पत्रांश


चलो- इक ख़त लिखते हैं-
उन अनबुझी, अधजली हसरतों के नाम
जो न तो रूसवा हुईं और न पूरी ही हुईं
बस-बन के रह गईं.... एक बेनामी पैग़ाम
उन तक पहुँचने की कोई राह उकेरते हैं-
            चलो इक ख़त लिखते हैं-
भेजते हैं- इक चिंग़ारी - ज़रा राख कुरेदते हैं
जलाते हैं खाली शम्मांदान में- कोई सीली-सी शम्मां
धुखता है उसमें आज भी कुछ-उठता है धुँआँ थका हुआ सा
            चलो उस धुँए की राह पकड़ते हैं
कुछ तो है - ‘बटालवी’ के ‘बिरहा’ की शक्ल सा
है न कुछ? ‘अमृता-इमरोज’ की महोब्बत की कशिश-सा
कोई आवारा चाँद सा लम्हा है
जो आज भी शाखे-तसव्बुर पे लटका हरक़त में हैं
उधेड़ती है जैसे कोई हकीकत-ज़ख्म दिन के उजालों में
और कोई दिलकश ख़्वाब - उसें चाँदनी के धागे से सिलता है
            चलो कोई कासिद ढूँढते हैं
उससे ज़रा गुज़ारिश करते हैं-
नक्शों-नुहार पहचान कर के जो ढूंढ सके
उन अनबुझी अधजली हसरतों का पता
ऐसी कोई तरकीब करते हैं-
चलो न!!!
आज इक ख़त लिखते हैं-
कोई चिंगारी भेजते हैं-
ज़रा राख कुरेदते हैं.....


–होशियापुर, मो. 9417477999


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