‘शा’इरी का फ़न बड़ी फ़नकारियों में कै़द हैं’


डाॅ. मधुर नज्मी (डी. लिट्) मानद महा-निदेशक, ‘काव्यमुखी साहित्य अकादमी’,


गोहना मुहम्मदाबाद जिला मऊ 276403 उत्तर प्रदेश, मो. 9369973494


 


डाॅ. अंजना संधीर की अदबी शख़्सियत से असर लेकर समीक्षकों का नज़रिया: रचनाकृति ‘मेरा रचना संसार’ 

‘अपने-अपने ज़र्फ से लोगों ने पहचाना मुझे’


अरसा पहले इस पंक्तिकार ने ‘तार सप्तक’ के चौथे अंक के सुख्यात कवि, समीक्षक, संस्मरणकार, कथाकार, उपन्यासकार, भारतीय रंगविद डाॅ. श्री राम वर्मा (अब स्वर्गीय) से प्रश्नवार्ता (साक्षात्कार) की थी जिसे ‘हिन्दुस्तान’ समाचार-पत्र ने प्रकाशित किया था। डाॅ. श्रीराम वर्मा नयी कविता के प्रमुख हस्ताक्षरों में रहे हैं: उनसे बातचीत करना साहित्य की वैश्विक जानकारियों से जुड़ना था। मेरी ‘प्रश्नवार्ता’ सिर्फ़ साहित्यिक मुद्दों को केन्द्र में रखकर थी। मैंने उनसे जानना चाहा कि आप के लेखन का अन्दाज़ क्या है ? आप के आलेखों निबंधों में जो उद्धरण होते हैं उन्हें आप कैसे याद कर लेते हैं ? उन्होंने कहा ‘‘मधुर जी! जिन विषयों पर मुझे लिखना होता है, पहले मैं उस कृति का ‘नोट’ लेता हूँ, फिर उस कृति या अन्य कृतियों पर लेखन करता हूँ। किसी भी लेखक के लिए ‘नोट’ लेना अनिवार्य-सा है। स्मृति  की एक सीमा है। आवस्था और उम्र का भी यह मेरे लिए तक़ाज़ा है कि मैं अपने लेखन के लिए ऐसा करूँ, चलते-चलते स्मृतियाँ जवाब दे जाती है। ऐसे में नोट किया ‘माल’ काम आ जाता है। मुनासिब उद्धरणीयता से, लेखकीयता में धार आती है। इसका मतलब मधुर जी! यह नहीं कि सिर्फ़ उद्धरण हों और विचार-सामग्री रचना में हो नहीं।


मेरी ‘प्रश्नवार्ता’ का दूसरा सवाल था, ‘‘वर्मा जी! अपने तक़रीबन हर विधा में पहचान-प्रेरक लेखन किया है ऐसा कैसे संभव हो सका?


मधुर जी! मुझे लोग कवि ‘भी’ मानते हैंः मुझे खुशी होती है। ‘कवि शब्द’ विराट् कैनवस वाला शब्द है। कवि की सत्ता, परम सत्ता के आसपास होती है। सृजन और सर्जना के क्षणों में रचनाकार ज़मीनी सतह से ऊपर होता है। मधुर जी! कवि ही की बदौलत मेरा लेखन अन्य विधाओं में है। बग़ैर काव्य-तात्त्विकता के किसी भी विधा में ‘अच्छा लेखन’ संभव ही नहीं है। कविता का सूत्र अध्यात्म का सूत्र है। अध्यात्म को नज़र अन्दाज करके ‘अच्छा लेखन’ संभव हो पायेगा, इसमें संदेह है। यह पंक्तिकार नहीं जानता कि आज के लेखक प्रो. श्रीराम वर्मा के संदर्भित दोनों विचारों से सहमत होंगे या नहीं, फिर भी लेखकीयता के हक़ दोनों ही विचार-स्तंभों को संदर्भित कर रहा हूँ।


कविता-शायरी और साहित्य को वैश्विक आधार फ़लक पर, अपनी पारामिता प्रज्ञा से गतिमान करने का सारस्वत प्रयास, भारत की प्रमुख कवयित्री-शा’इरा, पत्रकार, समीक्षक, अनुवादिका डाॅ. अंजना संधीर ने किया है और फ़िलहाल, समर्पित-संकल्पित मन से, अपनी अदबी आस्था को स्वरित करने की दिशा में, कामयाबी की मंज़िल तय कर रही हैं।  मूलतः भारत की निवासिनी, जिनका घनीभूत पैत्रिक रिश्ता रूड़की से है। विवाहोपरान्त अमेरिका जाने का अवसर मिला। अमेरिका में प्रिंस्टन विश्वविद्यालय, न्यु जर्सी, कोलम्बिया विश्वविद्यालय, न्यूयार्क एवम् स्टोनी बु्रक विश्वविद्यालयों में हिन्दी की प्रोफे़सर रहीं: ‘बारिशों के मौसम’, ‘धूप-छाँव और आंगन’, ‘अमेरिका हड्डियों में जम जाता है’, ‘संगम’, ‘अमेरिका एक अनोखा देश’। मौलिक कृतियाँ संपादित कृतियाँ में, ‘प्रवासी हस्ताक्षर’, ‘सात समुन्दर पार से’, ‘ये कश्मीर है’, प्रवासिनी के बोल और प्रवासी आवाज, ‘विश्वमंच पर हिन्दी नये आयाम’, ‘अमरीकी हिन्दी साहित्यकारकोश’, ‘भारत के प्रधानमंत्री की गुजराती कविताओं का हिन्दी अनुवाद ‘आँख ये धन्य है’ ‘इज़ाफ़ा’ ‘यादों की परछाइयाँ’, कृष्णायन, द्रौपदी गुजराती से हिन्दी, भूकम्प और भूकंप, गुजराती कहानियों का हिन्दी अनुवाद आदि अनेकशः महत्तम कार्य है जो डाॅ. अंजना संधीर को अपने समकालीन साहित्यकारों से अलहदा पांक्तेय करती हैं: अमेरिका जाने के पूर्व, अपने देश के काव्य-समारोहों-मुशायरों के माध्यम से, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से डाॅ. अंजना संधीर ने हिन्दी, उर्दू, पंजाबी साहित्य में अपनी पहचान बना ली थी। महत्त्वपूर्ण विश्व विद्यालयों में शिक्षण कार्य करते हुए, अपनी हुनरवरी से हिन्दी-पट्टी के साहित्यकारों को अमेरिका में जोड़ना, उनकी रचनाओं को ‘बुक-शेपित’ करना जो प्रवासी भारत को भूल चुके थे, उनमें भारतीयता को मंत्रित करना और अपने देश भारत के प्रति राष्ट्रवादी चिन्तन की आभा से प्रदीप्त करना, ऐसे लीजेण्ड कार्य हैं जो उन्हें ‘पिनाकिल’ स्थिति तक ले जाते हैं।


इस पंक्तिकार ने अपनी ग़ज़लिया शाइरी में एक शे’र कहा है, सिर्फ़ उसका एक मिसरा याद आ रहा है, ‘‘शाइरी का फ़न बड़ी फ़नकारियों में कै़द हैं’ डाॅ. अंजना संधीर, विवेक सम्पन्ना कवयित्री - शाइरा हैं। उनकी हस्सासदिली, उनका अदबी ‘जुनून’ उनका राष्ट्रवादी चिंतन साहित्य के हल्के़ में एक नज़ीर हैं। ‘अमेरिकन कल्चर’ वहाँ की चमक-दमक डाॅ. अंजना संधीर को लुभा नहीं पायी। अपनी दो बेटियों के साथ भारत आ गयीं और सम्प्रति भारतीय भाषा संस्कृति संस्थान गुजरात में अध्ययन कर रही हैः अंजना संधीर की कविताओं और शा’इरी से गुज़रते हुए, एहसास होता है कि ईश्वर ने हर तरीके़ से अंजना के साथ इन्साफ़ किया है। अंजना संधीर जैसे इस पंक्तिकार के शब्दाें में बहुत इत्मीनान और अदबी ऐतमाद से अपनी हक़ बात कह रही हो:


‘‘अदब की छाँव में बैठा हुआ हूँ-
किसी दरवेश की क़ामिल दुआ हूँ-
क़लम का ‘क्रोशिया’ हाथों में लेकर
सलीके़ से समय को बुन रहा हूँ।


डाॅ. अंजना संधीर की अदबी बुनकरी का बेशक़ीमत नमूना, विकल्प प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित ‘मेरा रचना संसार’ संज्ञक कृति में देखा-पढ़ा जा सकता है। अंजना ने साहित्य को अब तक क्या दिया है, साहित्यकारों, समीक्षकों ने उनके अवदान पर क्या नज़रिया प्रस्तुत किया है। इसको समग्रता में ‘मेरा रचना संसार’ के अन्तर्लीन आलेखों में समझा जा सकता है। पुस्तक का संपादन स्वयं डाॅ. अंजना संधीर ने ही किया है। सु-संपादन, सु-मुद्रण के लिए डाॅ. अंजना संधीर और विकल्प-प्रकाशन को बधाइयाँ ‘अपने-अपने ज़र्फ़ से लोगाें ने पहचाना मुझे’ ‘जेनुइन’ क़लमकार के लिये लेखन एक आध्यात्मिक, सूफ़ियाना साधना है। ‘मेरा रचना संसार’ के कुछ आलेखों को पढ़कर आत्मिकतोष होता है, कुछ को पढ़कर मलाल। कुछ ने लिखने के लिये लिखा है कुछ ने ‘काया-प्रवेश’ करके तो कुछ ने ‘डूब’ के साथ-साहित्य में चिमटा से अंगारा छूने की प्रक्रिया सांघातिक होती है। हाँ, इतना ज़रूर है कि अपनी-अपनी सीमाओं में, अपनी-अपनी भाषीयता में, अपनी अपनी दृष्टि में, प्रकाशित हर साहित्यकार, हर समीक्षक ने डाॅ. अंजना संधीर के सर्जनशील व्यक्तित्व का वाजिब आकलन-मूल्यांकन और समर्थन किया है। यह ‘समर्थन’ डाॅ. अंजना संधीर की साहित्यिक सत्ता के चलते हैं। कवयित्री - शा’इरा को संवेदनात्मक ज़मीन काफ़ी ज़रख़ेज़ है। डाॅ. संधीर को ‘मीटर’ मानकर यह पंक्तिकार अपनी ग़ज़लिया शा’इरी के माध्यम से, इतना कहना मुनासिबत समझता है। यह मुनासिबत समग्रता में शाइरा को देखते हुए कुछ इस प्रकार है - 


‘‘मुझे रवायती क़दरों की शान कहती है-
नये ज़माने का मुझको निशान कहती है-
यक़ीन रखती है मेरे वजूद पर इतना-
मेरी ज़मीन मुझे आसमान कहती है-’’


डाॅ. अंजना अपनी सोच में काफ़ी ‘रेडिकल हैं’ किसी चीज़ को उसकी जड़ में पकड़ती हैं। तक़रीबन सत्तर साहित्यकारों के आलेख पुस्तक में प्रकाशित हैं। बाबा तुलसी के शब्दों में ‘कोबड़ छोट कहत अपराध’ ही कहा जा सकता है। अपने अमेरिका प्रवास की दुश्वारियों, स्थितियों का ख़ाक़ा निगारी करते हुए ‘कुछ तो कहना बनता है’ अपनी बात में डाॅ. अंजना संधीर लिखती हैं, ‘‘बहुत सारे साथियों-पाठकों का कहना था अंजना जी! आपके साहित्य पर इतना कुछ लिक्खा गया है लेकिन एक जगह यह हो तो आनन्द आयेगा लेकिन मैं सिर्फ़ सुनकर, सोचकर हाँ-हाँ करके इस बात को आया-गया कर देती थी.....’’ भारतीय प्रवासी जो अमेरिका में रह तो रहे थे किन्तु उनकी साहित्यकार के रूप में पहचान नहीं थी। उन्हें खोज ढूँढ कर अपनी कृतियों के माध्यम से प्रकाशित किया। कथाकार के रूप में डाॅ. उषा प्रियंवदा को भारत के हिन्दी सरोकारी जानते थे किन्तु वहाँ का साहित्यिक समाज जो अपने में ही ले-दे के था, अमेरिका में कोई नहीं जानता था। अपनी खोज से उन्होंने, उनका नाम उजागर किया। ‘अमेरिका हड्डियों में जम जाता है’ जिसके 3-3 संस्करण, प्रकाशित हुए, तेलुगु, और अंग्रेज़ी में अनुवाद हुए, एक कहानी की आत्मकथा जैसी कृति है, कृति पर डाॅ. बाल शौरिरेड्डी की टिप्पणी। ‘‘ये कविताएँ डाॅ. अंजना संधीर की रससिक्त एवम् भाेगी हुई अनुभूतियों के आडोलन की प्रतिक्रियात्मक शब्द लहरियाँ हैं.....- डाॅ. वेद प्रकाश बटुक इस कृति में अपनी व्यथा-कथा को समाहित मानकर लिखते हैं। ‘‘दीर्घकालीन आत्म निर्वासन का स्वयं एक भुक्तभोगी होते हुए, मेरे लिये इन कविताओं का एक विशेष अर्थ और महत्त्व है.....’’ अमरीकी संस्कृति का आक्टोपसी’ दंश कमोवेश हर किसी संवेदनशील मन को डसने लगा है। डाॅ. शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव, डाॅ. अंजना संधीर की कविता के हवाले से लिखते हैं, ‘यह संस्कृति का मिश्रण’ क्रमशः अपनी संस्कृति के विलुप्त हो जाने का ख़तरा बन जाता है। कवयित्री अंजना का विशुद्ध भारतीय मन कविता के अन्त में अमरीका वासी भारतीयों की नयी पीढ़ी को निश्छल संदेश देता है। ‘‘संस्कृति की मशाल जलाये रखना/अमेरिका को हड्डियों में मत बसने देना/अमेरिका सुविधाएँ देकर हड्डियों में जम जाता है। अंजना की कविताओं के शब्द भी मात्र शब्द नहीं है, उनमें रिश्तों के तार हैं, रौशनी के तार है....’डाॅ. सुधेंश ने कृति के समग्र पहलुओं पर विचार करते हुए लिखा है, ‘‘समग्र दृष्टि से देखा जाये तो इस संग्रह की कविताएँ अमेरिका के प्रति मोहभंग की कविताएँ लगती हैं....’’ शोधार्थिनी प्रियंका, शोधार्थी स्नेह गौड़, डाॅ. केवल कृष्ण ने कृति काे ‘श्रेष्ठ’ सृजन माना है। अपनी बात को ‘मुख़्तलिफ़ अन्दाज ‘से शाइरी-कविता में कहने की हुनरवरी अंजना की नितान्त वैयक्तिक खूबी है-जेनुइन रचनाकार की कथन भंगिमा, रंगिमा, इस पंक्तिकार की नज़र में कुछ और ही मर्तबा रखती है। गौरतलब हैं दो मिसरे: ‘‘कह भी देगा और रक्खेगा भरम भी राज़ का/लहजा इक शाइर का होगा मुख़्तलिफ़ अन्दाज़ का.’’ डाॅ. अंजना संधीर की कविता-शा’इरी का यही ‘मुख़्तलिफ़ अन्दाज़’ उन्हें ‘पिनाकिल’ स्थिति यात्रित करता हैं।


डी.एस.राजपूत, ने ‘यादो की परछाइयाँ’ डाॅ. अंजना संधीर रचित कृति का संदर्भ लेते हुए ‘इज़ाफ़ा’ कृति पर प्रकाश डाला है राजबहादुर गौड़ ने ‘बारिशों का मौसम’ ग़ज़ल-कृति पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, ‘‘अंजना की मातृभाषा पंजाबी है और उर्दू से जुनून की हद तक इश्क़ है और पंजाबी के लिये ये कोई नयी बात नहीं है। अख़्तर शिरानी ने तो पंजाब में उर्दू लिखकर उर्दू का अपहरण ही कर दिया और पंजाब को उसका वतन साबित कर दिया था। अंजना उर्दू में शाइरी करती है, एक हिन्दी अख़बार की संपादक हैं, गुजरात अख़बार में काॅलम लिखती हैं इतनी सारी ख़ूबियाँ एक ही व्यक्ति में इकट्ठा हो जाना ख़ुद एक चमत्कार है....’’अपने पुरखों की परम्परा और संस्कृति के सम्मान में डाॅ. अंजना संधीर कहती हैं, ‘‘हमने इस देश की धरती पे जन्म पाया है/हमको इस देश में जीना है यही मरना है...’ ‘‘मुझ पे लोगों ने बहुत तंज़ के पत्थर फैंके/मेरी आदत थी कि मुड़कर कभी देखा ही नहीं’’ ए.बी. सिंह मानते हैं, ‘अंजना के शे’रों में भावों का सागर भरा हुआ है। भाषा सारगर्भित और संतुलित है। अपनी पसन्द के शे’रों को उद्धरणीयता देते हुए अनेकशः शे’रों पर कुर्बान हैं। ‘‘मैं तेरे पास हूँ, परदेस में हूँ, खुश भी हूँ। मगर ख़्याल तो हरदम वतन में रहता है।’’ ‘जब भी याद आई मेरी माँ की मुझे/दौर फिर आँसुओं का चलने लगा’’ डाॅ. संधीर की ग़ज़ल-कृति ‘‘मौजे-सहर’ के हवाले से उन्हें याद करते हैंः‘‘ इस देश के लोगों ने चालीस बरस पहले इक ख़्वाब तो देखा था तांबीर नहीं मिलती’’ ‘‘पंजाब को देखा तो इक आग का दरिया है। कश्मीर में जन्नत की तस्वीर नही मिलती’’ गुलाब खण्डेवाल ने ग़ज़ल विधा पर अपना बयान देते हुए डाॅ. अंजना संधीर की ग़ज़लों को स-सम्मान रेखांकित-रूपांकित किया है। ‘‘ग़ज़ल की विधा सैकड़ों वर्षों से उर्दू की सर्वाधिक लोक प्रिय विधा रही है। बड़े-बड़े महाकाव्यों के प्रणेता मुँह देखते रह जाते हैं और एक दो ग़ज़ल सुनाकर शाइर मुशाइरे की बाज़ी मार ले जाते हैं.... अंजना संधीर के हर शे’र से ताज़ा खिले हुए फूल की ख़ुश्बू आती है ‘कुछ सम्मातियों’ के अन्तर्गत साहित्यकारों के पत्र हैं जो डाॅ. अंजना संधीर की शाइराना अज़्मत को रेखांकित करते हैं। सुदर्शन मजीठिया, नथमलकेडिया, अख़्तर शाहजहाँपुरी, रहमत अमरोहवी, गुलाब खण्डेलवाल आदि पद्मश्री गोपालदास ‘नीरज’ लिखते हैं ‘‘अंजना संधीर को काव्य-मंच पर आये हुए अभी थोड़ा ही समय हुआ है। मगर इतने कम समय में ही उन्होंने अखिल भारतीय लोकप्रियता अर्जित की है। इस ख्याति का कारण उनकी ग़ज़ल का जादू है। वह अन्य कवयित्रियों की तरह गायिका नहीं हैं। वे तहत में ही ग़ज़ल का पाठ करती हैं फिर भी उनका एक-एक शब्द सीधा हृदय में उतरता चला जाता है। इसकी वजह उसकी शैली है..... लगता है वह खुद नहीं लिखती, ग़ज़ल ही ख़ुद उन्हें लिखती हैं’ व्याकरणविद, समीक्षक आर. पी. शर्मा महर्षि, एक उद्धरण देकर अंजना की शाइरी के असर का ज़िक्र किया है। एक व्यक्ति ज़िन्दगी से उबकर मरने की सोच चुका था। उसने ‘रूबी’ पत्रिका में प्रकाशित अंजना का शे’र पढ़ा, ‘‘मैं अपने हाथ से अपना नसीब लिख लूँगी/कोई नसीब की रेखा नहीं हथेली में’’ परिणामतः उसमें जिन्दा रहने का हौसला जाग गया। जेनुइन ‘शा’इरी से ऐसे करिश्मे होते रहते हैंः


डाॅ. अंजना संधीर की कविता कृति ‘संगम’ पर रमेश चन्द्र शर्मा की टिप्पणी ग़ौरतलब है। ‘‘ये कविताएँ यहाँ के जीवन का जीवन्त दस्तावेज़ बन गयी है। ऐसा सजीव चित्रण पहले किसी ने किया हो देखने में नहीं आया।’’ डाॅ. मधुरनज्मी का ‘प्रवासी हस्ताक्षर’ शीर्षक कृति पर समीक्षात्मक टिप्पणी ‘‘प्रवासी हस्ताक्षर’’ काव्य-कृति उनकी पारमिता प्रज्ञा और सारस्वत मेधा का अदबी दस्तावेज़ है।


ये कश्मीर है पर बालशौरिरेड्डी, डाॅ. बजरंग वर्मा, सुभाष काक, रेणु रघुवंशी गुप्ता यू.एस.एस. के आलेख अंजना संधीर के विराट वैचारिक फ़लक को रूपांकित करते हैं: यह कश्मीर है, पर डाॅ. मुधर नज्मी ने डाॅ. अंजना संधीर की अदबी फरायज़ को सराहते हुए, मकबुल शाइर स्व. एंहसास एम. ए. के शे’र से अदबी बात डाॅ. अंजना संधीर की मयारी सलाहियत पर उद्धृत किया है- ‘‘बर्फ के जिस्म से उठ रहा है धुआं आज नफ़रत के शोलों में कश्मीर है’’ ग़ज़लिया शाइरी से यह पंक्तिकार उनके आरंभ काल से सुपरिचित है। बीच में एक विराट् ‘वैकूम’ उनकी शा’इरी से नहीं रहा है। कारण अकारण भी नहीं है। उनका अमेरिका में प्रवास फिर अपनी लम्बे अरसे तक अस्वस्थता। अग्रज प्रो. ओमराज के एक अपने सम्मान समारोह ने उत्तरांचल के काशीपुर में जाने का इत्तेफाक-चर्चा में उनसे अवगत हुआ कि अंजना जी भारत अपनी बेटियों के साथ वापस आ गयी हैं। प्रो. ओमराज़ से मोबाइल नं. मिला फिर बातचीत के, साहित्यिक प्रगति के सिलसिले चल निकले। यह पंक्तिकार उनकी ग़ज़लिया शा’इरी के संदर्भ में डाॅ. अंजना संधीर के अदबी ख्यालात की निशानदेही करता है।


‘‘मेरी शाइरी जब कभी बोलती है/ज़मीने ग़ज़ल की नमी बोलती है-
ग़रीबों की जब ज़िन्दगी बोलती है तो लगता है जैसे सदी बोलती है।’’


डाॅ. अंजना संधीर ने अपनी कविताओं और ग़ज़लों में समय को साध लिया है। यह ख़ूबी ‘रेयर’ शख़्सियतों में होती है। कविता- शा’इरी का सच अक्सर सबसे बड़ा सच होता है। डाॅ. अंजना संधीर ने अपनी आँखों को हमेशा खुला रखा है। एहसास से सम्बद्ध कोई भी परिदृश्य उनकी आँखों से ओझल कभी नहीं हुआ है। उनकी सर्जना में समय के सभी मनाज़िर एक सीमा में हमेशा बोलते-से नज़र आते हैं। समय, समाज और संवेदना ने डाॅ. अंजना संधीर को बैनुल अक़वामी (अन्तर्राष्ट्रीय) अदबी मर्तबा दिया है। माँ भारती ने हर नज़रिया से उनके साथ इन्साफ़ किया है। मक़बूल शा’इर, समीक्षक, और उर्दू मुशायरों के पसन्दीदा खिदमतकार डाॅ. मलिक जादा ‘मंजूर’ की ग़ज़ल का मतला जे़हन में आता है जो डाॅ. अंजना संधीर की ग़ज़लिया शा’इरी के मद्दे-नज़र काफ़ी मुनासिब है। ‘कुछ ग़मे-जानाँ, कुछ ग़मे-दौरां/दोनों मेरी ज़ात के नाम/एक ग़ज़ल मंसूब है तुम्हारी एक ग़ज़ल हालात के नाम’’ ‘प्रवासी’ कविता कृति पर परिचयात्मक टिप्पणी देते हुए डाॅ. मधुर नज्मी ने लिखा है, हिन्दी उर्दू, पंजाबी, गुजराती और अंग्रेज़ी की मानक, अर्णस्वल कवयित्री डाॅ. अंजना संधीर, संयमित, अनुभव सम्पन्ना समीक्षिका, मूलतः भारत से है। कोलम्बिया, न्यूयार्क एवं स्टोनी ब्रुक विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर पद पर रहीं, डाॅ. संधीर अलाहदा अदबी सोच की स्वामिनी है’’ प्रेमचन्द्र साहित्य मर्मज्ञ डाॅ. कमल किशोर गोयनका लिखते हैं-‘‘अमेरिका में दो बार जाकर मैंने यह पाया कि भारतीय 
प्रवासियों ने अपनी एक दुनिया निर्मित कर ली हैं। इस दुनिया में घर-व्यापार, उद्योग आदि के साथ कला-संस्कृति एवम् साहित्य के भी आयाम समाये हैं......’’ देवी नागरानी, गिरीशचन्द्र पात्रा। डाॅ. बजरंग वर्मा, राजी सेठ, डाॅ. सुधा श्रीवास्तव, डाॅ. महेश दिवाकर। डाॅ. सरदार भुजावर, डाॅ. योगेन्द्र नाथ ‘अरुण’, डाॅ. सुधा ओम ढींगरा के आलेख, सम्मातियों और टिप्पणियाँ वाजिब मूल्यांकन करती हैं- हिन्दी-गीत-नवगीत के प्रमुख हस्ताक्षर डाॅ. बुद्धिनाथ मिश्र का आलेख शीर्षक ‘‘एक आवाज़ है रह-रह के बुलाती है मुझे’ ही अंजना संधीर के प्रति आस्था का आयाम रचती है। न्यूयार्क में डाॅ. अंजना संधीर से उनकी मुलाक़ात होती है, भारत में तो होती ही रहती थीं। डाॅ. बुद्धिनाथ मिश्र लिखते हैं ‘‘अंजना की ज़बान से ज़ियादा उसकी आँखें बोलती हैं और उन आँखों से भी ज़ियादा-मुखर है, उनमें ठहरा हुआ बादल जो बड़ी ख़ामोशी से, आपके दिल में उतर कर बरसने लगता है....’’ नयना डेलीवाला, डाॅ. मीना कौल, कादम्बरी मेहरा, डाॅ. गोबर्द्धन शर्मा, के आलेख उनके अवदान काे विस्तृति देते हैं डाॅ. मधुर नज्मी का आलेख, ‘अंजना संधीर अमरीकी संस्कृति को अलविदा’ अंजना की भारत वापसी पर काफ़ी कुछ कहता है। उन्होंने अपना शे’र उद्धृत करते हुए लिखा है ‘‘ख़ुशी से छोड़ना कब चाहते हैं अपनी मिट्टी हम/ दयारे-गै़र से रिश्ता ज़रूरत जोड़ लेती है।’’ आगे मधुर नज्मी कहते हैं- ‘‘डाॅ. अंजना संधीर की कविता की यह संवादिता मन के पोर-पोर ताज़ा करती है-संवेदना की सब्ज़ जमीन पर उगी डाॅ. संधीर की ग्राम्यबोधी, लोकबोधी और बिचारबोधी कविताओं से साहित्य के सरोकारी सहजतः अकर्मित होंगे- रानू मुखर्जी ने अंजना जी का साक्षात्कार किया है और कई साहित्य के मुनासिब सवालात को अंजना जीने भरपूर संयम से उत्तरित किया है। एक सवाल जो रानू मुखर्जी ने पूछा इसका अंश ग़ौरतलब है-अंजना जी आप अपने ‘प्रभा मंडल’ को कैसे बरक़रार रखती हैं ? अंजना का उत्तर ‘‘मेरे प्रभावमण्डल के विषय में मैंने आप से जाना और अगर यह है भी तो यह मेरी रचना की देन है। मेरे विचार से एक रचनाकार को स्वाध्याय तत्पर तपस्वी की तरह होना चाहिये.......’’ कहन की यह भाषाई अभिव्यक्ति से प्रभावित होकर अपनी ही ग़ज़ल का मतला इस पंक्तिकार को याद आ गया जिसको अंजना जी के संदर्भ में कई जगह उद्धृत कर चुका है- ‘‘कह भी देगा और रक्खेगा भरम भी राज़ का/लहजा इक शाइर का होगा मुख्तलिफ़ अन्दाज़ का’’ प्रो. डाॅ. पुनीता हर्ने, शिवम् तिवारी, डाॅ. गोवर्द्धन शर्मा, वैद्यकृष्ण मोहन मंजुल, नीलमकुलश्रेष्ठ, डाॅ. दिनेश शर्मा उत्तराखण्ड ने जमकर सदशायी टिप्पणियाँ लिखते हैं: वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ. सुधेश ने लिखा है, ‘‘अनेक हिन्दुस्तानी विदेश की धरती पर पाँव रखते ही अपनी भाषा, संस्कृति देश और सम्बन्धियाँ को भूल जाते हैं, पर ऐसे ही हिन्दुस्तानी भी मिल जाते हैं, जो अपने देश की भाषा, संस्कृति को आजीवन गले लगाये रहते हैं। ये संख्या में चाहे जितने काम हों, पर अपने होने का परिचय देते रहते हैं। श्रीमती अंजना संधीर ऐसा ही जीवन्त एवम् सक्रिय व्यक्तित्व हैं।


पुस्तक संपादन-कौशल के संदर्भ में अदब से इतना कहा जा सकता है कि डाॅ. अंजना संधीर के लेखकीय अवदान से सम्बद्ध कोई भी पहलू छूटा नहीं है। बहुत ही क़रीने से यह कृति डाॅ. अंजना संधीर की दमदार रचनाशीलता को उजागर करती है। यह पंक्तिकार समग्र रूप में अलग अलग पुस्तक रूप में उनकी ग़ज़लें, समकालीन कविताएँ उनके समय-समय पर प्रभावित पत्रिकाओं के आलेख ‘बुक शेप’ में देखना चाहता है। यह पंक्तिकार यह भी डाॅ. अंजरा संधीर से अपेक्षाएँ रखता है कि देश के चुने हुए ग़ज़लकारों को एक प्लेटफार्म पर लायें जो पुस्तक रूप में हो। आने को तो अनेकशः संकलन ग़ज़ल से सम्बद्ध आये हैं किन्तु उसमें गुटबद्धता के चलते अपने अपने की ही ग़ज़ल चयनित है। अनेकशः ग़ज़लें ग़ज़ल के अनुशासन-व्याकरण में हैं नहीं। विषयान्तर न हो तो मैं डाॅ. जीवन सिंह द्वारा संपादित-चयनित ग़ज़ल कृति ‘दसख़त’ का संदर्भ लेना गै़र मुनासिब नहीं मानता। डा. जीवन सिंह की संपादित ग़ज़ल कृति उनके आलेखों में काफ़ी विस्तृति बाकी है। उनके आलेख ग़ज़ल के रेशा-रेशा को खोलते हैं किन्तु जिन ग़ज़लों का चयन किया है वे काफ़ी कमज़ोर और ग़ज़ल के बहर में है ही नहीं। यह पंक्तिकार व्यक्तिगत रूप से और सामूहिक रूप से आग्रही है कि दृष्टि-सम्पन्न, ग़ज़लकार डाॅ. अंजना संधीर पारदर्शी ग़ज़ल-कृति का संपादन करके ग़ज़लिया शाइरी की इस ज़रूरत की भी संयोजित करने का प्रयास करेंगी उनकी दृष्टि सम्पन्न्ता पर हमें नाज़ है फ़ख्र है।


सामान्यतया डाॅ. अंजना जी। आज के सांघातिक दौर में साहित्यकार, साहित्यकार के अलावा कुछ और हो गया है। उसका कुछ और हो जाना कम शर्मनाक और सांघातिक नहीं है। किसी का शे’र याद आता है-


‘‘ना अह्ल कर रहे हैं रियाज़े सुख़न तबाह
औ’लुत्फ़ यह की अहले-सुख़न बोलते नहीं।’’


ग़लतकारी पर अदीबों का न बोलना आज की रविश में शुमार है। मैं आरम्भ से ही आप के साहित्यिक संकल्प से सु-परिचित हूँ। आप हमेशा से गुट निरपेक्ष रही हैं। आपने साहित्य में ईमानदारी को तरजीह दी है। इतने सारेे महत्त्वपूर्ण ‘लीजेण्ड वर्क’ इसके ज़ामिन हैं। अपने देश में साहित्यकारिता का मेयार जहाँ निरन्तर गिरता जा रहा हो वहाँ अच्छे में’यारी काम को देखकर आत्मिक ख़ुशी होती है। ये बातें मैं अच्छे अच्छों को पढ़कर अदब से कह रहा हूँ- तर्क अलग-अलग हो सकते हैं किन्तु आज हक़ीक़त यही है-


‘‘कलमकार का हाल कुछ भी न पूछो-
हुए बे-हक़ीक़त गिरोहों में बँटके।’’


******


‘‘लुटेकारवाँ का वो सरदार निकला-
क़बीले का क़ातिल क़लमकार निकला।’’ मधुर नज्मी


क़लमकार से संबद्ध सारी मान्यताएँ और मिथक छूट गये हैं और टूट रहे हैं : ऐसे में आप के क़लम की अस्था से पुरयक़ीन हूँ। मेरे हिस्से की ज़मीन को इतना ऐतमाद से कहने का हक़ तो फ़िलहाल है ही-


‘अल्लाह करे! जोरे-क़लम और जियादः।



डाॅ. अंजना संधीर, Mob. 7069158973


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य