अर्थपूर्ण कवि-दृष्टि का अकेला प्रिज्म रामदरश मिश्र!

   


रामदरश मिश्र



पाण्डेय शशिभूषण ‘शीतांशु’, ,अमृतसर पिन-143105 (पंजाब), मो. 09878647468


स्मृत्यालोचन1

रामदरश मिश्र का व्यक्तित्व साहित्य के द्वारा रचित, साहित्य के लिए रचित और साहित्य के प्रति रचित-समर्पित है। लम्बी काया!, तन-मन का लयात्मक विन्यास! प्रसन्न मुखमंडल! अनुभावन-भरी दृष्टि! यत्र-तत्र बिखरे, पर सजे सित केश! सौम्य, शान्त, शालीन, हँसमुख, मृदुभाषी, संवादी, पर किंचित् संकोची व्यक्तित्व! भारतीय संस्कृति और ग्राम्य प्रकृति से गहरा लगाव! साहित्य-प्रेमियों और शिष्यों से आत्मीय जुड़ाव! परिवार-आमोही परिसीमन में भी मानों साक्षात् मूर्तिमान कवित्व/जीवन-संघर्ष में विषपायी अमृतता सर्जन में संवेदन, भावन और पर्यवेक्षण की एकात्मता! धार्मिक परिवार में जन्म लेकर भी आस्तिकता-नास्तिकता से परे जीवन में घटित-अघटित और नियतिकृत घटितव्य की सहज स्वीकार्यता!


मिश्र जी ऐसी कविता के कवि है; जो हृदय का केवल गहरा स्पर्श न करे, बल्कि हृत्तंत्री को देर तक झनझना दे, विचारों को उबुद्ध कर दे, जगा दे, पाठक को सहभावन कराने के साथ-साथ स्थितियों का मूल्यांकन भी करा दे। उनकी सर्जकीय संवेदना में करुणा, विडम्बना और मानवीयता को उद्घाटित करने की पक्षधरता है। वह सतही यथार्थ की जगह अर्थान्वेषी यथार्थ के सर्जक साहित्यकार हैं। साहित्य, समाज और जीवन से संयुक्त रहने के बावजूद वह साहित्य की शिविरबन्दी से सर्वथा विलग रहे हैं। उनकी रचना में स्वदेश, समकाल और लोगों की गहरी, पहचान और परख है। उनके लघु गीतों में कवि-दृष्टि का उन्मेष अपने शिखर पर है।


उनके गीतों में कहन शैली की ऐसी बुनावट, भावानुभूति का ऐसा आत्मसातीकरण तथा उसके बीच संवादी सुरों की ऐसी सटीक सार्थकतां अन्यत्र देखने को नहीं मिल पाती है। उनकी गीतात्मक प्रोवितयों में विम्बोद्भावन की अनोखी क्षमता है। अपने गीतों में वैयक्तिक राग और प्रकृति राग का वितान तानने वाले मिश्र जी गीत विधा की प्रकृति को जब सामाजिक, राजनीतिक विडम्बनात्मक संत्रासों की निगूढ़ता देते है, तब वे युगचेता महान गीतकार बन जाते हैं। उनकी अभिधेयात्मकता व्यंजना में अन्तरित हो जाती हैं। साहित्योद्यान की सभी वीधियों में अपनी सर्जना के ऐसे सुमन खिलाने वाले मिश्र जी को ऐसी अनेकशः खूबियाँ उनके पाठकों को स्मरणीय हैं। वह गालिब, निराला और प्रसाद की तरह ‘गंजीनए मानी’ (कठिन भावबोध) के अनेकार्थो कवि नहीं होकर भी अपनी कविताओं के सहजपन मे सहज से असहज उद्गार तक की अर्थगूंजों को बड़ी सहजता से सहेज कर सम्पुटित-विपुटित कर देते हैं। यह सहजता उनके जीवन और सर्जन- दोनों का बीजतत्व है।


आज याद आता है कि रामदरश मिश्र का नाम उनकी कविताओं को पढ़ते-पढ़ते और उनसे प्रभावित होते-होते आज से 55 वर्ष पूर्व मेरे दिल-दिमाग पर छा चुका था। 1964 का वर्ष था। मैं नया-नया प्राध्यापक नियुक्त हुआ था। हिन्दी की सभी साप्ताहिक, मासिक और त्रैमासिक पत्रिकाएं नियमित रूप में खरीदता और पढ़ता था। उन दिनों कोई भी ऐसी प्रमुख पत्रिका नहीं थी, जिसमें रामदरश मिश्र नहीं छप रहे हों। उनके गीत और कविताएँ प्रायः छपती रहती थीं जो बार-बार पढ़े जाने के लिए मुझे आमंत्रित करती थीं और मेरे मन-मस्तिष्क में व्याप्त हो जाती थीं। गेयता, प्रभविष्णुता और काव्यलय से अर्थलय तक की मानसिक-यात्रा कराने की शक्ति-क्षमता उनकी कविताओं की विशेषता थी। ‘धर्मयुग’ हो या ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘कादम्बिनी’ हो या ‘ज्ञानोदय’, हर साप्ताहिक और मासिक पत्र-पत्रिका में अनेक छपी कविताओं के बीच उनकी कविता अपने को अन्य सबसे अलगाती थी और पाठकों को खींचती थी। उस समय मुझे उनके कवि होने के अतिरिक्त इस बात की जानकारी नहीं थी कि रामदरश मिश्र अन्य किन-किन विधाओं में लेखन करते हैं और न ही यह जानकारी थी कि वे दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं। पर कुछ समय  बाद ही मुझे कथा-साहित्य के अनुशीलन से पता चला कि वे उपन्यासकार भी हैं और कहानीकार भी। मैं इस बात से ज्यादा प्रभावित था कि किस निर्बाध गति से वे अपना कविकर्म कर रहे हैं और कितना अधिक प्रकाशित हो रहे हैं। समय बीतता गया। फिर ‘पानी के प्राचीर उपन्यास को लेकर उनकी प्रसिद्धि हुई और वे ग्राम्य और आंचलिक कथाकार के रूप में माने जाने लगे। फिर उनकी दूसरी कथा पुस्तक आई ‘जल टूटता हुआ। ये के दोनों नाम उनके उपन्यासों में भी उनकी काव्य-संवेदना को अभिव्यक्त करने वाले थे। मुझे लगा कि तत्त्व उनकी रचनाधर्मिता का मूल प्राण-तत्त्व है। यह उनकी कविता में भी देखने-गनने को मिल जाता था। नदी, बाढ़ और बरसात से भरा है उनका साहित्य । नदी का आकर्षण देखें- ‘बड़े भोर सारस केंकारे/नदिया तीर बुलाए’।


उन्हीं दिनों मैं नई कहानी की प्रयोगधर्मिता पर अपना शोध-कार्य सम्पन्न कर रहा था। मैं उनकी कुछ कहानियों को लेना चाहता था, पर यह बात मेरी समझ से बाहर थी कि मैं नई कहानी आंदोलन से उन्हें किस तरह जोडूं। उस समय मुझे पहली बार इस बात का भान हुआ कि रामदरश मिश्र एक ऐसे कथाकार हैं जो किसी आंदोलन या किसी वाद या शिविर के कथाकार नहीं हैं। वे एक ऐसे मुक्त कथाकार हैं, जिनके यहाँ परिवार, समाज, देश और युगबोध सभी मिल जाएँगे। पर किसी ठप्पे के तहत आप उनका विवेचन नहीं कर सकते। सो उनकी कहानियों से प्रभावित होने के बावजूद मैं उनका उपयोग अपने शोध-कर्म में नहीं कर पाया। तभी मुझे यह भी पता चला कि प्रकति के जल-तत्त्व के साथ बचपन और कैशोर्य की सघन स्मृतियों के कारण उनका गहरा आत्मीय लगाव है। पानी को देखने की दोनों दृष्टियाँ उनके पास थीं- पानी के उभार की और पानी के बिखराव की।


एक लम्बा समय बीत गया। मैं अपनी अध्यापकीय वृत्ति में रमता गया। दैनिक कार्यभार इतना था कि उससे मुक्त नहीं हो पाता था। अनेक परिषदों के दायित्व भी मेरे साथ जुड़े थे। हाँ जब-जब उनकी कोई औपन्यासिक नई कृति आती थी, तब-तब मैं उन्हें पढ़ता और रामदरश जी को सराहा करता था। पर बहुत चाहकर भी तब मैं न उनसे पत्र-सरोकार बना सका और न उन पर कुछ लिखने का अवसर नहीं निकाल सका।


1977 का साल था। मैं भागलपुर विश्वविद्यालय सेवा से गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में रीडर बनकर आ गया था। तभी एक दिन उस वर्षान्त में मेरे विभागीय प्रोफेसर और अध्यक्ष डॉ. रमेश कुन्तल मेघ ने अपने कमरे में बुलाकर मेरा उनसे परिचय कराया। मेरे सामने डॉ. रामदरश मिश्र थे, जो विभाग में किसी की मौखिकी सम्पन्न कराने आए थे। लंच का समय हो रहा था, सो मेघ जी डॉ. रामदरश मिश्र को अपने साथ अपने घर लंच कराने ले गए। इस पहली और छोटी-सी मुलाकात में मैंने पाया कि रामदरश जी शांत-संयत और हँसमुख थे। तब पाँच-छह वाक्यों में उनसे मेरी जो संक्षिप्त बातचीत हुई। उससे उनकी शालीनता और आत्मीयता का भी आभास हुआ।


रामदरश मिश्र जी से मेरी दूसरी मुलाकात इसके एक वर्ष बाद हुई। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला में एम.ए. की उत्तर-पुस्तिकाओं के मूल्यांकन के लिए कई विश्वविद्यालयों से लोगों को बुलाया गया था। उनके आमंत्रण पर मैं अमृतसर से पहली बार शिमला पहुंचा था और अतिथि-भवन में ठहरा था। वहीं मुझे रात में ‘डिनर‘ के समय डॉ. रामदरश मिश्र जी सपत्नीक मिले। हम लोगों ने साथ-साथ भोजन किया। जब हम लोग अपने-अपने कमरों में जाने के लिए पहली मंजिल की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे, तब मैंने उनसे सहज भाव से पूछा कि आप किस कमरे में हैं? उन्होंने अपने कमरे की जो संख्या बताई वह कमरा मेरे कमरे के बगल वाला कमरा निकला। अब हम लोग परस्पर पार्श्ववर्ती थे। दूसरे दिन नाश्ते के समय हम लोगों ने साथ-साथ विश्वविद्यालय-कार्यालय जाने का कार्यक्रम बनाया; क्योंकि कार्यालय के निर्दिष्ट होने के बावजूद हमें यह पता नहीं था कि वह भवन कहाँ पर है और हमें किस तरह वहाँ पहुँचना है। विश्वविद्यालय का अतिथि-भवन पहाड़ की निचाई पर स्थित है और विश्वविद्यालय का वह कार्यालय उससे ऊँचाई पर। सो हम लोग अतिथि-भवन से नीचे उतरकर एक साथ ठीक दस बजे ढालवें से चलते हए ऊँचाई की ओर बढ़ने लगे। मैं मिश्र जी से सत्रह वर्ष छोटा हूँ। फिर भी हम दोनों की साँस चढ़ने लगी। हमने अपनी गति धीमी की और अगल-बगल की रमणीक वृक्ष-मालाओं को पीछे छोड़ते हुए धीरे-धीरे विश्वविद्यालय के केन्द्रीय-भवन तक पहुंच गए। वहाँ अपने गंतव्य स्थल के बारे में जो भी मिला उससे पूछ-ताछ की। फिर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए हम उस विशाल प्रशाल में पहुँच गए, जहाँ उत्तर-पुस्तिकाएँ जाँची जानी थीं। हमने अपना-अपना काम शुरू किया। बीच-बीच में चाय बिस्किट लेने का प्रबंध था। लंच के लिए हम पुनः लौट कर अतिथि-भवन गए और वहाँ से पुनः चढ़ाई चढ़कर उस विशाल प्रशाल में लौट आए। न जाने क्यों और कैसे उस दिन एक ही समय हम दोनों के मुँह से सहसा यह वाक्य निकला कि यह काम बड़ा उबाऊ है और हमें सात-आठ दिन यहाँ रहना है। कैसे चलेगा?


उससे अगले दिन संध्या समय हम दोनों ने शिमला के माल रोड़ जाने का कार्यक्रम बनाया। हम चाह रहे थे कि हमें विश्वविद्यालय की गाड़ी की सुविधा मिल जाए पर यह संभव नहीं था, क्योंकि वहाँ बीसियों लोग भिन्न-भिन्न विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों से पधारे हुए थे। सो हमने संध्या समय बस से ही माल रोड़ जाने का कार्यक्रम बनाया। हम अतिथि-भवन लौटे तो भाभी जी तैयार बैठी थीं। हम लोगों ने डायनिंग हॉल में आकर चाय बनवा कर पी। फिर धीरे-धीरे ऊँचाई चढ़ते हुए हम परिसर के पोस्ट-आफिस की बिल्डिंग के पास पहुंचे। वहीं पर बस अड्डा था। हम लोगों ने वहाँ से पहली छूटने वाली बस ली और उससे मॉल-रोड शिमला पहुँच गए। माल-रोड, पर तो हमें पैदल ही चलना था, सो हम लोग थोड़ा-बहुत ही चले-फिरे। फिर उस ऊँचाई से एक जगह नीचे की ओर उन्मुख हुए, क्योंकि नीचे बाजार था और भाभी जी को कुछ घरेलू उपयोगी चीजें तथा शॉल आदि की खरीद करनी थी। इस खरीददारी के क्रम में समय खिसकता गया और संध्या के सात बज गए। अंधेरा घिर आया था। हम लोग उस स्थान पर पहुंचे, जहाँ से बालूगंज होते हुए यूनिवर्सिटी तक मिनी बस जाती थी। पर वहाँ उस समय न कोई जाने वाली बस थी और न तत्काल उसके आने की कोई संभावना थी। हमें बताया गया कि जब गई हुई बस लौटकर आएगी, तभी यहाँ से जाना संभव हो सकेगा। ऊपर-नीचे करते हुए हम तीनों थक चुके थे। पर वहाँ नजदीक में बैठने की न कोई जगह थी और न कोई व्यवस्था ही। हम लोग रेलिंग पकड़कर नीचे की ओर देखने लगे। नीचे सारा शिमला शहर और उसका रेलवे स्टेशन बत्तियों से जगमगा रहा था। सुदूर नीचे स्थलीय अंतराल पर बल्ब दीए की तरह टिमटिमा रहे थे। हम तीनों ही पहाड़ की चढ़ाई और यातायात की कुव्यवस्था से बुरी तरह प्रभावित थे। हमारे दो दिनों के अनुभव का निचोड़ यह चिन्ता थी कि शिमला में हमारे सात-आठ दिन कैसे कटेंगे? मिश्र जी दिल्ली जैसे शहर से आए थे जहाँ मिनट-मिनट पर यातायात के साधन और वाहन उपलब्ध हैं। यद्यपि तब तक अमृतसर में रहते हुए मेरा साल भी पूरा नहीं हुआ था, पर मेरा अनुभव भी यही था कि वहाँ आँटो और रिक्शे जी.टी. रोड़ पर हर पाँच-सात मिनट में सुलभ थे। पर हम तो कभी भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी रही उस शिमला में उपस्थित थे जहाँ यातायात का कष्ट हमें त्रासद प्रतीत हो रहा था। अंततः हम तीनों के मुँह से यही निकला कि हम लोग समतल मैदान के रहने वाले हैं, पहाड़ हम सबके लिए एक-दो दिन घूमने-फिरने के लिए तो ठीक है, पर यहाँ हमारे सात-आठ दिन कैसे कटेंगे? खैर! हमें कोई एक घंटे बाद एक मिनी बस मिली और हम लोग विश्वविद्यालय परिसर में आ गए। फिर वहाँ से खरीदे हुए सामान को उठाया। कुछ ऊपर चढ़ते और नीचे ढालवें से उतरते हुए हम विश्वविद्यालय के अतिथि-भवन पहुँचे और वहाँ सीधे डाइनिंग रूम में आ धमके, क्योंकि हममें इतना धीरज शेष नहीं रह गया था कि हम सीधे ऊपर अपने-अपने कमरों में जाएँ और फिर वहाँ से फ्रेश होकर हम नीचे खाने की मेज तक आएँ। थकान ने हमारे धीरज का मानों चीर-हरण कर डाला था। उस रात हम लोग खाकर सीधे अपने-अपने कमरे में गए और सो गए। फिर तीसरे, चैथे, पाँचवे, छठे और सातवें दिन विश्वविद्यालय-व्यवस्था का वहीं एकरस रूटीनी कार्यक्रम रहा। बीच-बीच में इस एकरसता को भंग करने वाली कुछ इतर चर्चाएँ चलती रहीं। कुछ उत्तर-पुस्तिकाओं में अमान्य तौर पर लिखे हुए अंशों को एक-दूसरे के पास जाकर बाँचने-सुनाने और हँसने-हँसाने का प्रयत्न करने का कार्यक्रम चलता रहा।


शिमला में रहते हुए मिश्र जी और भाभी जी के साथ हमारी आत्मीयता बढ़ी। मिश्र जी की कविताओं को उनके मुख से सुनने के अवसर मिलते रहे। उस औपचारिक कार्यक्रम में एक अनौपचारिक आत्मीय भाव हमारे अपने-अपने कक्षों में परस्पर एक-दूसरे का स्वागत करने को सदैव तत्पर था। वहीं मुझे पता चला कि भाभी जी हिन्दी की एम.ए. है और उन दिनों वह अपनी पीएच.डी. के लेखन में व्यस्त भी हैं। उनके रहने से हमारे बीच पारिवारिक बोध विकसित हुआ । हफ्ता पूरा होने पर हम लोग सात दिनों की दिहाड़ी और यात्रा-भत्ता का चेक लेकर अपने-अपने गंतव्य शहर लौट आए।


इसके बाद हम दोनों के बीच आत्मीय और अकादमिक दोनों प्रकार के संबंध प्रगाढ़तर होते गए। मैंने उनकी कविता पुस्तक ‘कंधे पर सूरज की समीक्षा की, जो ‘आलोचना‘ त्रैमासिक में प्रकाशित हुई। उसके बाद शायद ही उनकी कोई ऐसी महत्वपूर्ण पुस्तक रही हो, जिस पर मैंने समीक्षालेख नही लिखा हो। दिल्ली में आई बाढ़ पर उनकी प्रकाशित पुस्तक ‘आकाश की छत पर मैंने लम्बा समीक्षालेख लिखा, ‘दूसरा घर उपन्यास पर भी लिखा। उनकी ‘परिवार‘ नामक उपन्यासिका पर भी लिखा। उनकी आत्मकथा के दूसरे खंड की मैंने विस्तृत समीक्षा की। कविताओं में ‘आम के पत्ते, ‘आग हँसती है तथा अन्य कई पुस्तकों पर भी आलेख लिखे।


रामदरश जी की कवि-दृष्टि की गहरी परख आज भी बेजोड़ है। वह अपनी सर्जनात्मकता में विश्व-दृष्टि के चश्मे से झाँक-ताक कर कविता नहीं लिखते। उनकी संवेदित दृष्टि उनके मर्म के तन्तु-जाल को झंकृत कर देती है। इसके साथ ही उनकी कवि-दृष्टि काल, स्थल, स्थिति, लोग, उनकी करुणा, विडम्बना, संत्रास, भय और सन्नाटे को अर्थवान् करने लग जाती है। यह अर्थ सीधे दिल से टकराता और विवेक को झकझोरता है। इसीलिए मैं उन्हें सामान्य-
सी-सामान्य घटना तक में कविता को साधने और बाँधने वाला अकेला और अद्वितीय कवि मानता हूँ। वे यह नहीं कहते कि सन्नाटा बनता हूँ, पर उनका कवि-धर्म यही करता है। उनकी इस पहचान और परख को प्रायः जनवादी कवि-आलोचक नहीं जानते-मानते है।


रामदरश जी को जिजीविषा साहित्य से अनुप्राणित और साहित्य में ही निहित है। वही उनकी पिपसा है, वही उनकी रिरंसा (रमणेच्छा) है और वही उनकी सिसृक्षा है। वे प्रकृति और पर्यावरण तथा ग्राम्य भारतीय संस्कृति के कवि हैं, मानसिक विकृति के नहीं, जैसा आज प्रायः समकालीती में देखने-पढ़ने को मिलता है। उनकी वाणी में अब भी वही आकर्षण है। आँखों में वही दृष्टि की उत्सुकता है। काया थोड़ी क्षीण पड़ी है। गर्दन थोड़ी झुकी है, पर मेरुदंड पूर्ववत् तना हैं बहुत सारे संघर्ष के राज को पचाये। वैसे ही रामदरश जी की कविताएँ भी अपनी सहजता में सीधी गोताखोरी के लिए पाठकों को न्योतती हैं। ठीक वैसे ही जैसे प्रेमचन्द की कहानियाँ सहज होकर भी गोताखोरी के लिए पाठकों को आमंत्रित कर रही है। जैसे प्रेमचन्द जी की कहानियाँ सरल-सहज होकर भी पाठकों को गोताखोरी के लिए आमंत्रित करती हैं। मिश्र जी अपने-अपने देखे, सुने और भोगे यथार्थ को कला-सत्य बना देते हैं। इन सब दृष्टियों से उनके साहित्य का सम्यक् मूल्यांकन अभी बाकी है।


आपात्काल के दौरान उनके द्वारा लिखी एक कविता ‘वसंत‘ ने मुझे झकझोर दिया था। ‘‘कोयल स मैंने कहा- गाओ/कुछ सन्नाटा कटे/वह चुप रही/मैंने कहा/मेरे पास आओ/कुछ सन्नाटा कटे/वह डाल पर बैठी रही/मैंने कहा-/अच्छा सुनो, मैं ही गाता हूँ/उसने सहमी निगाहों से चारों ओर देखा-/और एकाएक उड़ गयी.....‘‘ इस कविता का शीर्षक है ‘वसन्त और कविता में छाया है सन्नाटा/वसन्त अनेकविध मुखरता का परासन्देशी शब्द (Hypogramic word) है। वसन्त रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, नाद- सबकी मुखरता है। यह कविता निराला के ‘भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया- वाले वसन्त की वासन्ती कविता नहीं है। यहाँ तो सन्नाटा-ही-सन्नाटा है। यहाँ कोयल की पंचम तान को कौन कहे, कोयल निःशब्द, मूक-मौन है। वह गाने के आग्रह को ठुकरा कर चुप रह जाती है। कवि उसे अपने समीप बुलाना चाहता है, पर वह इसे भी नहीं स्वीकारती और डाल पर यथावत बैठी रहती है। कोयल की चुप्पी और स्थिरता की यथास्थिति में अंततः कवि उसे श्रोता की भमिका में आने का आग्रह करता है और कहता है कि मैं ही गाता हूँ। तुम सुनो। पर वह सहमी नजरों से चारों ओर देखती और उड़ जाती है। वह द्रष्टा भाव, भोवता भाव और साक्षी भाव-तीनों में से किसी भी भूमिका-निर्वाह को नहीं स्वीकारती और उड़ कर पलायन कर जाती है। कविता में ‘वसन्त‘ कवि का बीज शब्द (key word) है और ‘सन्नाटा‘ तथा ‘सहमी निगाह‘ प्रतिपाद्य शब्द (Theme word) हैं। ‘वसन्त‘, ‘आपातकाल‘ (Emergency) बन जाता है और वसन्तोत्सर‘ ‘अनुशासन पर्व में बदल जाता है। स्मरणीय है कि विनोवा ने आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व की संज्ञा दी थी। लोकमानस में प्रजा के बीच सन्नाटा है, सहमे-सहमे रहने की आशंकित स्थिति है। जन-मानस की अभिव्यक्ति प्रतिबंधित है। पर सत्ताधारियों के यहाँ वसन्तोत्सव है। ‘आपात काल‘ पर दुष्यन्त ने गजलें लिखीं, धर्मवीर भारती ने ‘मुनादी‘ कविता लिखी। पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के छिनने, सन्नाटा छा जाने और सहमे-सहमे रहने- जैसी त्रासद-व्यंजना जैसी इस कविता में हुई है, वैसी मुझे अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिली। यहाँ सत्ता का बुना हुआ सन्नाटा है, कवि-दृष्टि का बुना हुआ सन्नाटा (‘मैं सन्नाटा बुनता हूँ‘) नहीं है। कहना न होगा कि, यह कविता रामदरश मिश्र को एक महान् कवि बना देती है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि यह कविता कालांकितता (Datedness) से उत्पन्न होकर भी कालातीतता (Beyond the time limit) का स्पर्श कर उठती है। इस कविता में कवि का पूरा स्वदेश, स्वदेश के लोग और उसका समकाल-तीनों ही मुखर हुए हैं। अपनी इस कविता में कवि की भागीदारी, दृष्टा, भोक्ता और स्रष्टा-तीनों की है।


इसी सन्दर्भ में मिश्र जी का एक लघुगीत भी मुझे याद आ रहा है। उनके ‘‘दिन डूबा‘ गीत की ये पंक्तियाँ मेरी जिह्वा पर रस-बस चुकी हैं- ‘‘दिन डूबा, अब घर जाएँगे/कैसा आया समय कि साँझे/होने लगे बन्द दरवाजे/देर हुई तो घरवाले भी/हमें देखकर डर जाएँगे/आँखे आँखों से छिपती हैं/नजरों में छुरियाँ दिखती हैं/हँसी देखकर हँसी सहमती/क्या सब गीत बिखर जाएँगे?/गली-गली और, कूचे-कूचे/भटक रहा पर राह न पूछे/काँप गया वह, किसने पूछा-/सुनिये, आप किधर जाएँगे?‘‘- ये पंक्तियाँ कितनी पीड़ा, कितने संत्रास, कितनी दहशत, कितनी करुणा, कितनी विडम्बना, और कितनी निगूढ़ व्यंजना से भरी है। 1983 से 1988 के बीच पंजाब को अपने जबड़े में जकड़े हुए उग्रवाद और आंतकवाद की भयावह स्थिति की कितनी गहरे अहसासों से भरी अभिव्यक्ति है यह! इसके सामने उस समय के सारे दस्तावेजी कागज और अखबारी कतरनें व्यर्थ हो जाती हैं।


यदि मैं यह कहूँ कि रामदरश मिश्र अपने समकाल में त्रासद अहसास. करुणा. विडम्बना और अभिधा-प्रसूत व्यंजना  के बड़े कवि हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस कविता में तीन बिम्ब हैं। पर ये तीनों बिम्ब राम स्वरूप चतुर्वेदी की बिम्ब-विषयक समझ और परख को अतिकान्त कर उनकी पकड़ से छिटक जाने वाले बिम्ब है। राम स्वरूप जी शब्द-बिम्ब तक सीमित हैं। पर यह तो प्रोक्ति का, पूरे बंध का बिम्ब है। उनके ़ साँचे में ये बिम्ब अट नहीं पाएंगे। रेसम (Ramsom) की बुनावट की बड़ी बारीक कला है इसमें।


‘पिता’ पर हिन्दी में अनेक कविताएँ लिखी गयी हैं। इनमें कुछ सामान्य और कुछ विशिष्ट भी हैं। पर गीत विधा में मिश्र जी द्वारा लिखी ‘‘पिता तुम्हारी आँखों में ‘‘ऐसी कविताओं से विलग है। हिन्दी में रामदरश जी शुक्ल जी द्वारा निरूपित ‘स्मृत रूपविधान के श्रेष्ठ गीतकार हैं। रूप विधान में प्रायः ‘कल्यित रूप विधान को अधिक महत्त्व दिया जाता है। पर रामदरश जी के स्मृत रूप-विधान से जुड़कर कस्थित रूप-विधान खिल उठता है। हमारा समकाल वर्तमान-केन्द्रित है। पर रामदरश जी अतीत को नहीं भूलते। इस गीत का पहला ही बिम्ब देखिए- ‘‘फटेहाल बचपन था मेरा, हँसती हुई उदासी-सा/भूखा-प्यासा दिन आता-जाता था अपने साथी-सा/लगता था मैं हूँ भर आया, पिता तुम्हारी आँखों में।‘‘ इन तीन पंक्तियों के कथन में स्मृत, प्रत्यक्ष और कल्पित-तीनों रूप-विधान स्वरूपित हो रहे है। अंतिम पंक्ति का सपाट-सा दीखने वाला कथन कितनी व्यंजना से भरा है। भावों की कैसी आवाजाही है इसमें कि पूरी। हरी उक्ति ही संश्लिष्ट बिम्ब के रूप में सुक्न्यिस्त हो उठी है। ‘मैं का पिता की आँखों में भर उठना- कैसी निगूढ़ सार्वनामिक पद-वक्रता से अर्थोन्मेषित हो रहा है। ‘मैं‘ के बचपन की फटेहाली, उसके भूखे-प्यासे होने का अहसास- सभी ‘मैं‘ में ही संपुटित (Coded) हैं। बेटे के सभी अभावों का पिता की आँखों में भर उठना- कैसी अनूठी अभिव्यक्ति है। ‘‘आँखें भर आना‘ एक कारुणिक मुहावरा है। पर यहाँ मैं का पिता की आँखों में भर आना अभाव से भाव और लगाव की कैसी करुणामयी भाव-यात्रा है। कितनी बेबसी, कैसी तिरुपायण, कितना मोह-सम्मोह और अथाह करुणा! ऐसा तो ‘राम-राम कहि राम कहि/राम-राम कहि राम‘ वाले दशरथ पिता के प्रति राम ने वन-यात्रा करते समय या उसकी प्रक्रिया में कभी नहीं सोचा कि ‘मैं हूँ’ भर आया , पिता, तुम्हारी आँखों पे‘‘। रामदरश जी राम की मर्यादा-पुरुषोतमता से रहित हैं, पर अपने पारिवारिक और भारतीय संस्कारों की मर्यादा से अवश्य बँधे हैं। यह अकेली ऐसी भाव-धरी है, जिसकी संचित उपलब्धि के सामने कोई भी अपने बचपन के सारे अभावों को भूल जाएगा। अपने पिता की आँखों में गहरती करूणा में गिरती घर की दीवार, आंगन में चूल्हे-चक्की का नंगा होना, यादों की ऐसी बरसाती छायाएँ देख लेता है। पर उन्हीं आँखों में वह पिता का छलकता प्यार भी देखता है, उत्सव की सजी-सजायी छवि भी देख लेता है। अन्त में वह पिता से पूछता है कि पिता, क्या मेरे हृदय में टपकते आँसू और होठों से मुखर होते आर्तव गान भी- क्या यह सब कुछ तुम्हारी आँखों में समाया रहा? इसका सकारात्मक उत्तर अंलकार की शैली में और काकु की ध्वनि से बेटा स्वयं ही प्राप्त कर देता है।


रामदरश जी अपने गीतों में लघु संवाद और संबोधित एकालाप की योजना करने में भी अत्यन्त कुशल है। इस गीत में बेटा हीं करता, उनकी आँखों की भंगिमा को देखता, बल्कि आँखों की राह से उनके हृदय के अन्तस्तल में उतर जाता है और उनकी अनुभूतियों का आत्मसातीकरण कर लेता है। आज गरीबी से उठकर सम्पन्न जीवन जीने वाला बेटा न तो अपने पिता को स्मरण रख पाता है और न पिता-पुत्र के नाते के अहसास को जी ही पाता है।


रामदरश जी मूलतः अभिधावादी हैं पर उनकी अभिधा महिमभट्ट की अभिधा है, जो इषु (बाण) व्यापार से सम्पन्न है। उसी से लक्षण और व्यंजन सम्पन्न है। जैसे बाण वर्म (कवच)-भेदन, मर्म-भेदन होती और प्राण-हरण एक साथ ही कर लेता है, वैसे ही रामदरश जी की अभिधा लक्षणा और व्यंजना तक को एक साथ ही सगुण साकार कर देती है। मिश्र जी ने इस अभिधा में ही आँखों की संकेत-भाषा की पहचान-परख तथा उसकी सार्थक नियोजना की है। संकेत विज्ञान (Semoiotics) के संकेतों की काव्यात्मक सार्थक उपयोगिता है यह।


रामदरश जी ने कोरिया भ्रमण पर अपना यात्रा-संस्मरण लिखा है। ललित निबंध लिखे हैं। डायरियाँ लिखी हैं। मुक्तक और गजलें लिखी हैं। इन सभी विधाओं में उनकी लेखनी अपनी प्रभावी शक्ति-क्षमता का परिचय देती है। पर मूलतः वह कवि और कवि हैं। उनकी कविताओं में संवेदना की गहराई और अनुभूति तथा अहसास को भावप्ररवकता है। वे शुद्ध कवि हैं। कविता के लय और राग उन्हें सिद्ध हैं। चाहें वे छंद में की कविताएँ लिखें या मुक्तछंद में अपनी अभिव्यक्ति करें, उनके भीतर एक गीतकार संजीवित रहता है। इन गीतों में रूमान भी है आत्मीय संबंधों की स्वीकार्यता भी है, जीती-जागती प्रकृति है, मौसम है- सुबह, दोपहर, शामें है, धूप है तो चाँदनी भी है। प्राकृतिक परिवेश है, पेड़-पौधे हैं, गाँव है तथा काल-चेतना और स्थल-चेतना के अतीत बन जाने का नोस्टेल्जिक दर्द भी है। उसकी कसमसाती यादें हैं, खेत-खलिहान हैं, आपके पेड़ हैं, पेड़ों की पारस्परिक बातचीत है. समाज है. समाज की विषमताएँ हैं, गरीब का ढाबा है, नगर का परकीय बोध है, हर तरह का दर्द झेलते लोग हैं, नेता हैं, उनके कर्म-व्यापार पर व्यंग्योक्तियाँ हैं और है कविता की रचना-प्रक्रियाई समानुभूति।


उनकी कहानियों में सहज अभिव्यक्ति से फंतासी तक की अभिव्यंजनाएं हैं। समकाल की मानवीय पीड़ा है तो सामाजिक क्रूरता और विषमता भी है। उनकी कविता में आई हुई औरत त्यागमयी, कर्ममयी और पारिवारिक आत्मीयता से भरी पड़ी है, तो उनकी कहानियों में आई हुई औरतें श्रमकी हैं। उनकी कहानी में लड़की- यौनभेद-लड़के और लड़की होने के अंतर- की शिकार हैं। उनकी ‘लड़की’ कहानी इस दृष्टि से अपनी आनुभविक चित्रात्मकता में बहुत प्रभावी और प्रशंसनीय है। उनकी कहानी और उनके उपन्यासों में मानवीय संवेदना का राग व्याप्त है। कहानी और उपन्यास में भी कविताई की घुसपैठ है, गद्यराग की अद्भुत सर्जना है, रोज के गुजरते हुए जीवन का दर्दीला सच है, वर्ग-चेतना की जागरूकता है, पारिवारिक संवेदना का लगाव और तनाव है। उनका साहित्यकार द्रष्टा और भोक्ता- दोनों है। उनकी रचनाएँ यद्यपि बहुत सम्प्रेषणीय हैं, पर एक सपाट अर्थ देकर चुकने वाली नहीं हैं। उसकी प्रभावान्विति गजब की है, जो अर्थ के अनदेखे क्षितिजों को खोलती है। उनकी रचनाधर्मी सहजता ही उनकी विशेषता और उनकी अनन्यता बन जाती है।


हिन्दी में गजल लिखना आसान काम नहीं रहा है। गजलों में अहसास और भाव की गहराई के साथ-साथ उसके शीन-काफ का दुरुस्त होना बहुत जरूरी है। इसमें रामदरश जी को कमाल की सिद्धि मिली हुई है।


मैंने रामदरश जी से साक्षात्कार भी लिए हैं, जिसमें उनके अचेतन तक को खोलने की कोशिश की है। पर वे ऐसे प्रश्नों का उत्तर देते हुए मुझे काफी सहज दिखे। मसलन मैंने उन्हें एक नितांत वैयक्तिक प्रश्न किया था कि ‘‘क्या आपने जीवन में कभी किसी से प्रेम किया है या आपको किसी से प्रेम हुआ है या किसी ने आपसे प्रेम किया है? यह प्रेम विवाह-पूर्व का भी हो सकता है और विवाहोत्तर काल का भी। कृपया सही-सही बताएं।‘‘ इस पर उन्होंने अपनी पत्नी के सामने ही बैठे-बैठे मुझे यह बताया था कि हाँ, एक सहपाठिनी के साथ मेरे निकट मैत्रीपूर्ण संबंध थे। जब हम लोग एम.ए. करने के बाद अलग-अलग होने लगे तब पता चला कि वह ट्रेन से अपने घर वापस लौट रही है। फिर मैं अपने एक मित्र के आग्रह पर स्टेशन पर उससे मिलने गया और उससे यह कहा कि ‘‘अब तुम अपना विवाह कर लेना।‘‘ इस पर उसने मुझे तपाक से उत्तर दिया कि ‘‘हाँ, यदि तुम्हारे जैसा कोई लड़का मिला, तो अवश्य कर लूँगी।‘‘


रामदरश जी पूरी तरह एक पारिवारिक व्यक्ति रहे हैं और हैं। उनका दाम्पत्य जीवन अत्यन्त मुखमय और सराहनीय है। अन्यों के लिए यह ईर्ष्या का विषय भी हो सकता है। सरस्वती जी ने उन्हें घर-परिवार की सभी झंझटों से मुक्त कर रखा है, जिससे उन्हें अधिक-से-अधिक लेखन के लिए अवसर मिले और गृहस्थी के सभी उत्तरदायित्व उन्होंने अपने से बाँध रखे हैं। पर गुजरात में आरंभिक दाम्पत्य और गार्हस्थ्य जीवन में उन्हें परिवार के लिए काफी भाग-दौड़ करनी पड़ी थी, जो उनके दायित्व-निर्वाह करने की चुनौतियों के दिन थे।


उनके घर में भारतीय संस्कृति का जीता-जागता प्रमाण मिलता है। कुछ भी औपचारिक नहीं, पर सारा कुछ आत्मीयता से भरा-पूरा है। सरस्वती जी स्वयं साहित्य की अनुरागिनी हैं, उनकी रचनाओं को पढ़ती-सुनती हैं और उन पर वह अपनी टिप्पणी भी दिया करती हैं। पारिवारिक दुख-दर्दो को उन्होंने भोगा है। चाहें उनके ज्येष्ठ पुत्र का अकाल निधन हो चाहें उनकी सबसे छोटी बिटिया के वैवाहिक संबंध के टूटने का दर्द हो। ऐसे प्रसंगों से वे विरक्ति विचलित भी हुए हैं, पर उनकी साहित्य-सर्जना ही उनको ऐसे दुर्बल-क्षणों से उबारने का माध्यम बनी है।


रामदरश जी को अपने जीवन में साहित्य-साधना का सम्मान-पुरस्कार बहुत विलम्ब से मिला । उनकी ये पंक्तियाँ उनके जीवन-यथार्थ से भरे आत्मतोष को व्यक्त करती हैं- ‘‘जहाँ तुम थे पहुँचे छलांगे लगाकर/वहाँ मैं भी पहुँचा/मगर धीरे-धीरे’’
आज रामदरश जी ‘मोदी सम्मान, ‘व्यास सम्मान‘, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार‘ जैसे अनेक अनेक महत्त्वपूर्ण सम्मानों से अलंकृत हैं। उन्होंने महत्वपूर्ण आलोचनात्मक लेखन भी किया है। उनकी पीएच.डी. का शोध-ग्रंथ जो आरंभ में मैकमिलन से प्रकाशित हुआ था, अपने-आप में काफी विचारपूर्ण, महत्त्वपूर्ण और औचित्यपूर्ण लेखन का प्रामाणिक दस्तावेज है। उनके साहित्य में दस्तावेजीकरण और कलाकरण- दोनों मिलते हैं, पर पाठक को केवल सतही दस्तावेजीकरण उनके यहाँ नहीं मिलेगा।


रामदरश जी की काव्य-रचना पर मेरे विचार करने की जो दृष्टि रही और उनकी कविता के अंतःस्थल में सोई हुई बहुआयामी साभिप्रायता-सार्थकता का जो उद्घाटन मैं करता रहा, उससे वह बहुत प्रभावित रहे हैं। रचना के अर्थोन्मेष की मेरी अंतर्दृष्टि के वह बीसियों साल पहले से मेरे प्रशंसक रहे हैं। इस तथ्य को उन्होंने अपने लेखन तक में स्वीकार किया है।यद्यपि वह सिद्धांततः मार्क्सवाद में विश्वास रखते हैं और उसको मानते हैं, पर उसकी जड़ता और शिविर-बद्धता उनमें नहीं है।


रामदरश जी एक आदर्श अध्यापक रहे हैं। उनके शिष्य और उनके शोधार्थी उन्हें बहुत सम्मान देते रहे हैं और वह उनकी समस्याओं को हल भी करते रहे हैं। उनके व्यक्तित्व की यह बड़ी खासियत रही है कि वे जहाँ-कहीं भी रहते हैं एक आत्मीय वृत्त बना लेते हैं। ऐसा उनके साथ विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में भी रहा है और दिल्ली जैसे महानगर के साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश में भी रहा है। पर साहित्य के क्षेत्र में दलगत राजनीति से उन्हें अब तक परहेज है। मुक्तिबोध ने साहित्य के आलोचक की तुलना ‘दारोगा‘ से की थी। इसलिए साहित्य के क्षेत्र में उठाने और गिराने की दारोगाई मनोवृत्ति वाले लोगों के वह कटु आलोचक भी रहे हैं। अज्ञेय उनके प्रिय कवियों में कभी नहीं रहे, पर मुक्तिबोध उनके प्रिय कवि हैं। वे ‘‘असाध्य वीणा‘ और ‘अंधेरे में’ की पारस्परिक तुलना करते हए ‘अंधेरे में’ को एक श्रेष्ठ काव्य-रचना मानते हैं। पर अज्ञेय के गद्य-लेखन के वह प्रशंसक रहे है। अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व और लेखन को वह महत्वपूर्ण मानते हैं। साथ ही शुक्ल जी के प्रति उनके मन में बहुत सम्मान का भाव है, पर मैं जहाँ अज्ञेय को महत्त्व देता रहा हूँ वहीं मुक्तिबोध को भी। ‘असाध्य वीणा‘ को मैं एक श्रेष्ठ काव्यकृति मानता हूँ तो ‘अंधेरे में‘ को भी। अज्ञेय को वे कथाकार के रूप में महत्त्व देते है, और गद्य-शैलीकार के रूप में भी मानते हैं। उनका साहित्यबोध बहुत गहरा और व्यापक है। प्रसाद और निराला दोनों उनके प्रिय कवि हैं।


एक सच्चा साहित्यकार साहित्य को जीता है। साहित्य में उसकी साँसों की रागिनी बजती है। साहित्य से उसका नाता वैसा ही होता है जैसा नाता उसके पारिवारिक आत्मीयों से होता है-यथा प्रियतम-प्रियतमा, भाई-बहन, माता-पिता, पत्नी, पुत्र-पुत्री। इनमें जो सबसे अनन्य हो। वैसा नाता रहने पर साहित्य उसके लिए व्यवसाय नहीं होता। रामदरश जी एक ऐसे साहित्यकार रहे हैं जिन्होंने साहित्य को अपने अंतर्मन से जिया है। उनके व्यक्तित्व और शील से साहित्य झांकता है। वे एक ऐसे साहित्यकार रहे है, जिनमें मानवीय संवेदना की घनीभूतता छायी रही है। उनके साहित्य में कल्पना की उड़ान कम और यथार्थ का कलात्मक निरूपण अधिक है। उनकी कल्पना प्रकृति-चित्रों में और ऋतुओं के प्रभाव-सम्मोहन में दीखती है। मिश्र जी समकाल के यथार्थ धरातल पर अतीत की स्मृतियों का राग छेड़ते रहते हैं, जो बहुत जीवन्त प्रतीत होता है। वसंत उनकी सर्वाधिक प्रिय ऋतु है। आम की मंजरियों की खुशबू, प्रातः काल वृक्ष से झरने वाले महुए के फूलों के चटक रंगों-भरी खुशबू! चैती पवन की शीतल छुवन उनके मन-प्राण में मानो रसी-बसी रहती हैं। एक बार मैं उनके किसी पीएच.डी. शोधार्थी की मौखिकी लेने दिल्ली पहुंचा था। उन्होंने बड़े आत्मीय आग्रह के साथ मुझे अपने घर पर ही ठहराया था। प्रातः दस बजते-न-बजते हम दोनों दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में आ चुके थे। उन्हें बैंक में कुछ काम था, सो उन्होंने मुझसे कहा कि चलिए, पहले बैंक चलते हैं। फिर वहाँ से विभाग चलेंगे। जब बैंक से हम दोनों निकले तब परिसर का प्राकृतिक दृश्य हमें खींच रहा था। पादपों और वृक्षों पर भिन्न-भिन्न रंगों के फूल खिले हुए थे, जिनकी खुशबू हवा अपने पंखों पर लेकर पूरे परिसर में नाच रही थी। कोयल आलाप भर रही थी। सहसा रामदरश जी रुक गए और मुझे भी रुकने का आग्रह किया तथा कहा- ‘‘देखिए, वसंत का कितना जीवन्त दृश्य है। मुझे गाँव याद आ रहा है। आम की बौरों की खुशबू से पूरी बगिया गमगमा रही होगी। उस पर महुए की मादक-मोहक खुशबू और कोयल की पंचम तान‘‘! मुझे लगा, रामदरश जी भले ही महानगर में रहते हों, पर उनके मन में बसा गाँव उद्दीपन मिलते ही उभर आता है। यह मौखिकी तो बहाना-मात्र थी। तभी से रामदरश जी के घर ठहरने का मेरा सिलसिला शुरू हुआ। मैं जब कभी दिल्ली आने वाला होता, तो हर बार उनका आग्रह होता कि मेरे घर पर ही आइए। आपके साथ समय गुजार कर अच्छा लगेगा। चाहे UPSC के काम के संदर्भ में मैं दिल्ली गया या औरों के शोध-छात्रों की मौखिकी लेने दिल्ली पहुंचा या निदेशालय के किसी काम से दिल्ली जाना हुआ, अनेक बार मैं रामदरश जी के घर पर ही ठहरता रहा। वहीं से बस पकड़ कर या ऑटो-रिक्श लेकर अपने कार्यस्थल पर पहुँचता रहा । एक बार UGC के रिसर्च एसोशिएट पद की प्रत्याशी के संदर्भ में मेरी पत्नी मेरे साथ दिल्ली आ रही थी। रामदरश जी ने बड़े स्नेह-आग्रह से मुझे अपने घर बुलाया और हमें वहीं ठहराया। साक्षात्कार देने में कोई तकनीकी अडचन आ रही थी। इसके लिए उन्होंने डॉ. निर्मला जैन और डॉ. केदारनाथ सिंह से फोन पर परिस्थितियों को अनुकूलित करने और साक्षात्कार देने हेतु अनुमति दिलाने के लिए स्नेहपूर्ण आग्रह भी किया। पर वह रुकावट तकनीकी थी और उसके निर्धारक और निर्णायक आयोग के उप-सचिव थे। अतः उन्हें साक्षात्कार नहीं देने दिया गया। हम पति-पत्नी मिश्र जी के घर लौट आए। रात में अपने आरक्षण के अनुरूप मुझे दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा (हैदराबाद) की एक संगोष्ठी में बीजव्याख्यान देने के लिए जाना था। रामदरश जी ने मुझसे कहा कि आप निश्चिंत होकर हैदराबाद जाइए। इंदु जी सवेरे शान-ए-पंजाब से जाने वाली हैं। मेरा बेटा शशी उन्हें नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में बिठा आएगा। अब उन्हें गाड़ी में बिठाने का योगक्षेम आप मुझपर छोड़ दीजिए। मैं अपने आरक्षण के अनुरूप हैदराबाद चला गाया। इधर रामदरश जी के सुपुत्र शशी ने दूसरे दिन प्रातः मेरी पत्नी को स्टेशन ले जाकर शान-ए-पंजाब मेल में उन्हें अपने आरक्षित स्थान पर बिठा दिया और पत्नी सकुशल अमृतसर पहँच गईं। आज लगता है कि रामदरश जी के घर पर रुकना मेरे लिए कितना आहलादकारी होता था। घर का आत्मीय खाना, भाभी जी के हाथ की बनी नीबू चाय और साहित्य पर विशद चर्चाएं। रामदरश जी का काव्य-पाठ! हर बार के काव्य-पाठ में कवि की अंतर्दृष्टि की नई-नई झलक मिलती थी। ऐसा लगता था कि रामदरश जी कविता नहीं लिखते, कविता अपने-आप को उनसे लिखवाती जाती है, बल्कि इससे भी अधिक उचित यह कहना होगा कि कविता पहले उनके मानस-पटल पर अवतरित होती है फिर उनकी लेखनी के द्वारा कागज के पन्नों पर अपना आसन जमा लेती है। कलाकार की जिस मानसिक अभिव्यंजना की बात क्रोचे ने की है, रामदरश जी की काव्यरचना-प्रक्रिया इसे सम्पुष्ट करती है। संवेदना को जितनी सादगी और स्वाभाविकता से रामदरश जी जिस तरह अभिव्यक्त करते हैं, उससे उनकी साधना और सिद्धि का, उनकी सामथ्र्य-शक्ति का पता चलता है।


रामदरश जी के यात्रा-संस्मरण की दो बड़ी विशेषताएं हैं। यह स्थल-केन्द्रित और काल-केन्द्रित तो है ही, पर इस परिप्रेक्ष्य में वह वहाँ की प्राकृतिक सुषमा को संस्मरणात्मक रूप में अभिव्यंजित करते हैं। साथ ही वहाँ की महत्वपूर्ण स्मृतियों को प्रत्यक्ष रूप में निरूपित करते चलते हैं। दक्षिण कोरिया का उनका यात्रा-संस्मरण इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है कि उनके जिस कोरियाई पूर्व छात्र ने उन्हें अपने देश ले चलने के लिए आमंत्रित किया, उसके आतिथ्य और उसके समस्त परिवार के सहृदय, सदाशय व्यवहार को वह बड़ी मानवीय संवेदना के साथ निरूपित करते हैं। इससे यात्रा-संस्मरण में आत्मीय, मानवीय राग की अर्थलय मुखर हो पायी है।


रामदरश जी की डायरियाँ बहुत सहज रूप में अपनी खुली झाँकी दिखाती हैं। ये डायरियाँ या तो उनके कवि-कर्म से जुड़ी हैं या उनकी लेखनधर्मिता से। कुछ दैनिक रूटीन में घटने वाली घटनाओं पर फोकस करने वाली हैं, जिससे घटनाओं के स्वरूप-बोध के साथ-साथ द्रष्टा और गृहीता की उस दृष्टि का भी पता चलता है, जिसे उनके लेखक ने देखा और रचा है। उनकी कई डायरियों में उनके आत्मीय लोगों के आगमन और उनके साथ हुई वार्ता की चर्चाएँ हैं, तो कहीं उनके आत्मीय हैं। इनमें रचनाधर्मियों के रचना-वैशिष्ट्य का सहज उद्घाटन भी है। विभिन्न समाज-राजनीतिक संदर्भ भी उनकी डायरियों में उपस्थित हुए हैं, जिनसे उनकी डायरी के मुक्त स्वरूप और रचनाकार के मुक्त चिंतन का पता चलता है। उन्होंने निबंध भी लिखे हैं, मुक्तक भी लिखे हैं, गजलें भी लिखी हैं। अपने इन सभी लेखनों से उन्होंने खुद को सार्थकता प्रदान की है।


रामदरश जी हिन्दी के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं। अपनी आत्मकथा में मानों उनके अतीत और वर्तमान का गाँव और शहर के जीवन का रेशा-रेशा उद्घाटित होता चलता है। स्मृतियों की बारीकी का खजाना है यह। जीवन में लगे घात-प्रतिघातों का उल्लेखनीय अलबम है यह। गाँव में बाढ़ की पीड़ा मर्मान्तक है। आज तक इस बाढ़ पर सरकार नियंत्रण नहीं कर पायी है। इस आत्मकथा में रोमान भी है, यथार्थ भी हैं, आदर्श भी है; राग भी है, अनुराग भी है, संयोग भी है और वियोग भी है। अभाव और दर्द की भूमि से उठे साहित्यकार के जीवन को प्रतिबिम्बित करने वाला आईना है यह। जैसे उनके साहित्य में जल-तत्त्व की प्रमुखता है वैसे ही उनका स्थलबोध भी मिट्टी और पानी से गहरे तौर पर जुड़ा हआ है। जीवन में उन्हें जो भी मिला उसका यहाँ सहज स्वीकार है। यह चार खंडों में लिखी गई उनकी आत्मकथा आत्मकथा के मानक पर न केवल खरी उतरती है, बल्कि यह हिन्दी की आत्मकथा को समृद्ध करती है। जीवन में जिन छूटे हुए संदर्भो को, बंधु-बाधवों को लोग याद नहीं करते, याद नहीं रखते, उन्हें रामदरश जी ने अपनी चिति से चेतना तक अंतर्व्याप्त स्मृत्यागार से मुखर रूप में प्रस्तुत किया है।
रामदरश जी के घर पर मैं जब-जब गया उनकी आँखों में एक पुलक देखी- आह्लादाभरी। यह जो आत्मीय स्वागत भाव मैंने पाया वह अनन्वय रहा है और है। मैं पारिवारिक रिश्तों-नातों से लेकर आत्मीय सुहृदय-बंधुओं तक के घर पर सैकड़ों बार गया हूँ, पर अपने आगमन से आँखों में चमकने वाला यह पुलक-आह्लाद भरा भाव मुझे बहुत कम जगहों पर ही देखने को मिला- ‘‘देखत ही हरषै नहीं, नैनन नाहिं सनेह/तुलसी तहाँ न जाइए/ कंचन बरसै मेह।‘‘ यूँ तो मैं सदैव उनको पूर्व सूचित कर और उनकी सुविधा आदि को ध्यान में रखते हुए ही उनके घर आया-जाया करता हूँ। पर संभव है उनके परिवार में मेरे जाने से शायद कभी कोई कार्यक्रम बाधित हुआ हो। पर रामदरश जी ऐसे अकेले दृष्टांत हैं, जो मुझे सदैव मिलने के लिए पुलक-भरे, प्रसन्न मन और आतुर दिखे। उनकी और भाभी जी की आँखें और मुखमंडल की चमक सन्नता का सदैव दयोतन करती है। उनके यहाँ जब-जब गया, ढेर-सारी साहित्यिक चर्चाएँ होती रहीं। कई बार अपनी धर्मपत्नी इन्दु जी के साथ उनके यहाँ गया हूँ और कई बार अपने बड़े पुत्र सुशांत सुप्रिय के साथ। एक-दो बार अपनी बहू डॉ० लीना के साथ भी गया हूँ। पर उनके मन में हम सबके लिए वही स्नेह, वही सौहार्द। उन्होंने सदैव अपनी कोई नई पुस्तक मुझे भेट में दी है। कविताएं और गजलें सुनाई हैं। मेरे बेटे की भी कविताएं सुनी हैं और उनके घर का सारा परिवेश उनके व्यक्तित्व के कारण  साहित्य-संवेदना से जीवंत हो उठा है। परस्पर मिलकर हम एक-दूसरे का दुख-सुख भी बाँटते रहे हैं। भाभी जी भी उसी तरह हम सबके बीच चाय-बिस्किट, नमकीन, मिठाई आदि लाकर हमें देती रही हैं, लंच तक कराती रही हैं। मैंने अनुभव क्रिया है कि भाभी जी ने गार्हस्थ्य जीवन की शत-प्रति-शत जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर न केवल मिश्र जी को साहित्य-सर्जन और लेखन के संदर्भ में निर्बाध अवसर प्रदान किया है, अपितु वह स्वयं भी हम लोगों के साथ साहित्य-चर्चाओं में अपनी सक्रिय प्रतिभागिता करती रही हैं मिश्र जी की साहित्य सहचरी रहीं। मिश्र रामदरश जी की कुछ कविताएं अपनी धर्मपत्नी पर भी हैं और कुछ अपने पौत्र पर भी। उनमें उनकी निजी अनुभूति का संसार तो रचा-बसा ही है, पर बड़ी बात यह है कि उन्होंने अपनी आत्मनिष्ठ अनुभूति को सी। वस्तुनिष्ठता में बड़ी कुशलता से रूपांतरित कर दिया है। ‘औरत‘ कविता का आलम्बन उनकी जीवन-संगिनी 
धर्मपत्नी ही रही हैं। पर यह कविता इस रूप में लिखी गयी है कि इसका सामान्यीकरण हो गया है और यह सामान्य औरत की जीवन-कथा को चरितार्थ करने लग गयी है।


उनकी स्मरण-शक्ति बहत अच्छी है और अपने संस्मरण-लेखन में वे बड़ी कुशलता से विवादास्पदता से बच जाते हैं तथा एक संतुलन बनाएँ रखते हैं। किसी के द्वारा अपना साक्षात्कार देते समय जब उनसे यह प्रश्न किया गया कि आपके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है, तब उन्होंने प्रश्नकर्ता को जो उत्तर दिया वह एकदम से चैंका देने वाला था। मिश्र जी ने कुछ विनोद और कुछ वक्रता में कहा कि मैरी सबसे बड़ी उपलब्धि मेरा लम्बी उम्र पाना है, क्योंकि मुझे जीवन में जो-कुछ श्रेय मिला, मान-सम्मान मिला, अवार्ड मिला, वह सब जीवन के चतुर्थ चरण में ही मिला प्रश्नकर्ता इसकी व्यंजना नहीं समझ सका। इधर मिश्र जी ने अपने-आपको किसी प्रकार की गर्वोवित से भी बचा लिया।


अंत में मुझे याद आता है कि छायावाद पर रामदरश जी की एक छोटी-सी आलोचनात्मक पुस्तक है, जो बहुत ही उच्च कोटि की है। मैं उसे छायावाद के कुछ महत्वपूर्ण विरल पुस्तकों में एक मानता हूँ। उनका शोध-प्रबंध भी बहुत ही तथ्यपूर्ण, तत्वसम्पुष्ट और कसा हुआ एक तटस्थ और ठस लेखन है। उन्होंने कुछ आलोचनात्मक पुस्तकें भी संपादित की है और कुछ आलोचनात्मक लेख स्फुट रूप में लिखे हैं। उनके साथ जो मेरा वैयक्तिक और सामाजिक संबंध है वह अपने-आप में मेरी उपलब्धि है।


रामदरश जी का निजी धर्म उनके कवि-कर्म और उनका साहित्य-लेखन है। उनका धर्म और कर्म एक है और यही उनका जीवन-मर्म भी है। आज वह नौ दशकों से अधिक 95 वर्षों की अवस्था पार कर चुके हैं। पर वे नामवर जी की तरह केवल शोभाधर्मी नहीं बन गये है, अपितु अब भी वह साहित्य चेतना से सम्पन्न और सक्रिय और जीवन्त सर्जक है। उनका सम्पूर्ण वाङ्मय हिन्दी की उपलब्धि है, जो उनके प्रथमकोटिक साहित्यकार होने का दस्तावेजीकरण और कव्यकरण है।


1. स्मृत्यालोचन में संस्मरण और आलोचन - दोनों का संयोग होता है। यह केवल संस्मरण नहीं होता।


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