कविता

 


सुजाता काले, पंचगनी, मो. 9975577684


 


दूब......


दूब तुम भी सुंदर हो,
धरती पर आँचल ओढा देती हो,
रेशम-सा जाल बिछा देती हो,
हरितिमा से सजाकर निखारती हो,
दूब तुम भी सुंदर हो।
दिन-भर बिछ जाती हो,
पाँव तले कुचली जाती हो,
रातभर ओस को ओढ़ लेती हो,
और फिर से हरितिमा बन जाती हो,
दूब तुम भी सुंदर हो।


 


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