कहानी

 रेनू यादव, फेकल्टी असोसिएट, भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग (हिन्दी) गौतम बुद्ध युनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा – फोन- 9810703368, ई-मेल- renuyadav0584@gmail.com


 


डर


हर तरफ धुँधलका... कहीं बवंडर तो कहीं सोंय सोंय कर ऊबड़-खाबड़ पर पसरी हवा तो कहीं हनहनाकर जी को झंझोड़ देने वाला तुफान... मानो उसने सारी धरती और आसमान को किसी वियोगात्मक जिद्द में आकर मेल कराने की ठान लिया हो ... पेड़ों की टहनियाँ झकझोर झकझोर कर पत्तियों को अपनी ओर खींच रही हैं लेकिन पत्तियाँ टहनियों पर अपनी पकड़ नहीं बना पा रहीं और बेवस होकर उनके हाथ टहनियों से छूट-छूट जा रहें । वे चीखतीं हुई उड़ी जा रही हों अपनी ही जैसे बेवस धूल-मिट्टी, घास-फूस के साथ । उनकी चीख धीमी होने से पहले ही किसी दूसरी पत्ती की चीखती चीख तेज हो जाती है और उसकी भी पकड़ छूट जाती है । एक के बाद एक चीख और उसके ऊपर से बादलों की कड़कड़ाहट-गड़गड़ाहट कानों को फाड़े जा रहे हैं । सुधीर की देह पर कपड़े बड़ी मुश्किल से पकड़कर खींचने पर टिके हैं वरना उनकी भी पकड़ पत्तियों की तरह छूट छूटकर रह जाती हैं । वह बड़ी मुश्किल से हाँफते-भागते घर पहुँचना चाहता है लेकिन घर अभी बहुत दूर है, तुफान सामने की ओर से हैं इसलिए कदम आगे नहीं बढ़ पा रहे । कई कई बार तो कदम पीछे भी हो जा रहे हैं । आँखों में भक्क-भक्क धूल छा जा रहा,  ऐसे में सुधीर अपनी आँखें बचाने के लिए मुँह की ओर अपने दोनों हाथ बढ़ाता है । हाथ मुँह के ऊपर आते-आते रूक जाते हैं । ‘अरे... ये क्या हुआ ! ऊँगलियाँ… ऊँगलियाँ कहाँ गयीं ? साँप... ये तो साँप हैं ! साँपों के कई कई फण और लपलपाती असंख्य जीह्वाएँ... इन जिह्वाओं से निकलते झाँग... गरल...’


आँखों में धुँधलका... कुछ साफ-साफ दिखायी नहीं दे रहा... साँप डंसने के लिए फुँफकार मारते हुए अपने मुँह उचकाये जा रहे हैं...  सुधीर आँखों को छोड़ अपने हाथों को झाड़ने लगा लेकिन साँप झड़ नहीं रहे... झड़े भी कैसे वे ऊपर से चिपके हों तब तो ! ये हथेलियों में उग आये हैं, ऊँगलियों की जगह ! सुधीर ने अचानक से मुँह पर झपट्टा मारती एक पेड़ की टहनी को पकड़ लिया, देखते ही देखते सभी साँपों ने टहनियों को डंक मारना शुरू कर दिया, टहनी साँपों के विष भरे गाज से लथपथ हो गयी वह मुरझा कर सुधीर के हाथों में लटक आयी, सूख गई । सुधीर का दिल डर के मारे धक्-धक् करने लगा... झटके के साथ टहनी हाथ से छूट गई । वह अपना सीना पकड़ने ही जा रहा था कि सर्प उसके सीने पर डंक मारने की खातीर मुँह उचका कर आगे की ओर बढ़ें कि सुधीर चिल्ला उठा – ‘बचाओ...’


सुधीर की आँखें खुल गईं । वह पसीने से लथपथ हो चुका था, मुँह भभा रहा था और सर पर मच्छर भनभना रहे थे । बगल में सोई रंजना भी हड़बड़ा कर उठ गई । अंधेरे में उसका चेहरा साफ-साफ दिखायी नहीं दे रहा । उसका चेहरा शहद का छत्ता लगने लगा जिस पर असंख्य मधुमक्खियाँ भनभनाती हुए बैठ रही हैं उड़ रही हैं । सुधीर तुरन्त उठ कर अपनी हथेलियों से चट-चट की आवाज में उन मधुमक्खियों को थपड़ियाने लगा । मधुमक्खियाँ उड़ गईं... कुछ मच्छर हाथ में आये कुछ उड़ गयें । रंजना अवाक् रह गई, कुछ देर के बाद ही धीरे-से उसकी आवाज निकल पायी, ‘क्या हो गया जी, कोई बुरा सपना देख लिए हैं क्या’ ?


सुधीर का दिल अभी भी जोरों से धड़क रहा था । वह सीने को जोर से दबाने ही जा रहा कि फिर से चिल्ला पड़ा, ‘साँप’!


‘साँप ! कहाँ’ ? रंजना ने हड़बड़ाहट में लाइट का स्वीच ऑन किया


सुधीर जल्दी-जल्दी अपनी ऊँगलियों को देखता है और विश्वास नहीं कर पाता कि ये सभी साँप नहीं बल्कि ऊँगलियाँ हैं । अभी अभी जो कुछ भी घटित हुआ वह मात्र एक सपना था । उसका गला सूख गया ।


रंजना ग्लास में पानी लेकर आयी । सुधीर ग्लास पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाता ही है कि उसे फण फैलाये साँप ग्लास की तरफ बढ़ते हुए दिखाई दे जाते हैं, वह चौंक जाता है और बुदबुदा उठता है, ‘ट...ट...टेबल पर रख दो’ ।  


सुधीर भाग कर बाथरूम में पहुँचता है और अपने हाथ रगड़-रगड़ कर साबून से धोने लगता है, दोनों हाथों के साँप फूँफकार फूँफकार कर एक दूसरे में लिपट जाते हैं, लड़ने लगते हैं, एक दूसरे को रगड़ने लगते हैं लेकिन हाथ से हटने का नाम नहीं ले रहें । उनकी जिह्वा नाखूनों के बीच से हो-होकर निकल आती हैं । बड़ी मुश्किल से सुधीर ने उन जिह्वाओं को अंदर किया, विष भरे झांगों को साफ किया ।  


वह बेड़रूम में जाकर ग्लास उठाने के लिए हाथ बढ़ाया तो उसे याद आया कि रंजना की फूँफकारी ऊँगलियाँ भी तो इसी ग्लास से चिपकी थीं ! वह फटाफट सेनिटाइजर की बूँदें अपने हाथ में लेकर ग्लास पर मलने लगा । यह देखकर रंजना खीझ उठी, ‘आप पानी नहीं ज़हर पीने जा रहे हो ! पानी के साथ-साथ सेनिटाइजर पीना कोई अच्छी बात है ? क्या हो गया आपको’ ?


‘देख नहीं रही, ज़हर साफ कर रहा हूँ’ !


‘ज़हर साफ करने के लिए ज़हर ही लगा रहे हो’ !


‘सॉरी, तुम सो जाओ’ ।


गुड नाइट का ऑयल खतम हो गया है, मच्छर बार-बार चेहरे और शरीर पर बैठ-बैठ कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं । सुधीर कभी खुद के ऊपर से, कभी रंजना तो कभी राहुल के ऊपर से मच्छरों को उड़ाने की कोशिश कर रहा है । चेहरा भभा रहा है, खुजली हो रही है, लेकिन वह उन भभाते और खुजलाते जगहों को सहला नहीं सकता । वह अखबार लेकर आता है और उससे मच्छरों को उड़ाने लगता है । चेहरे को भी उसी से खुजाना चाहता है, तब तक उसे अचानक से कुछ याद आ गया । वह दौड़कर स्टडी-रूम में पहुँचा और लैपटॉप खोलकर देखने लगा कि पेपर पर वायरस कितने समय तक जिन्दा रहता है ! और उदास गलहत्थी देकर निहत्था निःसहाय बैठ गया ! उसी समय उसे याद आया कि कि वह गलहत्थी नहीं दे सकता...!


सुबह नौ बजे न्यूज़ चैनल लॉकडाउन की अपनी-अपनी ख़ब़र कह रहे होते हैं, रंजना न्यूज़ चैनल पर नज़र गडाये सुधीर के सामने प्लेट रखती है, सुधीर रंजना की ओर बिना देखे ही कह उठता है, ‘न जाने कब लॉकडाउन खुलेगा, घर में बैठे-बैठे भूख नहीं लग रही’  


रंजना अपनी धुन में व्यस्त जग से पानी ग्लास में उड़ेलते हुए जवाब देती है, ‘थोड़ा तो खा लीजिए...’


‘मैं सोच रहा हूँ तुम पूरी जिन्दगी घर में कैसे रहीं’ ? विषादग्रस्त स्वर सुनकर रंजना को कुछ आश्चर्य हुआ कि सुधीर पहली बार उसके घर में रहने के विषय में ऐसा कुछ सोच पाया है वरना वह तो उसके घर में रहने को सदैव जस्टिफाई करता आया है ।


‘क्वारेन्टाइन’... कहकर रंजना एक फीकी मुस्कान मुस्कराई और वापस किचन में चली गई । सुधीर के लिए वह व्यंग्यात्मक मुस्कान लगी, जो उसके पूरे अस्तित्व पर चिपक गई । उसने जल्दी-जल्दी अपने चेहरे, माथे और पेट पर हाथ फेरा, जैसे कि वह अपने अस्तित्व में चिपकी मुस्कान से इतर कुछ बेदाग देखना चाहता हो, साफ और पवित्र...


न्यूज़ ऐंकर प्रधानमंत्री की अपील सुना रहा था, ‘प्रधानमंत्री की अपील है कि सब लोग घर में रहें और लॉकडाउन को सफल बनायें’ । सुधीर ने चैनल बदल दिया । दूसरे चैनल पर प्रधानमंत्री की एक और अपील दिखायी जा रही थी जिसमें पूरे देश को एकजुट होकर रोशनी जलाने की बात की जा रही थी । सुधीर ने फिर चैनल बदल दिया कि यह देश को इंगेज रखने और इस भयानक माहौल को हल्का बनाने का एक तरीका है । जनता जिस भाषा में और जितना समझ सकती है, प्रधानमंत्री उसी भाषा में बस उतना ही समझाते हैं । वे जनता की नब्ज़ अच्छी तरह पहचानते हैं और नब्ज़ को कब कितना दबाना है वे उसमें पूरी तरह से माहिर हैं । तीसरे चैनल पर दिहाड़ी प्रवासी मजदूरों को मीलों पैदल चलकर घर पहुँचने की जिद्द और बेवसी दिखायी जा रही थी । रोते-बिलखते मजदूरों को रोक-रोक कर रिपोर्टर उनसे पूछ रहा था, ‘आप इतने दूर कैसे पैदल चलकर जायेंगे…आप रो क्यों रहे हैं… कुछ खाया-वाया है या भूखे चले जा रहे हो’


सुधीर को यह देख देख कर गुस्सा आने लगा कि बेवसी का इससे बुरा मजाक और क्या हो सकता है ! लाखों मजदूर पैदल अपने अपने घर के लिए चल पड़े हैं, उन्हें नहीं पता कि वे कब तक पहुँच पायेंगे, फिर भी चले जा रहे हैं । किसी को उनकी बहन ने, किसी को रिश्तेदारों ने, किसी को उनके मकानमालीक ने तो किसी को नौकरी से ही निकाल दिया गया है । भेड़-बकरियों की तरह उनकी हालत हो गयी है, जिसे मन करे जहाँ मन करे वहीं हाँक दे । सोशल डिस्टेंसिंग और लॉकडाउन फेल हो रहा है । माननीय प्रधानमंत्री की अपील और कोशिश ग्राऊंड लेबल पर फेल है । बीमारी से लोग कम लेकिन भूख से ज्यादा मर जायेंगे । हालांकि प्रशासन ने बहुत से लोगों के लिए भोजन तथा अन्य जरूरी चीजों का इंतजाम करवा रखा है । फिर भी एक-एक व्यक्ति तक सुविधाएँ पहुँचाना असंभव है । मध्य-प्रदेश का रहने वाला व्यक्ति अपने घर के लिए दिल्ली से रवाना हुआ था और रास्ते में ही उसकी मौत गई । उस मृतक व्यक्ति का फोटो और उसके घर वालों का रोना-बिलखना सुधीर को देखा नहीं जा रहा । उसका गला भर आया । उससे नास्ता नहीं किया गया और अपनी खिड़की से बाहर की ओर देखा तो बाहर कुत्ते लकड़ियाँ चबा रहे थे । ग्राउंड फ्लोर पर घर होने के कारण उसने कुत्तों को खिड़की से ‘तू..तू…सी..सी..’ की आवाज़ लगायी और पीछे के लॉन में पोहा कुत्ते को डाल दिया । कुत्ता गुर्र गुर्र की आवाज करते हुए खाने पर झपट पड़ा । देखकर साफ पता चल रहा था कि लॉकडाउन के बाद उसको खाने के लिए पहली बार कुछ मिला है । उसके गुडगुड़ाने-गुर्राने की आवाज़ सुनकर पड़ोसी मिस्टर रौशन भी निकल आयें । उन्हें देखते ही सुधीर की आँखों में चमक आ गयी, ‘नमस्कार, कैसे हैं ?”


‘नमस्ते-नमस्ते, हम लोग ठीक हैं । आप बताइये आपकी माता जी की तबीयत कैसी है’?


‘नॉर्मल फ्लू है, ठीक हो जायेगा’


एक मुस्कराहट देकर मिस्टर रौशन अंदर चले गयें । सुधीर भी अंदर चला आया, ‘कैसा समय आ गया है… हम अपने दोस्तों के साथ उठ-बैठ भी नहीं सकतें’।


सुधीर अपनी अम्मा के पैरों के पास आकर बैठ गया, ‘अम्मा चलो न, डॉक्टर को दिखा देते हैं... मुझे बहुत डर लग रहा है...’


‘क्यों डर रहे हो ? मौसम बदल रहा है, हर साल की तरह इस बार भी सर्दी-जुकाम हो गया है... हम थोड़ी न किसी से मिले जुले थे जो...’ खाँसते हुए अम्मा सफाई देने लगीं ।


‘क्यों, किरन आपसे मिलने नहीं आयी थी’ ?


‘उसे आये हुई कितने दिन हो गये, अगर वैसी बीमारी होती तो सबको हो जाती ?... और अगर मुझे ही होना होता तो बीमारी इतने दिनों तक इंतज़ार नहीं करती...!’


सुधीर खामोश रहा फिर अम्मा ने ही कुछ सोचते हुए कहा, ‘जरा किरन को फोन करके हाल-चाल ले लेना… वो कैसी है, उसके घर वाले कैसे हैं’?


‘जी अम्मा, आज करता हूँ’


कुछ दिनों बाद न्यूज़ पर ऐलान होने लगा कि लॉकडाउन चरणबद्ध तरिके से खुलेगा । मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है, मृत्यु दर भी बढ़ने लगा है । मास्क, सेनिटाइजर तथा मेडिकल से जुड़े इंतज़ामों में कमी होने लगी है । लोगों से अपील है कि लोग अपने अपने घरों में रहें । दूसरी तरफ देश की अर्थ-व्यवस्था चरमराती हुई नज़र आ रही है । यदि लोग घरों में बैठे रहें तो देश पूरी तरह से आर्थिक स्तर पर डाउन हो जायेगा । अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सरकार ‘वर्क फ्रॉम होम’ के साथ अन्य कई विकल्पों पर हाथ आजमा रही है ।


इधर घर में अम्मा की खाँसी रूकने का नाम नहीं ले रही, साँसों की दिक्कत उन्हें पहले से थी, अब और बढ़ गयी है । सुधीर ने हेल्पलाइन पर फोन किया तो अम्मा को हॉस्पीटल में एडमिट करना पड़ गया । अपार्टमेंट सीज़ कर दिया । सुधीर इस एरिया का विलेन बनकर सबके सामने उभरा कि न जाने कितने दिनों से अपनी अम्मा को घर में छुपा रखा था । न जाने कहाँ-कहाँ उसने बीमारियाँ बाँटी होंगी । दूध वाले, सब्जी वालों ने दूध और सब्जी पहुँचाने से मना कर दिया । पैसे होते हुए भी वह सामान नहीं खरीद सकता । अम्मा की दवाई में देर होने की ग्लानि जो थी सो अलग... ।   


हर तरफ हाहाकार मचा हुआ है । कुछ स्थानों पर लॉकडाउन खुलते ही अचानक से मरीजों की संख्या में इजाफा हो गया । अस्पताल में बेड की कमी पड़ गयी । अमीर पेशेन्ट्स को फिर भी बेड मिल रहे हैं लेकिन गरीब पेशेन्ट्स जमीन पर ही दम तोड़ रहे हैं । अम्मा की लाश भी नहीं मिली । बहुत सारे लोग तो अपनों की लाश लेने जा भी नहीं रहें । यदि किसी को लाश मिल भी रही है तो जलाने के लिए जमीन नहीं मिल रही । बहुतों ने श्मशान में जमीन देने से इंकार कर दिया ।


अम्मा के सदमें से सुधीर अभी निकला भी नहीं था कि पता चला किरन का पूरा परिवार अस्पताल में भर्ती हैं । वह उन्हें देखने नहीं जा सकता, फिर से लॉकडाउन...। पहले महिने में तो सैलरी मिल गयी लेकिन दूसरे महिने में सैलरी नहीं मिली । सरकार का राजकोष लगभग खाली हो चला है । अब गरीबों को मुफ्त में खाना मिलना बंद हो चुका है । गरीब जनता भूख से मर रही है । जो जीवित हैं वे काम के लिए धरने पर बैठे हैं लेकिन सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं है । सरकार दूसरे देशों से मदद ले रही है, कुछ दूसरे देश मदद के लिए खुद हाथ बढ़ाने लगे हैं । गैस, पेट्रोल आदि की सप्लाई धीमी पड़ती जा रही है । एक समय में ही पूरे दिन का खाना बनने लगा है । न्यूज़ चैनल पर लाशों की संख्या देखकर फिर से सुधीर के मुँह में निवाला नहीं गया । उसने उठकर खिड़की से कुत्ते को आवाज दी । कुत्ता जीभ निकाल सोया है, उसकी पीठ दिख रही है, बुलाने पर पलट नहीं रहा । पता नहीं जीवित भी है या नहीं । कुछ बेजान-से कुत्ते दूर से इसकी ओर बढ़े चले आ रहे हैं । पीछे लॉन में सुधीर बढ़ आया पर पुलिस वालों को देखकर आगे जाने की हिम्मत नहीं पड़ी उसने फिर से कुत्ते को आवाज लगाई, वह मरियल-सा उठा और खाना के पास पहुँचते-पहुँचते लुढ़क गया । किसी तरह से सुधीर ने ही उसके मुँह में निवाला डाला, पानी पिलाया । तब तक पुलिस भी सुधीर की ओर बढ़ती हुई दिखायी दी । खड़खड़ाहट सुनकर मि. रौशन भी अपना दरवाजा खोलकर बाहर निकले और सुधीर को देखते ही दरवाजा धड़ से बंद कर लिए । सुधीर की आँखों में आँसू आ गए कि कभी दोनों कितने अच्छे दोस्त हुआ करते थे । आज मुसीबत की घड़ी में उन्हें एक-दूसरे से नज़रें मिलाना भी पसन्द नहीं ।


सेल्फ क्वारेन्टाइन भी फेल हो रहा है । राहुल भी अस्पताल में एडमिट हो चुका है । रंजना और सुधीर मुर्दे की तरह घर में पड़े रहते हैं । गैस की सप्लाई लगभग बंद हो चुकी है, बिजली भी कभी-कभी आती है । गाँव की तरह शहर में बाहर से लकड़ियों का इंतजाम नहीं हो सकता, इसलिए कभी-कभार ही चूल्हा जलता है । वैसे खाना बनाने की जरूरत भी क्या है, जब भूख ही नहीं लगती । किरन और उसके पति अब इस दुनियाँ में नहीं रहें । राहुल के अस्पताल में भर्ती होने के बाद पूरी दुनियाँ समाप्त-सी लगने लगी है । सुधीर और रंजना आपस में कभी-कभार आँखों से बात कर लिया करते हैं, मुँह से कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती । आखिर बचा ही क्या है बात करने को... । सुधीर कुछ छूता तो उसे ऊँगलियाँ फुँफकारती नज़र आतीं..., वह हर दस-दस मिनट में हाथ धोता, घर को सेनिटाइड करता । रंजना के हाथों में भी बार-बार सेनिटाइजर पकड़ा देता लेकिन रंजना को जैसे इन सब बातों से कोई फर्क ही नहीं पड़ता, ऐसा लगता है कि वह जानबूझ कर मरने पर उतारू हो । उसे पूरा विश्वास हो चला है कि अब राहुल नहीं बचेगा, वह जिये भी तो किसके लिए...। अच्छा हो कि यह भी अस्पताल में एडमिट हो जाये, क्या पता... वहाँ जाकर एक बार उसे देख पाये ।


सरकार दूसरे देशों से आर्थिक मदद लेकर जनता को बचाने की कोशिश कर रही है । फिर से घरों तक राहत-सामग्री पहुँचने लगी है । लेकिन अभी भी न्यूज़ चैनल्स पर लाशों का ढ़ेर लगा है । एक-एक साथ कई-कई लाशें, एक के ऊपर एक जलाई जा रही हैं, कई-कई लाशें एक साथ दफनाई जा रही हैं । धर्म का अभी भी खयाल है सरकार को । जो जिन्दा हैं वे अब अपना अपना धर्म भूलते जा रहे हैं यदि कुछ याद है तो एक ही धर्म – इंसानियत । हो भी क्यों न, जब सबके सर पर एक साथ मौत मँडरा रही हो तब इंसानियत नज़र आती है, जाति-धर्म नहीं ।


यह सब देखकर सुधीर की व्याकुलता बढ़ गई और उसका गला रूँध आया और धीरे-धीरे सिसकते सिसकते हिचक हिचक-कर रोने लगा । रंजना सुनते ही सुधीर के पास आयी और उसके आँसू पोछने के लिए हाथ बढाई ही थी कि सुधीर ने अपना चेहरा पीछे की ओर हटा लिया । रंजना ठिठक गयी । उसने देखा टी.वी. पर न्यूज़ चैनल लगा हुआ है, वैसे भी हर चैनल पर अब न्यूज़ ही प्रसारित होता है, मनोरंजन के सारे चैनल लगभग बंद हो चुके हैं । कुछ म्युज़िक और मूवी के चैनल अभी भी प्रसारित हो रहे हैं, पर उनकी भी टी.आर.पी. डाउन है । शायद कुछ दिनों में वे भी बंद हो जायें । उसने टी.वी. बंद कर दिया और सुधीर के पास बैठ गई । सुधीर की रूलाई रूकने का नाम नहीं ले रही थी, उसने बहुत दिनों बाद रंजना से बात की, ‘कैसा समय आ गया है ? हम एक-एक करके सबको खोते जा रहे हैं... अम्मा, किरन, उसके पति, तुम्हारे माँ-बाप... पता नहीं हमारा बच्चा...’ दोनों रोने लगें


‘हमारे दोस्त अब हम पर विश्वास नहीं करते, हम एक साथ होते हुए भी एक-दूसरे से बचने की कोशिश करते हैं । यहाँ तक कि हम अपने हाथों पर, अपनी आखों, अपने मुँह पर विश्वास नहीं कर पा रहे... हमारे बीच बैठा अदृश्य दुश्मन हम सबको खाये जा रहा है, हम कुछ कर नहीं पा रहें ? ऐसा लगता है कि मौत हमेशा घात लगाये बैठी है, कब किसे दबोच ले…पता नहीं... आखिर हम करें तो क्या करें...।...मुझे माफ कर देना… बचे खुचे पैसे भी समाप्त हो चुके हैं... अगर हम बीमारी से बच गयें तो भूख से मर जायेंगे...’   


‘ऐसा मत कहिए… बस हमारा बच्चा ठीक हो जाए...’


‘अगर नहीं हुआ तो…’?


सब्र की बाँध टूट गई, दोनों ने निराशा से एक-दूसरे की आँखों में देखा और गले लग गए, जी भर कर फूट-फूट कर घंटों रोते रहें । यह पहली बार था जब दोनों ने एक दूसरे को कोई आश्वासन नहीं दिया, यह भी नहीं कहा कि हम मिलकर सामना करेंगे ।


राजकोष पूरी तरह से खाली हो गया, जनता भूख से मरने लगी । मददगार देश अब अपनी सेनाएँ भेजकर मदद कर रही है । यह देश पूरी तरह उसके प्रति कृत-कृत्य है, उसकी नैतिक, आर्थिक, राजनैतिक सहायता और दोस्ताना हाथ के लिए खुद को धन्य-धन्य समझ रहा है । रंजना राहुल के गुजरने के बाद वैसे भी अधमरी हो गयी थी । अस्पताल गई तो वहीं की होकर रह गई । सुधीर अचानक से अधेड़ उम्र में ही बुढ़ा लगने लगा है । आँखों से बहुत दूर तक दिखायी नहीं देता । कई कई दिनों तक भूखे रहता है, घर में रखे राशन-पानी अब समाप्त हो चुके हैं । जो कुछ भी बचा है वह टुकड़ों-टुकड़ों में खाता है । बहुत मुश्किल से कभी सूखा चावल तो कभी किसी दिन सिर्फ दाल पीकर सो जाता है । खिड़की से देखने पर पता चलता है कि पेड़-पौधे धीरे-धीरे पीयराने लगे है । दूर-दूर तक पशु-पक्षी दिखायी नहीं दे रहें । कभी कभी आसमान में अचानक से गिद्ध, कौवे और चील मँडराते हुए दिखायी देते हैं और कुछ समय बाद वहाँ से गायब हो जाते हैं ।


अब ज्यादातर विदेशी न्यूज़ चैनल प्रसारित होते हैं, शायद इस देश के न्यूज़ चैनल पर प्रतिबंध लग गया है और जो प्रसारित भी हो रहे हैं वे सिर्फ मददगार देश के गुणगान करते नज़र आते हैं । उनके अनुसार इस देश में मददगार देश बहुत कुछ सप्लाई करवा रहा है, इस देश का भला चाहता है । लेकिन सांकेतिक रूप से कभी-कभार कुछ रिपोर्ट्स कह जाते हैं कि उन सप्लाई का फायदा सबसे पहले मददगार देश के सैनिकों और नागरिकों को दी जाने लगी है । अब इस देश के लोगों के लिए राशन-सामग्री, दवाइयाँ कम ही उपलब्ध हो पाती हैं या फिर दी ही नहीं जा रहीं । रंजना भी तो अस्पताल में अभाव की भुक्त-भोगी बनी और हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह गयी । आस-पास के घरों में बदबू आने पर कुछ जीवित-मुर्दे हेल्पलाइन पर हेल्प माँगते हैं तब मददगार देश के सैनिक आकर उन घरों से लाशों को निकालते हैं । और फिर अचानक से आसमान में गिद्ध, कौओं और चील की जमात दिखायी देती है और फिर अचानक से गायब हो जाते हैं ।


मददगार देश ने इस देश के लोगों को घर से निकलने पर पूरी तरह से पाबन्दी लगा दी है यानी कि अभी भी इस देश में लॉकडाउन हैं, लोग आपस में एक-दूसरे से मिलकर हाल-चाल नहीं पूछ सकतें ! यदि मिलते हैं तो पेट की भूख मिटाने की खातीर । चोरी-छुपे गिद्ध और कौओं का शिकार करने की खातीर । मददगार देश प्रशासन से लेकर घरों तक पसरता जा रहा है । खाली हुए फ्लैट्स में अचानक से मददगार देश के सैनिक और नागरिक रहने लगे हैं । इतने लोग कहाँ से आयें, कैसे आयें और कब आयें, कुछ पता ही नहीं चला और ये भी नहीं पता चल पाता कि बीमारी के शिकार सिर्फ इसी देश के लोग क्यों हो रहे हैं ? जबकि जब यह बीमारी फैली थी तब वैश्विक स्तर पर फैली थी । खुद मददगार देश में मरने वालों की संख्या लाखों तक पहुँच गयी थी और अब यहाँ पर उनके लोग पूरी तरह बीमारी से मुक्त हैं, पता नहीं कैसे ?


खिड़की से देखने पर दूर-दूर तक इस देश के लोग नज़र नहीं आतें, सुबह-शाम सड़कों पर मददगार देश के लोग और उनके पालतू कुत्ते नज़र आते हैं । मि. रौशन के घर से जब बदबू बहुत फैल गई तब सुधीर ने हेल्पलाइन पर फोन किया । मददगार देश के सैनिकों ने एक साथ पूरे परिवार की लाश निकाली । उस दिन सुधीर को लगा कि वह भी उनके साथ ही जा रहा है । वह उन्हें देखने नहीं जा सकता था लेकिन उसकी आत्मा दौड़ कर उनके पीछे-पीछे बहुत दूर तक गई । लेकिन मददगार देश की गाड़ी उसकी थकी आत्मा से भी तेज दौड़कर कहीं गायब हो गयी । आखिरकार उसकी आत्मा को वापस लौटना पड़ा !


अब सुधीर को समझ में आ गया था कि इस देश में अब सबको हेल्प की जरूर है, हेल्पलाइन पर अब सिर्फ मददगार देश के लोगों की कड़क आवाजें होती हैं ।


अब घर में राशन नहीं बचा । हेल्पलाइन पर अब कोई हेल्प नहीं मिलती । खिड़की से देखने पर दूर-दूर तक कहीं कोई अपना नज़र नहीं आता । वैसे दिखायी भी तो बस दो-चार कदम तक ही देती है । सुधीर को घुटन होती है उसका मन है कि वह बाहर जाये और खुले आकाश के नीचे जोर-जोर से चिल्ला कर कहे कि ‘मैं जिन्दा हूँ… मैं जिन्दा हूँ’ । लेकिन उसे पता है कि हर जगह मददगार देश सी.सी.टी.वी. कैमरे के जरिए घात लगाये बैठी है । उसकी साँसें घुटन से थमने लगीं, उससे ठीक से खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा, वह बिस्तर पर आकर लेट जाता है । वह सीने को पकड़ कर लम्बी-लम्बी साँस लेना चाहता है लेकिन साँसें वापस नहीं आ रहीं । वह बुदबुदाये जा रहा है, ‘मुझे डर लग रहा है, मैं मरना नहीं चाहता, मुझे बचा लो... बचा लो... बचा...’


‘क्या हुआ जी… उठिए, कोई सपना देख रहे हैं क्या’ ? तड़फड़ाते सुधीर को झकझोरते हुए रंजना ने कहा


‘ह, हा..हाँ...’ सुधीर की आँखें खुल गयीं । रंजना को देख कर उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं । उसने हैरानी से चारों तरफ नज़र दौड़ाई, सब कुछ पहले के जैसा था । राहुल भी बगल में सोया है, फिर भी उसके धड़कनों की रफ़्तार कम नहीं हो रहीं, वह सीने को कसकर दबाये बैठा है ।


‘क्या हुआ, कोई बुरा सपना देख लिया है क्या ? आज कल इतना डरे हुए क्यों रहते हैं’?


‘महामारी फैली हुई है न’…


 


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