ रख बहुमुखी साहित्य की रचना की है यथार्थ की कसौटी पर कसा है। पूर्व में कहानियों में वातावरण प्रेमचंद ने ज़मींदार प्रथा पर प्रहार किया था। अब वातावरण सूक्ष्म है, कहानी में मनोविज्ञान ने प्रवेश पा लिया है। जिसका उत्तम उदाहरण अज्ञेय की ‘शेखर एक जीवनी’ है। कुछ अश्लील चित्र है, पर वहाँ भी नैतिकता का पतन नहीं है।


द्वितीय युद्ध के बाद मध्य वर्ग की लाचारी, कुंठा, घुटन पर लेखक ने ध्यान केन्द्रित किया। कहानी दुनिया में बहुचर्चित 
विधा है, क्योंकि मानव के बौद्धिक विकास के साथ कहानी में भी बौद्धिक संवेदना को पकड़ने की सूक्ष्मता व क्षमता आई। जैनेन्द्र तक पहुंचते ही कहानी में मन, चेतन, अव्यक्त चेतन का भी ध्यान रखा गया। वर्तमान युग संघर्ष, व्यस्तता, पीड़ित व्यक्ति व भ्रष्टाचार, राजनैतिक घालमेल का है। व्यक्ति राष्ट्रीयता से अधिक व्यक्ति - हित में खुश है! इसीलिये कहानी में भी व्यक्तिवादिता प्रवेश करने लगी। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सोच, अपना मत महत्वपूर्ण लगता है, इसलिये कहानी व कथा को भी मनमाने ढंग से परिभाषित किया जा रहा है, जिससे कहानी हितकारी नहीं रही कथा व उसका प्रारूप गुम व व्यक्तिगत धारणाओं का विवरण अधिक है, लेकिन कहानी के कथ्य व कथनों में अन्तर भले ही आया हो, पर साहित्य को निरुद्देश्य लिखकर अर्थहीन साहित्य रचना बर्बादी ही है। साहित्य को मात्र मनोरंजन या छपने हेतु गढ़ना सामाजिकता पर गहरा कुठाराघात है। एक शाश्वत सत्य है कि कहानी को मानवमूल्यों व मानवता से अलग से अलग कर उसे बेमानी बनाना गलत है, उसे बेहद आनंदमय, मनोरंजक रूप में अभिव्यक्त करना अनुचित प्रथा प्रारम्भ करना है। जिसके कारण साहित्य हाशिये पर जा रहा है? पाठक मोबाइल पढ़ता है वो गंभीर सत्य से तो अपरिचित है। यदि पाठक पढ़ेगा नहीं तो साहित्य तो हाशिये पर ही जाएगा ना। 


भारत का राजनैतिक परिवेश उलझा, एकदम नया व धर्म के वाद-विवादों में भी आज विषयों की कमी नहीं है, तो भी केवल विशेष सैक्स संबंध व संदर्भ चुनना क्या उचित है? आम आदमी भ्रमित है कि वो किस पर विश्वास करे। भारत की भारी जनसंख्या आज, असुरक्षित में डूबी है। ऐसी ढेरांे विषमताएं हमारे समाज में व्याप्त है हीं उन्हीं में से एक समस्या युवाओं की है, जो अपने भौतिक विकास के पश्चात न साहित्य की गरिमा समझते हैं, ना ही साहित्य के प्रभाव का ज्ञान है। । मोबाइल, नशे व सेक्स ही को जीवन मानते हैं। छात्रों पर पाश्चात्य शैली, सभ्यता व कला का गहरा प्रभाव है। नृत्य का स्थान सर्कस ने ले लिया है। छोटी-छोटी बच्चियाँ प्रेमगीत व प्रेम नाटिकाओं में व्यस्त हो दूरदर्शन के कार्यक्रमों में दिखती हैं। उन्हें वस्त्रों से आडम्बर व दिखावा एवं प्रदर्शन आता है। 


उम्र से पूर्व की उनकी परिपक्वता समाज के लिये हितकारी नहीं। उस पर वे शरीर से ही जुड़ी कहानियों को पढ़ कर क्या सीखेंगे? आडम्बर फैशन व हाईफाय ने अपनी जहरीली गैस इतनी फैला दी कि होटलों, मॉलों व पब में भारी भीड़ है, पर चार मित्र ढंग से नहीं मिलते। धर्म की आड़ में बाबाओं ने भी चिमटा बजाकर भ्रष्टाचार का अलख जगा दिया। दुष्कर्म, हवाला, यहां तक कि मानव तस्करी का प्रेत डटकर हमें डरा रहा है। ऐसे वातावरण में देह का खुला विवरण हमारा संरक्षक व मार्गदर्शक हो सकता है क्या ? अपने से वरिष्ठ साहित्यकारों की एक कहानी भी व न पढ़ पूर्वाग्रह के दृष्टिकोण से उनका मूल्यांकन करना उचित नहीं। उन्होंने ठोस साहित्य प्रस्तुत किया है। मैत्रयी पुष्पा को उनकी गहरी भाषा की सघनता व अभिव्यक्ति के कारण प्रशंसा मिली है। कुछ बोल्डनैस हेतु उन्हें आरोपित करना अन्याय है।


मेरी पीढ़ी की लेखिकाओं ने लेखन के क्षेत्र को पुख्ता लेखन दिया है। उनकी आत्मकथाएं पुरुषों की आत्मकथा से 
अधिक कठोर सत्य की नींव पर खड़ी है। यहां भी व्यक्ति भोग, सत्य निर्भीक खड़ा है, क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं जो भोगता है वो दूसरा तो नहीं भोगता। शारीरिक शोषण यदि अत्याचार है, तो उस अन्याय पर रौशनी डालें। कामवासना को जगाना लेखक के लिये उचित नहीं। ऐसी बेहूदी स्थितियों को साहित्य में उजागर करना न्याय नहीं। हां अन्याय की कथा को चित्रित करना तो प्रभावशाली है। वर्तमान लेखिकाएं आपसी स्पर्धा, वरिष्ठ लेखिकाओं से दूरी बना यदि स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने हेतु अनाप-शनाप लिखती हैं, तो वे छप तो जायेंगी पर साहित्य का इतिहास उन्हें क्षमा नहीं करेगा! सुधि पाठक भी गरजेगा। इतिहास जानता है कि स्त्री-सौंदर्य युद्धों का कारण बना और यदि द्रौपदी ने जेठ को यह न कहा होता कि अंधे की संतान अंधी होती है, तो महाभारत की पृष्ठभूमि न तैयार होती। गलत बयानी, गलत सोच, मनमाना लेखन युगों तक अवहेलित ही रहेगा।


इतिहास व धार्मिक संत जैसे कवियों की वाणी न सीख उन्हें “का वर्षा जब कृषि सुधानी’’ जैसी उत्तम पंक्तियों हेतु घसीटना न विवेक है न अक्ल है। सीता का यह सोचना कि यदि वे चली जायेगी, तब राम वाटिका में प्रवेश करते हैं तो वे दर्शनलाभ से वंचित रह जायेंगी। इतने सुन्दर शब्दों को तोड़ मरोड़ दिया। ये भी बात ऐसी है कि -


‘‘जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन जैसी।”


आज की युवा लड़की सामने बाल बिखरा सजी-धजी या उल्टे-सीधे वस्त्रों में जब निकलती है, तो स्वयं को किसी हीरोइन से कम नहीं समझती, उसकी आंखों में भाव रहता है- देखो मैं कितनी आकर्षक हूं। यह प्रभाव फिल्मों व दूरदर्शन सीरियलों का है। जब समाज में आकर्षण व सैक्स का ही वातावरण सांसे ले रहा हो व साहित्य में भी वही लिखा जाये तो दर्शक व पाठक पढ़ेगा व समझेगा क्या? बहुधा बाहर के आये युवाओं के मत व विचार साहित्य संदर्भ में पढ़ने में आते हैं, पर वे उथले व वास्तविकता से दूर होते हैं, उनके वक्तव्य से ही लगने लगता है व प्रश्न उभरता है कि क्या साहित्य हाशिये पर जा रहा है? 


गंभीरता व सूक्ष्मता का साहित्य में पूरा अभाव है। ज़िन्दगी उथला जल नहीं वो सागर है। उसकी थाह में अनेक पत्थर तो अनेक सीपियां भी हैं। यह आप पर निर्भर होता है कि आप क्या समझेंगे क्या चुनेंगे। यदि सीप ही नहीं पहचानते तो उसकी गलत फोटो को ही भ्रम में सीप समझेंगे। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य को समाज का दर्पण कहा, पर उन्होंने वास्तविक परिस्थितियों पर कमेंट किया है, यह नहीं कहा कि समाज की नग्नता ही उघारो। दर्पण की सीमा में जो सामने रखोगे तो वही दिखेगा। कुरूपता रखोगे तो वो दिखेगी सौन्दर्य रखोगे तो वो चमकेगा, इसीलिये जरूरी यह नहीं कि कुरूपता ही दिखाओ ढूंढ-ढूंढ कर अश्लीलता सामने रखो व लिखो। सोचना यही है कि क्या दिखाने से व्यक्ति अच्छा मानव बनेगा? या क्या दिखने से वो राक्षस बनेगा।


लेडीचटरली या लौलीता या खुजराहो आदि को ही मात्र देखोगे, पढ़ोगे तो साहित्य कैसे समझोगे? वर्तमान में अपराध व दुष्कर्मों की संख्या बढ़ रही है, और दुष्कर्म को बुरा कहने वाले भी बहुत हैं। तो क्या आप इस युग को दुष्कर्म युग कहंेगे? यदि हम पागल को नग्न देखेंगे तो करुणा से भर जायेंगे। पर वहीं कोई उससे दुष्कर्म करेगा तो हम क्रोध व 
घृणा से ही भर जायेंगे। 


वर्तमान का सत्य मानव मूल्यों व मानवीयता से नहीं अपितु भ्रष्टाचार बाजारवाद में रमा है। यदि पागल नग्न घूमता है, तो समाज का कर्तव्य है कि उसे कपड़े दे चाहे जैसे भी हो, पर यदि उसके अगों पर कुछ लिख, विवरण कर उसे साहित्य कहा जाये तो वो अपाच्य होगा। मानव तस्करी, स्त्री का दुरुपयोग, पत्नी छोड़ अन्य स्त्रियों के साथ लाखों खर्च कर मनोरंजन को भी अपराध न कहें और उन्हें ही हायलाइट करें, तो क्या होगा?  ऐसा साहित्य क्या हमारे मन व मस्तिष्क में कुछ अच्छाई बोता है। बच्चे को जन्म से हम जो मानवता का पाठ पढ़ाते हैं, उसमें संस्कार उभारते हैं, वो क्या गलत है? अन्यथा आजकल बच्चे जो मोबाइल से कुरूपता ग्रहण कर रहे है, उसे पर क्या चेतना मुहर लगाई जाए? ऐसी ही स्थितियों में बुद्धि भ्रमित होती है और भ्रमित बुद्धि से जो साहित्य सृजन होगा, वह उद्देश्य रहित हो शनैः शनैः विघटित होने लगेगा। गंदगी हावी होगी और वास्तविक साहित्य नकारा ही जायेगा एवं हाशिये पर चला ही जाएगा। कहानी में पात्र हों, घटना के प्रस्तुतिकरण, क्रियाओं का उल्लेख ऐसा हो कि उनसे कुछ अर्थ निकले तो कहानी बनेगी। नये कलाकार को पूरा अधिकार है कि वो रूढ़ियां तोड़े नये पैटर्न को अपनाये पर उसका उद्देश्य समाज हित में ही हो। आज भी अज्ञेय की ‘‘रोज’’ चन्द्रगुप्त विद्यालंकर की ‘कामकाज’ ‘प्रेमचंद की कफन’, कृष्णा अग्निहोत्री, की ‘जमीन न मिल सकी’ जैसी रचनाएं वर्तमान में कम ही हैं। आज भी यंत्रचालित एकरसता. घुटन, पीड़ा है, पर उस पर नई पीढ़ी का ध्यान नहीं, ऐसे में मानवीयता विघटित होती ही है। उसका विघटन गंदगी को आमंत्रण करने का बिगुल है। भाग्यवादिता की कहानियां फीकी पड़ने लगी है। पात्रों की विश्वासनियता पर प्रश्नचिन्ह है। यदि वातानुकूल कमरे में बैठ रचनाएं नहीं बनती तो पब व मस्ती साज से रचना नहीं संवरती। अब तक कहानी पर गुट का प्रभाव नहीं था, न दल का यथार्थ की समझ में वह प्रशंसनीय है। मनुष्य के भीतर-बाहर के फफोले कहानी दिखाती है, ताकि उनका उपचार भी हो सके।


गुल की बनो (भारती) ‘तीसरी कसम’ (रेणु), खोई दिशाए.(कमलेश्वर) परिन्दे (निर्मल वर्मा) चीफ की दावत (भीष्म साहनी,) जिन्दगी और जोंक, डिप्टी कल्कटरी अमरकांत, वहमर्द थी (नरेश मेहता), वापसी (ऊषा प्रियवदा) यारों के यार (कृष्णा सोबती)  वह अकेला (राजेन्द्र अवस्थी) आदिवासी कहानियों में मानवता  
स्मरणीय है। बिहारी ने नायिका वर्णन में यदा-कदा अधिक श्रृंगार व्यक्त किया है। जो श्रृंगार व्यक्त किया है वह रस न होकर
अधिक खुलापन लिये है, पर वो नायिका वर्णन में युग की महिमा थी जिसे पंत, निराला, महादेवी आदि ने तोड़ा। यदि खुलेपन को ही साहित्य कहते हैं,तो अब सबको गुप्त कार्य भी दरवाजे खोलकर करना चाहिये, क्योंकि आप प्रकृतिदत्त आचरण कर रहे हैं।


नग्नता, अश्लीलता व कामवासना में एक बारीक सी रेखा होती है। जो उसे साहित्य में पठनीय या अपठनिय बनाती है। इस तथ्य को व्यक्ति स्वयं अपनी सूझ बुझ से समझता है। गालियां तो सभ्य व्यक्ति भी उपयोग करते हैं। कभी कभी हम स्वयं अपने बच्चे को उल्लू का पट्ठा कह देते हैं इन सब गलियों व शब्दों का अर्थ परिस्थिति अनुसार ही तय किया जा सकता है की यह यथार्थ है, या मर्यादारहित। यदि ऐसा नहीं है तो हमें यह निश्चित करना पड़ेगा कि ऐसे यथार्थ और आदर्श को क्या हम युग का वरदान या विकास कह सकते हैं? इस बहस का अंत नहीं है, पर यह सत्य है कि लेखन में जो प्रविती मानवता , संस्कार, सभ्यता व राष्ट्रनिर्माण में बाधक है वो हमे मान्य नहीं होगी। ना ही वह विकास है ना ही वरदान।


मेरे माँ व पिता ने कामशास्त्र की एक प्रति तिजोरी में छुपा दी थी। यहां तक कि नागिने व चंद्रकांता भी छुपी हुई थी। उस काल में माँ, माँ होती थी, पिता-पिता, जिन पवित्र रिश्तों को मान्य माना गया उनको तार-तार कर हंसना कि हमने तो बड़ा कमाल कर दिया, चर्चा में आ गये! बेहद हास्यापद है। मैं इस संदर्भ में ‘हंस’ में ‘विश्वासघात’ सीरियल छपने की कथा बताती हूँ। राजेन्द्रजी ने मुझे बीस कहानियों की वापसी के बाद ‘अपने-अपने कुरूक्षेत्र’ से छापना प्रारम्भ किया। उसी बीच मुझे उन्होंने फोन करके कहा ‘‘पूरे भारत में तुमने ही ‘विश्वासघात’ पर लिख सकती हो! जूते तो पड़ेंगे पर इसके बाद तुम्हें कोई भूलेगा नहीं। मैं ठहरी खंडबाई कन्या! जिन्होंने भी मेरे साथ ‘विश्वासघात’ किया उन पर सत्यता से लिख डाला बस हो गया आरोपों का सिलसिला प्रारम्भ। यद्यपि एक अन्य पत्रकार बंधु ने। अश्लील ही लिखा। मैंने सत्य लिखा तो भी दबे पाँव मुझे आरोपित करने में कुछ लोग पीछे नहीं रहे। मैंने राजेन्द्रजी से कह दिया ‘‘अब मैं ऐसा नहीं लिखूगी जो समाज में अच्छा इम्प्रेशन न डाले। क्या मजाल कि किसी भी कहानी में मेरा कोई उद्देश्य न हो। तब से अर्थ पूर्ण लिख अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाती बराबर हंस में भी छपती रही। यहाँ तक कि राजेन्द्र जी मुझे मान से मित्र पुकारने लगे, व कहा बुलडोजर बनी रहो।’’ हम लेखक हैं। हम पर संवाद को अश्लीन छापने का दोष है, स्वयं का छुटकारा पा लेना ठीक नहीं। वे छापते हैं तो लेखकों की मनःस्थिति स्पष्ट होता है और चर्चा भी हो सकती है। 


आज अच्छे विद्वानों को ढूंढना पड़ेगा। अब कहानी में छुपा युगबोध व शिल्पविधान खो रहा है। आज भी विषयगत प्रचुरता है, तब भी हम खजूर ही में अटके हैं शिल्प की नवीनता तो समय ने बांध दी है। स्त्री-पुरुष के यौन संबंधों को लेकर दुनिया भर के मतों को कहानी ने तोड़ा है। वह भी साहस से इसकी आत्मीयता को समझा है। नारी-पुरुष की पीड़ाएं, विकास सब पर ध्यान है। सामाजिकता की रचना चेतना भी भरपूर है। व्यक्ति की पीड़ा को सामाजिक पीड़ा में देखा है। अब तक आतंक, भय भी नहीं छूटा, काम, सैक्स भी नहीं छूटे (लवर्स) निर्मल वर्मा । प्रेम पर हृदयस्पर्शी कहानियां हैं। अब तो वे युवा जो प्रेम को मात्र सैक्स समझते हैं, वे ही प्रेम की कहानियां लिख रहे हैं। अब तो लड़की बहन, बेटी, दीदी, भाभी मित्र रही ही नहीं। रिश्तों को तार-तार करने वाली कथाएं वे किस उद्देश्य से लिख रहे हैं? प्यार एक कोमल भाव है। उसे बचकाने ढंग से तौलना परोसना ईमानदारी नहीं। लक्ष्मी सागर वाष्र्णेय कहते हैं कि कहानियों में सैक्स के छिछले से छिछले स्तर को लाना अनुचित स्त्री-पुरुष के संबंधों के परिवर्तन में जो दुरूहता आ रही है, उस पर किसी का ध्यान नहीं, इसीलिये यदि विचार नहीं, उद्देश्य नहीं, मानवीयता नहीं, संस्कृति सभ्यता रिश्ते नहीं, तो ऐसे असामाजिकता से भरा हुआ साहित्य तो हाशिये पर ही जायेगा, जो किसी भी युग का श्राप हो सकता है, वरदान नहीं।


प्रत्येक व्यक्ति का अपना चिंतन प्रतिभा व विचार होता है। अपराधी, अपराध करने को ही श्रेष्ठ मानता है, शराबी शराब पीना लाभदायक मानता है, तो क्या अपराधों को अच्छा कहेंगे? या नहीं। इसी तरह ऐसी धारणाएं, कार्य साहित्य की बढ़त को तो रोकेंगे जो अमानवीय। एवं समाज के हित में न हो। लेखक जो समाज को उसका चेहरा दिखा उससे उसके धुंधलेपन को मिटाने का आवाहन करता है, वहीं आज गुटबाजी, अवार्ड प्राप्ति की होड़ व बाजारवाद एवं भौतिकवाद में फंस रहा है। जब कोई भी व्यक्ति युग की बुराईयों में लपट जाता है, तो उसकी बुराइयों को साहित्यकार ने व्यक्त करके स्वयं अपनी प्रतिष्ठा खो दी, उस पर यदि वो सस्ता साहित्य रचेगा तो उसे कौन पढ़ेगा। पढ़ने के लिये रचना का समय से जुड़ाव, समय के सत्य-असत्य से भी परिचय अनिवार्य है अन्यथा भूल भुलैया में घूमता सत्य विस्फोटक बन समय युवा पीढ़ी को नष्ट कर देगा। अब सोचे आप कि क्या नग्न नृत्य को आप तांडव कहना चाहेंगे? नहीं, क्योंकि दोनों में कार्य व कारण में भेद है। इसी प्रकार प्रत्येक युग की स्थितियाँ व युग बोध अलग होता है पर जीवन का सत्य एक ही होता है, जो मानव मूल्यों से जुड़ा होता है। कथा में जो प्रकृतियाँ स्थितियाँ चाहे नकारात्मक हो या सकारात्मक हों वे भी सफल हैं जो कहानी में अर्थवत्ता एवं सोदेश्यपूर्ण है। वे ही चेतनशील भावनाएँ जो रूढियाँ तोड़ती है। विकास की राहें अवरुद्ध नहीं करती है कथा को उदेश्यपूर्ण बनाती है। सच है हमारा युग एजुकेशन हब, ऊँचे-ऊँचे माॅल व नये मूल्यों को ढूंढने का है। बाजारबाद भौतिकवाद आडम्बर, शारीरिक क्रियाओं की सीमा समझ उन्हें उपयोगी बनाने का समय भी है। इन सब लड़ाईयों से लड़ने के लिये मात्र बंदूक नहीं हमें कलम भी अनिवार्यता है जिससे ऐसे पात्रों का सृजन हो जो अराजकता, साम्प्रदायिकता अव्यवस्था के संकट ऐसे लिखे जायें कि कथा इन विभीषिकाओं की हानि प्रभाव शाली ढंग से व्यक्त करे। अन्यथा भ्रष्टाचार गुरुवाणी व्याप्तने का अप्रतिष्ठित करेगी और लेखन उससे प्रभावित होगा। कहानी में भाषा का खेल विचारों की गलत बयानी गलत परंपरा डाल उसे हाशीये पर जाने पर बाध्य करेगा। युवा लेखक डैशींग, बुद्धिमान एवं तेज है बस उसे सही सोच, निर्णय से साहित्य को साहित्य रखने की चेष्ट करनी है। 


प्रत्येक युग का बोध अलग होता है। जीवन सत्य एक ही है जो मानव मूल्यों से जुड़ा है। कथा में चाहे सकरात्मक स्थितियां हों या नकारात्मक लेकिन सफल वही कथा है जिसमें चेतनशील भावनाएं व सोदेश्यता हो। कथा रूढियां तोड़ बुराइयों से परहेज सिखाती हो। ऐसी कहानी हो जो विकास को अवरुद्ध नहीं करती। वर्तमान युग एजुकेशन हब, ऊँचे-ऊँचे माॅल से भी नये कीमती मूल्य चुनने का है। बाजारबाद, भौतिकवाद, भ्रष्टाचार के अवसादों को समझ उससे आशा की बातों को समझाने का है। ये लड़ाई बंदूक से नहीं अपितु कलम की ताकत से लड़ी जा  सकती है। समय की विभीषिकाओं को ही युग-बोध न बना उन्हें दूर करने की योजनाएं बनाने का है। ऐसी सस्ती नैचुरल भावनाएं न केवल साहित्य को अप्रतिष्ठित करेंगी अपितु वे साहित्यकार को भी अप्रतिष्ठित करेंगी। गलत बयानी विवेकहीन विचारधारा युग चेतना को भ्रमित करेंगी। युवा डैशिंग है, बुद्धिमान है बस अपने सोच को दिशा दे सही जीवन दृष्टि समझना ही उसे लाभ देगा। साहित्य जागरण मंत्र हैं न कि मृत्यु दंड: साहित्य राष्ट्रनिर्माण करता है उसे हवस नहीं करता। 


साहित्य में एक जागरण मंत्र होना चाहिए- न पैसा न कुर्सी, लेखन हो पुख्ता / लेखन में हो मानवीयता/ राष्ट्र बनाये सच्चा / तब ही साहित्य हाशिये पर जाने से रूकेगा।    


         


-इंदौर, मो. 9826065118


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