पुस्तक समीक्षा


-आरती स्मित, दिल्ली, मो. 8376837119, ईमेल:dr.artismit@gmail.com


 


स्त्री-व्यक्तित्व के विभिन्न आयामोंपर विस्तृत चिंतन का दस्तावेज ! 


वरिष्ठ लेखिका कमल कुमार, कहानी, कविता और उपन्यास विधा में से किसी भी विधा को चुनती हैं तो उनकी कलम सड़ी-गली मान्यताओं और रूढ़ियों के विरुद्ध आवाज उठाती प्रतीत होती है,मगर शालीनता के साथ।
अब, उनकी आत्मकथा 'जाे कहूँगी सच कहूँगी‘ मेरे हाथ में है और पाठक के समक्ष उनके द्वारा स्वीकारा सच है तो मुझे लग रहा है कि मेरी मुलाकात एक नई ‘कमला’  से हो रही है, जिसके विरोध जताने का अपना अंदाज है, मगर जो केवल अपनी बात नहीं बताती, उन सबको साथ लिए चलती हैं जो उनके ‘कमला’ से ‘कमल’ और साधारण से ‘विशेष’ होने/बनने या बनाए जाने में सहायक या विरोधी रहे। विषयवस्तु , भावना या परिस्थिति का ब्योरा देती हुई ‘कमल’ अपनी ईमानदारी के साथ भाव प्रस्तुति में भी इंटेरियर डिजाइनर के रूप में नजर आती हैं। बचपन बहुत ही कम पन्नों में सिमट गया। विवाह के पूर्व तक का जीवन और मध्यमवर्ग की स्त्रियों अनकही- अनदेखी वर्जनाएँ, जिनका इन्होंने आरंभ से ही खंडन किया, कहीं न कहीं समाज की 80%  का भोगा हुआ सच प्रतीत होता है। घर- परिवार से जुड़ी बातों को साझा करने वाली कमल अपने निर्णय आप लेने की क्षमता और हठ रखनेवाली बेटी और पत्नी , वात्सल्यमयी माँ, घर और नौकरी की रस्साकशी में कटती-फटती लहू बहाती, फिर भी मुस्कुराती हुई स्वयं को और परिवार को व्यवस्थित करने में लगी संवेदनशील स्त्री नजर आती हैं, जो कई बार समय और परिस्थिति के उतार-चढ़ाव में पड़कर किसी सच्चे मित्र की कामना और कल्पना करती है,मगर उनके व्यक्तित्व का अधिकांश भाग उनके लेखकीय जीवन में छिपा है। ‘कमल’ अंतस से-अंतस  तक साहित्यकार ही है- जीवन और संसार को साहित्य, समाज, राजनीति, दर्शन, भौतिकी और अध्यात्म के बड़े फलक पर चिंतन  करनेवाली व्यक्ति! 
शुरू के पचास पृष्ठों में कहीं न कहीं मैं स्वयं को पा रही हूँ,जबकि न तो समय न ही परिवेश में समानता है, फिर भी! बाद के खंडों में भी कई जगह मुझे ऐसा ही प्रतीत हुआ। संभव है, अन्य स्त्री पाठक भी ऐसा महसूस करें। पृष्ठ 80 पर उन्होंने हरभजन सिंह की जीवनी की एक पंक्ति उद् धृत की है : 
'fortune turns like a wheel one man it lifts, another it matsdown' और सोचा, ‘तुम्हारा लिखा मेरे लिखे से पहले क्यों लिखा गया और छप गया।’
इस पुस्तक के आरंभिक 50 पृष्ठों को पढ़कर मेरे मन में भी ऐसे ही विचार आए। शायद यही इस कृति की ईमानदारी का प्रमाण भी है। ‘कमल’ के भीतर का लेखक बड़ा जीवट है। लेखन उनमें साँसे भरता है- मुक्त ऑक्सीजन। मानो यदि उनसे कलम छीन ली जाती तो क्या होता? क्या वे इतनी जीवंत, इतनी ऊर्जामयी होतीं, नहीं! कमला को ‘कमल’ इसी कलम ने बनाया- पंक में खिलने- मुस्कुरानेवाला कमल! और हिंदी के प्रति उनका अटूट समर्पण-भाव था कि विपरीत परिस्थिति में भी उन्होंने हिंदी को उच्च शिक्षा और सृजन का माध्यम चुना। मगर साहित्य में घुसपैठ कर अपनी जगह सुरक्षित रखनेवाली साहित्यिक राजनीति से उनका लेखक मन दुखी रहा, अब भी दुखी है। उनकी यह पीड़ा वस्तुतरू प्रत्येक स्वाभिमानी, गुटबंदी से दूर रहनेवाले लेखक की पीड़ा है, चाहे वह किसी भी उम्र का हो। दूसरी ओर एक गंभीर पाठक की भूमिका में भी दिखती हैं, खासकर ‘कामू’ पर उन्होंने लंबी प्रतिक्रिया दी। कई स्थलों पर पाठक भूल जाता है कि वह श्आत्मकथाश् पढ़ रहा है, क्योंकि विभिन्न वादों और लेखकों के विचारों पर जिस गहनता ने वे विचार रखती हैं, इस कृति के आलोचनात्मक कृति होने का भान होने लगता है। यही इसकी खासियत भी है और यही विराटता। 
पृष्ठ 180 पर, पति-पत्नी के संबंध को लेकर कमल ने स्वीकारा है कि ‘‘पुरुष का अहं चट्टान की तरह होता है। उससे सिर मारो तो चोट तो लगेगी, साथ ही खून भी निकलेगा।’’ दरअसल कमल की यह बात केवल पतियों पर ही लागू नहीं होता, उन सभी पुरुषों पर लागू होता है, जिन्हें अपने से अधिक सम्मान देती है और समर्पित रहती है। कमल की पीड़ा-- एक स्त्री की पीड़ा बीच-बीच में, पंक्तियों में उभर आई है: 
‘‘वे सब कहते हैं मैं बड़ी साहसी हूँ, निडर हूँ। हाँ हूँ तो। सच को सच कह सकती हूँ। ठीक को गलत नहीं कहती और ना ही गलत को ठीक कह सकती हूँ। पर इसमें क्या- मेरे भीतर एक बड़ी ही निरीह, उदास साँझ-सी, बरसात की उम्मीद में सूखी फसल-सी औरत है। कमजोर और अकेली। मेरे सिवा इसे कोई नहीं जानता। कैसे जानेगा?’’ (पृ -179)
‘‘क्यों अशांत करती खामोशी के बीच जीना होता है। टुकड़ा- टुकड़ा अदृश्य होती धूप की तरह। तुपका-तुपका टपकते रीत ते जाते पानी की तरह .... बर्दाश्त के बाहर का भीतरी अकेलापन। उस समय चाहिए होता है कोई ‘‘पराया’’ जो अपना बन सके। अपने में समेट ले।’’
अंतिम के कुछ पन्नों में श्कमलश् बुद्ध के विचारों और क्वांटम थ्योरी से गुजरती हुई संसार की असारता, शून्य के महत्व पर विचारती हुई दर्शनमार्ग से अध्यात्म में प्रवेश करती प्रतीत होती हैं, जहाँ अपने या दूसरों के बारे में सबकुछ निर्मल मन से कहा जाता है, मगर अंत में अपनी संतुष्टि के आगे प्रश्नचिह्न लगाकर छोड़ देना और चिड़िया के उन्मुक्त विचरण से कृति का समापन करना इस बात का सूचक है कि लेखिका कमल कुमार आनेवाले समय में एक बार फिर कहेंगी, ‘जो कहूँगी सच कहूँगी’ ।
अबतक कमल कुमार की इस कृति के  भावपक्ष पर बात कर रही थी। किसी के आत्मकथ्य पर सूक्ष्म समीक्षा नहीं की जानी चाहिए, ऐसा मुझे लगता है, क्योंकि इस स्थिति में व्यक्ति स्वयं की समीक्षा करके संसार को उन सच्चाइयों से साक्षात्कार करा रहा होता है, जिसे वह चाहता तो छिपा भी सकता था। किंतु प्रकाशन की दृष्टि से इसकी कमियों पर ध्यान दिलाना कर्तव्य बन जाता है। 
सबसे पहले तो, वर्तनी संबंधी दोष प्रचुर मात्रा में हैं, विराम चिह्नों का असंतुलित प्रयोग है जिससे वाक्य - विन्यास में दोष उत्पन्न हो गया है, कहीं -कहीं कॉपी एडिटिंग की कमी भी खलती है। कुल मिलाकर टंकण, प्रूफ रीडिंग और कॉपी एडिटिंग में लापरवाही बरती गई है । दूसरा संस्करण निकालने से पूर्व इसके भाषा-सौष्ठव पर ध्यान देने की अनिवार्यता होगी। 
अंत में, इतना ही कि लेखिका ने जिस ईमानदारी से अपने जीवन के हरएक परत को  आत्मकथा है जो  स्त्री जाति के तमाम पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती है। और यह हर वर्ग के पाठकों के लिए  पठनीय है। शुभकामना सहित !
पुस्तक: जो कहूँगी सच कहूँगी 
लेखिका: कमल कुमार 
प्रकाशन: नमन प्रकाशन 
प्रथम संस्करण 
पृ. 211
मूल्य: 40/-     



कमल कुमार


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