कविता


धर्मपाल महेन्द्र जैन
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गंगा



झरते हुए 
जल के आलाप में  
नदी हो तुम।


सदा बहने 
बहुत कठिन है 
नदी बनना। 


नदी सूखे भी 
किनारे की पत्तियाँ 
हरी होती हैं। 


कोई समय 
तुम्हें नहीं सुलाता 
अमृता गंगा।


एक डुबकी 
आत्मा भिगो देती है 
तेरे मुहाने।


बहता पानी 
मिलता सागर में 
सागर बन।


हाँ गंगे तुम्हें 
देख कर ही मैंने 
जाना समुद्र। 


 


कुछ तो कर


सदियाँ लाँघ 
आदमी सीखा नहीं 
इतिहास से। 


अंधा शहर 
आदमखोर बना
कुछ तो कर।


सपाट रास्ते 
कभी नहीं ले जाते  
मंजिल तक।


लहूलुहान 
समय चलता है 
कल के लिए।


मेरे खिलाफ 
अकेला मैं खड़ा हूँ 
सियासत में।


तूफान बन
उखाड़ देगी हवा
विषैली जड़ें। 


शब्द भेदेंगे
अंधकार का नभ
लिख तो सही।


लंबी राह के
फासले सिमटेंगे 
उठा कदम। 


बचा लो आज, 
वक्त फिर न मिले 
भरोसेमंद।


 


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