कविता
मुकेश
नसीब कुछ अपना ऐसा यारा
दूर दूर तक नही किनारा ,
टूट ना जाऊँ बह ना जाऊँ
समय की इतनी तेज है धारा |
तालाब अगर जीवन बन जाये
तो लहर कहाँ से आयेगी ,
किनारों से टकराकर उमंगे
रो रो कर मर जायेगी |
दर्पन भी अब रूठ गया है
काफी कुछ पीछे छूट गया है ,
कहती हैं उभरती चेहरे पे लकीरे
अब अपना वक़्त भी बीत गया है |
हर वक़्त की अपनी अभिलाषा है
हर वक़्त की अपनी नई भाषा है ,
हर वक़्त बीत ही जायेगी
यही वक़्त की अपनी परिभाषा है |
तु अपने दुखों से दुखी है जितना
उससे ज्यादा वो है परेशान ,
ये कर्म क्षेत्र है भाई मेरे
यहाँ राम की भी बनी रामायण|
इस चाँद की भी अजब कहानी है
हर युग की पहचान है ये
कभी है आधा कभी अमावश
कभी रात की जान है ये |
बनवारीपुर, बेगूसराय (बिहार)
Mob. 7549650492