जीवन की सार्थकता का संदेश है ‘गवाक्ष’


डॉ. प्रणब भारती, Mob. 9940516484


डॉ. प्रणब भारती का हाल में ही प्रकाशित उपन्यास ‘गवाक्ष’ चर्चा में है। उपन्यास लेखन श्रम साध्य कर्म है। रचनाकार किसी गीर्भणी की भौति अपने अंदर घुमड़ते विचारों को पोषित करने का कष्ट साध्य फिर भी उत्साह ऊर्जा से भरा कार्य करता है, तब एक सफल कृति सृजित होती है। इसके माध्यम से वह स्वयं को अभिव्यक्त करता है। ऐसी कृति की समीक्षा भी चुनौतीपूर्ण कर्म है। एक भाव पूर्ण वैचारिक कृति की सर्जना हेतु लेखिका साधुवाद की पात्र हैं।


शब्दों का सदा एक ही अर्थ में प्रयोग नहीं होता, इस तथ्य के अनुरूप ही उपन्यास का शीर्षक ‘गवाक्ष’ बहुअर्थी है। फंतासी और यथार्थ की मिली-जुली इस कथा में यमलोक के उस विभाग को गवाक्ष कहा गया है जहां मनुष्य की सांसों का लेखा-जोखा रखा जाता है अर्थात् अपने अगले जन्म के निर्णय तक वह ‘वेंटीलेटर’ पर रहता है। पुस्तक में इसका दूसरा अर्थ, वायु व प्रकाश देने वाला यानी जीवनदायी ‘रोशनदान’ भी है। कथा के अंत तक आते-आते यमलोक के इस शुष्क व संवेदनहीन वाक्ष’ के स्थान पर लेखिका ने पृथ्वी को ही ‘मेरा गवाक्ष’ कहते हुए नवार्थ दे दिए हैं। उनका यह वाक्ष’ अर्थात् पृथ्वी, सांसों को स्वस्थ पवन से सराबोर करते हुए नवीन ऊर्जा प्रवाहित करने वाली है। वस्तुतः वाक्ष’ शब्द जो आरंभ में केवल यमलोक के एक विभाग रूप में पटालेटर/रोशनदान अर्थधारी है, शनैः-शनैः उसके निहितार्थ नई दृष्टि व सोच के पट खोलते जाते हैं और वह ऐसा झरोखा बन जाता है जो बाहर भी खुलने लगता है और हमारे अंदर भी। फंतासी पात्र के माध्यम से लेखिका ने अनकहे ही ‘झरोखा’ अर्थ का अद्भुत प्रयोग किया है, जहां जिंदगी के कैनवास पर परिस्थितियों के उकेरे तमाम मुख्तलिफ चित्रों में गरचे की छटपटाहटें हैं तो मुस्कराने के पल भी। एक ओर गिरते नैतिक मूल्य, लालच के विद्रूप चेहरे, अमानवीयताएं, भ्रष्टाचार हैं तो उनके बीच प्रेम, स्नेह, ऊर्जा, उत्साह, संवेदना, सकारात्मकता भरे संवाद/उच्छरास भी जो पाठक में भी ऊर्जा संचारित करते हैं। अंधेरे चटकाकर राशनी फैला देते हैं। अतः शीर्षक रूप में ‘गवाक्ष’ का चयन बहुत सटीक संक्षेप में- इस कथा का काल्पनिक फंतासी पात्र ‘कॉस्मॉस’ एक मृत्यु दृत है। लेखिका ने ‘कॉस्मॉस’ नाम का चयन करके संभवतः यह इंगित किया है कि यह कथा किसी एक देश-काल की नहीं वरन् सार्वभौमिक है- ब्रह्मांड को समेटे हैं। समाज में चारों ओर व्याप्त विसंगतियों को इसी फंतासी पात्र के माध्यम से एक कथानक में समेटा गया है। यह मृत्यु दूत कथा का सूत्रधार भी है। इस विलक्षण सूत्रधार के माध्यम से कृतिकार ने जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में सहजता से आवागमन किया है। - उदाहरणार्थ अभी पाठक राजनीति की गूढ चर्चा में निमग्न है कि अचानक - वह स्वयं को शास्त्रीय संगीत की गूंज में डूबा पाता है कि तभी वह अस्पताल पहुंच जाता है जहां एक प्रसव पीड़ाग्रस्त युवती की मानसिक - वेदनाएं उसे द्रवित करने लगती हैं। यह विषयांतर किंतु कहीं भी कथा - प्रवाह में बाधक नहीं लगते। जीवन की तमाम विसंगतियां पाठक के मर्म -को पर्श करती हैं किंतु कथानक को सकारात्मकता व संवेदनशीलता -उसे सार्थक संदेश देते हुए ऊर्जा का संचार भी कस्ती हैं। कहने का - आशय यह है कि इसमें मानव जीवन के विविध रंग हैं- सभी समस्याएं, - आत्मा-परमात्मा की गुत्थियां, जीवन मृत्यु व पुनर्जन्म के अनवरत चक्र - के शाश्वत् प्रश्न, एक शब्द में कहें तो संपूर्ण जीवनदर्शन सिमट गया है।


किसी भी रचना का पाठक के साथ संप्रेषण यानी लेखक की सोच का उसकी रचना के माध्यम से पाठक तक पहुंचना ही उसकी सफलता के है। फंतासी पात्र के माध्यम से लेखिका ने इसे बखूबी निभाया है। कॉस्मॉस की जिज्ञासु प्रवृत्ति द्वारा अनेक प्रश्नों व उत्तरों को सृजित कर -कथा को ऐसी जानकारियों से भर दिया है, जो पाठक के अंदर उपजते। - प्रश्नों का न केवल समाधान करती हैं वरन् ज्ञानवर्धन भी करती है। यह - प्रश्नोत्तर बड़े सहज रूप से कथा के संग चलते हैं।


संवेदनशीलता लेखिका की पूंजी है। विभिन्न पात्र, घटनाएं व स्थितियां लेखक के अन्तस को जब आलोकित करती है और एक चित्र । उभरने लगता है तब उसकी लेखनी तृलिका बन जाती है। जीवन के विभिन्न रंग भरने लगते हैं। ‘गवाक्ष’ में इसी संवेदना के धरातल पर पात्रों । के अंदर की हलचल, उलझने, छटपटाहटें और प्रेम संबंधों की कोमलता के भाव रंगों की छटा है। एक स्थल पर, श्रिश्तों की एक गरिमा होती है, रेशमी डोरी से बंधे रहते हैं, जिन्हें संभालकर रखना होता है। इसीलिए जब रिश्ते-टूटते हैं तब वे आंसुओं से रोते हैं, जो सूख जाते हैं लेकिन निशान छोड़ जाते है... कितनी भी परेशानियां हो संभालना संवारना आता था उसे रिश्तों को...।’ इसी प्रकार लेखिका कला के प्रति स्वयं के गहन प्रम को अभिव्यक्त करते हुए पाठक को भी उसकी मधुरता व कोमलता में उतार लेती है। जब मृत्युदूत को संगीत की ध्वनि अभिभूत करने लगती है और वह इस अनुभूति से आश्चर्यित हो उठता है तब श्गवाक्ष को पात्र सत्याक्षरा कहता है, ‘‘मैं बताती हूं- अच्छा इसाला ला रहा है कि कला आनंददायिनी है। यह वह साधना है जो आत्मा का परमात्मा से जोड़ती है... यह (संगीत) अपने आप ही नैसर्गिक रूप में आत्मा में उतरता चला जाता है...।’’


प्रणब जी के लेखन में व्यक्ति व समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की सजगता है और इस कारण उनका लेखन स्वतः संपूर्ण मानवता के चिंतन से जुड़ जाता है। उन्हीं के शब्दों में, ‘यदि मनुष्य चाहे तो इस दुनिया के सब कर्तव्यों को ईमानदारी से पूरा करके आसक्ति रहित जीवन जी सकता है...’ संवादों में अव्यवस्थाओं से उपजी छटपटाहट है, निराशा नहीं। भविष्य के सुनहरे स्वप्न भी हैं। यह सकारात्मक दृष्टिकोण रचनाकार के अंदर उपजते सामाजिक सरोकारों का सूचक है जो रचना को वजन देते हैं। सामान्यतः व्यक्ति चारों ओर व्याप्त अव्यवस्थाओं से झुंझलाते हुए निराश होकर कभी-कभी हथियार भी डाल देता है, किंतु व्यक्ति का सामाजिक दायित्व है उम्मीद न छोड़ना न केवल नकारात्मकता न देखना, क्योंकि गवाक्षश् के ही अनुसार, श्जिंदगी तो प्यार करने के लिए ही छोटी है...।’ यह सकारात्मक दृष्टिकोण मृत्युदत का हृदय परिवर्तित करता है, ‘एक अजीब सी भाव भूमि में डूबती संवेदना से उसका साक्षात्कार हो रहा था... गीत सी कैसी मधुर है जिंदगी, प्रीत सी कैसी सुकोमल हर घड़ी। भावना का प्रीत का संबल यही, अर्चना की रीत का प्रतिफल, यही...’ गीत के मधुर स्वर कॉस्मॉस का हृदय परिवर्तन करने लगते हैं, उसे पृथ्वी सुंदर लगने लगती है। कॉस्मॉस यह जान पाता है कि . मानव जीवन समस्त विद्रुपताओं के साथ भी सर्वश्रेष्ठ है. यदि इंसान श्रेष्ठ बनना चाहे तो। इंसान में यह शक्ति है, केवल झरोखे को अपने अंदर खोलना-रोशनी फैलाना है- सार्थकता और सकारात्मकता की रोशनी। लेखिका ने पुनः पुनः यह अभिव्यक्त किया है कि मानव जीवन अमूल्य है, निष्ठुर यमलोक से कहीं बेहतर है यह धरती जहां चुनौतियां भी हैं और संवेदनाएं भी जो मनुष्य को मानवीय बनाती हैं। कर्मठता का संदेश देती इस कृति में जीवन की कर्म भूमि ही तपश्चर्या मानी गई है। 


वर्तमान राजनीति पर तंज कसत हुए व इतिहास का भी समटते हए यह कथन विचारणीय है, ...घिनौनी राजनीति घरों की चाहरदीवारी लाँघ कर आँगन में अपने पौधे लगाने लगी है... यह राम अथवा चाणक्य की राजनीति नहीं जो सार्थक चिंतक थे, यह महाभारत की राजनीति है। इसके घिनौने रूप से संवेदनाएं जड़ होती जा रही हैं।’


कथा का.मूलतत्व जीवन दर्शन है, ‘जीवन का आना-जाना अब तक कोई समझ न पाया... जीवन जन्मता है तथा अपना समय पर्ण हो ही विदा ले लेता है। कहां-कैसे-क्यों कर? सब रहस्य के आलिंगन में समाए रहते हैं... व्यक्ति कहां से आता व कहां जाता है? यह तो एक यात्रा भर है- अनवरत यात्रा, इन शब्दों में ‘गवाक्ष’ लेखिका मानों स्वयं से संवाद कर रही है, जीवनदर्शन को समझने का प्रयास कर रही हैं। कथांत तक आते-आते वह पूर्णतः दार्शनिक हो गई हैं। ऐसा प्रतीत होता - है कि हम कथा साहित्य की कक्षा से उठकर दर्शनशास्त्र की कक्षा में प्रविष्ट हो गाए हों। इस क्रम में यद्यपि कॉस्मॉस के प्रश्नों द्वारा रोचकता बनाए रखी गई है तथापि लंबी व गूढ विवेचना कथा को राचकता में - कहीं-कहीं किंचित बाधक बनती है।


मानव जीवन की श्रेष्ठता स्थापित करना इसका सबल पक्ष है। प्रोफेसर श्रेष्ठी का कॉस्मॉस से कहना श्मानवदेह सर्वश्रेष्ठ देह है. थोडी सी जागृति के साथ चेतन रहने की आवश्यकता है...।’ कथा संदेश देती - है कि मनुष्य को कहीं और स्वर्ग तलाशने की आवश्यकता नहीं है, यह पृथ्वी ही स्वर्ग होगी यदि मनुष्य की संवेदना अक्षुण्ण है। यहां राष्ट्रकवि - मैथिलीशरण गुप्त के श्साकेतश् की वह पंक्तियां बरबस याद आ जाती हैं जहां राम कहते हैं, संदेश यहां मैं नहीं स्वर्ग का लाया, इस भूतलं को ही स्वर्गं बनाने आया।


उपन्यास की भाषा जीवनदर्शन जैसे जटिल विषय को अति सहजता, - सरलता एवं बोधगभ्यता से प्रस्तुत करती है, कतिपय भावाभिव्यक्तियां अति मार्मिक व कोमल है। बलात्कार के परिणामस्वरूप जन्मी संतान पर एहसास का बदलता रूप, ‘दुर्घटनाओं से एहसास बदल जाते हैं, यही बच्चा यदि तुम्हारा और विदेह का होता तो एहसास कितना सुखद - होता...।’


यह आवश्यक नहीं कि लेखक की सोच के प्रत्येक पक्ष से पाठक -इत्तिफाफ रखे किंतु यदि कथा के संवादध्उच्छवास एवं विवरण पाठक को आलोकित करते हैं तो यह कृति की सफलता है। ‘गवाक्ष’ ने भाव सागर में डूबने उतराने के तमाम ऐसे ही पल प्रस्तुत किए हैं। महान साहित्यकार प्रेमचंद ने कहा है, ’... साहित्य में आत्मा को जगाने और मानवीयता को उत्पन्न करने की शक्ति जरूरी है।’ भीष्म साहनी जी कहते है, ‘साहित्य हमें समस्याओं से जूझने की प्रेरणा देता है। यह शक्ति और यही प्रेरणा ‘गवाक्ष’ में यत्र-तत्र सर्वत्र है। चटपटे रोमांस और चटपटी रोचकता से भरी रचनाओं के मध्य एक गंभीर, विचारणीय व सार्थक कृति का स्वागत है- ‘गवाक्ष’ का स्वागत है।


डॉ. नताशा अरोड़ा


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