समीक्षा


अवध बिहारी पाठक, सेंवढा, दतिया (म. प्र.), मो. 9826546665


खंडित प्रारूपों के संधि पत्र  ‘‘पारो उत्तरकथा’’


‘‘कभी किसी को मुक़म्मिल जहां नहीं मिलता
किसी को ज़मी तो कहीं आसमां नहीं मिलता
जिसे भी देखिए अपने आप में गुम है
ज़ुवां मिली है मगर हम ज़ुवां नहीं मिलता’’              निदा फाज़ली



पत्र कारिता के फलक पर मौलिक चिंतन का परचम लहराने को प्रतिबद्ध ‘अभिनव इमरोज़’ के संपादक के अनुग्रह से मुझे एक प्रवासी (भारतीय) (पंजाब से) लेखक सुदर्शन प्रियदर्शिनी का उपन्यास ‘पारो उत्तरकथा’ देखने केा मिला। रचना को पढ़ कर लगा कि उपरिलिखित पंक्तियां इस रचना के कथ्य, पात्र एवं परिवेश पर सटीक ठीक उतर रही हैं। इस लेखक के चार उपन्यास और 8-9 कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और लेखन अभी भी जारी है। इस रचना पर विचार करने के उपरांत रचना समग्र के प्रति निम्न शीर्षक बिन्दु उभर कर आए जो एक कृतित्व को परिभाषित करने का प्रयत्न है। दृष्टि मेरी है; कहीं गलत भी हो सकती है- मेरी निगाह।


केन्द्रक रचना का: ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।’ यह बुद्धिवादियों ने उसकी मूल अन्तर्वृत्ति के खिलाफ एक फलसफा सा जारी कर दिया और वह अपनी आरोपित सामाजिकता को ढोए चला जा रहा है, दूसरी ओर एक सच यह भी है कि वह अपनी आवश्यकाताओं के लिए सामाजिकता को स्वीकार करता है। सामाजिक होने की विचार सत्ता उसके ऊपर परम्पराओं  के शिकंजे को कसे रखती है परंतु इसके बावजुद वह अपने मनोपरिदृश्य में जीता है- पुरुष हो या स्त्री अपने अन्तर का एक कोना बचाए रखता है। सारी सामाजिकता के क्रिया कर्म समपन्न  करने के बाद उसी एकान्त कोने में उसकी अपनी अंगड़ाइयां होती है जो समूची मनुष्यता का सच होता है। ब्राह्मण्ड की रहस्य शक्तियां नियति में हस्तक्षेप करती रहती है उसके उत्क्रोष के प्रभाव से मनुष्य औकात से हट कर अतिरेक में जीता है। निराली प्रतीति और अनुभूतियों से लैस इसी स्थिति को ध्यान में रख कर निर्मल वर्मा ने एक जगह कहा कि ‘‘महाकाव्यों के चरित नामक एक अतिरेकी मनस्थिति के कारण हीरो बनने का गौरव प्राप्त करते हैं’’ मेरे ख्याल से यह अतिरेकीपन प्रकृति का क्षेत्र (सत्य) होता है जिसके प्रभाव से मनुष्य समाज को अनदेखा कर देता है तब उसमें कुछ नैसर्गिक स्थायीभाव पैदा होते हैं जो समाज के बन्धनों को अपनी एकांत निष्ठा से नकार देते हैं। यहीं पर उदय होता है ‘प्रेम’ शब्द जिसे कबीर ने ‘ढाई आखर’ कहा है और उसके जानने वाले को पंडित और तब कबीर के इस पंडित को लोक (समाज) दीवाना कह कर लांछित करने लगता है। मीरा की तरह, पात्र एक मिथक बन जाता है। मीरा, कृष्ण, हीर-रांझा, लैला-मंजनू जैसे तमाम प्रेमी ऊँचाई के मिथक ही तो हैं। एक ऐसा ही मिथक देवदास-पार्वती बीसवीं शताब्दी में प्रेम की मिथक कथा बना। जिसे लोक ने सराहा। बाद मे यह प्रेम कथा उपन्यास एवं फिल्मों में छा गई परंतु पे्रमिक तन्मयता के रूप को भासिक रूप को मानव मन-चेतना अधूरा ही मान रही है परिणामतः रचनाकार के चिंतन में उस प्रेम की पराकाष्ठा और परिणामों की उध्र्वचेतना हड़बड़ी मचाती रहती है और उसी का परिणाम है- लेखक की यह रचना ‘पारो उत्तरकथा’ जो देवदास-पार्वती प्रेम कथा का एनालेसिस है जो प्रेम और सांसारिक यथार्थ को परिभाषित करता है यही भाव-विचार रचना का केन्द्रक है।
कथा का प्रत्यावर्तन- लोक में प्रचलित इस प्रेम कथा मिथक को शरत ने उपन्यास देवदास के रूप में साहित्य मंच पर स्थान दिया इसके कथानक में दो अबोध बच्चों देवदास-पार्वती का बाल्यावस्था का प्रेम युवा हुआ तो दोनों के माता पिता के सामाजिकता, धन, ऊंच-नीच कर्म के ईगो के कारण तो दूसरी ओर दो व्यस्क पे्रमी भी अपनी तान पर तने रहे; प्रेम फलित न हुआ। पार्वती की गृहस्थी बसी और देवदास शराब एवं वेश्या संसर्ग में पड़ कर पार्वती को दिए गए वचनानुसार उसके द्वार पर प्रोणोत्सर्ग करता है। यहां शरत का कथानक समाप्त। परंतु पारो एक उत्तर कथा है। अस्तु थोड़ा पीछे से चलें: पार्वती का विवाह-राय साहब से उसकी माँ ने सम्पन्न करा दिया लड़की खरीद कर। दूसरी ओर- देवदास की आत्मा अब भी पारो के साथ उसके आगामी जीवन के चिंतनीय निर्देश देने को मंडराती रहती है। पारो के देवदास का स्वप्निल वार्तालाप राय साहब सुन लेते हैं और पारो को पत्नी पद भी नहीं देते वे अपनी अतीत प्रेम में गुंफित रहते हैं। कथाकार ने रायसाहब के पूर्व दमित प्रेम
राधा प्रसंग-राधा द्वारा आत्म हत्या, उनकी बेटी कंचन का अबोध विवाह; उसके पति की मृत्यु दुबारा शादी करना देवदास के माता पिता का पारो से मिलना आदि प्रसंगों को नया रूप दिया है। इस कथा विस्तार का लक्ष्य यह था कि प्रेम और उदभट दमन विचार भी किन किन वीथियों से गुज़़र कर अपने आस-पास को कितना अधिक उत्तेजित कर देता है। जाने कितने लोग जलते हैं उस आग में और दुख यह है कि जिन रास्तों पर चलने से इन्कार में जाने क्या क्या भोगते हैं, पारो, रायसाहब और देवदास को भी वही गेल मिली जिसमें में न चाह कर भी चलने को विवश हुए। सचेत लेखक का सामाजिकता की बेमुरुब्बत पीड़ा का इज़हार करना है ‘पारो उत्तर कथा’ का कथानक बहुत छोटा है, कुछ को छोड़ कर अधिकांश पात्र वे ही हैं, स्थान भी कुछ बदले हैं परंतु कथानक की आधार भूमि शरत चन्द्र की ही है। हां, इतना करना पड़ेगा कि लेखक ने उन घटनायों एवं प्रसंगो को अपनी गहरी संवेदना से इतना गहरा रंग दिया है कि भावक पारो की करूणा में भीग जाता है। कथा भले ही पुरानी हो परंतु तदजनित समस्याओं की प्रखरतम व्याख्या और परिणीत जो शरतचन्द्र नहीं दिखा सके वह ‘पारो उत्तर कथा’ ने मूर्तित कर दिखाया जो निसंदेह लेखक उसके सफल और जीवंत कथाकर होने का प्रतीक है।


आत्म स्वीकृतियों से उपजा विराट: सारे कथानक एवं पात्रों पर तत्कालीन सामान्ती समाज की छाया है, माँ लीलामयी ने अपने पति का सामन्तीपन, वैश्याओं के कोठों पर जाना, पत्नी की उपेक्षा, बच्चों पर ध्यान न देना, स्त्री को केवल भोग्य समझना और इसी में लीलामयी के पति समाप्त हुए। अपरिपक्व मनोदशा में लीलामयी पति को फिर पाने की कल्पना में साधुओं के चक्कर में नैतिकता से फिसली, परंतु संभल गई। अपने पुत्र  वीरेन का पेइंग गैस्ट राधा के प्रति आकर्षण समझा जो वस्तुतः माँ का प्यार खोज रहा था और रायसाहबी की सलीव उठाए हुए था। अपनी ज़िद और धौंस से राधा की मौत के बाद खरीदी गई पत्नी पारो को पत्नी का दर्जा नहीं देता। लीलामयी का भयभीत किंतु दृढ़ संकल्प पारो को स्त्री जनित पीड़ा के साथ खड़ी रह कर पारो वीरेन को सहज करने को प्रयत्नशील रहती है क्योंकि उसने वीरेन के सारे राधा-अतीत और आसक्तिपन को छिपा कर पारो को खरीद कर अपने पुत्र से विवाह किया था। वह खुद को अपराधी मानती है और वीरेन को रायसाहबी से पारो के पत्नी पद के सम्मान की रक्षार्थ बेदखल करने को कह देती है। उसने अपना दारुण अतीत भोगा था इससे कह डालती है मैं’’ माँ हूं और एक औरत भी; मैं पार्वती के साथ अन्याय नहीं होने दूंगी’’ पृ. 8 लीलामयी में यह तेज, साहस, कर्तव्य निष्ठा स्त्री की अन्तर वेदना की लहर अपनी भूलों की आत्म स्वीकृतियों से उपजी है।  अन्ततः वह एक आदर्श माँ, नेक इन्सान, साहसी महिला है लेखक यहाँ स्त्री के उस चट्टानी रूप को दिखा सका है जिसकी आज के समाज को स्त्री के पक्ष में जरूरत है।


पुरुष नारी अभिजात्य का विसर्जन: वीरेन अपने पिता की रायसाहबी का एवं माँ लीलामयी की फिसलन का जि़्ाद्दी प्रतिरूप है जो पत्नी-स्त्री पर अपना एकांतिक और अराजक अधिकार चाहता रहा है और है जो राधा की याद के कारण एवं पारो के मुंह से देव की वार्ता का प्रसंग उसे पारो से एकरस नहीं होने देता तो दूसरी ओर मां की भी राधा में खोज करता है। यह उसका दमित वात्सल्य है। अपने कृत्यों के उपसंहार में वह पारो की उदारता, विवेक, कर्तव्य निष्ठता पर दुःख कातरता से द्रवीभूत होकर अपने बच्चों की खातिर निकटता चाहता है परंतु पारो-देव का भावात्मक समर्पण उसके पतित्व को भी नकार देता है। वीरेन का पुरुषवादी वर्चस्व पारो के विवेक और दाम्पत्य निष्ठा से पराजित होता है। क्षण-क्षण वीरेन अपराधबोध से ग्रस्त  होकर कह उठता है ‘‘पार्वती तुम मेरा कवच बन गई हो मैं तुम्हारे समक्ष बहुत लज्जित हूँ किस-किस बात की क्षमा मांगू’’ पृ. 297 यह वीरेन का एक अवश किन्तु अटूट धैर्य, विवेक और आन्तरिक तेज सम्पन्न नारी पारो के सामने समर्पण है जिसे पारो नकार देती है। लेखक यहां यह प्रमाणित कर सका है कि नारी अपने सामाजिक दायित्वों का र्निबाह भले ही कर दे परंतु वह अपनी एकांतिक प्रेमी निष्ठा का सौदा कभी नहीं करती और यह भी कि पुरुष नारी जाति पर अपनी जीत का दंभ भले ही पाले रहे परंतु नारी पुरुष से किसी काल में नहीं हारी जिसे वस्तुतः हार-पराजय कहते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि वीरेन जिन्दगी भर अपनी हीन ग्रंथि में खोई अपनी ही निजता को खोजता रहा और वह राधा और पारो दोनों में से किसी से अपना पतित्व मान न पा सका। न ही माँ से पुत्र भाव, न ही संतानों से सच का पिता भाव, वीरेन में राधा के प्रति एकांगी अनुरक्ति रही। पर अपने इस मनोभाव को पारो में समाहित न कर सका। एक जगह वह कहता हैं ‘‘हमारे अपने अपने अहं हैं’’ पृ. 291, स्त्री होने के नाते पारो का अहं में डूबना उसकी लज्जा का बाना हो सकता है परंतु वीरेन के अहं का विसर्जन न होना पुरुषमन का दुखयोग है। कथाकार इस तथ्य को भलीभांति स्थापित कर सका। कुल मिलाकर वीरेन के बारे में कहा जासकता है- पद, प्रतिष्ठा, धन, जन, मां के संदेशों के बाद भी यह पात्र निरीह ही रहा। जो अपने को कहीं भी तो ऊंचा न उठा पाया। पराजित होकर भी पराजय अस्वीकार उसकी जड़ता ही है और अंत में ‘‘आओ पारो’’ कहना सदायशता है या भीरूता। इतिहास इसे देखे जांचे।


स्त्रीपन का क्षेतिज विराट- पारो: इस पात्र के चित्रण में लेखक ने लोक और साहित्य में प्रचलित रूप से हट कर नया स्वरूप दिया है। पारो के सृजन में लेखक ने अपने अन्र्त के जाने कितने कोने अंतरे, जाने कौन सी मिट्टी, नदियां, पहाड़, मैदान, बादल, फूल, झरने, रोने गाने के विह्वल क्षणों को याद किया हेागा तब यह अतीव स्त्री पात्र रचा। एक गरीब, लड़की बेचने वाले परिवार से खरीद कर लाई गई लड़की। क्या नहीं है पारों में फिर भी? हाँ उसमें वह सब है, सारे गुण, सारे दोष, उच्च उदात्त भाव, विचार, आचरण किंतु वे सब उसमें एक विशेष परिस्थिति व्यवहार में दिखते हैं। पूर्व पे्रेम का दाग लोग उस पर लगावें पर इससे उसमें हीन ग्रंथि नहीं, न भय न शर्म, राय साहब जब इस (देवदास) पर चिन्ह लगाते हैं कि तुम किसी से प्रेम करती थी वह अवैध है’’ तो उसका उत्तर होता है हमारे प्यार के बीच हमारे प्यार की पवित्रता थी मुझे इसकी ग्लानि। नहीं वह आज मेरी शक्ति है ‘‘पृ. 121 और आगे जब रायसाहब अपनी समृद्धि का हवाला दे कर उसे अपने अहसान से लादना चाहते हैं तब वह कह उठती है हाँ ‘‘।बड़ी हवेली’’ और ‘‘बड़े बच्चेे’’ भी बहुत तीखे उपालंभ है अपने वाग्दत्त पति के प्रति क्या उस पार्वती के समकाल में जहां रायसाहबों को अपने अधिकार मांगने वाली पत्नी को मारकर बगीचे में गाड़ने का पुरुषवादी अधिकार था तब पारो के ये कथन उसके जीवट साहस को और पवित्र प्रेम का तेज बिखेरते हैं। यहां वह बेहद जटिल है कुछ उसकी उदार सोच, सहजता और कोमल हृदय के स्थल भी देखने योग्य है। पारो अपने सौतेले पुत्र की प्रेम कथा और उससे महेन में उपजी निराशा को धो डालती है। ‘‘दुनियां में दुनियां की तरह जिओ दुहरी जिन्दगी जीने की सब में कुब्बत होती है। आधी से अधिक दुनियां मुखौटे के नीचे जी रही है।’’ पृ. 283 यह महेन को उपदेश है तो दूसरी ओर उसका जीवन दर्शन और अपने दाम्पत्य के प्रति उदार होेने का लोक भी पर लेखक का कथ्य कौशल है। एक अन्य स्थल भी है उसकी जटिल स्थिति का वह आधी रात पहरेदारों की भी उपस्थिति में देवदास की हवेली में पहुंच कर अपने प्रेम और विवाह को प्रकट करती है। यह देव के प्रति इज़हार है जिससे देव अनभिज्ञ है। वह मां पिता की इच्छा प्रतिष्ठा के कारण साफ इन्कार करता है। दूसरा यह कि पारो के मन में भले ही देव उसका आदर्श पे्रमी है पर देव के मन में पारो के समर्पण की कोई जगह नहीं। यह सुनकर वह मर्माहत है परंतु जब परस्पर प्रेम की समझ देव में उभरी तब देव के कहीं भाग चलने के प्रस्ताव पर इन्कार कर देती है। देव बहुत मनाता है, उसके मां पिता के किए विवाह प्रसंग पर उसे मुकर जाने की अजीव स्थिति खड़ी है, देव पारो दोनों अपने अपने पाले के दंभों में संलग्न, अनवसरों के क्षणों में की गई एक दूसरे के हां एक साथ नहीं रहेे; चाह कर अनचाहा और अनचाही की चाह दोनों की अपनी अपनी जय-पराजय लेखक का संकेत है यह सब भाग्य का खेल है। हम सब अभिशप्त है समय के हाथों।


पारो के मन का एक हवा से भी पतला अहसास तो मुझे हिला गया। राय साहब से विवाह के बाद उसका प्रेमी देव एक दिन पारो के यह कहने पर कि उन्होंने पहले ही दिन ‘‘सरहद तय कर दी, ‘‘वह कैसे’’,/ तुम नहीं जान पाओगे;/ ‘‘बताओ’’, पर पारो कहती है ‘‘नहीं यह पति पत्नी के बीच की बात है, हर रिश्ते का अपना विश्वास होता है। एक नैतिकता और सीमा’’ देव अपने प्रिय से भी गैर सा व्यवहार करने वाले पति के इंकार को भी वह सार्वजनिक नहीं करना चाहती। उसका इस एहसास को अप्रकट रखने का विचार हवा से झीना है। लेखक नैतिकता और पारो की नैतिकता के बीच एक कमाल का गोपन रख सका। यह कहते पारो कितनी समझदार नैतिक और बहादुर हो गई होगी। उसकी इस समझ और नैतिकता के पैने दांतों से जाने कितने रचना को पढ़ने वाले लोग घायल होंगे। कहूं क्या? वह स्थल भी देखें जहां एक विवेकशील परंतु निरीह औरत की अस्मिता की दीवार भरभरा कर गिर पड़ी होगी, लीलामयी अपनी पुत्री को लेकर प्रथम कमरे में जाने को प्रस्तुत है उसकी अपेक्षा है कि पारो भी रायसाहब के कमरे में जाए परंतु वह ठिठकी देव की आत्मा को बताती है कि ‘‘मैं सामाजिक भी रहना चाहती हूँ और तुम्हारे प्रति अपने सत्य की रक्षा भी’’ असंमजस की दशा है, देव ने पूछा ‘‘कौन रिश्ता भारी है’’; ‘‘सदैव सामाजिकता जीतती है’’ और वह पति कमरे की ओर मुड़ी। सुन पड़ा ‘‘आओ पारो’’ यहां लेखक ने नारी की सृजनशील दृष्टि की स्थापना की है जहां वह गुमनाम हो कर घर परिवार और एक विशाल पवित्र कायनात की सृष्टि करती है, खुद को स्वाहा करके जिसमें पति है, माँ, बच्चे, ननद हैं। यहां मेरा कहने का मन होता है पर वह किसी सामाजिकता के दवाब में नहीं एक स्त्री की सृजनशील सृष्टि है यहां पारो, पाठक याद करें कि यह वही पारो है जो राय साहब और माँ लीलामयी द्वारा उसके स्त्री मन को जगाने यहां तक कि हाथ, कंघा, कलाई और पीठ पर पति के हाथ फिरने फिराने के बाद भी उसके स्त्री- वजूद पर कहीं भी देह राग नहीं फिसला, कहीं भी उसमंे लिवलिवाहट नहीं हुई अपितु ऐसे अवसरों पर उसके पति का हाथ कंधे से झटकता भी देखा गया। यह उसका किया गया कृत्य उसका अपना मानसिक बदला था और आज ‘‘आओ पारो’’ सुनना पारो का समर्पण नहीं सृजन, सुख, सामजस्य को फिर से स्थापित करना है यहां मुझे कवि प्रसाद की श्रद्धा याद आती है उसने मनु भी तो इडा की रंगीनियों के बाद पश्चाताप की आग में झुलस कर श्रद्धा की ओर लौटे थे और रायसाहब भी ठीक उसी तरह राधा की ओर से; स्थितियां थोड़ी बहुत विरल सघन हो सकती हैं परंतु यहां पारो, श्रद्धा है, कायनात को जिंदा रखना जिसका ध्येय है। यहां पारो की नारी और पारो के प्रति कहने को विवश हूँ कि ‘‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग-पग तल में विमुख श्रोत सी बहा करो इस जीवन के समतल’’ में नारी बनाम पारो श्रोत है अपनी दशा दिशा खुद करती है और मैदान का सृजन करेगी। जहां सारे पराभव में उसकी सृजन का विजित भाव जिंदा है और रहेगा।


खुदी का प्रायश्चित और प्रायश्चित की खुदी-यानी देव: शरत चन्द्र और लोक में प्रचलित देवदास (देव) पारो के नैसर्गिक प्यार-समर्पण के अपने दंभ की नासमझी में इंकार करता-आधार है माता-पिता की असहमति, पारो का नीच कुल और देवदास के मन के कैनवैस पर पारो के प्यार की एक भी रेखा का न होना। पर जब पारो का निसर्गी प्रेम देव में जाग्रत हुआ देव ने पारो को बहुत मनाया परंतु अब पारो की देव और उस सारी कायनात से खुद को बलिदान करके भी बदला लेने की बारी थी सो देव ने उसकी पालकी को कंधा दे कर विदा और खुद शराब, वैश्या चन्द्रमुखी में पारो के प्रेमिक विसर्ग को खोजा पर वह न मिला और अंत में पारो को दिए गए वचनानुसार उसके दरवाजे पर प्राण त्यागे पारो के आसपास उसकी आत्मा लगातार कुछ खोजती रहती है। खोया प्यार, चन्द्रमुखी की खोई निजता की खोज दुनियां के विकृत दस्तूरों का निदान, मुक्ति खुद की खुद से, पारो-चन्द्रमुखी और लोक की उस जड़ता को प्रेम का फलसफा समझाने की सफल असफल कोशिश में देव न पारो को अपना सका और न चन्द्रमुखी को देव स्वीकार करता है ‘‘जब अपने हाथ खाली हो जाते हैं तब दूसरों की भावनाओं का मूल्य समझ में आने लगता है ‘‘पृ. 153 उसकी (देव) आत्मा लगातार पारो को संसार की, परिवार एवं अपने दायित्वों की ओर प्रवृत्त करने में लगा रहता है खुद को भूल जाने को कहता है क्योंकि दो प्रेमियों का मिलन-’’अदृश्य हाथों में है’’ पृ. 36 तो दूसरी ओर उस पर बड़ी सख्त पाबंदी है पारिवारिक और लौकिक तत्वों की ही नहीं, देव एक जगह कहता है पारो से ‘‘पूरी कायनात प्रेमियों के बीच प्रहरी है’’  पृ. 5 ऐसी दशा में चाहे पारो हो या चन्द्रमुखी प्रेम की आकांक्षा बेमानी है इसी से वह चाहता है प्यार की मुक्ति प्यार से मुक्ति और संसार से मुक्ति यहां देव में लेखक ने यदि एक ओर घोर उदासीनता दिखाई है तो सांसारिक सम्बधों के शाश्वत होने पर भी चिन्ह लगाया साथ ही यह भी कि अन्य झंझटों के क्रियाकलापों यानी व्यक्त अव्यक्त अटैचमेन्ट की पूर्ति भी या अपूर्ति की दशा हमारे कर्मफल है। यह सब जानकर भी और उससे गुजर कर भी हमें ‘‘संसारी बनना पड़ता है’’ पृ. 32 एक पहेली सी खड़ी कर दी है लेखक ने कि संसारी बनो, कुदरत की नियति को स्वीकार करो और खुद को भी अज्ञात दिशा की ओर ले जाकर खुद को मिटा डालो। जो वस्तुतः उस मन, आत्मा, शरीर का असली प्रस्थान न था। देव ने खुद के होने पर प्रायश्चित किया और प्रायश्चित को भी अपने मन्तव्य का पैरोकार नहीं माना, इसी स्थिति में गालिव कहने को विवश हुए थे-


न था कुछ, तो ख़ुद था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मंै तो क्या होता


ये जो होना है सांसारिकता और भीतर बैठे उस आत्म को प्रभावित करता है जो इस ‘होने’ के प्रति न सकारात्मक रह पाता है न ही नकारात्मक। यों तो शरत चन्द्र ने ही देवदास पर समय के इतने अभिशाप लादे और इस रचना के लेखक ने तो देव को कहीं का नहीं रहने दिया। इतना नर्म दिल कर दिया कि वह कह उठा ‘‘व्यक्ति क्यों नहीं प्यार कर सकता दो लोगों से, मैं भी तो तुम मंें आत्मसात होकर चन्द्रमुखी से प्यार कर सका’’ पृ. 55 देव पारो से उपजा खालीपन चन्द्रमुखी के साहचर्य से भर सकता था परंतु देव चन्द्रमुखी के बेबाक समर्पण से नहीं हारा मैंने उसे चाहा उसकी वेवाक लगन से- समर्पण संपूर्ण से नहीं स्वीकार से होता है मैंने चन्द्रमुखी की निर्लिप्त लगन से उसे चाहा वह पावन मूर्ति थी-‘‘ पृ. 35 लेखिका ने देव के भीतर एक अजीब आलोक पैदा कर दिया कि वह पारो को चाहता है क्योंकि उसने देव के प्रस्ताव की अवमानना कर दी इसी वजह से अपने आप को और अधिक प्रताड़ित करने के लक्ष्य से पारो को रायसाहब के संसार मंे लौट जाने को कहता है और चन्द्रमुखी जिसकी ओर से केवल पूजा भाव मिला। समर्पण, आश्चर्य है लेखक के प्यार के दर्शन पर भी सम्पूर्णता की भी अवहेलना की जा सकती है यथा पारो की संपूर्णता पर पारो की वह सम्पूर्णता खुद को दग्ध करने और उस दग्धता का ताप देव तक पहुंचाने का लक्ष्य, प्रेम और समर्पण के बीच एक ऐसा मनोप्रान्तर खोज निकलता है जिसका अहसास हवा के मानिदं है। देव को लेखक ने एक ऐसा पात्र बना दिया जो न खुद से संतृप्त है न पारो से न चन्द्रमुखी से बल्कि इन दोनों में एक ऐसा प्रेमादर्श देखना जो समर्पित हो कर अपनी स्त्री स्मिता की रक्षा करे। लोक और परलोक में नारी तत्व की प्रतिष्ठा उसकी गरिमा यहां याद रखना चाहिए कि लेखक ने नारी के जिस पक्ष को प्रस्तुत किया है वह नारी विमर्ष नहीं बल्कि नारी की प्रेमिका सत्ता का वह उजला पक्ष है जहां नारी सब कुछ दे कर अपने में अपने होने की ज्योति का अव्यय भरती रहे। देव ने पारो हो या चन्द्रमुखी दोनों को अपने अपने आकाश सौंपे हैं अस्तु देवदास शरत के देवदास के आगे का वैचारिक पड़ाव एक अभिशप्त पुरुष के रूप में है जबकि लेखक का देव अभिशाप को परे नहीं फटकता है उसको अंगीकार करता है। उसमें एक वैचारिक तेज है उसके कथन ‘‘तुम पैसे लेती हो’’ ने एक स्त्री की स्मिता को जाग्रत कर दिया। देव का संघर्ष सारी कायनात में प्रेम के उस रूप की प्रतिष्ठा करना है ‘‘जिसको कोई नाम नहीं दिया जा सकता।’’


घृणा प्रेम की अग्रिम ईको: देव ने चन्द्रमुखी के रूप विलास वैभव में पहुंच कर उससे प्रश्न किया पैसे लेती हो उत्तर था हाँ लेती हूं अन्यथा हमारा काम कैसे चले तो देव ने उसे एक ऐसी घृणित दृष्टि से देखा जिसमें करुणा थी और था सम्मान नारी की विवशता के प्रति उसकी उदात्त समर्पण भावना के प्रति जिसे चन्द्रमुखी ने अपने हृदय की उस अपाठ्य लिपि में पढ़ा जो दो तिररिस्कृत आत्माओं की परस्पर प्रेमिक वारदात थी। देव की घृणा उसी क्षण चन्द्रमुखी के मन में एक अटूट प्यार की लहर बन गई जो बकौल देव ‘‘उसे अन्दर से उखाड़ रही थी ‘‘पृ. 34 जिसे देव ने उसकी निर्लिप्त लगन के कारण चाहा। अपने किसी पूर्व जन्म-संस्कार जनित लगाव या विलगाव का प्रतिफल परिणाम रूप; वैभव, समृद्धि की मलिका सब कुछ त्याग कर वैरागी बन गई। देव उसके पूजा गृह में देव बन गया। जहां चन्द्रमुखी का लक्ष्य देव को पाना नहीं उसकी आराधना करना था। यहां लेखक ने चन्द्रमुखी को रचना का उत्कृष्ट पात्र बना दिया। कुछ भी देव से पाना उसका लक्ष्य न था। पारो ने जब उसके घर पहुंच कर देव के प्रति चन्द्रमुखी की निष्ठा श्रद्धा का जो सच देखा उसके समक्ष ‘‘पारो चन्द्रमुखी से हार गई’’ पृृ. 321 चन्द्रमुखी के प्रति पारो का सौतन भाव चूर चूर हो गया क्योंकि चन्द्रमुखी ने देव को पाने का हक पारो को दिया और वह देव से ‘‘अगले जीवन में मिलने की कामना करने लगी’’ पृ. 321 क्योंकि चन्द्रमुखी पारो की प्रतिद्वंद्वी हो कर देव को यदि छू लेती तो मेरा ‘‘प्रेम नष्ट हो जाता, न छूना ही तो चन्द्रमुखी के देव के प्रति प्रेम को हरा भरा बनाए हैं’’ उधर चन्द्रमुखी देव को पारो के पास देखना चाहती है पारो के कहने पर पूजा के लिए वह अपने घर की मिट्टी देती है और कहती है ‘‘तुम्हारे घर में मेरे आंगन की मिट्टी मिल जायेेगी तो मैं कहीं न कहीं देव के पास रहूंगी क्योंकि तुम्हारे निकट होना देव के निकट होना है’’ पृ. 321 ये कथन पारो के देव के प्रति प्रेम को वायवी सिद्ध करते हैं। लेखक ने चन्द्रमुखी के उस अन्तर भाव को चमका दिया जो उसका अपना है, निजी; किसी एक खाली कोने का भराव। इस जन्म में पिछले प्रेम का बकाया पूरा करना और अगामी जीवन में देव के प्रेम को पाने की भूमिका बनना क्योंकि ये जन्मों जन्मांतरों की लहर जो है। चन्द्रमुखी को इस भूमिका में देव भी पाने को आतुर है अगले जन्म में। सदियों से यह मनुष्य के लिए प्रेम का यह रूप असलियत था या धोखा अबूझ ही है।


ज़िन्दगी का इकहरा यथार्थ-कंचन: इस रचना के सारे पात्र अपने अपने द्वन्द्व में झूलते दिखे वहीं एक पात्र कंचन की संरचना लेखक ने अपनी किसी मनोदशा में डूब कर एक विवेकवान यथार्थ दे डाला। क्या पता यूं कंचन माँ बाप के प्यार से वंचित, उपेक्षित, अबोध उम्र में विवाह और कोठों पर पड़े रहने वाले पति दंश से और सबसे बड़ा दंश छोटी आयु में विधवापन का बाना और व्यवहार; माँ पिता उसे अपने पास सुरक्षा की दृष्टि और लम्बी जिन्दगी के मद्देनजर अपने पास रखने को आतुर और ससुराल पक्ष परम्परानुसार अविवाहित छोटे भाई की चादर डलवा कर ससुराल में रखने के इच्छुक; जब कि कंचन की सास की यह बात खुद कंचन ने सुनी थी कि ‘‘इसने प्रमोद को खा लिया।’’ पृ. 147 जब प्रश्न उस घरेलू पंचायत में इस बात का उठा तो उसने बड़ी दूर दृष्टि से माता पिता की मृत्यु के बाद भाई भाभी परिवार की अपेक्षा पूर्वक मायके में रहने के बजाय उस बेचारिगी को जिन्दगी के बजाय ससुराल में चुनौतियेां के बीच जीने का निर्णय लिया’’ पृ. 264 पति की मृत्यु के बाद ये आरोपित सम्बध उसकी जिन्दगी के साथ प्रयोग ही तो थे। यह बड़ा बारीक यथार्थ लेखक पकड़ सका जो अबोध कंचन से ऐसा यथार्थपरक निर्णय करवा दिया जो उसे बहुत चेतना सम्पन्न सिद्ध करता है। देवदास के बाद कंचन इस रचना का बेहद आकर्षक पात्र दिखा।


कुछ और जरूरी बातें - लीलामयी के माध्यम से लेखक ने अतीत के सांस्कृतिक रूप की अनसुइया, गायत्री स्त्रियों को याद करते हुए इसका कारण खैबर के आक्रमणों को बताया और शरतचन्द्र ‘‘भी नीरू दीदी को कंधा नहीं दे पाए उसकी बोटी बोटी कौओं से न बचा सके’’ पृ. 20 यह वक्त ही ऐसा था। सामन्तों का विरोध बड़ा जोखिम था, परंतु लेखक के भी तो बहुत सारे पात्र चुप ही रहे। लेखक कंचन को स्त्री स्वायत्तता का झंडा अपने दोनों कुलों की मान्यता के विरुद्ध पकड़ा सकती थी। ये चरित लेखक का खुद का स्टैन्ड बन सकता था परन्तु वह भी शरत की भांति चुप्पी साध गई और कंचन को परम्परा निर्वाह में अपना भविष्य प्रतीपित रखना पड़ा खैर। लेखक की अपनी मनोदशा दूसरी बात है कथा के पात्र अपने अपने गोपन से भयभीत है।


पति का स्वीकार: पारो का खरीदा जाना, विवाह पूर्व देव का प्रेम, पति का अस्वीकार, यदि कंचन शोभना से न छिपाया जा कर परिस्थति का आकलन कर लेखक प्रस्तुत कर देता तो देव पारो के रहस्य रहस्य, न रह कर मानवीय भूल और समाज का कस्टम बन कर कंचन-शोभना के गले उतर गए होते हैं। लेखक का मानसिक द्वन्द्व इससे कम हो जाता जो लेखक नहीं कर सका क्यों उसकी भावभूमि जो लेखक की अपनी निजता है उसके लिए जहां लेखक के दर्शन और जीवन दर्शन का सवाल है वह कर्मवाद में विश्वास रखती हैं ‘‘जिसका फल निश्चित है’’ पृ. 148 एक स्थल पर एक पात्र कहता है हम उसे नियति मान कर उसकी सत्ता का लोहा मान कर चलना ही हमारी नियति भी है और वह नियन्ता भी बहुत चालाक है पृ. 133 कर्मवाद की मान्यतानुसार फल की कामना हम नहीं कर पाते नियति इसमें हस्तक्षेप करती रहती है फिर नियति और वह नियन्ता की शक्तियों का होना एक विरोधाभास पैदा करता है। स्वर्ग नरक की मान्यताऐं स्थगित हो जाती हैं और सक्रिय भी, कर्मवाद की ऐसी दशा में लगता है कि लेखक ने पात्रों के द्वारा जो दर्शन का प्रारूप प्रस्तुत किया है उनकी मनोदशा की कथन की, अभिव्यक्ति हो सकते हैं क्योंकि कौन नहीं जानता कि ‘‘दुनियां एक धोखा है’’ पृ. 129 लगता ये है कि दर्शन को किसी एक निश्चित धारणा पात्रों में नहीं बन सकी। ये कथन उनकी उतावली मनोदशा के प्रतीक से लगते हैं।


एक बात और वह यह कि लेखक ने महेन को सांसारिकता की प्रयोगशाला बना कर छोड़ दिया महेन अपने असफल प्रेम की बात कह कर पारो से समाधान चाहता है तो पारो का उत्तर है कि ‘‘उसने विकल्प खोज लिया होगा तुम अपना खोल भी दुनियावी बना लोे, दुनियां में दुनियां की तरह, दोहरी जिन्दगी जीने की कुब्बत सब में होती हैं। पृ. 282 मुझे ये सुझाव एक व्यस्क पुरुष को पंगु करने वाला लगा क्योंकि जिन्दगी में समय के कुछ खास समय में अपनी जरूरतें होती हैं। उन्हें क्या महेन न कर पायेगा और यदि ऐसा कर भी सका तो महेन का अपने पवित्र प्रेम और प्रेमी के प्रति विश्वास घात ही होगा न,  जो पारो खुद भी नहीं कर पाई। देव के प्रति शरीर, मन और देह के खोल में भले ही दो इकाइयां हों परंतु व्यवहारिक स्तर पर उनका अलग-अलग रहना या रखना दूसरे को की गई कृत्रिम आत्मीयता या समर्पण के प्रति विश्वासघात नहीं है क्या? मैं स्वयं भी आमंजस में हूँ लेखक या पारो या महेन को क्या कहूं और ऊपर वाला अपनी नियति की लीला मानेगा या कर्ता का चालाकीपन?


उपन्यास का स्थानीयमान इस विधा में कहां ठहरता है मेरी दृष्टि सेः सो कहना चाहूंगा कि पारो-देव कथानक उसकी पात्र गत भंगिमाओं को देख कर तय है कि यह प्रसंग बंगाल का है जिसे सबसे पहले बंकिमचन्द्र ने अपने उपन्यास चन्द्रशेखर में प्रताप और शैवालिनी पात्रों के माध्यम से और बाद में शरत ने देवदास के द्वारा इस अमर प्रेम कथा को प्रस्तुती मंच दिया अस्तु। सुदर्शन जी की रचना बंकिम, शरत के प्रेम गायन की कड़ियों की आगे की कड़ी है, इसमेें यथार्थ है तो संवेदना और अधिकारों की मांग जो शरत नहीं कर पाये यह मनोवैज्ञानिक उपन्यास नहीं परंतु मन की हलचलों का एक बड़ा पैना हल्फ़नामा है। लेखक ने एक किताब ही नहीं लिखी बल्कि एक जिंदगी ही लिख दी जो पूर्ण और अपूर्ण के बीच तैर रही है। नारी चेतना की दृष्टि से देखें तो यह रचना जैनेन्द्र के उपन्यास ‘‘त्याग पत्र’’ की स्त्री पात्र मृणाल के बहुत नजदीक दिखती है। ‘आह ज़िन्दगी’ पत्रिका में एक लेखक (नाम याद नहीं) की टिप्पणी थी कि ‘‘जैनेन्द्र को क्या पढना-शरत को पढ़ लो। परंतु पारो उत्तर कथा के बारे में ये नहीं कहा जा सकता कि ‘‘सुदर्शन को क्या पढ़ना शरत को पढ़ लो’’- इसका कारण यह है कि सुदर्शन जी का गद्य पात्रों की मनोभूमियों की निर्मिति और मानवीय कमजोरियों का दिग्दर्शन कुछ अगल सा है। अज्ञेय जी के ‘नदी के द्वीप’ और निर्मल वर्मा की रचना ‘अन्तिम अरण्य’ जैसी रचनात्मक सुवास पारो उत्तर कथा में जहां समर्पण है परंतु अपनी अस्मिता की रक्षा करते हुए लेखक का रचना के अन्त में यह कहना कि ‘‘पारो रानी बनी पर पत्नी नहीं, नारी रही पर प्रेयसी नहीं’’ पृ. 329 नारी की हार में भी जीत है और जीत में भी हार। यानी कथा के माध्यम से लेखक ने बहुत कुछ कहा और कुछ भी नहीं कहा। यह गाथा पढ़ने की नहीं एहसास की जागृति मांगती है इसी कारण से यह संग्रहणीय पठनीय तो है ही मननीय भी है। लेखक ने अपने चिंतन का समग्र रचना में उड़ेल दिया है इनके लिए उन्हें बधाई और साधुवाद!  



सुदर्शन प्रियदर्शिनी,  sudarshansuneja@yahoo.com 


 


 


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