कविता


सूर्य प्रकाश मिश्र, वाराणसी, मो. 09839888743


 


उड़ता घोड़ा



वो उड़ता घोड़ा कहाँ गया 
नित नये -नये सपने लेकर 
मिलता था कभी किताबों में 
फिर ले जाता था साथ-साथ 
अनजान सुनहरे ख्वाबों में 


परियों की राजकुमारी का 
वो ख्वाब सुनहरा कहाँ गया 


हल करना अनसुलझे सवाल 
उँगली के नाजुक पोरों से 
वो चाहत भूल नहीं पाती 
बस्ते में छिपे टिकोरों से 


जो उड़ता था बन कर जहाज 
वो पन्ना कोरा कहाँ गया 


चटपटा कुरकुरा चनाजोर 
चटखारे खट्टी इमली के 
वो दबे पाँव पीछे जाना 
फूलों पर बैठी तितली के 


रखा था जिसे घोसले में 
बुलबुल का जोड़ा कहाँ गया 


वो दुनिया कितनी सुन्दर थी 
जो मुट्ठी में आ जाती थी 
बस इक मुट्ठी दुनिया लेकर 
ज़िन्दगी बाग बन जाती थी 


मस्ताना, मस्ती का मौसम 
वो पवन झकोरा कहाँ गया 


सिर पर फिरती माँ की उँगली 
मुख पर फिरता माँ का आंचल 
फिर काश लौट कर आ जाते 
वो स्वप्न सरीखे सुन्दर पल 


माँ के चुल्लू का वो गिलास 
वो स्नेह कटोरा कहाँ गया                      


                   


 


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