संस्मरणात्मक रिपोर्ताज


शैलेन्द्र शैल, नई दिल्ली, मो. 9811078880


 


कथा-एक कथा शिविर की


पिछले वर्ष 16 फरवरी को मैं इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर लगभग दस बजे चेक-इन के बाद सुरक्षा जाँच के लिए जा रहा था कि तभी मैंने दूर से एक जानी पहचानी महिला को देखा। थोड़ा और पास आया तो पाया कि वे सुप्रसिद्ध लेखिका चित्रा मुद्गल हैं। वे व्हील चेयर पर थीं और गले में कॉलर पहना हुआ था। माथे पर लाल टिकुली अपनी जगह पर थी। कुछ ही महीने पहले हम मिले थे। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर और इंडियन सोसाइटी ऑफ ऑथर्स के तत्वावधान में मैं एक श्रृंखला के अंतर्गत लेखकों और कलाकारों से लंबी बातचीत कर रहा था। यह हर महीने आयोजित की जाती थी। इसी श्रृंखला में मैंने नृत्यांगना शोभना नारायण, कवि-संपादक लीलाधर मंडलोई, लेखिका मैत्रोयी पुष्पा, वरिष्ठ संपादक और समांतर कोष के रचयिता अरविंद कुमार तथा लेखिका कुसुम असंल से भी बातचीत की थी। चित्रा जी का उपन्यास ‘‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’’ हाल ही में प्रकाशित हुआ था और चर्चा में था।
मैंने और निकट आकर नमस्कार किया और उनके कॉलर की ओर इशारा करते हुए पूछा-
‘‘चित्रा जी-आप और व्हील चेयर पर? और यह कॉलर?’’
‘‘हाँ शैल, मुझे अचानक स्पोन्डिलाइटस हो गया है। चलना फिरना तो दूर सीधे खड़े होना भी दूभर हो गया है। वर्टिगो की तरह चक्कर आने लगते हैं।’’
मुझे पता था वे कथाशिविर के लिए पटना जा रही हैं, फिर भी पूछा-
‘‘आप कहाँ...’’ उन्होंने बीच में ही टोकते हुए कहा
‘‘अरे पटना एक कथा शिविर में जा रही हूँ। संयोजक संजीव कुमार ने बहुत इसरार किया तो इस हालत में भी मुझे जाना पड़ रहा है। और तुम?’’
‘‘मैं भी पटना जा रहा हूँ।’’ 
‘‘कहाँ, कथा शिविर में?’’ 
‘‘हाँ वहीं।’’
मुझे कथा शिविर में भाग लेने वाले सभी कथाकारों के बारे में पता था। शिविर के संयोजक संजीव कुमार ने मुझे सब कुछ बता दिया था। पर चित्रा जी को मेरी शिरकत के बारे में नहीं पता था। और अब मैं पटना की फ्लाइट की प्रतीक्षा कर रहा था। इतने में मैंने काली जींस और टी-शर्ट में एक ऐनकधारी व्यक्ति को हमारी ओर आते देखा।
‘‘नमस्कार चित्रा जी मैं मनोज रूपड़ा नागपुर से।’’ मैं पास ही खड़ा था पर हम दोनों कभी नहीं मिले थे। मैंने उसकी कई कहानियाँ पढ़ रखी थीं। उसकी लंबी कहानियाँ काफी चर्चित हुई थीं।
‘‘ये शैल हैं, शैलेन्द्र शैल। ये भी अपने साथ चल रहे हैं।’’ चित्रा जी ने हमारा परिचय कराया। मैं सुबह नागपुर से आ गया था पर पटना की कनेक्टिंग फ्लाइट मिस हो गई। अब आप वाली फ्लाइट में सीट के लिए कोशिश कर रहा हूँ। मनोज ने कहा। इतने में व्हील चेयर खींचने वाली महिला कर्मचारी आ गई। हम सुरक्षा जाँच के बाद लिफ्ट द्वारा नीचे बोर्डिंग गेट नंबर सात पर पहुँच गए। कर्मचारी ने कहा कि वह बोडिंग शुरू होने से ठीक पहले आ जाएगी। चित्रा जी व्हील चेयर से उठकर कुर्सी पर आ गई। मैं उनकी बगल में बैठ गया। उन्होंने अपने सुंदर पर्स से दो हजार रुपए का नोट निकाला और कहा
‘‘शैल, कॉफी पीने का मन हो रहा है जाओ दो कप ले आओ।’’? 
‘‘मेरे पास छुट्टे पैसे हैं, यह नोट आप रखिए।’’
नहीं, नहीं, मुझे भी छुट्टा चाहिए। वे महिला हैं, मैं उनसे बहस नहीं कर सकता था। मैं कॉफी ले आया। साथ में दो-दो बिस्कुट भी मिले।
फ्लाइट में हम अपनी-अपनी सीट पर बैठ गए। मैंने देखा पिछली कतार की एक सीट पर मनोज विराजमान था।
पटना हम नियत समय से पाँच मिनट पहले ही पहुँच गए। चित्रा जी फिर से व्हील चेयर पर आ गई। जिस कार से हमें तक्षशिला के गेस्ट हाउस जाना था, उसमें मनोज रूपड़ा के साथ एक और लेखक भी थे। उन्होंने अपना परिचय दिया
‘‘मैं चरण सिंह पथिक, जयपुर से।’’
‘‘मैं शैलेन्द्र शैल दिल्ली से।’’ मैंने हाथ बढ़ा दिया। ठीक साढ़े सात बजे कार हमें चाणक्य होटल ले गई जहाँ डिनर का आयोजन था। वहीं भोपाल से आए मंजूर एहतेशाम, दिल्ली से गीतांजलिश्री तथा पटना से ही संतोष दीक्षित मिले। स्थानीय लेखकों में मैं केवल अरुण कमल को ही पहचान पाया। सर्दी के कारण उन्होंने गालिब नुमा ऊंची सी टोपी पहन रखी थी। संजीव के पिता डॉ. फणीश सिंह भी थे। वे पटना हाई कोर्ट के जाने माने अधिवक्ता और बिहार की कांग्रेस समिति के सदस्य हैं। उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं। मैंने उनके पास जाकर अपना परिचय दिया। उन्होंने मेरे दो तीन संस्मरण ‘‘हंस’’ में रवीन्द्र कालिया पर और ‘‘नया ज्ञानोदय’’ में ज्ञानरंजन पर पढ़ रखे थे। उन्होंने उनका जिक्र किया तो मुझे अच्छा लगा।
डिनर से पहले विभिन्न प्रकार के जूस और अन्य पेय पेश किए गए। पर लेखकों में से कुछ बिहार के सूखाग्रस्त (?) होने पर अफसोस जाहिर कर रहे थे।
डिनर के बाद संजीव ने घोषणा की कि हमें सुबह साढ़े छः बजे तैयार रहना है। सिवान होते हुए नरेन्द्रपुर पहुँचने में तीन साढ़े तीन घंटे लग जाएँगे। सुबह पाँच बजे का अलार्म लगा कर मैं सो गया। उठा तो पाया मनोज और पथिक अपने अपने कमरे में अभी सो रहे थे। खैर मैं समय पर तैयार हो गया। हमारी देखभाल के लिए तैनात कर्मचारी ने बताया कि कार आ गई है। मैं नीचे उतर आया। पीछे पीछे भागते हुए पथिक और मनोज भी आ गए। ड्राइवर ने बताया कि कार में पीछे नाश्ता रखा है, हम जब चाहें कार रोककर नाश्ता कर सकते हैं। नौ बजे के आसपास हमें भूख लग आई। हम एक ढाबे के सामने रुक गए। पीछे दो और कारें भी रुकीं। चाय का ऑर्डर दे कर हमने नाश्ते के पैकेट निकाल लिए। देख कर हैरानी हुई कि संजीव कैसे छोटी-छोटी बातों का भी ध्यान रख लेते हैं। सैंडविच, बिस्कुट, चिप्स, जूस, विसलेरी पानी की बोतलें और ढेर सारे पेपर नैपकिन।
असगर वजाहत और मंज़ूर एहतेशाम एक ही कार से उतरे। उतरते ही मंजूर ने सिगरेट सुलगा ली। असगर ने भी सुलगाई या नहीं, ठीक से याद नहीं। मंजूर अपनी सिगरेट से करतब दिखाने लगे। देवानंदनुमा टोपी पहन रखी थी उसी की तरह धुएँ के छल्ले बनाने लगें। सिगरेट होठों के काेनों पर कभी बीच में ऐसे लटकाई कि लगा अब गिरी कि अब गिरी। हमने उसे सराहा तो रजनीकांत की तरह सिगरेट को बड़ी फुर्ती से एक छोर से दूसरी छोर तक ले जाने की कोशिश करने लगे। जब इसमें नाकाम रहे तो फिर से धुएँ के छल्ले बनाने लगे। मनोज और पथिक भी अपनी-अपनी सिगरेट बीड़ी फूँक रहे थे। महिलाएँ ये सब देख कर हल्के-हल्के मुस्करा रही थीं। नाश्ते के बाद हम दुगनी फुर्ती से कारों में बैठ गए।
सिवान पहुँचने के कुछ ही समय बाद हम नरेन्द्रपुर पहुंच गए। वहाँ परिवर्तन परिसर के द्वार पर गाँव के बच्चों के एक बैंड ने हमारा स्वागत किया। सामान उतारा गया और कमरों में रख दिया गया। एक-एक कप चाय के बाद औपचारिक परिचय, हालांकि इसकी आवश्यकता न थी। पता चला कि वरिष्ठ कथाकार उषा किरण खान, रंजन कुमार सिंह और वंदना राग दो दिन पहले से ही वहाँ मौजूद थे।
‘‘परिवर्तन’’ के बारे में मुझे पहले से ही पता था। यहाँ वर्ष 2011 में स्पिकमैके का पहला ग्रामीण विद्यालय शिविर लगाया गया था। परिवर्तन समेकित ग्रामीण सामुदायिक एजूकेशन सोसाइटी के इस उपक्रम के अंतर्गत लगभग 36 गाँवों के बच्चों, युवाओं, महिलाओं, किसानों, बुनकरों और कलाकारों के साथ मिलकर एक आवश्यक परिवेश बनाने का प्रयास है। परिवर्तन जहाँ एक ओर कई परंपरागत मुद्दों जैसे जीविका संबंधी प्रशिक्षण, महिला सशक्तीकरण, विज्ञान शिक्षण और बुनाई को लेकर प्रतिबद्ध है वहीं दूसरी ओर कुछेक अलग विषयों जैसे सामुदायिक रंगमंच, खेल के माध्यम से विकास, पूर्व स्कूल शिक्षा और शिक्षा में कला को एक सुनियोजित रूप देने हेतु प्रयासरत है।
दोपहर का भोजन परिसर के एक छोर पर खेतों के निकट बनी छोटी सी कॉटेज में रखा गया था। उसके सामने एक छोटी सी कृत्रिम झील थी जिसमें एक छोटी नाव भी बंधी थी। उस कॉटेज की विशेषता यह थी कि उसमें लगे और संग्रहीत चित्र, कलाकृतियाँ, दरवाजे, खिड़कियों और फर्नीचर विभिन्न प्रांतों से लाए गए थे। उन सबको बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया-सहेजा गया था। झील के किनारे पर टेराकोटा की भव्य नारी-मूर्ति थी जो यक्षिणी की प्रसिद्ध मूर्ति की याद कराती थी। सारे परिसर में स्थान-स्थान पर घोड़ों, पशु-पक्षियों, देवी देवताओं की मूर्तियाँ अवस्थित थीं। इन्हें कई महीने यहाँ रह कर दक्षिण के कलाकार ने बनाया था। इनके लिए अस्थायी भट्टियाँ भी परिसर में ही लगाई गई थीं।
दोपहर के भोजनोपरांत हमने पूरे परिसर और उसकी इकाइयों का भ्रमण किया। शाम की चाय के बाद चाैपाल नामक सभागार में परिवर्तन रंग मंडली द्वारा गायन प्रस्तुत किया गया। संजीव के पैतृक निवास स्थान पर रात्रि भोज-कुर्सियां एक अलाव के इर्द-गिर्द लगा दी गई थीं। सब कुछ इतने व्यवस्थित ढंग से हो रहा था कि हम सब आश्चर्यचकित थे। संजीव के पिता डॉ. फणीश सिंह और परिवार के अन्य सदस्य बेहतरीन मेजबान थे। 
अगले दिन हम गांधी स्मृति गए जहाँ असगर वजाहत ने अपनी दो लघुकथाएँ सुनाई। मंजूर एहतेशाम ने ‘छत्तरी’ शीर्षक कहानी सुनाई। शायद वंदना राग ने भी उसी दिन कहानी सुनाई। जिसका शीर्षक अब याद नहीं है।
दूसरे दिन हम संजीव के पैतृक गांव नरेन्द्रपुर गए और साथ ही गांव ‘मियाँ के भटकन’ यह नाम बहुत दिलचस्प लगा, इसका अपना एक इतिहास रहा होगा। फिर हम बहडुलिया और भवराजपुर गए। एक गांव में मेला लगा था। तरह-तरह की दुकानें थीं। जलेबी और समोसे की दुकान पर भीड़ थी। देवी-देवताओं और फिल्मी सितारों के पोस्टर बेचने वालों की दुकानें थीं। पूछने पर पता चला कि अभिनेताओं में सलमान खान और शाहरुख खान तथा अभिनेत्रियों में प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण के पोस्टर सबसे अधिक बिक रहे हैं। थोड़ी बहुत मांग ऐश्वर्या राय और करीना कपूर के पोस्टरों की भी थी। मैंने एक बूढी माँ के मीठे बाल बेचने वाला भी देखा। मैं खाना चाहता था पर यह सोच कर नहीं खाए कि अन्य लोग मेरी बच्चों जैसी इस हरकत पर क्या सोचेंगे। बहुत सी महिलाएँ चूड़ियों, बिंदियों और श्रृंगार के अन्य प्रसाधनों की दुकानों पर जुटी थीं।
दोपहर के बाद हम ग्राम गोठी गए। संतोष दीक्षित ने अपनी कहानी सुनाई जिसमें एक पेंशन-याफ्ता पिता की आवभगत केवल पहली तारीख को होती है जिस दिन वह पेंशन लाने जाता है। पेंशन मिलने पर बेटा थोड़े से रुपए पिता के पास छोड़ कर बाकी सारी पेंशन स्वयं रख लेता है। अंत बड़ा ही मार्मिक है जब एक महीने पिता बेटे द्वारा दिए पचास रुपए एक रिक्शा वाले को दे कर घर से उल्टी दिशा में पैदल ही चल पड़ता है।
वंदना राग ने बच्चों के साथ एक कहानी कार्यशाला की थी। तीसरे दिन हमने उनसे उनकी छोटी-छोटी कहानियाँ सुनीं। लगा कि ये बच्चे भी काफी कल्पनाशक्ति के धनी हैं।
शायद तीसरे दिन शाम को “सकूरा’ कहानी गीतांजलि श्री ने सुनाई। जापान में सूकरा फूल बहुत प्रसिद्ध है और जब यह खिलता है तो दृश्य देखने वाला होता है। इसमें एक बूढी भारतीय माँ के स्वावलंबी बनने की कथा को पिरोया गया है। मनोज रूपड़ा ने अपनी बहुचर्चित आरंभिक कहानी ‘‘पतंग’’ सुनाई जिसमें दो छोटी उम्र के बेटे अपने पिता की अंतिम यात्रा में आगे-आगे चल रहे हैं और अपने परिवेश और इतनी बड़ी त्रासदी से बेखबर क्या-क्या सोचते और करते हैं, इसका मार्मिक वर्णन है। शायद मंजूर ने या असगर ने टिप्पणी की कि बच्चों की उस समय की मनोदशा पर नैरेटर हावी होता दिखाई देता है। मनोज चुप रहा। अधिकतर वह बहुत तैयारी और शोध के बाद कहानी खिलता है। उसकी पहल. 106 में छपी कहानी ‘‘अनुभूति’’ से यह साफ परिलक्षित होता है कि उसने बढ़े मनोयोग से संगीत, रागों और कलाकारों पर शोध के बाद इस कहानी को रचा है। अपनी आपसी बातचीत में वह कहता रहता कि वह तो केवल छठी कक्षा तक पढ़ा है। पिता ने कहा कि पढ़ने लिखने की बजाय मिठाइयाँ और नमकीन बनाना सीखो। शायद स्कूल उसे भी पसंद नहीं था। उसने पिता की बात मान ली और आज नागपुर में सत्तर प्रकार के नमकीन बनाने वाली फैक्ट्री का मालिक है। कुछ नमकीन वह साथ लाया जो उसने हमें खिलाए। वह कहानियाँ लिखने के लिए समय कहाँ से निकाल लेता है मुझे हैरानी है।
तीसरे दिन चरण सिंह पथिक ने अपनी कहानी ‘‘दो बहनें’’ सुनाई जिस पर ‘‘पटाखा’’ नाम से विशाल भारद्वाज ने एक फिल्म बनाई है। पथिक ने यह भी बताया कि उसकी कहानी ‘‘कसाई’’ पर इसी नाम से राजस्थान का ही फिल्म निदेशक गजेन्द्र क्षाेत्रय एक फिल्म बना रहा है। ‘‘दो बहनें’’ सुन कर लगा कि विशाल ने इसे अपनी फिल्म के लिए क्यों चुना। उसने पथिक को मुंबई बुलाया। वह उनकी पहली हवाई यात्रा थी। सादा प्रवृत्ति और व्यक्तित्व के धनी पथिक ने इस यात्रा में हुए रोमांचक अनुभव की चर्चा मुझसे अलग से की।
शायद इसी दिन मिथिलेश प्रियदर्शी ने भी अपनी कहानी सुनाई। उसका शीर्षक पता नहीं किस भाषा में है। किसी को समझ नहीं आया। लौट कर मैंने उसे फोन पर पूछा- उसने एस.एम.एस. करके जो शीर्षक भेजा वह था ‘‘एन एंदर हूँ या नंजकन’’। पता नहीं मैं ठीक से यहाँ लिख पाया हूँ या नहीं। कहानी नई पीढ़ी के कथाकार के अनुरूप थी मुझे अच्छी लगी।
इसी बीच एक दिन हम भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के पैतृक गाँव जीरादेई गए। उनके घर में एक छोटा सा संग्रहालय है। प्रांगण में उनकी एक छोटी मूर्ति भी है। संग्रहालय में उनके पुराने चित्र और फर्नीचर-जैसे विवाह में मिला लकड़ी का बड़ा ट्रंक और एक पलंग भी उनके शयनकक्ष में सुरक्षित है जिस पर बड़ी सादा सी खादी की चादर बिछी थी। मुझे लगा कि इस छोटे संग्रहालय का रख-रखाव बेहतर हो सकता है।
अंतिम दिन शाम को हम सब फिर से सभागार में इकट्ठा हुए। चूंकि मैं इतनी दूर से आया था और विश्व पुस्तक मेले में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित मेरे संस्मरण ‘‘स्मृतियों का बाइस्कोप’’ का लोकार्पण हुआ था, मैं चाहता था कि एक संस्मरण मैं भी पढ़ दूँ। इसमें आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर निर्मल वर्मा, ज्ञान रंजन, रवीन्द्र कालिया और सतीश जमाली जैसे लेखकों पर मेरे संस्मरण शामिल हैं। पर मैंने अपने सहपाठी और मित्र प्रसिद्ध गजल गायक जगजीत सिंह पर अपना बहचर्चित संस्मरण ‘‘कड़ी धूप में चलते-चलते घने पेड़ की छाँव’’ पढ़ने का मन बनाया। मैंने संयोजक रंजन कुमार सिंह को अपनी इच्छा प्रकट की। वे मान गए। इस संस्मरण में मैंने कुछ ऐसी जानकारियों का जिक्र किया है जो आम पाठकों और श्रोताओं को नहीं पता थीं। सभी को संस्मरण पसंद आया। सभी ने विशेष रूप से चित्रा जी और असगर वजाहत ने मुझे बधाई दी। मैंने सोचा कि चलो इस शिविर में मेरी भी कुछ प्रतिभागिता हो गई।
तत्पश्चात परिवर्तन रंगमंडली द्वारा मुक्तागंन मंच पर भिखारी ठाकुर का प्रसिद्ध भोजपुरी नाटक ‘‘बेटी बेचवा’’ प्रस्तुत किया गया। इसका मंचन देश भर में विशेष रूप से बिहार में सैकड़ों बार किया गया है।
रात्रि भोज संजीव कुमार के घर के लॉन में आयोजित था। इसमें हम लेखकों के अलावा ‘‘परिवर्तन’’ के सभी कार्यकर्ता भी आमंत्रित थे। इसके दौरान युवा कहानीकार मिथिलेश प्रियदर्शी ने मुझे कहा कि अपने संस्मरण में मुझे यह नहीं लिखना चाहिए था कि जगजीत से पहले गजल गायकी पर मुस्लिम गायकों का दबदबा था। मेरा संकेत, बेगम अख्तर, तलत महमूद और मेहंदी हसन की ओर था। मिथिलेश ने आगे कहा कि मेरी इस बात से असगर वजाहत और मंजूर एहतेशाम की भावनाओं को ठेस पहुँच सकती है। मैंने उसे बताया कि यह एक ऐतिहासिक तथ्य है और जहाँ तक मुझे पता है असगर और मंजूर इतनी 
संकीर्ण प्रवृत्ति के नहीं है। वे बेहद उदार हैं और यह उनकी रचनाओं में साफ झलकता है। फिर भी उसने कहा कि मुझे उन दोनों से सार्वजनिक रूप से मुआफी माँग लेनी चाहिए। मैं थोड़ा सोच में पड़ गया और उसी समय खाए रसगुल्ले का स्वाद थोड़ा कसैला हो गया। हम सब अलाव के इर्द-गिर्द इकट्ठा हुए। यह नरेन्द्रपुर में हमारा अंतिम था। जैसा कि मैं अमूमन करता हूँ, मैंने सोचा कि रात को आराम से इस पर विचार कर लेता हूँ। उचित समझूंगा तो सुबह नाश्ते पर मुआफी माँग लूंगा। देर रात तक मैं सो नहीं पाया। मैंने ऐसा क्या गलत लिख दिया है मिथिलेश को छोड़ कर किसी और को यह बात नहीं खटकी। मैंने निर्णय लिया कि मुझे मुआफी माँगने की जरूरत नहीं है। हो सकता है असगर और मंजुर ने इस बात का नोटिस ही न लिया हो। विशेष रूप से इस का जिक्र कर मैं नाहक इसको महत्व क्यों दूँ? और फिर वे दोनों इतने उदारवादी भी तो हैं। फिर मैं गहरी नींद सो गया। परिदों की चहचहाहट ने मुझे जगाया। सुबह उठा तो मेरे मन में इसे लेकर न कोई संशय था न द्वन्द्व ।
सुबह नाश्ते के दौरान असगर ने बहुत प्यार से बनाए सुंदर बुकमार्क सबको भेंट किए। नाश्ते के पश्चात हम नरेन्द्रपुर में स्थित गांधी स्मृति गए। यह शहीद उमाकांत उच्च विद्यालय का अंग है। इसमें गांधी जी की मूर्ति स्थापित है। एक छोटा वाचनालय और पुस्तकालय भी है। यहाँ गांधी स्मृति एवं दर्शन स्मृति, राजघाट नई दिल्ली ने गांधी जी पर एक स्थायी चित्र प्रदर्शनी का आयोजन किया है। इसमें गांधी जी से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं जो इस क्षेत्र के छात्रों, विद्यालयों और आम जनता को बराबर उपलब्ध होंगी।
इसी भवन में डॉ. फणीश सिंह द्वारा संपादित पुस्तक ‘‘कितने हिन्दुस्तान’’ का लोकार्पण असगर वजाहत ने किया। इसमें मंटों की ‘‘टोबाटेक सिंह’’, मोहन राकेश की ‘‘मलबे का मालिक’’, भीष्म साहनी की ‘‘अमृतसर आ गया है।’’, अज्ञेय की ‘‘शरणदाता’’, कृश्नचंदर की ‘‘पेशावर एक्सप्रेस’’, कृष्णा सोबती की ‘‘सिक्का बदल गया’’, राजिंदर सिंह बेदी की ‘‘लाजवंती’’ से लेकर इंतिजार हुसैन की ‘‘हिन्दुस्तान से एक खत’’ और देवेन्द्र इस्सर की ‘‘नंगी तस्वीरें’’ आदि विभाजन संबंधी 27 कहानियाँ सम्मिलित हैं। डॉ. फणीश सिंह ने स्नेहपूर्वक हम सबको एक-एक प्रति भेंट की।
वहाँ से हम सीधे पटना एयरपोर्ट के लिए रवाना हुए। मैं, मनोज और पथिक वाली कार में था। रास्ते में सड़क के दोनों ओर ताड़ी के पेड़ थे। गाँव के लोग सड़क के किनारे रख कर उसे बेच रहे थे। गाड़ी रुकवाई गई। वे दोनों उतर कर दो-दो गिलास गटक गए। मेरे मना करने के बावजूद उन्होंने एक गिलास ड्राइवर को भी पिला दी। यह कार्यक्रम कई किलोमीटर तक चला। उन्होंने ‘‘काणा’’ करने के लिए मुझे भी एक गिलास थमा दिया। दो घूूंट पीकर लगा जैसे ताजा ड्राफ्ट बियर पी रहा हूँ। बहरहाल हम सही सलामत एयरपोर्ट पहुँच गए। फ्लाइट दो घंटे लेट थी। सभी जहाँ सीट मिली, बैठकर ऊंघने लगे। आखिरकार फ्लाइट उड़ी और हम दिल्ली पहुँच गए। टैक्सी में बैठा, मैं रास्ते भर इस अविस्मरणीय और अभूतपूर्व अनुभव के बारे में सोचता रहा। मैंने सोचा मैं इसके लिए संजीव कुमार को शीघ्रातिशीघ्र धन्यवाद करूँगा।    


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