कविता
शिव डोयले
विदिशा (म.प्र.), मो. 9685444352
तुम क्या करोगी
बीते दिनों की यादें
आ जाएँगी जब गाँव में
बोलो! तब तुम क्या करोगी ?
अनबोली खड़ी ठगी-ठगी सी
आँखें देख रहीं जगी-जगी सी
छोड़ अनुपम छवि जाते-जाते
सूरज की लालीउतर पड़ेगी
हाथ हिलाती नाव में
बोलो! तब तुम क्या करोगी ?
विंध्याचली-प्रश्न कँपकँपाता
दीप की लौ बन द्वारे तक उगता
भावों की चौखट से टकराकर
उत्तर अंधियारे में खो जाता
गहन पसरी छाँव में
बोलो! तब तुम क्या करोगी ?
गली-गली, चौराहे-चौराहे
घूम रहे वायदे अनब्याहे
अनुरागी पथ पर जाते-जाते
सहसा जब भटक जाएँ राहें
महावर रची हो पाँव में
बोलो! तब तुम क्या करोगी ?