कहानी


सागर सियालकोटी
लुधियाना, मो. 9876865957


जाऐं तो जाऐं कहाँ


14 अगस्त, 1947 की वो एक मनहूस शाम, मोहल्ले में विभाजन की तल्ख़ गुफ़्तगू का माहौल गर्म था। मारकाट का सिलसिला पूरे जोरों पर था। हिन्दोस्तान के दो हिस्सों में तक़्सीम होने का ऐलान हो चुका था। मेरे वालिद उन दिनों पोस्ट ऑफिस में मुलाज़म थे। उस रात ये ख़बर आग की तरह फैल गई के कुछ दंगाइयों ने एक हिन्दू परिवार की लाल कुर्ती चाैराहे के पास काफी मारपीट की है। दोनों गुटों में तनाव बरकरार है। लाल कुर्ती थाना की पोलीस (घोड़ों) पर गश्त कर रही थी। भीतर शहर में छूटपुट घटनायें जारी थीं। रियाज़ अहमद जो एक मेवफ़रोश था, चाैराहे के बीचोबीच, एक तंग गली में उसकी छोटसी सी दुकान थी। रियाज़ अहमद हमारा हम साया था। उसकी बीबी ताहिरा एक नेकदिल और ख़ूलूस-ओ-मुहब्बत का एक मुजस्मा थी, हस्बे मामूल पांच वक्त की नमाज़ी थी। रियाज़ ने घर आते ही ये बात बताई की शहर में कुछ दंगे हुए हैं। ताहिरा ये सुन कर बहुत परेशान हुई। या अल्लाह! ये कैसा वक्त आ गया है, अब क्या होगा। कहाँ जाएंगे?
दूसरे दिन ताहिरा इसी सोच में डूबी हुई थी कि इतने में, ताहिरा का भाई रसूल मुंशी ताहिरा के घर आता है। और उसे पाकिस्तान चलने का मशविरा देता है। आपा अब हम यहाँ नहीं रहेंगे। पाकिस्तान बन चुका है। आपा ये बेहतर होगा कि अब जब पाकिस्तान बन ही गया है, तो हमें अपने मुल्क चले जाना चाहिए। ताहिरा कुछ घबराई और कहा की शाम को रशीदा के अब्बू आयेंगे तो बात करती हूँ।
रियाज़ और ताहिरा की दो बेटियाँ ही थीं, बड़ी रशीदा और छोटी नुज़हत जैसा नाम वैसे ही उसके आमाल थे। नमाज़ पढ़ना, रोज़ा रखना और ईद की सिवैंया खाना इत्यादि। नुज़्हत लगभग 12 साल की थी, और रशीदा 14 साल के आसपास थी। रशीदा स्वभाव से कुछ तल्ख मिजाज़ थी।
ताहिरा अपने भाई के बारे में सोच ही रही थी कि इतने में उसका शौहर रियाज़ दरवाजे़ पे दस्तक देता है, और अन्दर से आवाज़ आती है। कौन ?
रियाज़ भई वही रियाज़ अहमद जिसकी तुम बीबी हो। क्या और भी कोई  ................... है ? 
ताहिरा ने सुनते ही दरवाज़ा खोला और रियाज़ घर के अन्दर दाखि़ल होता है और ताहिरा का चेहरा देख कर बोला आज आप चुपचाप और सन्नाटा-कुन क्यों दिखाई दे रही हो ताहिरा कुछ देर चुप रही और फिर रशीदा को खाने का हुक्म दिया, खाना खाते-खाते ताहिरा ने बताया की आज उसका भााई रसूल मुंशी घर पर आया था।
रियाज़ तो क्या हुआ ?
ताहिरा कुछ देर चुप रही, चन्द लम्हात के बाद ताहिरा ने अपनी ज़ुबान को ज़ुबिश देते हुये कहा की ख़बर कुछ अच्छी नहीं है। रसूल कह रहा था की अब जब पाकिस्तान बन ही गया है, तो क्यों ना हम लोग पाकिस्तान चले जाऐं, रियाज़ मन ही मन घबराया कि अपनी ज़मीन, अपना घर, बचपन की वो गलियां, घर छोड़ कर कहां जाऐंगे ये पागलपन है, और दो-दो जवान बेटियाँ। मैं ऐसा नहीं कर सकता, मुझसे नहीं होगा।
दूसरे दिन सुबह रियाज़ और ताहिरा बाऊ जी, यानी मेरे पिता जी से मिलने आए और उन्हें सारी बात बताई पिता जी ने बहुत समझाया की रियाज़ भाई अपना वतन, अपना घर बार अपना ही होता है, ये वक्त गुज़र जायेगा यहीं रह जाओ पर ताहिरा ठहरी औरत ज़ात, कहां मानने वाली थी, कहते हैं सारी ख़ुदाई एक तरफ जोरू का भाई एक तरफ। ताहिरा ने अपने भाई का पक्ष लेते हुए कहा कि अब हमारा यहाँ क्या है, हम अपने मुल्ख़ में आज़ादी से तो रह सकेंगे कब तक लोगों की ग़ुलामी सहते रहेंगें ताहिरा का यूं अचानक बदल जाना और ये ज़िद्द के हम तो पाकिस्तान ही जाएंगे। शाम ढलते-ढलते वो एक काफिले में पूरे परिवार समेत शामिल हो गये। एक ज़मीन को छोड़कर सारा समान, रूपया पैसा दो एक लोहे के ट्रकों में भरकर एक ट्रक में सवार हो गये। रात ग्यारह बजे लगभग अटारी बाॅडर के रास्ते पाकिस्तान में दाख़िल हो गये। लाहौर के बाहरी इलाकों में कुछ रिफूजी कैम्प लगे हुए थे। रियाज़ के परिवार को बहुत मशक़्क़त करने के बाद एक रिफूजी कैम्प में पनाह मिल गई। रिफूजी कैम्प काफी बड़ा था, लोग वहाँ लाखों की तादाद में दिनरात इंडिया से पलायन करके आ रहे थे। बहुत से हिन्दू और सिख उधर से इंडिया आ रहे थे। 
इसी दौरान ताहिरा बीमार पड़ गई, कैम्प के शफ़ा खाना से उसका ईलाज और दवा-दारु किया गया। अरसा-ए-तवील के बाद वो ठीक तो हो गई लेकिन जे़हनी तौर पर बहुत बीमार रहने लगी, जिससे उसके दिलाे-दिमाग़ पर तक़्सीमे-वतन का गहरा असर पड़ा और दो-दो बेटियों की चिंता भी सताने लगीं। दूसरी तरफ रियाज़ भी कुछ काम धन्धे के चक्र में काफी परेशान था।
लगभग ढाई महीने के बाद दाना मण्डी के नज़दीक एक दो कमरों का मकान रियाज़ के परिवार को अलाॅट हो गया रियाज़ ने दोनों हाथ ऊपर उठाये और अल्लाह का शुक्र किया कि सिर ढकने को छत तो मिल गई। अब जैसे जैसे दिन गुज़रते गये ताहिरा कमज़ोर होती गई, और एक दिन इस सराए-फ़ानी से हमेशा हमेशा के लिए अल्लाह काे प्यारी हो गई। अब रियाज़ और दो जवान बेटियां घर की चार दीवारी में कै़द हो गईं। रिय़ाज़ को ये फिक्र दिन रात सताने लगा, दूसरी ओर बेरोज़गारी की मार। बड़ी मेहनत मशक्क़त के बाद रियाज को एक प्राइवेट कम्पनी में 150/- रु. महीना की एक नौकरी हासिल हो गई। दिन गुज़रते गये रियाज़ अपनी बेटियों के साथ गुज़र-बसर कर रहा था। कहते हैं कि औरत हो या मर्द उसके लिये अकेलापन और जे़हनी तन्हाई कभी चैन से जीने नहीं देती।
रियाज़, जिस कम्पनी में मुलाज़मत करता था, उसी कम्पनी में ख़ालिदा नाम की एक बेवा (विधवा) भी काम करती थी, जिसका पति अमृतसर से आते वक्त दंगाइयों के हाथों मारा गया था। ख़ालिदा खूबसूरत थी, तीखें नैन नक्श और एक बच्चे की माँ थी। रियाज़ से लगभग 10 साल छोटी थी। रियाज़ के दिल को भा गई। एक दिन रियाज़ ने हौसला किया और दुआ सलाम हो गई। ख़ुदा की बनाई इस मख़्लूक़ात (दुनिया) में इन्सानीजामा सब से बेहतरीन माना गया है और बरतर (श्रेष्ठ) करार दिया गया है। जिन्सी तौर पर औरत और मर्द एक दूसरे की तरफ खींचे चले आते हैं, ऐसा ही कुछ हाल रियाज़ का था। कहते हैं कि औरत तो सब्र कर लेती है, लेकिन मर्द अपनी मर्दानगी पे काबू नहीं रख सकता। रियाज़ और ख़ालिदा का रिश्ता धीरे-धीरे आगे बढ़ा। एक दिन रियाज़ ने अपने मन की बात खालिदा पर ज़ाहिर कर दी, परन्तु ख़ालिदा ने कोई उतर नहीं दिया। एक दिन ज़रूरी काम की वज़ह से रियाज़ घर देर रात को पहुंचा और देखा किी नुज़्हत अपनी चारपाई पर सोई हुई और रशीदा कहीं दिखा न दे रही थी, रियाज़ को इस बात का फिक्र हुआ के लड़की घर से लापता है। आखिरकार रशीदा कहां गायब हो गई।
दूसरी तरफ ख़ालिदा पर इश्क़ हावी होने लगा और उसने रियाज़ से निक़ाह की पेशकश कर दी, अन्धे को क्या चाहिये, दो आंखें रियाज़ ने सिर हिलाते हुए उसे हाँ कर दी। रियाज़ को यहाँ बीबी के जाने का दुख कम कुछ रशीदा की चिंता, मन की स्थिति पर काबू न रहा, दिलों-दीमाग़ पर ख़ालिदा का हुस्नतारी था आखिरकार रियाज़ से रहा नहीं गया, ईद से चंद रोज़ कवल दोनों ने निकाह कर लिया, औरत के इश्क़ में आदमी अन्धा हो जाता है, रियाज़ ख़ालिदा को घर ले आया और नुज़्हत से कहा ये तुम्हारी अम्मी है। ख़ालिदा ने घर की दीवाराें पर नज़र सानी की उसे कुछ एक तस्वीरें दिखाई दीं। रियाज़ ने बताया के ये फोटो मेरी मरहूम बीवी ताहिरा की और दूसरी मेरी बड़ी बेटी रशीदा की हैं, जो कुछ दिन से घर से गायब है, ख़ालिदा ने शक भरी निगाहों से रियाज़ की तरफ देखा। ख़ालिदा ने रियाज़़ से कहा की आपने पुलिस को इत्तिलाह दी या नहीं, रियाज़ ने कोई उतर न दिया ख़ामोशी बता रही थी की रियाज़ ने रिर्पोट नहीं की।
ख़ालिदा का हुस्न गोते खाने लगा, रियाज़ भी उसके इश्क़ में दीवानगी की हद से गुज़र चुका था। दिन गुज़रते गये एक दिन ख़ालिदा ने रियाज़ से कहा कि वो उम्मीद से है। रियाज़ भी खुश था, ठीक नौ माह के बाद ख़ालिदा ने एक लड़के को जन्म दिया। रियाज़ खुश भी था और नाखुश भी मन ही मन अपनी बीती ज़िन्दगी को भूलने की कोशिश कर रहा था।
एक दिन ख़ालिदा अपने बच्चे को लेकर रिफूजी कैम्प के शफाख़ाना जा रही थी कि उसने रशीदा को एक तवायफ के कोठे पर देख लिया रियाज़ को जब ये बात पता चली तो उसे बहुत दुख हुआ, उसने रशीदा के मामू रसूल मुंशी से राब्ता किया और उसे सारी बात बताई, फिर दूसरे दिन रसूल मुंशी रियाज़ के  घर आया और ख़ालिदा, रियाज़ को लेकर शहर के तवायफ खाना बाज़ार की तरफ बढ़ा जहाँ रशीदा क़ैद थी।
पुलिस की मदद से रशीदा को उस क़ैद से नियात दिलाई, रशीदा ने अपने अब्बू और मामू को अपने ग़ायब होने की सारी कहानी बताई, कैसे उसे दो शख़्स अगवा करके ले गये और यहाँ तक पहुँच गई। रशीदा अब घर नहीं जाना चाहती थी, तब रसूल मुंशी की आंखों में आंसू आ गये, रसूल मुंशी ने रोते हुए कहा, बेटी तू तो मेरी बहन की आख़री निशानी है, चल मेरे साथ मैं अपने बेटे कासिम का निकाह तेरे साथ कर दूंगा। रशीदा मान गई इस तरह उसकी बेगुनाही रंग लाई।
कुछ अरसा बाद रियाज़ नुज़हत की शादीके बारे में सोचने लगा। ख़ालिदा ने रियाज़ को एक लड़के के बारे में बताया, रियाज़ मान गया और ये तै हुआ कि ईद के रोज़ लड़के के माँ बाप से मिला जाए आखिर वो दिन आ ही गया। बातचीत का सिलसिला शुरु हुआ। लड़के की माँ ने दरियाफ़त किया, के आप कहां से ताल्लुक रखते हैं अैर आपका शजरा क्या है। रियाज़ बीच में ही बोल पड़ा के हम रिफूज़ी है इण्डिया में तेा हमरा काम ठीक ठाक था, यहाँ तो बस गुज़र बसर ही है। रियाज़ ने बिना चाश्नी चढ़ाये सब कुछ सच सच बता दिया। लड़के के वालिद ने कहा.....मुहाजिर हो क्या? मैं मुहजिरों पर यक़ीन नहीं करता, रियाज़ के पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक गई। रियाज़ मन ही मन सोचता है, मुहाजिर होना गुनाह है क्या, हूँ तो मुसलमान ही।
काश! मैने ताहिरा की बात न मानी होती तो आज ये दिन न देखना पड़ता। जो अपना था उसे छोड़ आये, जिसे अपना समझ कर यहाँ चले आये वो भी अपना नहीं है’’ रियाज़ ज़मीन पर गिर पड़ता है, लड़खड़ाई ज़्ाुबान से कहता है "जाऐं तो जाऐं कहाँ"। ख़ालिदा देखती रह जाती है।


 


नोट: इस कहानी के सभी, किरदार,वाक्यात और स्थान काल्पनिक हैं, किसी किरदार या वाक्यात का किसी के साथ मेल खा जाना महज़ इत्तिफाक समझा जाए। लेखक की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।
मुजस्समा: मूर्ति, हस्बे-मामूल: नियमानुसार, ज़ुबिंश: हरक़त, मख्लूकात: दुनिया, बरतर: श्रेष्ठ, शजरा: खानदान, मुहाजिर: शरणार्थी, मेवाफरोश: फल बेचने वाला।


 


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य