समीक्षा


आरती स्मित, दिल्ली, मो. 8376837119, dr.artismit@gmail.com


 


मानवीय सरोकारों पर सवाल खड़े करती कविताएँ


पुस्तक: तुमसे है सवाल (कविता संग्रह)
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन 
प्रथम संस्करण: जनवरी 2018 
मूल्य: रु. 150/-  



वरिष्ठ साहित्यकार कमल कुमार की आत्मकथा और कहानी संग्रहों से रू-ब-रू  होती रही हूँ, कविता से जुड़ने का अवसर इस संग्रह के साथ मिला। डाकिये ने पुस्तक पहुँचाई, पुस्तक का बाह्य रूप तो आकर्षक था ही, इसके शीर्षक ने भी बाँधा। उलटा-पलटा, तो पाया कि यह संग्रह ‘मरणधर्मा’, तुमसे है सवाल, नई इबारत, इंद्रधनुष और प्रतिध्वनि शीर्षक विशेष सहित अपनी गोद में कुछ कविताएँ समेटे हुए है। धीरे-धीरे पूरा पढ़ गई, पर लिखना न हो सका। दरअसल, वे एक सशक्त कथाकार के रूप में मेरे भीतर पैठी हैं। उनकी  कविताओं ने  संवेदना के जिस उफान से मेरा परिचय करवाया, उससे यही बनी कि कमल कुमार की संवेदनाओं ने ही विधा का चयन किया है और अतुकांत कविताएँ लय में थिरकती, पग-पग आगे बढ़ती चली हैं। कविता अच्छी या बुरी नहीं होती।
इस कृति के ‘मरणधर्मा’ खंड में जीवन-दर्शन की कुछ बातें हैं; कुछ सिमटे अवसाद, साथ ही उसका प्रतिरोध भी; प्रत्येक कविता अपनी हद में रहते हुए अनहद की बात करने को तत्पर है। जैसे कि ‘अहम ब्रह्मास्मि’ के अंतर्गत परस्पर गूँथी पंक्तियों का एक टुकड़ा- मेरी मैं एक बड़ा स्पेस लेती है / ‘तुम’ ‘वे’ ‘अन्य’ सभी मैं में समाहित हैं / मैं आकाश हो जाती हूँ, कभी धरती /  कभी समुद्र की अतल गहराई / या पर्वत शिखरों पर ठहरा हिमपात इसी कविता में ‘मैं’ अपनी व्यापकता से क्षुद्र स्वार्थ की ओर बढ़ता हुआ अपने ब्रह्मत्व को किस प्रकार स्वयं नष्ट कर संकीर्ण हो जाता है, कवयित्री ने इसे बखूबी उभारा है- 
स्वार्थ, द्वेष, हिंसा की राजनीति में / नष्ट होता आत्मिक आलोक / न शब्द बनते हैं मृत्युंजय / न चरितार्थ होता है ‘मैं’ --- ब्रह्मास्मि में।
हालाँकि, ‘मैं’ के साथ ‘ब्रह्मास्मि’ सबद-प्रयोग भावरस के अवगाहन में बाधक प्रतीत होता है, किंतु विषय महत्वपूर्ण है और कवयित्री की संवेदना की आवाजाही भी पाठक मन को बाँधती है। इसी क्रम में ‘क्रमशः’ कविता निराशा से आशा की उठान लिए ‘‘जीवन की निरंतरता’’ का बोध देती है। ‘अंदर’ और ‘सेल्फ’ की रेखा’’ कविता की प्रत्येक पंक्ति रुककर सोचने को विवश करती है और आकार में छोटी होते हुए भी विस्तृत मंथन और चिंतन-मनन को जन्म देती है। देखें, दो पंक्तियाँ: 
मिथकों और खंडहरों के बीच से / मैं दबी औरतों के कंकाल निकाल रही हूँ ‘मैं हूँ’ कविता अपनी पहली पंक्ति,  ‘‘मैं सोचती हूँ इसलिए ‘मैं हूँ’’’ व्यक्ति चेतना की महत्ता प्रतिपादित करती है। ‘कविता’ के अंतर्गत कवयित्री की आत्मस्वीकृति ‘‘कविता मेरी आत्मा का अंतर्लाप है/ मेरे संवेदन का मुखर मौन है’’ दूसरी ओर जीवन को देखने -परखने के लिए कविता को परिमापक बनाना इसे पूर्णता देता है  :
गणित से नापा तो जीवन दरिद्र लगा / कविता से नापा तो जीवन समुद्र लगा / गणित बार-बार दोहराता रहा - कितना जुड़ा / कविता ने बार-बार पूछा - क्या कुछ घटा
अंतिम दोनों पंक्तियों में निर्देशक चिह्न के स्थान पर योजक चिह्न का प्रयोग खटकता है। संभवतः  यह टंकण की भूल हो।
‘तुमसे है सवाल’ खंड के अंतर्गत, कवयित्री ने इतिहास में घटित घटनाओं को सरोकारों से जोड़ते हुए व्यक्ति-विशेष से सवाल किए हैं। इनमें महाभारत के पात्र- द्रौपदी, गांधारी, गुरु द्रोण, श्रीकृष्ण, भीष्म पितामह, धर्मराज युधिष्ठिर, के साथ ही, रामायण से सीता, कवि तुलसीदास एवं वर्तमान राजनीति से संबद्ध व्यक्तियों व स्थान-विशेष पाकिस्तान को कटघरे में खड़ा किया है। ‘नेताजी’ कविता में हरियाणा के नेता से हरियाणवी बोली में ही सवाल किए गए हैं, जिससे सवाल की धार पैनी हो गई है। कवयित्री पूछती हैः  ‘‘म्हारा हरियाणा थारे/हरियाणा ते अलग क्यों?’’ और हरियाणा में स्त्री, विशेषकर बेटी की स्थिति का खुलासा किया है। इस कविता से गुजरते हुए एक सवाल मेरे मन में उपजा- क्या यह आज का सच है? उत्तर यदि ‘हाँ’ है तो सवाल के कटघरे में नेता से पहले वहाँ की जनता-वहाँ का समाज होना चाहिए। 
‘शहरी विकास मंत्री जी’ साक्षात्कार शैली में न होते हुए भी साक्षात्कार स्वरूप लिए हुए है, जिसका सौंदर्य उसमें अंतर्निहित व्यंग्य की प्रधानता है।  ‘नई इबारत’ शीर्षक के अंतर्गत रखी गई कविताओं में से ‘घरेलू औरत की दुर्गंध’ पाठक को विमर्श के लिए न्योता देती है। दो पंक्तियाँ: ‘‘यह क्या है? यह झील जैसी कैसी / यह घरेलू औरत की भीतरी सतह है-पर इतनी दुर्गंध? / यह घरेलू औरत का अवचेतन मन है‘’ 
 इन चार पंक्तियों में सागर समाने की शक्ति है। पूरी कविता का सार।
 यह कृति स्त्री विमर्श करती है, उसके लिए उकसाती है; न सुनो तो जबरन धकेलती है और चीखकर कहती है- ‘सोचो! तुम्हें सोचना होगा इन विषयों पर!’  और मैं पाती हूँ कवयित्री का मन स्त्री जीवन के अंधकार पक्ष को लेकर भरा-भरा सा है--- पूर्णता से नहीं, धुआँया-सा, बरसने को आतुर काले बादलों की उमड़-घुमड़ अपने में समेटे हुए। कविता ‘औरत 1’ और ‘औरत 2’ ऐसी ही कविताएँ हैं। ‘औरत 1’ की पंक्ति -- मुड़कर नहीं देखता- में ‘देखता’ की जगह ‘देखती’ होना चाहिए। इस प्रकार के टंकण दोष कई जगहों पर भाव-अवगाहन में बाधक बने हैं। इस कविता की ये पंक्तियाँ:
घर के बाहर रस्सियों पर / भीगती-सूखती हैं औरतें ‘‘मन को छूती हैं। आगे, ‘‘ अब मकान बन गए / और घर  बियावान कविता यहीं समाप्त होकर भी पूर्णता पाती। इसके बाद की पंक्तियाँ इतर जा रही हैं।
‘मौसम’ कविता पढ़कर भीगता है मन। एक माँ का मन! मातृत्व झंकृत होती है, संवेदना उमग -उमग पड़ती है। विदेश में बसे बेटे के आगमन और विदाई का मर्मस्पर्शी रेखाचित्र बनाती इस कविता की हर पंक्ति पाठक को अपने  साथ कदम-दर- कदम आगे बढ़ाती चलती है। बीच की दो पंक्तियाँ:
‘‘पूरा घर सरोबार था तुम्हारी उपस्थिति में / तुम्हारे होने से उजास रहा था-हर कोना’’ और अंतिम तीन पंक्तियाँ: 
‘‘खाली प्लेटफॉर्म पर अकेली खड़ी हूँ, बदहवास- / सोचती खड़ी हूँ, तुम्हारे पंद्रह दिनों का सुखद एहसास / या तुम्हारी प्रतीक्षा में दो वर्षों का इंतजार कौन बड़ा है’’   
 यहाँ ‘इंतजार’ के बाद डैश और अंत में प्रश्नवाचक या विस्मयादिबोधक चिह्न के प्रयोग से भाव विस्तार पाता। 
‘अच्छी औरत’ घर-परिवार के प्रति पूर्णतया समर्पित 
गृहिणी की सुव्याख्या कही जा सकती है, किंतु स्त्री की इस छवि से कवयित्री व्यथित  हैं। उनकी संवेदना  इन पंक्तियों में उमड़ती हैं: 
वह चिपकी जमीन से जड़ों में फैलती जाती है /   हरियाली का घेरा फैलता है पृथ्वी पर /  तो भी वह कहीं नहीं होती उस हरियाली में


‘नई इबारत’, ‘निर्वासित’, ‘सच यह भी है’ कविता के बदलते तेवर, बदलती दिनचर्या के बीच भी स्त्री के अपने स्वाभाविक गुणों से विरत न होने- न हो पाने की अवस्था दर्शाती है। कहीं हृदय हावी है, कहीं बुद्धि; कहीं व्यक्ति अपनी विराटता में मूर्तमान है, कहीं वैयक्तिकता में। इसी प्रकार, ‘अब और नहीं’, ‘प्रेमी’ कविता पर बात करूँ तो जहाँ ‘सच यह भी है’ में बेटी में माँ गुण/स्वभाव स्वत: आरोपित हो गए, वहीं ‘प्रेमी’ में आधुनिक माँ का बेटी के प्रति एकांगी संवाद अपने चुटीलेपन के साथ उपस्थित है। ‘काठ हो गई लड़की’ में लड़की से पाठकों का परिचय कराती-कराती कवयित्री मध्य में अनायास पात्र ‘लड़की’ की ओर मुड़कर उससे संवाद आरंभ कर देती है, उसे समझाने लगती है; सांत्वना देने लगती हैं । यहाँ पाठक गौण हो जाता है। 'सुहागरात' कविता संबंध के घिसे-पिटे विचारों और दकियानूसी लकीरों से परे खींची गई लकीरों में उभरा रेखाचित्र है।
‘इंद्रधनुष’ खंड के अंतर्गत रखी कविताओं में ‘पुण्य’ कविता अंधभक्तों पर प्रहार है। ‘निर्भय’ क्षणिका अच्छी है, 
‘इंद्रधनुष’ कविता में प्रेम की सतरंगी छटा अपनी गरिमा के साथ प्रकट है। ‘खुशहाल इंडिया’ महानगरीय चकाचैंध के पीछे के अँधियारे की मर्मस्पर्शी कथा है। ‘ठक-ठक-ठक’ मजदूर वर्ग की भावपूर्ण गाथा है। इस कविता ने वर्षों पहले लिखी मेरी अपनी कविता ‘मजदूरिन’ की याद दिला दी। इनके जीवन से जुड़कर देखने पर क्षोभमिश्रित एहसास हवा में तैरने लगते हैं कि हम किन विडंबनाओं को ओढ़ते-बिछाते हुए विकास की बात करते हैं! कविता 'सच्चाई छोटी नहीं होती' दृश्य उकेरने में सक्षम है। स्वप्न में सच की बेहतर तस्वीर है यह कविता। कविता 'समय की शिला पर' शांत किंतु गतिहीन नहीं है। उसका अपना प्रवाह है -- प्रौढ़पना है। 
‘प्रतिध्वनि’ खंड के अंतर्गत व्यक्तित्व-विशेष, जैसे-- हरि चैरसिया, चायवोस्की, आइन्स्टाइन, रॉबिन, माया एंजेलो, रजा से कवयित्री अलग-अलग संवाद स्थापित करती है। संवाद प्रक्रिया कहीं पाठक से तो कहीं पात्र के साथ चल रही है। इस खंड में ‘डिजिटल बॉय’ का रखा जाना थोड़ा खटकता है। 
कुल मिलाकर संग्रह पठनीय है। एक कथाकार द्वारा कविता के इंद्रधनुषी रंगों की छटा बिखेरना यों भी स्वागत योग्य है। कवयित्री कमल कुमार को संवेदनशील कविताओं के लिए हार्दिक बधाई।  


कमल कुमार


 


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य