चुनौतियों के समक्ष खड़े प्रेम.....विवाह...कर्तव्य की भूमिकाएं


डाॅ रेशमी पांडा मुखर्जी, 2-ए, उत्तरपल्ली, सोदपुर, कोलकाता-700110
मो-09433675671


लेखिका-सुदर्शन प्रियदर्शिनी  के उपन्यास - 'पारो - उत्तरकथा', सभ्या प्रकाशन, दिल्ली, 2019, के संदर्भ में

‘आज तक कभी किसी पति-पत्नी की अमर प्रेम कहानी सुनी है। ....पर लैला-मजनू, शीरीं-फरहाद, सोनी-महिवाल, ससि-पन्नू और भी न जाने कितनी उन पे्रमियों की कहानियां सुनीं होगीं, जो कभी नदी के दो किनारों की तरह मिले नहीं जो कभी किसी सामाजिक बंधन में बंधे नहीं, जिन्होंने कभी सास-ससुर के मनुहार नहीं पाये, ताड़ना नहीं झेली, गृहस्थी के उतार-चढ़ाव नहीं देखे - जीवन के दुख-दर्द साथ नहीं जिए। सामाजिक दायित्व साथ नहीं निभाये। उन्हें कोई संघर्ष छू नहीं सका। प्रताड़नाएं केवल प्रेमियों को भोगनी पड़ती हैं।....  पृ- 48-49 ‘पारो - उत्तरकथा‘ उपन्यास। यह कृति शरतचंद्र कृत देवदास उपन्यास की कथाभूमि को लेकर लिखी गई उत्तरकथा है। ‘देवदास‘ पारो और देवदास की प्रेमकथा की वह अमर कहानी है जिसने उपन्यासकार के रूप में शरत बाबू को कालजयी बना दिया। जो दर्द, उत्कंठा, त्याग, संवेदनात्मक आलोड़न इस उपन्यास की अंतर्वस्तु को सींचती रही, उसी ने युगों से पाठकों को उसका दीवाना बना दिया। फिर जब इस पर विभिन्न भाषाओं में फिल्में बनीं तो वहां भी इसकी कथा ने वही जलवा दिखाया। ‘जलाका‘, ‘न भेज्यो परदेस‘ जैसे उपन्यासों को लिपिबद्ध करने के बाद ‘पारो उत्तरकथा‘ की लेखिका अपना उपन्यास इसी कथा के अंतिम छोर से आरंभ करतीं हैं जहां देवदास का देहांत हो जाता है और पारो अपने पति जमींदार रायसाहब वीरेन के महल में अपने बिछुडे़ प्रेमी की याद में ही जीवन का प्रत्येक पल काट रही है।


पारो का देवदास के बिना हर पल कितना दुष्कर रहा, यह उपन्यास के प्रत्येक पृष्ठ में प्रमाणित हुआ है। मनोवैज्ञानिक सत्य का आश्रय लेती हुई लेखिका ने यही दिखाया है कि जब व्यक्ति किसी की सोच में इतना डूबा हो कि उसे सारी दुनिया में उसके सिवाय और कुछ भी न दिखे तो वह व्यक्ति उसे दिखाई देने लगता है, वह उससे बात कर सकता है, अपने मन को उसके समक्ष उघाड़ सकता है। इसे इल्यूज़न की ही एक अवस्था कहा जा सकता है जब कल्पना आपके मन-मस्तिष्क पर पूर्णतः हावी हो जाती है। पारो का देवदास के प्रति प्रेम कोई साधारण प्रेम नहीं था तभी तो उसकी सोच, उसका मन, उसका व्यक्तित्व व निर्णय, उसकी दृष्टि सबकुछ देवदास तक ही सीमित रह गईं। विवाह के बाद भी वह स्वयं को देव की यादों से एक पल के लिए भी मुक्त न कर पाई, यही कारण है कि देव की आत्मा उससे मिलने आती है, उसके वर्तमान और भविष्य को टटोलती है और बार-बार उसे अपने सच को अपनाने का ज़िद करती है ताकि देव इस प्रेत योनी से मुक्ति पा सके। देव से बातों ही बातों में पारो भारतीय समाज व परिवार में नारी की भूमिका पर विवेचना करती है और इस पितृसत्तातमक व्यवस्था में स्त्री होने के अर्थ को तलाशती है। ‘पर यह आज से नहीं अलग-अलग रूपों में अनादि काल से उसके साथ यही तो होता आया है। कबीले के मुखिया की मनमानियों से निकलकर जन्म-जन्मांतरों के बाद भी नारी कहां पहुंची है। सदैव खरीद-फरोख्त की वस्तु बनकर, कोठे पर सजकर, किसी हवेली में बांदीनुमा ठकुराइन या सेठानी बनकर। मूलभूत में वह पुरुष की दासी है, उस से नीचे है, छोटी है, हेय है - केवल प्रयोग की वस्तु। हाड़-मांस की कीमत बाहरी प्रयोग है, उसके जलने-बुझने का मोल नहीं ‘ पृ-79


उक्त उपन्यास नारी को परिवार के केेंद्र में रखकर उसके कर्तव्यों व अधिकारों से जुड़े अनेकानेक प्रश्नों पर बहस छेड़ता है। खास बात यह है कि धन-दौलत की सम्पन्नता से आलोड़ित परिवारों में भी स्त्री पराधीन जीवन जीने पर जब बाध्य होती है तो उस सच तक पहुंचना बड़ा दुष्कर हो जाता है। पर लेखिका ने झाड़-फानूसों से सुसज्जित महलों में सोने-चांदी के गहनों से लदी हुई ऐश्वर्यशालिनी हतभग्याओं की आत्मा के दर्द को टटोलने का प्रयास किया है।


बार-बार पारो अपने देव से यह प्रश्न करती है कि विफल प्रेम के बाद जबरन ब्याह की डोर में बांधी हुई ललनाओं को जब सुहागरात को पति के रूप में एक ऐसे जानवर का सामना करना पड़ता है जो उसकी देह के धागे-धागे को उधेड़कर अपनी वहशी भूख को मिटाता है तब ऐसी स्त्रियों के मन पर क्या बीतती होगी? अपने सुकुमार अप्राप्त प्रेम को कुचलकर अपने नृशंस पति के सामने बिछ जाने में उसकी आत्मा कितनी कराहती होगी? इन नाजु़क लम्हों को महसूस करना केवल एक कोमल व संवेदनशील नारी हृदय के लिए ही संभव हो सकता है। नारी के इस रूप को समाज अपनी दया के योग्य नहीं मानता क्योंकि पत्नी का धर्म निभाने के लिए उसे अपने अस्तित्व से समझौता करना ही वांछनीय माना जाता है। पर इन संवेदनाओं को उपन्यास के फलक में लाकर लेखिका ने पाठकों को एक नए सिरे से हमारे वैवाहिक संबंधों व कर्तव्यों पर सोचने का अवसर दिया है। तभी देव की आत्मा पारो से कहती है कि पुरुष अहम् ताड़ के वृक्ष से भी उंचा, बड़ के पेड़ से भी गहरा फैला हुआ - अपनी जड़ों में गुथा हुआ होता है।


उपन्यास में पारो के चरित्र को बड़े जतन से निर्मित किया गया है जिसमें एक ओर पे्रमिका की बिछुड़न की टीस को प्रतिपल महसूस किया जा सकता है तो दूसरी तरफ एक राज परिवार की महत जिम्मेदारियों को साहस और धैर्यपूर्वक अपनाने वाले उसके व्यक्तित्व की भव्यता को भी साकार किया गया है। स्त्री परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को हर बार ढाल लेती है, इसे समझौते का नाम भी दिया जा सकता है, इसे अपनत्व की प्रवणता भी माना जा सकता है। परिवार की जिम्मेदारियों को पारो जिस आत्मीयता से, सहृदयता से अपना रही थी उससे रायसाहब भी हतप्रभ होकर सोचते हैं-‘पारो एक सुंदर स्त्री ही नहीं मानवीय गुण उसका श्रृंगार है। यह मानवीय संवेदना, स्नेह और सौहार्द ही उसके चेहरे की दीप्ति है, जिससे उसका सारा व्यक्तित्व अलौकित रहता है।‘ पृ-67


रायसाहब की पूर्वपत्नी की बेटी कंचन को पारो ने इतने निश्छल प्रेमपूर्वक अपनाया कि वह उसकी सहेली सी हो गई और अपनी इसी नन्हीं सी सखी से बतियाती हुई वह एक स्थान पर सोचती है कि सारी नारी जाति कि क्या एक ही दिनचर्या है। घर, पति और बच्चे। पारो प्रश्न रखती है कि कितनी ऐसी पत्नियां हैं जिन्हें पति से अपनापन, मित्र सा साथ, सौहार्द मिलता है? वर्तमान समाज में अधिकतर वैवाहिक सूत्र इन्हीं मानवीय भावनाओं के सूखने से चटककर टूट रहे हैं। लेखिका इस प्रश्न के मार्फत पति-पत्नी के संबंध को नए सिरे से व्याख्या की मांग करना चाहतीं हैं। वे कहना चाहती हैं कि पति पत्नी में सेविका व अनुचारिणी का नहीं मित्रता व साथ निभाने के लिए समान सौहार्द का भाव अपेक्षित है जो आधुनिक समाज में वैवाहिक संबंधों को मज़बूत नींव प्रदान कर सकते हैं।


कथा में नारी के प्रेम को एक नया रूप देती हुईं उपन्यासकार रायसाहब वीरेन और उनकी पहली पत्नी राधा के 
अस्वाभविक प्रेम का बड़ा मार्मिक वर्णन करतीं हैं। राधा वीरेन से उम्र में बड़ी थीं, एक कालेज में प्रोफेसर थीं और वीरेन से उसका बड़ा दुलार का रिश्ता था। पर यह रिश्ता कब वीरेन के लिए दीवानगी का सबब बन गया कि उसने 
राधा से शादी करने की ठान ली। राधा ने विवाह के लिए इंकार कर दिया पर वीरेन की आत्महत्या की कोशिश ने उसे हार मानने पर विवश कर दिया। राधा के प्रति वीरेन का प्रेम इतना एंकांगी था कि वह उन दोनों के बीच अपनी नन्ही सी बिटिया कंचन को भी सहन नहीं कर पाता था। कंचन को भी राधा से अलग कर दिया गया। राधा की नौकरी की जिम्मेदारियों से भी वीरेन असंतुष्ट रहता। राधा के प्रति उसके इस आॅबसेसिव प्रेम को लेखिका ने प्रेम के मनोवैज्ञानिक धरातल पर आंका है। प्रेम जब अंधा और अत्यंत स्वार्थी हो जाता है, जब उसे अपने प्रेमी या प्रेमिका का हित भी नज़र नहीं आता, जब उसका प्रेम उसे किंकर्तव्यविमूढ़ बना देता है तो उसके घातक परिणामों को सहना ही पड़ता है। प्रेम के इस घातक व सर्वनाशी, सर्वग्रासी प्रभाव को उपन्यास में चरितार्थ किया गया है। इस प्रकार के एकांगी प्रेम में स्वार्थपरता की बू, ज़िद की कठोरता, पागलपन की सनक रहती है और हद से गुज़र जाने का दुस्साहस रहता है। ऐसा प्रेम सामाजिकता की धज्जियां उड़ा देता है, पारिवारिक भावनाओं की उपेक्षा करता है, स्वसुख के  अंधकूप में डूबा रहता है। आज के स्वार्थी समाज में ऐसे प्रेम की नुमाइश अक्सर देखने को मिलती है जिसके दुष्परिणामों को समाज भोगता है। शायद वीरेन के प्रेम के इस विकृत रूप को दिखाने के पीछे लेखिका का यही उद्देश्य रहा।


कथ्य आगे बढ़ते हुए एक शोक संवाद पर आकर ठहरता है जब कंचन के पति का अचानक देहांत हो जाता है। भीतर तक हिल जाते हैं राय साहब और टूट जाती है रानी मां। ऐसे में पार्वती ही उनका सहारा बनती हैं, वही कंचन को अपनी भावनाओं का आसरा देती है। यह वही पार्वती है जिसे विवाह के दिन ही अपने से थोड़ी कम उम्र की एक ब्याही बेटी कंचन और एक पुत्र महेन मिले थे। पति घर में प्रवेश के साथ ही ऐसा धक्का उसने सहा था कि उसके भीतर उसी दम सबकुछ टूटकर बिखर गया था। जो पिछले कई वर्षाें से केवल महल की ठकुराइन बनकर जी रही थी पर पति के प्रेम ने आज तक उसे स्पर्श नहीं किया था। वही पार्वती पत्नी के प्रेम से वंचित रहने पर भी पत्नी के कर्तव्य में त्रुटि नहीं बरतती। एक पत्नी के रूप में वह इस दुस्समय अपने पति के पास आकर उनके कंधों को सहारा देती है, एक सौतेली मां होकर भी कंचन को अपनी ममतामयी आंचल में ढक लेती है। यहां नारी के इस उदार रूप को दिखाने में लेखिका ने कोई कमी नहीं छोड़ी। इसी प्रकार अपनी ननद शोभना को अपनाने और पुनः परिवार से उसे जोड़ने में पार्वती बड़ी समझदारी का परिचय देती है। पार्वती के चरित्र की इस भव्यता ने ही उसे एक असाधारण पे्रमिका से एक असामान्य गृहीणी भी बना दिया।


उपन्यास की एक और नारी पात्र रानी मां अपने चरित्र के माध्यम से समृद्धि के उच्चतम शिखर पर आसीन एक असहाय महिला की पीड़ा की करुण अभिव्यक्ति करती हैं। अपने अय्याश, नशेबाज़, कामुक जमींदार पति के अत्याचार को पति का प्रेम और पत्नी का कर्तव्य मानकर चैदह वर्ष की आयु से वे सब कुछ सहतीं हंै। ‘आज लीलामयी सोचती है तो अपने आप से पूछती है - क्या वह प्यार था! या प्यार के पत्तल में लिपटी हुई वासना की शिरणी। आज वह निश्चय ही कह सकती है वह प्यार नहीं था। बड़े लोग अपनी पत्नियों को प्यार नहीं करते - उन्हें भोगते हैं- और सामाजिक दायित्व निभाते हैं।‘ पृ-13 उपन्यासकार ने उस सच को रानी मां लीलामया देवी के माध्यम से उघाड़ा है जिसे सदियों से भोगने वाली बड़े परिवारों की महिलाएं कभी व्यक्त नहीं कर पातीं। साधारण व निम्न परिवारों की स्त्रियों पर परिवार की इज्ज़त और मान-सम्मान का बोझ उतना नहीं होता जो किसी प्रतिष्ठित परिवार की स्त्री पर होता है। ऐसे में उनकी दुविधापूर्ण स्थिति को समझना और कठिन हो जाता है क्योंकि उनकी हंसी को सोने-चांदी के गहनों की चमक में आंका जाता है, उनके सुख को हीरे-मोतियों की लड़ियों में पिरोया जाता है और उनके कर्तव्य को समाज में परिवार की साख में परिभाषित किया जाता है। ऐसे में उसके एकांगी मन के दर्द को सुननेवाला उन राजमहलों में कोई नहीं होता, उसके हाहाकार उन राजसी ठाठ-बाट के कोलाहल में कहीं गुम हो जाते हंै। लेखिका ने पूरी ईमानदारी से उस समृद्धशाली परिवार की स्त्री के दिल की हूक को भी शब्द दिए हैं क्यांेकि वह भी असहाय है, उसे भी शोषण के एक और रूप का शिकार होना पड़ता है। उसके प्रति की गई नृशंसता की कटुतम आलोचना करती हुई वे लिखतीं हैं-‘अगर पति ने छू लिया तो वह संसार की सबसे बड़भागी नारी हो गई, पति ने हवस की आग में उसे बांहों में बांधा तो वह आकाश गंगा पार कर गई समझती है।‘ पृ-14


पर प्रियदर्शिनी जी सकारातमकता व सृजनातमकता में विश्वास रखती हैं तभी तो उनके लेखन में टूटकर भी पात्र मिटते नहीं हैं और फिर से रोशनी की एक क्षीण किरण का सहारा लेकर जिं़दगी की लड़ाई में लौटकर आते हैं। रायसाहब वीरेन और पारो दोनों ही इसके प्रतीक बने हैं। अपने जीवन में केवल सनक और अहंकार के बल पर जीने वाले राय साहब ने सबकुछ खो दिया था। पत्नी राधा का प्यार, बेटी कंचन का वात्सल्य, यहां तक कि पारो के पत्नीत्व को भी उन्होंने पहले दिन ही नकार दिया, सबकुछ तो उन्होंने अपने ज़िद के आगे कुचल दिया था। पर भाग्य के आगे पूरी तरह से हार जाने के बाद वे फिर से सुधरना चाहते हैं। ऐसे में उन्हें पारो का साथ मिलता है, अपनी मां का आशीर्वाद, अपनी बेटी कंचन का विश्वास, यहां तक कि अपनी नाराज़ बहन शोभना का स्नेह भी उन्हें दुबारा मिल जाता है। अतः लेखिका यही स्पष्ट करती हंै कि मानवीय रिश्तों में अदम्य जीजिविषा होती है और वे कभी भी दम नहीं तोड़ते। अगर थोडे़ से विश्वास और स्नेह की प्राणवायु उन्हें मिल जाएं तो वे फिर से लहलहा उठते हैं। अतः ज़िंदगी में रिश्तों को दोनों मुट्ठियों में जकड़कर रखने वाले कभी ज़िंदगी की लड़ाई नहीं हारते।  


लेखिका ने उपन्यास को मानवीय रिश्तों के धरातल पर पूरी रचनात्नात्मकता के साथ गढ़ा है जिसमें स्त्री की केंद्रीय भूमिका पर फोकस किया है। पारों के साथ विवाहोपरांत उसके माता-पिता के मिलन का प्रकरण या देवदास के पिता ज़मीदार साहब भुवनशोम की मृत्युशय्या पर पारो का जाना और पारो से उनकी क्षमा याचना के दृश्य बड़े ही मर्मांतक हैं। ये सारे प्रकरण बार-बार रिश्तों में आई चरमराहट को महसूस कर अपने त्याग, क्षमाशीलता, शालीनता, बुद्धिमत्ता व सौहार्द के माध्यम से उन्हें फिर बुनने के स्त्री के धीरज की कहानी कहते हैं। ‘नारी ही घर को थाम कर रख सकती है। .... अगर जोड़ने वाली नारी न हो तो अब तक संसार रसातल में विलीन हो गया होता। वह अपने कोमल स्पर्श से ही सी-पिरोकर घर की दीवारों को, चूल्हे की नरम आग को बचाए रखती है और इसकी जड़ों में सोंधी सुगंध भरती रहती है। उसी से घर महकता है, मुहल्ला सुवासित होता है और घर में रहने वालों का जीवन संवरा रहता है....‘ पृ-225


उपन्यास में लेखिका ने विधवा के जीवन की तकलीफ, लांछन, असमंजस, संघर्ष और परनिर्भरशीलता को भी लीलामयी व कंचन के माध्यम से बखूबी व्यक्त किया है। लीलामयी सोचती है कि पति के जाने के बाद जीवन युद्ध को जिस प्रकार उसने झेला है उससे उसे लगता है कि मानो उसने कितनी ही बार एवरेस्ट की उंचाई को तय किया है। जीवन की चुनौतियों का अकेली सामना करती हुई वह कितनी बार टूटी है, दूसरों के समक्ष विवश हुई है पर फिर भी आगे बढ़ती रही। यही सच फिर से कंचन के जीवन को दो राहे पर खड़ा कर गया जहां एक ओर उसके ससुरालवालों का दुव्र्यवहार का उसने साहसपूर्वक सामना किया तो दूसरी ओर इस कम उम्र में पति के बिछुड़न की पीड़ा को नियति मानकर धैर्यपूर्वक सहने के लिए स्वयं को प्रस्तुत करती है। नारी के विधवा रूप को सदा से भारतीय समाज में सर्वाधिक उपेक्षा व वंचना का सामना करना पड़ा है। पति की मृत्यु के लिए स्त्री को दायी मानने वाला यह समाज पति के गुज़रने के पल भर में उसका शत्रु हो जाता है। ऐसे में लेखिका ने रायसाहब और पारो की ओर से कंचन के प्रति जो दुलार, जतन, आश्रय और अपनत्व के भाव दिखाए, वे समाज में नवीन सोच के बीज बोते हैं। कंचन को अपने निर्णय लेने की स्वाधीनता देना सबसे पहला हक है जो विधवा से छीन लिया जाता है। कंचन को घर में ससम्मान वापस ले आना, उसके टूटे हुए मन को प्यार और सहानुभूति से सहेजना एक माता-पिता की सकारात्मक सोच की परिणति है। 


निष्कर्षस्वरूप कहा जा सकता है कि समाज को उसकी सामाजिक चुनौतियों के साथ देखने-परखने-गुनने का सार्थक लेखकीय प्रयास आलोच्य उपन्यास में किया गया है। नारी मन की उर्जा को नकारने वाले समाज को एक साहित्यिक चेतावनी देने का प्रयास है। दिलचस्प है प्रेम को पारो-देवदास के माध्यम से एक बार फिर समझना जिसमें प्रेम के साथ-साथ वैवाहिक संबंध, दायित्व, अस्तित्ववादी सोच और समाज से टकराने का जुनून लिए पे्रमियों के प्रतिबद्ध मन को पढ़ा जा सकता है। पितृसत्तात्मक सोच को उसके समस्त आवरणों के साथ उक्त कृति में नग्न किया गया है। स्त्री की कोमल संवेदनाओं को समझना वास्तव में मनुष्यता को समझने की पहल है और ऐसे में लेखिका के समस्त स्त्री पात्र अपनी संवेदनात्मक अनुभूति से पाठक को अभिभूत कर देती हैं। जीवन में ऐसे निर्णायक क्षण आते हैं जब स्त्री को अपनी सीमाओं को लांघकर परिवार के लिए अपने त्याग का परिचय देना पड़ता है। उक्त उपन्यास के अधिकतर नारी पात्रों में वह महत भूमिका देखी जा सकती है जिससे पाठक स्त्री की सर्वांगीणता और चारित्रिक भव्यता का कायल हुए बिना नहीं रह पाता। पर कहा जा सकता है कि प्यार को जीवन चक्र का केंद्र साबित करती हुईं लेखिका ने पे्रम और कर्तव्य के गंगा-जमुनी संगम को चारित्रिक पराकाष्ठा तक पहंुचाया है। तभी तो प्रेम के विषय में आपके शब्द बड़े मनमोहक बन पड़ हैं- ‘प्यार स्त्री और पुरुष का अंतर नहीं करता। प्यार स्त्री और पुरुष के अधिकारों के तोल में नहीं तुलता। प्यार समाज की बनी-बनाई इबारतों पर नहीं लिखा जाता, प्यार का अपना एक फलक होता है जो सबका अलग-अलग निर्मित होता है। प्यार का घर प्यार की अंतिम थाह प्यार की अन्विति केवल हृदय करता है। ....किसी के प्यार की परिभाषा कोई दूसरा नहीं लिख सकता। ‘ पृ- 31 


    


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