कविता

बिखरेगे ही



शान्त रहकर जितना 
समेटती हूँ अतः में तुमको
अन्दर ही अन्दर उतने ही वेग से 
बिखर जाते हो ...
आवाज तो कभी 
स्पर्श की स्मृतियाँ बनकर 
मेरे मन और हृदय के 
हर किनारे को तोड़ रोम - रोम में 
एहसासों का रूप ले सर्वत्र ही .... 
नही होता आसान महसूस किये 
अव्यक्त प्रेम की 
आवाज और स्पर्श को भी 
स्वयं में छिपा कर रख पाना 
अन्तर्मन में ही कहीं,
बिखरना है इनको भी 
पहले अतः  फिर बाहर भी 
हर हाल में,
कभी अधरों की 
अनकही मुस्कुराहट बन 
तो कभी 
भावों का उद्वेग बन 
मानसपटल पर सर्वत्र ही.... . 



प्रगति गुप्ता
जोधपुर, मो. 9460248348


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