आत्मकथ्य


राजेन्द्र नागदेव, भोपाल, मो. 8989569036


 


मेरे अंदर खण्डहरों की आत्मा बसती है


मुझे अब तक स्मरण है माँ बचपन में बताती थी मुझे मिट्टी से समेटा गया था। हाँ, मैं लगभग मिट्टी हो चुका था। किसी तरह बच गया था। उस गंभीर बिमारी के चिन्ह अब तक मेरी देह पर हैं। बाईं कनपटी पर दाग है सपाट और चिकना जो संभवतः मिट्टी में मिलने तक वैसा ही रहेगा उसी मिट्टी में जिससे मुझे सत्तर साल पहले किसी तरह समेट लिया गया था। मैं शारीरिक रूप से निशक्त हो गया था। उससे पूर्णरुपेण शायद अब तक उबर नहीं पाया हूँ। हाँ, उस घटना का दूसरा पक्ष भी है। परिवार में सबसे अधिक स्नेह मुझे ही मिला।
वे दिन परिवार के लिये बहुत खराब थे। उन्हीं दिनों में से किसी एक दिन मैं शेख मोहम्मद या असगर हुसैन होने से बाल-बाल बचा। हम उज्जैन में रहते थे जो सत्तर वर्ष पहले छोटा-सा कस्बा था। आज के चमक दमक वाले उज्जैन को देख उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। दो उज्जैन थे, एक पुराना दूसरा नया- फ्रीगंज। दोनों में बहुत अंतर था। एक आड़ी-तिरछी कच्ची सड़कों वाला दूसरा साफसुथरी एकदम सीधी चौड़ी सड़कों वाला। दोनों को नागदा भोपाल के बीच पसरी हुई रेल की पटरियाँ अलग करती थीं और पटरियों पर बना पुल जोड़ता था। अलसाया सा कस्बा था। ताँगे चला करते थे और अधिकतर लोग आवागमन के लिए साइकिलों का प्रयोग करते थे। एक दिन पिताजी साइकिल पर मुझे बिठा कर पुल के उस पार डाॅ. केलकर के दवाखाने ले गए। मुझे वहाँ बिठा कर मोसंबियाँ लेने बाजार चले गए। मैं तीन या चार वर्ष का रहा होऊँगा। कुछ देर में उठ कर चुपचाप दवाखाने से बाहर निकल गया। सही रास्ते पर चला और पुल पर पहुँच गया। वहाँ दो बुर्काधारी स्त्रियों ने मुझे उठा लिया और ले जाने लगीं। पुल पर किस तरफ चलने पर घर आता है यह मुझे मालूम था। वे विपरीत दिशा में ले जाने लगीं तो मैं रोने चीखने लगा। भीड़ जमा हो गई। मुझे उन स्त्रियों से छुड़ा लिया गया। कुछ लोगों ने जो पिताजी से परिचित थे मुझे घर पहुँचाया। उधर पिताजी शहर भर में मुझे ढूँढ़ते रहे कई घंटों तक। उस समय संचार साधन तो नहीं थे कि नम्बर घुमाया और बता दिया कि बच्चा मिल गया है। थकेहारे खाली हाथ जब घर लौटे तो मुझे वहाँ बैठा पाया। सोचता हूँ, उस समय वह छोटा बच्चा पूरे विश्वास के साथ प्रतिरोध नहीं करता तो पता नहीं आज किस मस्जिद में नमाज पढ रहा होता? पता नहीं कहाँ क्या कर रहा होता? अपहरण का वह किस्सा आज भी परिवार में सुनाया जाता है।
पता नहीं उस स्कूल को भूत माट्साब का स्कूल क्यों कहा जाता था। मैं पहली से आठवीं कक्षा तक उसी में पढा। चौथी से आठवीं कक्षा तक हर परीक्षा में प्रथम आता रहा। पाँचवी में पढ़ते समय सुबह-सुबह दौड़ लगाने का सिलसिला आरंभ हुआ। प्रातः चार बजे चार-पाँच दोस्त एकत्र होकर निकल जाते थे। साथ में हमसे बड़े भी कुछ लड़के होते थे। तब उज्जैन का दशहरा मैदान मैदान ही था। विक्रम विश्वविद्यालय भी अस्तित्व में नहीं आया था। हम मैदान में और कोठी रोड पर विलायती इमलियों के वृक्षों की पंक्तियों के बीच दौड़ लगाते कोठी पैलेस तक जाते थे। कोठी पैलेस के बाहर पता नहीं किस जमाने के तोप के कई गोले पड़े थे। उनको उठा कर फेंका करते थे ताकि दुर्बल भुजाएँ बलिष्ठ हों। दशहरा मैदान के मध्य कहीं एक टेकड़ी थी- दमदमे की टेकड़ी, साथ ही छोटा सा तालाब था- दमदमे का तालाब। टेकड़ी पर चढ़ कर उगते हुए सूर्य के बड़े से लाल गोले को देखते थे, तालाब में फूटे घड़ों के ठीकरे पूरी शक्ति के साथ फेंक कर जल की सतह पर उछलते हुए दूसरे किनारे पर उनका जाना देखते थे। बहुत सहज था वह बचपन। आज की तरह पुस्तकों का भार नहीं था। वहाँ से लौट कर स्कूल जाते और बारह बजे तक वापस घर लौट आते थे। दोपहर को फिर तीन-चार दोस्त उसी मैदान में तितलियाँ पकड़ने निकल जाते थे। वहाँ बबूल और शीशम के पेड़ थे, पीले फूलों वाली झाड़ियाँ थी। प्राकृतिक वातावरण था । अब तो वहाँ कालोनियों का जंगल उग आया है। झाड़ियों के बीच भरी दुपहरी तितलियों के पीछे भागते रहते थे। झाड़ियों में भागते-भागते जाने कब मन में कविता का प्रस्फुटन हो गया और ‘वसंत’ पर पहली कविता लिख डाली। वहाँ से कविता लिखने का सिलसिला जो चला तो अबतक चल रहा है। आरंभिक कविताएँ  परम्परानुसार प्राकृतिक सौन्दर्य पर ही थीं। कालांतर में जब प्रकृति के और मानव समाज के भयावह रूपों से सामना हुआ तो कोमल सुंदर कविता जाने कहाँ छूट गई। मुझे नहीं पता अब वह वापस कब आएगी। कविताएँ स्कूल के जलसों में सुनाईं। पसंद की गईं तो उत्साहित होकर और लिखीं। शीघ्र ही मैं और छोटा भाई नरेन्द्र बालकवि के रूप में पहचाने जाने लगे। चित्रकारी करते ही थे। हमारी छबि अपनी उम्र के लड़कों से भिन्न बन गई। यह कालखण्ड वह साँचा था जिसमें मेरा भविष्य  ढल रहा था। आत्मविश्वास जाग रहा था। पढाई के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में रुचि जागृत हो चुकी थी। तीन-चार मित्र थे सब लेखन की ओर प्रवृत्त हो गए थे। सबने उस समय के चलन के अनुसार अपने उपनाम भी रख लिये थे। मैंने उपनाम ‘अनूप’ रखा था। वह चला नहीं, कुछ ही समय में लुप्त हो गया। सातवीं कक्षा तक आते-आते कविता,कहानी, लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। "नई दुनिया", "जागरण" समाचारपत्र और धार से प्रकाशित “उषा” और उज्जैन से “मेघदूत” आदि में रचनाएँ आ रही थीं। स्वतंत्रता प्राप्ति का एक दशक पूरा हो रहा था। नवनिर्माण का दौर था। बांध बन रहे थे। भिलाई, दुर्गापुर आदि स्टील प्लांट बन रहे थे। कुछ उस निर्माण पर कुछ अन्य विषयों पर कविताएँ लिखीं। कहानियाँ और लेखादि भी लिखे। 1957 में प्रथम स्वाधीनता संग्राम का शताब्दी समारोह देश भर में धूमधाम से मनाया जा रहा था। उस अवसर पर आयोजित छात्रों की निबंध प्रतियोगिता में, जिसका विषय ‘ 1857 का गदर सिपाही विद्रोह नहीं भारत का स्वतंत्रता संग्राम था’, मुझे जिले में प्रथम स्थान मिला। उज्जैन के पोलिटेक्निक कालेज में महाविद्यालयीन स्तर तक के छात्रों के लिए वार्षिक स्नेह सम्मेलन के अवसर पर वाद-विवाद प्रतियोगिता होती थी। यह राज्य स्तरीय प्रतियोगिता होती थी। उसमे स्थानीय शिक्षण संस्थाओं के अलावा भोपाल के सेफिया, इन्दौर के क्रिश्चन और गुजराती कालेज आदि के छात्र भी भाग लिया करते थे। हमारे स्कूल का प्रतिनिधित्व मैं और नरेन्द्र किया करते थे। मैं सदा विपक्ष में बोलना ही पसंद करता था। इस प्रतियोगिता में हमने लगातार तीन बार शील्ड प्राप्त की, एक बार अपने मिडिल स्कूल की ओर से और दो बार हाइस्कूल की ओर से और व्यक्तिगत पुरस्कार भी। उससे अगले वर्ष भाग नहीं ले सके क्योंकि अगले ही दिन विज्ञान की प्रायोगिक परीक्षा थी। उस वर्ष शील्ड माधव महाविद्यालय ने जीती। जीवन में कुछ करने के लिए सही परिवेश निर्मित होता जा रहा था।
मैं दो रास्तों पर साथ-साथ चल रहा था। औपचारिक शालेय पढाई के अलावा पुरातत्ववेत्ता डा. विष्णु श्रीधर वाकणकर की कला संस्था ‘भारती कला भवन’ का विद्यार्थी भी था। वह ऐसी संस्था थी जिसमे  किसी भी विद्यार्थी में कुछ विशेष करने की संभावना दिखाई देती तो वाकणकरजी उसे खूब प्रोत्साहित करते और उसका मार्गदर्शन करते थे फिर चाहे वह विज्ञान, साहित्य, रंगकर्म कोई भी क्षेत्र हो। मुझे उनके मार्गदर्शन और प्रेरणा का बहुत लाभ मिला। कलाभवन में मैंने वार्षिक हस्तलिखित पत्रिका का चार वर्ष तक संपादन किया। माध्यमिक विद्यालय की पढाई समाप्त कर शहीद पार्क के निकट स्थित आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्रवेश लिया। सभी गतिविधियाँ यहाँ भी पूर्ववत चलती रहीं। दसवीं कक्षा में था तो कक्षा और विद्यालय के सर्वोत्तम छात्र पुरस्कार के लिए चुना गया। इसीलिये रोटरी क्लब, उज्जैन द्वारा भी पुरस्कृत किया गया। इसके अलावा यहाँ भी साहित्यिक और कला संबंधी गतिविधियों पर पुरस्कार मिलते रहे। निश्चित हो गया कि भविष्य में मुख्य कार्यक्षेत्र जो भी हो साहित्य और चित्रकला तो साथ रहेंगे ही।
जहाजमहल की छत . . . चाँदनी रात. . . अशर्फीमहल . . . होशंगशाह का मकबरा. . . खण्डहरों की छायाएँ . . . चमगादड़ों का चिंचियाना. . . छत पर बिछी चाँदनी . . . चित्रकला विद्यालय के छात्र -छात्राएँ  . . .  गीत-संगीत . . . खण्डहरों का अजीब रहस्यमय वातावरण. . . सन 1957 या 58 रहा होगा. . . यह भयानक रहस्यमय वातावरण जाने क्यों मुझे सदा अपनी ओर खींचता रहा है। वहाँ गूँज रही बीते युग की अनसुनी आवाजें . . . छाया-प्रकाश का अपने आप बना अद्भुत संयोजन. . . पत्थरों पर जमी काई . . . आसपास इतिहास की पदचाप. . . विशाल खण्डित गुम्बद. . . उखड़ा हुआ पलस्तर . . . झाँकती पुरातन ईंटें . . . अजीब वीरानगी. . . मेहराबें. . . महराबें. . . फिर मेहराबें. . . फिर और मेहराबें. . . लंबे अंधेरे गलियारे. . . गलियारों में भटकतीं अतृप्त आत्माएँ. . . अंधेरी कोठरियों में टूटे-फूटे रोशनदानों से उतर कर कुछ समय विश्राम करती चाँदनी। एक बीता समय यहाँ भटक रहा है अपने जीर्णशीर्ण लिबास में। लगता है मैं उससे एकाकार हो रहा हूँ। यह कौनसा आकर्षण है मुझे नहीं मालूम। मैं उसे केवल महसूस करता हूँ। यह महसूस करना कितने ही भावों को जगाता है, कितनी ही कविताओं को आवाज देता है। कितने ही रंगों को केन्वास पर फैल जाने को उकसाता है। मैं बार-बार वहीं जाना चाहता हूँ। माण्डू कई बार गया हूँ। हर यात्रा वापस आने का निमंत्रण देती है। मैं खण्डहरों में और खण्डहर मुझमें हैं। मेरे अंदर खण्डहरों की आत्मा बसती है। मेरी पहली एकल चित्र प्रदर्शनी में सारे चित्र खण्डहर पर ही थे। दिन और रात के भिन्न-भिन्न खण्डों में अपना भिन्न प्रभाव छोड़ते खण्डहर। एक बड़ा खण्डहर तीस वर्षों तक हमारे घर की दीवार पर लगा रहा। कई प्रदर्शनियों में प्रदर्शित हुआ। नौकरी में स्थानांतरों में इधर से उधर उधर से इधर, फिर कहीं और ट्रकों पर, कंटेनरों पर लद कर आते-जाते अंततः वास्तविक खण्डहर बन कर इतिहास में चला गया। उसकी स्मृति बार-बार कौंधती है। खण्डहर ईंट, गारे, मिट्टी, पत्थर के ही नहीं होते हाड़-मांस के हिलतेडुलते खण्डहर भी होते हैं। मेरे अंदर ये भी हैं और अपने अतीत के खण्डहर भी हैं जो अनायास समय असमय निकल कर सतह पर चले आते हैं और कलम या ब्रश से होते हुए कागज-केन्वास पर उतर जाते हैं। मैं अनेक खण्डहरों का अमूर्त कोलाज हूँ। उन पर मेरा वश नहीं चलता। लगता है एक ब्लैकहोल है मैं उसमे खींच लिया गया हूँ।
सन 1961. . . वास्तुकला का अध्ययन करने मैं और नरेन्द्र उज्जैन छोड़ कर महानगर मुंबई आ गए। वी टी स्टेशन के पास दादाभाई नौरोजी मार्ग पर प्रख्यात कला संस्था ‘सर जे. जे. स्कूल आफ आर्ट’ के परिसर में हमारा कालेज था- ‘जे. जे. कालेज आफ आर्किटेक्चर’। उज्जैन जैसे शांत-शांत सोये-सोये से छोटे शहर से अचानक रात-दिन जागे रहने वाले मुंबई महानगर में आना एक अलग अनुभव था। खूब  गतिमान यातायात, गाड़ियों की लंबी कतारें- जाने कहाँ से आतीं और जाने कहाँ को जातीं। लोकल ट्रेनों की भारी भीड़। शाम को मरीनड्राइव और चैपाटी की चकाचैंध, विशाल समुद्र की हिलोरों का चट्टानों पर सिर पटकना। समुद्र के साथ-साथ बनी दीवार पर जोड़ों में तरुण-तरुणियों का पूरी दुनिया को भुला कर अपने में ही मग्न बैठना, शेंगदाना (मूँगफली) चबाते हुए अरबसागर की शीतल हवा का आनंद लेना। भेलपुरी के ठेलों पर लोगों की भीड़। यह एक बिल्कुल नया अनुभव था। मेरी कविता ने अपने लिए वहाँ से बहुत कुछ समेटा।
रात की मुंबई दिन की मुंबई से बहुत भिन्न होती थी खास कर फोर्ट और वी टी स्टेशन के आसपास का क्षेत्र डरावना हो जाता था। दिन में जहाँ आफिसों के कारण चहल पहल रहती थी रात में सुनसान हो जाता था। अंग्रेजों के जमाने की यूरोपीय शैली में बनीं पत्थर की विशाल इमारतों के गलियारे डरावने लगते थे। उनसे गुज़रते थे तो हर समय मन में दहशत होती थी कहीं कोई गुंडा-लुटेरा पीछा न कर रहा हो। गलियारों में पड़े हुए घरविहीन लोग, पव्वा चढ़ाए हुए लड़खड़ाते लोग, गोथिक शैली के प्रस्तर स्तंभों से टिकी अंधेरे में खड़ी वेश्याएँ और उनके दलाल। मादक द्रव्यों का सेवन करते बैठे आवारा लड़के. . .   रात की मुंबई एक अलग ही दुनिया थी . . . कविता को बहुत कुछ मिला।
आवास की समस्या से दो चार होना पड़ा। पहले कुछ महिने मलाबारहिल पर गुजरातियों के एक होस्टल ‘मानव मंदिर’ में रहे। वह बंद हो गया तो आवास की समस्या आ गई। कुर्ला में दूर के रिश्ते के तीन भाइयों का घर था। वहाँ रहने गए तो मुंबई का असली चेहरा देखा। उनका ब्रश बनाने का कारखाना था। कारखाना क्या वह एक छोटा सा गृह उद्योग ही था। उनका घर सामान्य रूप से मुंबई के हिसाब से ठीकठाक ही कहा जा सकता था। चाल की तरह एक लाइन में बने कमरे थे और सामने ओटला। दिन में हम इसी घर में रहते थे पर घर छोटा होने के कारण रात में पास ही में बने कारखाने में सोते थे। पढते-लिखते भी वहीं थे। कारखाना मुश्किल से आठ गुना दस फुट का टिन का शेड था। ब्रश बनाने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले जानवरों के बाल फैले होते थे। रसायनों की गंध होती थी। हम वहीं पढते थे,सो जाते थे। वहां बिजली का केवल एक कमजोर सा बल्ब था। बरसात के दिनों में स्थिति बहुत खराब हो जाती थी। अंदर छोटे-छोटे मेंढक और कीड़े-मकोड़े आ जाते थे। मुंबई की भाषा में वह टीन-टप्पर वाली ‘खोली’ थी। खोली के बाहर खुली जगह थी काफी गंदी। घासफूस था, झाड़-झंखाड़ थे और एक कुआँ था। उस जगह गड्ढे खोद कर असामाजिक तत्व कच्ची शराब के पीपे रख कर ऊपर मिट्टी डाल कर ढँक देते थे। ग्राहक आने पर मिट्टी हटा कर पीपों में से शराब निकाल कर देते थे। आसपास की चालों में रहने वाले लगभग सभी लोग बिहार, उत्तरप्रदेश के “भैय्या” और गोआ के मछुआरे थे। आए दिन और विशेषकर छुट्टी वाले दिन ये लोग पीकर आपस में लड़ते थे। एक दूसरे पर प्रहार करने के लिए पत्थरों, चाकू-छुरों का उपयोग आम था। यह सब हमारे घर के सामने की सड़क पर हुआ करता था। यहाँ चमक दमक वाली मुंबई का दूसरा रूप देखा। यहीं दो जून रोटी के जुगाड़ में साधनहीन निर्धन परिवारों को खटते देखा। हमारे उज्जैन के ही एक परिचित थे केशव। उम्र में हमसे पाँच-सात वर्ष बड़े और एक तरह से मुंबई में हमारे लोकल गार्जियन। भायखला में रेलवे में गुड्स क्लर्क थे। वे मुंबई में हमारे लिए बड़ा आधार थे। उनके एक दोस्त परेल में मलिन बस्ती में रहा करते थे। उनके साथ दो-चार बार उस मलिन बस्ती में जाने का अवसर मिला। वहाँ एक दूसरा हिन्दुस्तान देखा। इससे कई वर्ष पूर्व भी विदर्भ के गाँवों में सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से अत्यंत निम्न स्तर पर जी रहे लोगों का अत्यंत दयनीय जीवन देखा और मन में बहुत सारे प्रश्न उठ खड़े हुए थे। वे मुंबई में फिर जी उठे। कालेज जाते तो वहाँ वातावरण भिन्न होता। जे. जे. स्कूल के परिसर में भारत के प्रख्यात मूर्तिकारों द्वारा निर्मित सुन्दर मूर्तियाँ वृक्षों के झुरमुटों में कहीं भी दिख जाती थीं। कंधे पर लटके झोले में चित्र निर्माण सामग्री लिये टहलते देश के भावी कलाकार दिखाई देते थे। जतीन दास को वहाँ कई बार देखा। इतना सहज सुंदर प्राकृतिक वातावरण था कि कोई भी अपने आप कलाकार बन जाए। हमारे कालेज के सामने दादाभाई नौरोजी रोड के उस पार ‘शांति भोजनालय’ था किसी दक्षिण भारतीय सज्जन का। साठ पैसों में वहाँ एक ‘राइसप्लैट’ मिला करती थी जिसमे तीन-चार सब्जियाँ , अचार-पापड़, पूरियाँ, चावल आदि बहुत कुछ हुआ करता था। मुंबई के उन पाँच वर्षों ने अंदर के लेखक को लेखन हेतु विषयों का बहुत बड़ा भण्डार दिया।
मेरे जीवन में कुछ ऐसे व्यक्तित्व आए जो आ तो गए, जाने का नाम नहीं लेते। एक बहुत छोटा स्कूल था दो कमरों का। पहली से चैंथी तक की चारों कक्षाएँ उन्हीं कमरों में लगती थीं। दो शिक्षिकाएँ थीं। बहुत साधारण स्कूल था। बच्चे टाटपट्टियों पर बैठते थे। मैं पहली कक्षा में था। मेरे पास एक बच्ची बैठा करती थी मुझसे बड़ी। उसके नाखून बहुत बड़े-बड़े थे। वह रोज मेरी बाँह में नाखून चुभाया करती थी। मुझे पीड़ा होती थी। मैं बहुत कमजोर बच्चा था बिमारी से किसी तरह बच कर निकला हुआ। उसे पता नहीं क्या आनंद मिलता था। एक बार वह चार-पाँच दिन स्कूल नहीं आई। शिक्षिका ने बताया कि वह मर गई। मैं बहुत खुश हुआ कि चलो अब नाखून नहीं चुभेंगे। मुझे नहीं मालूम था मरना क्या होता है। कुछ बड़ा हुआ और मरने का अर्थ समझा तो उसके मरने पर खुश हो जाने का गहरा पश्चात्ताप हुआ। इस पश्चात्ताप का बोझ मन पर आधी सदी से भी अधिक समय तक रहा। अक्टूबर 2000 में जब मैंने इस प्रसंग पर एक कविता “एक पिन है अभी तक” लिखी तब जाकर बोझ हल्का हुआ। वह कविता कुछ गोष्ठियों में सुनाई। पन्द्रह वर्ष बाद दिल्ली में एक मित्र ने बताया कि उस कविता की पिन अब भी चुभ रही है उसे। यह कविता मेरे काव्य-संकलन ‘गूँगी घँटियाँ’ में है। इस संकलन पर प्रतिक्रिया देते हुए राजेश जोशी ने मुझे पत्र में लिखा था- ‘कविता पिन. . . बहुत मार्मिक कविता है, बहुत तकलीफदेह’।
एक लड़का था रामप्रसाद। बहुत गरीब परिवार था उसका। उज्जैन में वे लोग हमारे घर के पीछे वाले मकान में रहते थे। बहुत बड़ा परिवार था। पिता कपड़े की मिल में श्रमिक थे। खूब पीते थे। रामप्रसाद मेरे साथ कक्षा छः तक पढ़ा था। हम एक कक्षा में किंतु अलग-अलग सेक्शनों में थे। पढ़ाई में बहुत तेज था। गणित विषय उसका बहुत अच्छा था। कविताएं भी लिखने लगा था और जहाँ तक मुझे स्मरण है उसने अपना उपनाम ‘निर्मल’ रखा था। पाँचवीं कक्षा में योग्यता छात्रवृत्ति के लिए परीक्षा हुई थी। जिले भर से बीस बच्चों को चुना गया। हमारे स्कूल के जो तीन बच्चे चुने गए उनमे दो हम थे, वह और मैं। छात्रवृत्ति मिलने लगी। आठवीं कक्षा तक मिलने वाली थी पर उसके घर की आर्थिक परिस्थिती इतनी खराब थी कि पढाई छोड़ कर उसे मजदूरी पर लगना पड़ा। वह मजदूरी में इतना उलझा कि धीरे-धीरे सम्पर्क कम होता चला गया। मैं जब माधव कालेज में पढने गया तो एक दिन उसे कालेज के गेट पर रंग करते देखा। साथ में उसकी पत्नी और छोटा सा बच्चा था। उससे थोड़ी देर बात हुई। बहुत बुरा लगा एक प्रतिभा को इस तरह नष्ट होते हुए देखना। उसके बाद लंबे समय तक उसकी कोई खबर नहीं मिली। मैं दिल्ली चला गया नौकरी पर। कई वर्षों बाद दिवाली पर उज्जैन जाना हुआ तो अचानक उससे सड़क पर मुलाकात हुई। उसने बताया कपड़े की मिल में नौकरी कर रहा है। एक लंबे अंतराल के बाद फिर उज्जैन जाना हुआ तो पता चला कि उसने क्षिप्रा नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली थी। एक संभावनाशील व्यक्ति का करुण अंत हुआ। मेरी एक कविता ‘दोस्त’ उसी को समर्पित है।उसकी कुछ पंक्तियाँ- ‘मुझे विश्वास था / कि चाहे जो भी लिखा हो नियति ने / अपनी डायरी में / उसके पन्ने पर / और कितना ही वह नीचे चला जाए / एक दिन ऊपर आएगा जरूर  / पर इस तरह से नहीं / जिस तरह से अंततः /पानी की सतह पर /वह आया’


एक हैं पी. एन. चतुर्वेदी। अभी उम्र अस्सी से अधिक होगी। दिल्ली में वे सेवानिवृत्त केन्द्रीय कर्मचारियों की एक संस्था के उपाध्यक्ष थे। एक मित्र के माध्यम से उनसे परिचय हुआ था। फिर वे नियमित रूप से उस संस्था का चंदा लेने मेरे पास आने लगे। सत्तर वर्ष से अधिक की उम्र में वे तीन-तीन मंजिला मकानों में सीढियाँ चढ़ कर चंदा एकत्र किया करते थे। संस्था के काम में और अन्य सामाजिक कार्यों में इस तरह रमे हुए थे कि सुबह-सुबह घर से निकलते तो रात को वापस पहुँचते। मुझसे उन्हें पता चला कि उस क्षेत्र दिलशाद गार्डन के साहित्यकार वहाँ के ‘डीयर पार्क’ में सुबह मिलते हैं तो वे वहाँ आने लगे और साहित्यिक गतिविधियों में सहायता करने लगे जबकि साहित्य से उनका कोई संबंध नहीं था। उनके कारण नियमित काव्यगोष्ठियाँ आयोजित की जाने लगीं। कुछ करते रहने का जुनून सवार था उन पर। काव्यगोष्ठियों हेतु मानदेय की व्यवस्था करने वहाँ से बहुत दूर हिंदी अकादमी के कार्यालय में कभी मेट्रो से कभी बस से चले जाते थे। और भी अन्य व्यवस्थाएँ करते थे। वे चुनाव आयोग से सेवानिवृत्त हुए थे। पन्द्रह वर्ष तक प्रतिनियुक्ति पर रूस में काम कर चुके थे। परिवार में केवल वे और उनकी पत्नी ही थे। उनका बेटा एक सड़क दुर्घटना में मारा गया था और युवा बेटी एक दिन की बिमारी में चल बसी थी। इस भयानक त्रासदी को भुलाने के लिए ही वे स्वयं को सदा व्यस्त रखने की कोशिश करते थे। यह इतनी बड़ी बात थी कि उनके छोटे-मोटे दोषों को भुलाया जा सकता था। ऐसा नहीं हुआ। मुझे यह कहते हुए पीड़ा हो रही है कि डीयर पार्क ने उन्हें इतना अपमानित किया कि एक बार उनकी आँखो में आंसू छलक आए थे। एक दिन अचानक दिल्ली का अपना फ्लैट बेच कर आगरा चले गए। वहाँ उन्हें सामाजिक कार्य करने की स्थितियाँ नहीं मिल पाईं। एक वर्ष पूर्व दिल्ली जाते हुए आगरा स्टेशन से उन्हें फोन किया। पत्नी ने फोन उठाया बोलीं- ‘भाई साब जल्दी आ जाव बिनकी तबीयत भोत खराब हे’। चतुर्वेदीजी ने भी बात की। पहली बार उनकी आवाज में निराशा थी। आगरा रुकना हमारे लिये संभव नहीं था। इतना मैं जानता था कि वे लगभग ढाई वर्ष से कैंसर और अन्य बिमारियों से जूझ रहे थे। उसके बाद एक बार उनसे फोन पर बात हुई स्वर में वैसी ही निराशा थी। उनसे बात करने के लिए साहस जुटाना पड़ता है पता नहीं कैसी खबर मिले!
एम. एफ. हुसैन ने “इलस्ट्रेटेड वीकली” के साथ एक साक्षात्कार में नरीन नाथ को भारत के दस सर्वोच्च संभावनाशील युवा चित्रकारों में गिना था। नरीन से परिचय बहुत पुराना था उज्जैन के समय का। वह इन्दौर का था पर उज्जैन आना-जाना होता रहता था। दिल्ली में उसी ने हमें रहने के लिये बरसाती दिलाई थी। वह पिछली सदी का सातवाँ दशक था। नरीन के संघर्ष के दिन थे। इसी बीच उसका विवाह हो गया था। मैंने पति-पत्नी का कठोर संघर्ष देखा। पत्नी किसी स्कूल में शिक्षिका हो गई और घर पर भी ट्यूशन लेने लगी तो स्थिति कुछ ठीक हुई। नरीन भी दिल्ली के कला क्षेत्र में स्थापित हो रहा था। इसमे चित्रकार गुलाम रसूल संतोष का उसे बहुत संबल मिला। कठोर संघर्ष करते हुए पत्नी मंदाकिनी ने अपनी शैक्षणिक योग्यता बढाई और धीरे-धीरे दिल्ली प्रशासन में उप निदेशक पद पर पहुँची। पत्नी की नौकरी का लाभ यह हुआ कि नरीन निश्चिंत होकर कला साधना करता रहा। वह बहुत ही खुशमिजाज व्यक्ति था। जीवन को भरपूर जीने वाला। जब स्कूल की छुट्टियाँ होती थीं तो नरीन,श्रीमति नरीन और बेटा हर वर्ष दो महिनों के लिए हिमालय के बहुत दुर्गम स्थनों पर चले जाते थे। साथ में सब जरूरी चीजें, लगभग पूरा किचन ले जाते थे। प्रकृति की गोद में समय बिता कर तरोताजा होकर लौटते थे। 1991 में पत्नी का देहांत हो गया। बेटा डाक्टर है आयरलैंड में स्थायी रूप से बस गया है। वह अकेला फरीदाबाद में बनाए अपने स्टुडियो और घर में रह रहा था। एक दिन हार्टअटैक से चल बसा। उसका शव अड़तालीस घंटे शवगृह में पड़ा रहा। वहाँ  केवल चार व्यक्ति थे जिनमें दो उसके भाई थे। केन्द्रीय ललित कला अकादमी पुरस्कार , मध्यप्रदेश का शिखर सम्मान और अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित कलाकार के चले जाने पर कला के क्षेत्र में कोई हलचल नहीं हुई न ही मीडिया ने उसके बारे में कुछ लिखने-कहने की आवश्यकता महसूस की। वह लगभग गुमनाम सी मौत थी। उसके चित्रों की सुध लेने वाला कोई नहीं बचा। भारत भवन उसके काम की पुनरावलोकन प्रदर्शनी इस कारण आयोजित नहीं कर सका कि चित्रों को प्राप्त करना संभव नहीं हुआ। उसके कुछ चित्र फरीदाबाद वाले उसके घर में होंगे जिसमे अब किराएदार रहते हैं। बहुत जिन्दादिल व्यक्ति था। शवगृह में पड़े-पड़े भी उसने आसपास की निर्जीव देहों को जरूर हँसाया होगा। उसकी मृत्यु ने मुझसे एक कविता लिखवा ली ‘ एक नीला समुद्र, फूल, मार्चुरी’ जिसे जाबिर हुसैन साहब ने “दोआबा” के दिसंबर 2010 के अंक में प्रकाशित किया। ये सभी व्यक्ति मेरी सृजन यात्रा में साथ रहे। उनका आभारी हूँ।
सरकारी सेवा में रह कर मैंने बहुत कुछ खोया। सेवानिवृत्ति के बाद ही सृजनात्मक गतिविधियों को पर्याप्त समय दे सका। सरकारी सेवा के कुछ लाभ भी मिले। अरुणाचल प्रदेश के दुर्गम स्थानों पर जाने और गुजरात भूकंप के महाविध्वंस को प्रत्यक्ष देखने के अवसर मिले। नौ काव्य-संग्रह और एक यात्रा संस्मरण अब तक की अर्जित पूंजी है।
‘कथादेश’ के संपादक हरिनारायणजी से प्रथम भेंट बिल्कुल असाहित्यिक प्रसंग में हुई। अरुणाचलप्रदेश से वापस दिल्ली आने पर मेरी पोस्टिंग रामकृष्णपुरम में हुई थी। दिलशाद गार्डन में कथादेश का कार्यालय हमारे फ्लैट के बिल्कुल सामने था। हरिनारायणजी को वहाँ रहते कुछ समय हो चुका था। घर से अपने कार्यालय जाने के लिये कौनसी बस लेनी होगी या क्या अन्य साधन हो सकते हैं यह जानकारी लेने उनके पास गया था। कुछ जानकारी मिली भी। उनसे मिलने का बड़ा लाभ यह हुआ कि मैं आसपास के साहित्यकारों के सम्पर्क में आया। उन्होंने बताया कि वहाँ के डीयर पार्क में पाँच-सात साहित्यकार नियमित रूप से सुबह मिलते हैं। एक दिन टहलते हुए वहाँ गया। एक जगह घास पर कुछ साहित्यकार बैठे दिखाई दिये। झिझकते हुए उनके पास गया। अपना नाम बताया। इस तरह मैं उस समूह में शामिल हो गया। पता चला वहाँ कई कवि-कथाकार आते हैं। डा. विश्वनाथ त्रिपाठी, हरिनारायण, विजय, अरुणप्रकाश, हेमंत कुकरेती, भारतेन्दु मिश्र, विभांशु दिव्याल, रमेश आजाद, बलराम अग्रवाल, रमेश प्रजापति आदि। बाद में अकोला से दिल्ली आए अशोक गुजराती भी शामिल हो गए। कुछ लोग कभी-कभी ही आते थे संजय चतुर्वेदी उनमे से थे। वहाँ के कुछ सामान्य नियम थे। अखबार लेकर कोई नहीं आएगा पर विभांशु अखबार लेकर ही आते। साहित्य सम्बंधी चर्चाएं नहीं होंगीं किंतु होती थीं। डीयर पार्क की चर्चाओं से साहित्य जगत की गतिविधियों की जानकारी होती रही। साहित्यकारों से संबंधित कई भ्रांतियाँ ध्वस्त हुईं। मैं साहित्यकार नामक प्राणी को जितना बड़ा समझता था वह उतना ही बौना निकला। वैसे यह निष्कर्ष सभी पर लागू नहीं होता। पुरस्कारों-सम्मानों की जोड़-तोड़ के बारे में मेरे ज्ञान में वृद्धि हुई। बहुत चाैंकाने वाले तथ्य पता चले। वहाँ मैंने बहुत कुछ पाया। डीयर पार्क में हम लोग घंटे-दो घंटे बैठते थे। बड़ा अच्छा लगता था घास पर बैठना, वहीं चाय मँगवा कर पीना। कभी-कभी सड़क किनारे फुटपाथ पर बनी छपरी में बैठ कर चाय-टोस्ट खाना-पीना। वहाँ की चाय का आनंद किसी पंचसितारा होटल की चाय में नहीं मिलेगा। डीयर पार्क के साहित्यकारों ने मिलकर एक पुस्तक भी निकाली ‘बतकही’ नाम से, उसमे वहाँ की गतिविधियों के साथ सबकी रचनाएँ थीं। मेरे बनाए, वहाँ आने वाले नौ साहित्यकारों के रेखाचित्र थे। सम्पादन बड़ी मेहनत से भारतेन्दु मिश्र ने किया था। योजना थी प्रतिवर्ष पुस्तक निकालने की पर एक बार में ही योजना मृत्यु को प्राप्त हो गई। दिल्ली मैंने छोड़ दी है पर डीयर पार्क की मंडली से मानसिक स्तर पर अब भी बहुत गहराई से जुड़ा हूँ।
दिल्ली छोड़ कर भोपाल आने का निर्णय आसान नहीं था। पाँच वर्ष लग गए निर्णय लेने में। पत्नी के लिए यह बहुत कठिन था। किंतु दिल्ली शोरगुल और कई अन्य समस्याओं से भरा इतना भयानक महानगर हो चुका था कि मैं उससे दूर किसी शांत जगह पर रहना चाहता था। अंततः दिसंबर 2010 में 40 वर्ष बाद छोड़ कर हम भोपाल आ गए।


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