समीक्षा


सीमा शर्मा, शास्त्रीनगर, मेरठ, मो.-09457034271


भावों की सशक्त अभिव्यक्ति, भाषा का सरल प्रवाह खिड़कियों से झाँकती आँखें 


कहानी संग्रह- खिड़कियों से झाँकती आँखें (लेखिका-सुधा ओम ढींगरा)
प्रकाशन: शिवना प्रकाशन, पी. सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट, सीहोर, 
मप्र, 466001, दूरभाष- 07562405545 
प्रकाशन वर्ष-2020, मूल्य-150 रुपये, पृष्ठ-132



‘खिड़कियों से झाँकती आँखें’ सुधा ओम ढींगरा का सातवाँ कहानी संग्रह है। इन सभी कहानी संग्रहों को पढ़ने के बाद स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि आपकी कहानियाँ भारत और अमेरिका के बीच एक ऐसे पुल का निर्माण करती हैं, जिस पर चलकर आप इन दोनों देशों के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने बहुत बारीकी से समझ सकते हैं। आप चीजों को व्यापक परिदृश्य में देखते हैं और इस प्रक्रिया में आपके कई पूर्वाग्रह ध्वस्त हो जाते हैं। यह प्रक्रिया किसी एक कहानी में नहीं बल्कि कहानी-दर-कहानी चलती रहती है। समीक्ष्य संग्रह की पहली कहानी ‘खिड़कियों से झाँकती आँखें’ से लेकर अंतिम कहानी ‘एक नई दिशा’ तक आते-आते आपकी धारणा और अधिक पक्की होती जाती है। 
संग्रह की प्रतिनिधि और प्रथम कहानी ‘खिड़कियों से झाँकती आँखें’ अत्यंत संवेदनशील है। इस कहानी में ‘आँखें’ प्रतीक हैं, उन वृद्धों की, जिनकी संतानें सफलता की राह पर आगे बढ़ गईं और ये बहुत पीछे छूट गए। अब ये ‘आँखें’ स्नेह एवं प्रेम की एक किरण जहाँ दिखाई दे उसी से चिपक जाना चाहती हैं, लेकिन यही ‘आँखें’ कथा नायक डॉ. मलिक को असहज कर देती हैं क्योंकि वह इनकी सच्चाई नहीं जानता। डॉ. खान उसे इनकी सच्चाई बताते हुए कहता है -यंग मैन, इन आँखों से डरने की जरूरत नहीं, इनको दोस्ती का चश्मा चाहिए, पहना दो, चिपकना बंद कर देंगी। ‘‘(पृष्ठ -16) डॉ. मलिक को बहुत जल्दी ये बात समझ आ जाती है और वह कहता है - ‘‘मैं जान गया कि सहारे को तलाशती ये आँखें किसी भी अजनबी में अपनापन ढूँढ़ने लगाती हैं।’’ ( पृष्ठ -17 )
इस कहानी में कई आयाम हैं। एक ओर अपनी जड़ों से कटकर स्वयं को कहीं और स्थापित करना। अपनी जड़ें जमाने और वहीं रच-बस जाने के बाद आप ही की तरह आपकी अगली पीढ़ी कहीं किसी देश में अपनी दुनिया बसा लेती है। अब आप नितांत अकेले हो जाते हैं, इसलिए  एक बार  पुनः अपने देश लौटने की चाह उत्पन्न होना स्वाभाविक है लेकिन तब वहाँ आपके पास कोई स्थान शेष नहीं रह जाता। यह ऐसा ही है जैसे  किसी पौधे को निकाल कर कहीं और रोप दिया जाये तो कुछ समय के बाद वहाँ उस पौधे के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह जाता। ऐसा भी हो सकता है कि उस पौधे के स्थान पर कोई और पौधा उगे एवं वृक्ष बन जाये। ‘‘डॉ. मलिक देश की धरती में लगे पौधे को उखाड़कर हमने विदेश की धरती में बो दिया। पहले पहल उसे बहुत मुश्किलों का सामना करना पढ़ा, फिर धरती और पौधे दोनों ने एक दूसरे को स्वीकार कर लिया’’ 
(पृष्ठ-21) ‘‘जब पौधा वृक्ष बन गया तो हमने उसे उखाड़ कर फिर पुरानी धरती में लगाने ले गए। जिन रिश्तों के लिए पौधा विदेश में वृक्ष बना, उन्हीं रिश्तों ने स्वार्थ की ऐसी आँधी चलाई की वृक्ष के सारे पत्ते झड़ गए, टुंड-मुंड  हो गया वह। पुरानी 
धरती और टुंड-मुंड हुए वृक्ष ,दोनों ने एक दूसरे को स्वीकार नहीं किया और रोप दिया हमने विदेश की  धरती पर वह वृक्ष एक बार फिर। इस धरती ने उसे पहचान लिया और सीने से लगा लिया।’’ (पृष्ठ -21)
सुधा ओम ढींगरा की कहानियों में यह बात बार-बार उभर कर सामने आती है कि स्वदेश में रहने से सब बहुत अच्छे और विदेश में रहने से बुरे नहीं बन जाते। न ही उन संस्कारों को भूलते हैं जो उन्हें परिवार और समाज से मिले और जो भूल जाते हैं या स्वार्थी बन जाते हैं, ऐसे अपवाद कहीं भी हो सकते हैं। किसी के व्यक्तित्त्व निर्माण में देश विशेष का प्रभाव तो अवश्यंभावी है, लेकिन और भी अनेक कारक हो सकते हैं । समीक्ष्य संग्रह की दूसरी कहानी ‘वसूली’ में ऐसे ही एक विषय को उठाया गया है। ‘वसूली’ कहानी सत्तर के दशक से नब्बे के दशक तक जाती है, इसमें लेखिका ने हरि और सुलभा के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया है कि प्रवासी भारतीय य अपनी भारतीयता, देश और परिवार से कितना लगाव रखते हैं, जबकि भारत में रहने वाले कितने भारतीय ऐसे हैं जिन के लिए उनका स्वार्थ सर्वोपरि है। शंकर और उमा को उस मनोवृत्ति के प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है। हरि मोहन अमेरिका में रहकर भी अपने परिवार को सुखी और प्रसन्न देखना चाहता है। विदेश जाकर बसने के पीछे भी यही कारण था लेकिन हरि के लिए जो सच्चाई थी, शंकर के लिए वह निरी भावुकता। शंकर के शब्दों में ‘‘हरि, तुम शुरू से ही भावुक थे, विदेश जाकर तो भावनात्मक बेवकूफ बन गए हो। हरि के लिए शंकर का यह व्यवहार आश्चर्यजनक था, तभी तो वह कहता है- ‘‘कहाँ गई आपकी मर्यादा ! कहाँ गया आपका संस्कार ! विदेश में तो मैं रहता हूँ और समुद्र का खारापन आपकी आँखों पर छा गया है।’’ (पृष्ठ-26)  
हरि भारत में जन्मा, छह भाई-बहनों के बीच अत्यंत गरीबी में पला-बढ़ा। बहुत मेहनत करके पढ़ाई की संभवतः इसलिए उसका व्यक्तित्व एक भावुक और उदार व्यक्ति के रूप में निर्मित हुआ जबकि उन्हीं परिस्थितियों के बीच पले-बढ़े उसके बड़े भाई शंकर का व्यक्तित्व ठीक उलट दिखाई देता है। जबकि बचपन में वह भी हरि की ही तरह अत्यंत संवेदशील था। ऐसे में क्या इसे मात्र व्यक्तिगत भिन्नता के रूप में देखा जा सकता है या संगत भी एक कारक रूप में रही होगी। लेखिका ने इस और संकेत किया है। शंकर के व्यवहार का उसके परिवार पर जो असर है, वह उसके समूचे परिवार पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। एक माँ का अपने ही बेटे से डरना और अपनी व्यथा को इस तरह व्यक्त करना ष्उमा उसे भड़काती रहती है, अब बार-बार एक ही बात करता है, मैं, मेरी पत्नी मेरा परिवार है और बाकी सब यानी बहन-भाई आपकी गृहस्थी हैं।’’ (पृष्ठ-27) वह समझ नहीं पाती उससे क्या गलती हो गई, वह बेटा जो सारे विश्व को अपना परिवार समझता था, अब सबको अलग कैसे समझने लगा। 
यह कहानी वैसे तो सम्पति के लालच में एक परिवार के बिखराव की कहानी है लेकिन इसके छोटे से कथ्य में व्यापक गहराई है। लेखिका ने एक परिवार की समस्या के माध्यम से मानवीय व्यवहार का सूक्ष्म विश्लेषण किया है । इसका विस्तार दिल्ली से लेकर अमेरिका तक है। समीक्ष्य कहानी इस भ्रम को भी तोड़ती है कि सुसंस्कार और उदार व्यक्तित्त्व स्वदेश में रहकर ही हो सकते हैं, उदाहरण के रूप में सुलभा एवं हरि जैसे पात्रों को देखा जा सकता है, विशेष रूप से सुलभा के चरित्र को । यदि सुलभा का चरित्र उमा जैसा होता तो हरी का व्यक्तित्त्व निश्चत ही कुछ और होता। बहुत संभावना इस बात की थी कि वह भी कि शंकर के जैसा स्वार्थी होता। सुलभा का जन्म अमेरिका में होने के बाद भी वह भारतीयों से अधिक भारतीय है, जबकि उमा सत्तर के दशक में जो मान-मर्यादा, सामाजिक पाबंदियाँ और परिस्थितयाँ थीं उनके ठीक विपरीत बर्ताव करती है। उमा और शंकर भौतिकता के आकर्षण में एक अंधी दौड़ का हिस्सा बन जाते हैं।
समीक्ष्य संग्रह की तीसरी कहानी श्एक गलत कदमश् वृद्धआश्रम और परिचायाग्रह के एक दृश्य के साथ शुरू होती है जहाँ दयानंद शुक्ला एवं शकुंतला शुक्ला को उनके दो पुत्र और पुत्र वधुओं ने यहाँ तक पहुँचाया है। यह ‘एडल्ट लिविंग एंड नर्सिंग होम’ लिखित रूप में तो सबके लिए है लेकिन अघोषित रूप से यह केवल भारतीयों के लिए और इसमें सूक्ष्म भारत की झलक मिलती है। ‘‘सारे डाक्टर, नर्स, सेवक-सेविकाएँ और कर्मचारी भारतीय हैं। हर गृह में एक मंदिर भी होता है। हर प्रदेश का भारतीय भोजन यहाँ दिया जाता है और भारतीय माहौल उत्पन्न किया जाता है।’’ अप्रवासी भारतीयों के अंदर जो भारत बसता है, वृद्धाश्रम उसी का प्रतिबिम्ब है। यह उन लोगों का आश्रय स्थल बन जाता है जो किन्हीं कारणों से भारत नहीं जा पाते और अपने परिवार के साथ भी नहीं रह पाते। सभी सुख-सुविधाओं से सम्पन्न यह वृद्ध आश्रम भारतीय बुजुर्गों में बहुत लोकप्रिय है। यह एक ऐसा स्थल है जहाँ उन्हें अहसास हो कि वे भारत में ही रह रहे हैं। इस अहसास से उन्हें सुख की अनुभूति होती है। ‘‘चारों ओर भारतीय ! शोर -शराबा, संयुक्त परिवार-सा खान-पान, सुबह-शाम घंटियों की आवाज, शंख का नाद, भारतीय संगीत, धूमधाम से मनाये जाते भारतीय उत्सव। ढलती उम्र में जन्मभूमि बहुत याद आती है, बस ऐसे गृहों में उसे ही मुहैया करवाने की कोशिश की जाती है।’’ (पृष्ठ-45) विशेष बात यह है कि  इसका निर्माण भी एक भारतीय ‘डॉ. सुमंत हीरादास पटेल’ ने कराया था। 
इस कहानी का बहुत बड़ा भाग पूर्वदीप्ति शैली (फ्लैश बैक) में आगे बढ़ाता है। यह कहानी एक ओर सजातीय और विजातीय होने के भ्रम को तोड़ती है और इस तथ्य को स्थापित करती है कि अच्छे- बुरे लोग देश-विदेश सब जगह होते हैं और अपवाद कहीं भी हो सकते हैं। डॉ.शरद शुक्ला और डॉ. जैनेट शुक्ला जैसे पात्रों के माध्यम से लेखिका ने कई पूर्वाग्रहों को तोड़ने का कार्य किया है। इस कहनी में उन्होंने इस धारणा को भी ध्वस्त किया है कि यूरोपीय देशों में संयुक्त परिवार नहीं होते या उनके बीच वैसी परवाह, स्नेह और सामंजस्य नहीं होता जैसा कि भारत में।
सुधा ओम ढींगरा ने "ऐसा भी होता है" कहानी में एक ऐसे विषयों को उठाया है जिस पर हम या तो ध्यान नहीं देते या देना नहीं चाहते। समाज में दहेज की समस्या पर खूब बात होती है लेकिन लेखिका ने समीक्ष्य कहानी में इससे ठीक विपरीत एक विषय को उठाया है। कहानी पत्रात्मक शैली में लिखी गयी है। इसकी मुख्य पात्र दलजीत कौर के माध्यम से लेखका ने  उन सभी स्त्रियों की पीड़ा को शब्द दिये हैं, जो अपना ‘मायका’ (एक ऐसा घर जो सामान्यतया उनका होता ही नहीं) बचाने के लिए अपनी सामर्थ्य से अधिक प्रयास करती हैं लेकिन अंततः उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। कहानी भले विदेश में बसी बेटी को लेकर बुनी गयी है लेकिन यह समस्या सार्वदेशिक कही जा सकती है। कहानी में उस मानसिकता पर प्रहार है, जहाँ सारा प्यार-दुलार तो बेटों के हिस्से आता है लेकिन सारी अपेक्षाएँ बेटियों से। कथा नायिका ‘दलजीत कौर’ के माध्यम से लेखिका ने प्रश्न किया है- ‘‘आप सबके दिल में मेरा सिर्फ इतना ही स्थान है कि मैं आपकी अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए बनी हूँ। आप लोगों के जीवन और दिलों में मेरा और कोई महत्त्व नहीं।’’ (पृष्ठ -62)  कहानी में एक सहज प्रश्न है कि बच्चों के जन्मने की एक जैसी प्रक्रिया के बाद; धरती पर आते ही भेदभाव कैसे शुरू हो सकता है ? उससे भी बड़ा प्रश्न कि एक माँ कैसे भेदभाव कर सकती है ?’’ बीजी, जैसे आप वीरों को सीने से लगाती हैं, कभी आपने अपनी धीयों (बेटियों ) को भी सीने से लगाया। क्यों नहीं लगाया? हम तो आपकी ही हैं, आपकी जात की। बाउजी और चाचाजी ऐसा करें तो मैं मान सकती हूँ, वे पुरुष हैं, वीर उनकी जात के हैं, पुरुष प्रवृत्ति ऐसी ही होती है। अफसोस तो इसी बात का है, स्त्री ही अपनी जात के साथ गद्दारी करती है।’’ (पृष्ठ-63) ‘दलजीत’ अक्सर महसूस करती थी, हमारे घर में कुड़ियाँ आँगन के फूल नहीं बस ऐंवई पैदा हुई खरपतवार हैं। सारा प्यार ,दुलार और सारी सुख-सुविधाएँ तो वड्डे वीर जी और छोटे वीरे के लिए हैं।’’ (पृष्ठ-63)
मायके की निरंतर मदद करने वाली ‘दलजीत’ का एक बार उनकी मदद न कर पाना य वह भी जानबूझकर नहीं, वरन उसके घर से आये एक पत्र के न मिल पाने के कारण। लेकिन यही कारण उसके मोहभंग का भी है। ‘दलजीत’ की वेदना को इन पंक्तियों में स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है - ‘‘पिछले ग्यारह महीने की चिट्ठियों ने तो मेरे अहसासों को और पुख्ता कर दिया। आपके दिल में कुड़ियों का कोई महत्त्व है ही नहीं। आपके लिए वे कठपुतलियाँ हैं जैसे चाहे नचा लो.... मुझे दोनों वीरों से कोई ईष्र्या नहीं बस बीजी के भेदभाव से ऐतराज है और निराशा भी है य जिन्होंने हर बच्चे को नौ महीने पेट में पालकर, एक जैसा कष्ट सहा। पर बाहर आते ही शिशु लड़का-लड़की बन गया और भेदभाव का सिलसिला उसी क्षण से शुरू हो गया, जब बच्चे की आँख ही खुली।’’ (पृष्ठ -63)
लेखिका ने ‘दलजीत’ के पिता के रूप में एक ऐसे पात्र को गढ़ा है जिनके लिए बेटियाँ उनके सपनों को पूरा करने का माध्यम मात्र हैं। ‘दलजीत’ की पीड़ा के माध्यम से लेखिका ने उस समूचे वर्ग पर व्यंग्य किया है, जो अपनी बेटियों को परदेश में केवल इसलिए ब्याहते हैं कि उनके सपने पूरे हो सकें। इन सपनों के बीच उपेक्षित हुई लड़कियों की  मनोदशा को लेखिका ने बहुत मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है-‘‘बाऊजी जिसने यह रिश्ता करवाया, उसने आपके साथ धोखा किया है। यहाँ डॉलर उगते नहीं, कमाने पड़ते हैं, कड़ी मेहनत से........इस परिवार ने मुझे अहसास दिलवाया की मैं सिर्फ एक स्त्री नहीं, इंसान भी हूँ और मुझे भी सोचने और कहने का हक हैय जो आपके घर में मुझे कभी नहीं मिला’’(पृष्ठ-65)
‘कॉस्मिक की कस्टडी’ कहानी की कथावस्तु की बात की जाये तो दो पंक्तियों में आ सकती है। माँ (मिसेज रॉबर्ट) और  बेटे (ग्रेग) कॉस्मिक की कस्टडी के लिए केस लड़ते हैं। जैसा की हम जानते है कि ‘हर केस में कुछ टूटता है या छूटता है।’ लेकिन यहाँ इसके ठीक विपरीत स्थिति है। यह केस न केवल एक  माँ - बेटे के रिश्ते में  निकटता लाता है वरन भावात्मक रूप से भी उसे सुदृढ़ बनाता है। यह इस कहानी की खूबी है। यहाँ कहानी की कथावस्तु का संकेत नहीं किया जा रहा है क्योंकि इस कहानी को पढ़ने का जो आनंद है वो कम हो सकता है।
संग्रह की छठी कहानी ‘यह पत्र उस तक पहुँचा देना’ को सतही ढंग से देखने पर तो ‘जैनेट’ और ‘विजय’ की प्रेम कहानी है किंतु लेखिका ने इस कहानी के द्वारा दो देशों की राजनीतिक व्यवस्था, समाजगत ढांचा एवं इन व्यवस्थाओं में विभिन्न विभेदय जिनके कारण कई तरह की जटिलताएँ उत्पन्न होती हैं। घटिया राजनीति, नस्लवाद और रंगभेद के कारण दो भोले-भाले लोगों का जीवन समाप्त होनाय इससे दुखद क्या हो सकता है? राजनीति एवं राजनेताओं की स्थिति लगभग सभी जगह एक जैसी है।
‘अँधेरा-उजाला’ समीक्ष्य-संग्रह की एक अनूठी कहानी है। जब आप इसे पढ़ते हैं तो अनायास ही आपको चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ याद आने लगती है। मोटे तौर पर दोनों कहानियों में कोई साम्य नहीं है। कथावस्तु ,पात्र, देशकाल और परिस्थितियाँ सब कुछ अलग है। लेकिन इन दोनों कहानियों में कुछ तो ऐसा है जो भावनात्मक स्तर एक समता इनमें दिखने लगती है। "उसने कहा था" का लहना सिंह और ‘अँधेरा-उजाला’ कहानी का मनोज दोनों ही पात्र एक ही धरातल पर खड़े दिखाई देते हैं। लहना सिंह अपनी प्रेयसी के लिए मृत्यु का वरण करता है तो मनोज अपनी फैन इला से किये वादे को जीवन पर्यन्त निभाता है क्योंकि-किसी फैन ने उससे वादा लिया था ‘‘इसलिए वह निरंतर रियाज करता है और गाता है कि वह दुनिया के किसी भी कोने में रहे उसकी गायकी सुनती रहे।’’ इसके अतिरिक्त इस कहानी में और भी कई आयाम हैं। कहानी की कथावस्तु कई दशक पहले के परिवेश से शुरू होती है उस समय जाति और वर्ग- भेद की खाई अब से कहीं अधिक गहरी थी। कथा नायिका का बाल मन इस अमानुषिक भेदभाव से खिन्न हो जाता। इला देखती कि उसकी दादी ने ‘सोमा’ को आँगन की दहलीज कभी पर करने नहीं दी। इला की माँ को यह सब पसंद नहीं था लेकिन वह कभी कह नहीं सकी चूँकि उसकी खुद की दशा दोयम दर्जे की थी। इला की माँ का जो मूक विरोध था, वह इला में मुखरित होता है। वह तो ‘सोमा’ के बेटे मनोज से स्नेह करने का दुस्साहस कर बैठती है। ये अलग बात है कि उसे सफलता नहीं मिलती किंतु उसका विद्रोह जारी रहता है। श्अँधेरा-उजालाश्  कहानी बाल मनोवज्ञान को भी छूकर जाती है। लेखिका ने समीक्ष्य कहानी में अभिभावकों की उस मनोवृत्ति की ओर संकेत किया है,जब वे अपनी अतृप्त इच्छाओं को बच्चों से पूरा करना चाहते हैं- ‘‘उससे बच्चे किस मानसिक तनाव से गुजरते हैं माँ-बाप कभी महसूस ही नहीं कर पाते। कई बार बच्चे अवसाद में चले जाते हैं।  ऐसे में बच्चों के व्यक्तित्त्व का सही विकास नहीं हो पाता।’’ (पृष्ठ-100)
संग्रह की अंतिम कहानी ‘एक नई दिशा’ भारतीय मूल के परेश और मौली जैसे पात्रों के माध्यम से कही गई एक सकारात्मक कहानी है। पूर्वदीप्ति शैली लिखी इस कहानी में रीटा भास्कर और उसके पति के रूप बंटी और बबली (ठग) जैसे पात्र हैं, जिनके माध्यम से कहानी आगे बढ़ती है। परेश व मौली एक सजग दम्पत्ति हैं जो कठिनाइयों से जूझना जानते हैं। एक दूसरे का साथ देते हैं। जीवन में आयी किसी जटिलता या नकारात्मकता को भी एक नई और सार्थक दिशा देते हैं। यही इस कहानी का उद्देश्य भी है।        
सुधा ओम ढींगरा कहानियाँ लिखती नहीं वे उन कहानियों में स्वयं रच-बस जाती हैं। आपके पास व्यापक अनुभव हैं इसलिए हर कहानी कथावस्तु की दृष्टि से, एक दूसरे से नितांत भिन्न होती है लेकिन एक ऐसा तंतु इन कहानियों में छुपा रहता है जिससे ये लेखक का परिचय स्वयं दे देतीं हैं।  भावों की सशक्त अभिव्यक्ति, भाषा का सरल प्रवाह और बीच-बीच में पंजाबी भाषा का प्रयोग जैसे बघार का काम करता है और कहानियाँ एक सौंधी सी महक से भर जाती हैं। ‘वसूली’ हो या ‘एक गलत कदम’ या ‘खिड़कियों से झाँकती आँखें’ भारतीयता और भारत से प्रेम इन कहानियों में स्पष्ट रुप से देखा जा सकता है।  



सुधा ओम ढींगरा


 



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