मैं स्त्री हूं


 

दहेज में मिला है मुझे

एक बड़ा संदूक हिदायतों का

आसमानी साड़ी में लिपटा हुआ  संतोष

सतरंगी ओढ़नी में बंधी सहनशीलता

गांठ में बांध दिया था मां ने

आशीष, 

" अपने घर  बसना और....

विदा होना वहीं से "

 

फिर चलते चलते रोक कर कहा था

" सुनो, 

किसी महत्वाकांक्षा को मत पालना

जो मिले स्वीकारना

जो ना मिले

 उसे अपनी नियति मान लेना

बस चुप रहना

सेवा और बलिदान को ही धर्म जानना " 

और 

कहा था


तेरी श्रृंगार पिटारी में

सुर्खी की जगह

लाल कपड़े में बांध कर मैंने

रख दिया है

" मीठा बोल "

बस उसे ही श्रृंगार मानना

और

चुप रहना

 

मां ने इतना कुछ दिया

मगर भूल गई देना मुझे

अन्याय से लडने का मंत्र

और

मैं भी पूछना भूल गई

कि

यदि सीता की तरह, वह मेरा

परित्याग कर दे 

तो भी क्या मैं चुप रहूं

और यदि द्रौपदी की तरह

बेइज्जत की जाऊं

 क्या, तो भी

 

क्या,

 दे दूं उसे  हक

कि

वह मुझे उपभोक्ता वस्तु समझे

लतादे मारे, प्रताडे

 

क्या

उसके छल कपट को अनदेखा कर दूं

समझौता कर लूं 

उस की व्यभिचारिता से

पायेदान की तरह पड़ी रहूं

सहती सब कुछ

फिर भी ना बोलूं

अन्याय के आगे

झुक जायूं

 

मां 

अगर ऐसा करूंगी तो फिर किस 

स्वाभिमान से

अपने बच्चों को 

बुरे भले की पहचान करवाऊंगी

किस मुंह से उन्हें

यातना और अन्याय के आगे

न झुकने का पाठ पढ़ाऊंगी

 

मां 

मुझे अपनी अस्मिता की

रक्षा करनी है

 

सदियों से 

स्त्री का छीना गया है हक

कभी उसके होने का हक

कभी उसके जीने का हक

बस अब और नहीं

 

अब तो उसने

विवशता के बंधनों से जूझते जूझते

गाड़ दिए हैं 

अनेकों झंडे

लहरा दिए हैं 

सफलताओं के कई परचम

 

मां 

अब तो कहो मुझ से

कि जा बदल दे 

सृष्टि का यह विधान

 

क्यों कि नहीं जीना है मुझे

इस हारी सोच की व्यथा के साथ

मुझे जीना है

हंस ध्वनि सा

गुनगुनाता जीवन

गीत सा लहराता जीवन

 

मैं स्त्री हूँ ।।

                 

@Uma Trilok

Mob. 9811156310

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