स्मृतियों के आत्मसातीकरण से बेचैनः कान्ति कुमार जैन !
कान्ति कुमार जैन
लम्बी, छरहरी काया! चमकती आँखें! मन और तन की गत्यात्मकता से भरपूर। आद्यन्त प्रथमवर्गीय छात्रत्व। विरल प्रतिभा-सम्पन्न। भाषा और साहित्य- दोनों के अधीती चिन्तक और मीमांसक। मध्य प्रदेश के समकालीन ‘‘प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकारों का साहचर्य! कुरुक्षेत्र से समकालीन हिन्दी कवियों और कविताओं पर लेखन की आलोचना-यात्रा। प्रगतिवादी-मार्क्सवादी जीवन-दृष्टि के समर्थक, अनुपालक! स्मृत्यालोचन के क्षेत्र में अपना क्रोश-स्तम्भ (Mile-stone) और कीर्तिमान स्थापित किया। यहाँ अपने स्मृति-सम्पन्न रेशे-रेशे को उभार देने वाले जीवन्त लेखन के लिए सिद्ध-प्रसिद्ध । वाणी में मुखरता और प्रखरता के धनी। लेखन और वाचन दोनों में खरापन। मान्यतागत दृढ़ता और पक्षधरता के बावजूद अपने सौहार्द-संबंध में अत्यन्त उदार एवं सदाशय ।
कान्ति कुमार जैन को कविता की परख की अच्छी समझ रही है। उनमें कविता के अर्थगह्वर में प्रवेश करने की क्षमता है। इसका पता मुझे तब चला जब मैं उन्नीसवीं शती के अंतिम दशक में कान्ति कुमार जैन के यहां ‘एक भारतीय आत्मा‘ पर आयोजित संगोष्ठी में गया था। उसमें त्रिलोचन शास्त्री, धनंजय वर्मा आदि भी सम्मिलित हुए थे। उसमें मैंने ‘पुष्प की अभिलाषा‘ पर अपना पत्र-वाचन किया था और उसकी काव्यभाषिक संरचना की युक्तियों से उसकी निहितार्थता को उद्घाटित किया था।
उसी संदर्भ में उनके आवास पर चाय पीते हुए ‘कैदी और कोमिला‘ की कुछ आन्तर्हित विशेषताओं की चर्चा की थी। इस पर उन्होंने तुरन्त पाठ में अन्तर्हित एक ऐसी साभिप्राय विशेषता का उल्लेख कर दिया था, जिसकी और मेरा भी ध्यान नहीं जा सका था। आज सोचता हूँ तो लगता है कि पूर्जनात्मक आलोचना के क्षेत्र में कान्ति कुमार जैन बहुत गहरे जा सकते थे। उनमें भर्तहरि द्वारा निर्दिष्ट वह प्रतिभा विद्यमान थी, पर उसका उपयोग उन्होंने नहीं किया और प्रवृत्ति-परक आलोचना में लगे रहे। बाद में तो उन्होंने आलोचना से अपने-आपको लगभग अलग ही कर लिया और संस्मरण विधा को अपना लिया।
संस्मरण विधा में उनकी श्रेष्ठ और शीर्ष पुस्तक है-‘महागुरु मुक्तिबोध‘। इस पुस्तक में कवि मुक्तिबोध के संस्मरण के साथ-साथ उस समय के मध्य प्रदेश के साहित्यिक परिवेश का भोक्ता और साक्षी भाव से उनके द्वारा किया गया वर्णन-निरूपण और मूल्यांकन तक विद्यमान है। इसमें मुक्तिबोध के घोर अर्थाभाव का, अर्थोपार्जन और आजीविका के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों का प्रत्यक्ष निरूपण भी मिलता है। कान्तिकुमार ने मुक्तिबोध की सबलता के साथ-साथ उनकी दुर्ववता, अहम्मन्यता और प्रतिशोधात्मक प्रवृत्तिा तक का उल्लेख किया है। इसमें मुक्तिबोध का स्पर्धी और दृर्घ्य भाव भी उजागर हो उठा है।
कान्ति कुमार जी के अनुसार कवि उत्तर प्रदेश के एक कवि-सम्मेलन में बिहार के एक गीतकार के द्वारा मंच पर छा जाने के उल्लेख-क्रम में मुक्तिबोध की उस प्रान्तीय भावना को उजागर कर दिया है, जहां मुक्तिबोध मध्य प्रदेश के एक कवि-गीतकार को मंच पर बुलाने के लिए स्लिप भिजवाते हैं और उसके गीत की प्रशंसा और शाबाशी मिलने पर उसके मंच से लौटते ही बिहार के गीतकार को पछाड़ आने का उल्लेख करते हुए उसे वाह-वाही और शाबाशी देते है। इसी प्रकार मुक्तिबोध विश्वंभर नाथ उपाध्याय द्वारा अपने ‘गजानन‘ नाम का ‘गज-गज‘ कह कर उपहास उड़ाये जाने पर अपने निकटस्थ मित्रों को उपाध्याय जी से इसका प्रतिशोध लेने के लिए पत्र लिखते हैं तथा स्वयं उन्हें साहित्यकार के रूप में महत्त्व तक नहीं देते हैं। नरेश मेहता को वह यह कह देते हैं कि यद्यपि उनकी ‘समय देवता‘ कविता की आजकल बहुत चर्चा हो रही है, पर मैं तो इसे कविता ही नहीं मानता हूँ।
मुक्तिबोध ने अपना आर्थिक अभाव स्वयं सर्जित किया था। इसके पीछे उनकी अपनी अहम्मन्यता ही सक्रिय रही थी। वह अपनी माता को बहुत चाहते थे, पर आर्थिक सहायता के लिए उनसे कभी आग्रह नहीं किया। ऐसी थी उनकी ‘गर्वीली गरीबी‘।
कान्ति कुमार ने इस पुस्तक में उस समय की साहित्यिक समनीति का रस लेकर वर्णन किया है। इस संस्मरण-पुस्तक में श्रीकान्त वर्मा का जगह-जगह पर उल्लेख है पर उसके प्रति उनका जो मनोभाव है, वह उन्हें उसके महत्त्व को स्वीकारने नहीं देता है। इसमें हरिशंकर परछाई का सम्मानपूर्ण उल्लेख हुआ है, जिसे वे निश्चय ही ‘डिजर्व करते हैं। हाँ इसमें नेमिचन्द्र जैन और मुक्तिबोध के पारस्परिक नैकट्य और भरोसे का तथा उनसे आर्थिक अपेक्षा रखने तक का तथ्यपरक आत्मीय उल्लेख भी है। शिव कुमार श्रीवास्तव कान्ति कुमार के अनन्य रहे हैं । उनका स्मरण और उल्लेख इसी भाव से किया गया है। कभी वह मुझे उनसे मिलाने उनके घर भी ले गये थे। बाद में वह (सागर विश्वविद्यालय) के कुलपति भी बने। कहना होगा कि उस समय के साहित्यिक परिवेश और उसके सक्रिय क्रिया-कलाप का दस्तावेज है यह संस्मरण-पुस्तक।
इस संस्मरणात्मक पुस्तक में प्रो. जैन ने व्यंग्य और कटाक्ष के इषु (बाण)-व्यापार से अपने प्रतिपक्षियों का वर्म-भेदन और मर्म-छेदन तक कर दिया है। साक्ष्य महिमभट्ट का है। नरेश मेहता के आभिजात्य के कारण उन पर किया गया प्रहार आसुरी आह्लाद का विषय हो सकता है। पर इससे यह नहीं सिद्ध हो पाता है कि नरेश मेहता हिन्दी के एक श्रेष्ठ साहित्यकार नहीं हैं और न ही उनकी सर्जना पर कोई आँच नहीं आ पाती है। कान्ति कुमार अपनी इस पुस्तक में मध्यप्रदेश के तद्कालीन गौण, महत्त्वपूर्ण कवियों का, उनके कवि-कर्म का जेनुइन उल्लेख किया है। उन्हें दृश्य-पटल पर लाकर उन्हें साहित्येतिहास की दृष्टि से ओझल होने से बचा दिया है। तद्कालीन कविता में उन्होंने अपनी ओर से तर्कपूर्वक हिन्दी कविता में दो निकायों (School) की बात की है। एक है अशेय का स्कूल और दूसरा है अज्ञेयेतर कवियों यानी मुक्तिबोध का समकालीन स्कूल। उन्होंने नरेश मेहता की ही तरह अज्ञेय के व्यक्तित्व और कवित्व को नकारा है। पर यह दृष्टि न्यायपूर्ण नहीं है। संस्मरणकार को भी किसी रचनाकार पर अलोचना की तरह निर्णायक टिप्पणी करने के पूर्व, मुक्तिबोध के ही अनुसार, उसके समग्र वाड्मय को पढ़ना चाहिए और तभी उस पर टिप्पणी करनी चाहिए। मुक्तिबोध के ही अनुसार आत्मवादी होने के बाद भी कविता महान होती है- जैसे शैले और प्रसाद का काव्य।
ध्यानीय है कि अज्ञेय आत्मवादी होने के साथ-साथ समष्टिपरक संवेदन और अभिव्यंजन के भी कवि हैं। पर कान्ति कुमार जी के ऐसे लेखन के पीछे कठिनाई यह रही है कि जहाँ उनकी प्रतिभा पक्षधरता को नकारती है, वहीं उनकी पक्षधरता उनकी प्रतिभा को नकार देती है।
प्रो० कान्तिकुमार जैन को यद्यपि मैं बहुत पहले से जानता था, पर मेरा उनसे परिचय आकस्मिक रूप में उज्जैन में आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी के आवास पर हुआ। त्रिपाठी जी ने ही मेरा और उनका परस्पर परिचय कराया। तब जैन साहेब सागर विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर थे। पर मैं जिस कान्ति कुमार जैन को जानता था, वह मध्य प्रदेश के राजकीय महाविद्यालय सेवा में प्रोफेसर थे और मैंने ‘कुरुक्षेत्र पर लिखी उनकी एक आलोचनात्मक पुस्तक पढ़ी थी। यह उनकी आरंभिक पुस्तकों में थी।
इस परिचय के बाद हम एक-दूसरे के निकट हुए। हमारी प्रोफेशनल मित्रता बढ़ी। मुझे उन्होंने लगातार सागर विश्वविद्यालय में अपने पूरे कार्यकाल में बुलाया। चाहे संगोष्ठी का सन्दर्भ हो चाहे पीएच.डी. मौखिकी सम्पन्न कराने का सन्दर्भ । ‘ईसुरी‘ के लिए उन्होंने मुझसे आलेख भी मंगवाया और छापा।
सागर विश्वविद्यालय के तीनों प्रोफेसरों में वे मुझे सर्वाधिक मर्यादित, शालीन और नैतिक व्यक्तित्व से सम्पन्न लगे थे। शेष दो में प्रो. प्रेम शंकर कुठित और बाहर-भीतर में अंतर रखने वाले दुनियादार व्यक्तित्व वाले प्रोफेसर थे। उनमें जितना छद्म था, कान्ति कुमार में उतनी ही स्पष्टता और सहजता है। प्रेम शंकर जितने गैर-ईमानदार और गैर-जिम्मेदार थे, कान्ति कुमार इसके प्रतिकूल हैं। दूसरे प्रोफेसर लक्ष्मी नारायण दुबे तो जुगाडू व्यक्तित्व वाले थे। कान्ति कुमार जी वहाँ कहीं नहीं ठहर पाएँगे। मैंने अमृतसर में 25 से 29 फरवरी 1989 में पाँच दिनों की एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की थी। इसमें देश के अनेक विद्वान पधारे थे। मेरे साथ अपनी प्रतिश्रुति के अनुरूप कान्ति कुमार जैन भी आये थे और अपना महत्त्वपूर्ण पत्र-वाचन किया था।
कान्ति कुमार जी के साथ मेरे संबंध आत्मीय और मधुर रहे हैं। वे अपने कनिष्ठ सुहृदों को स्नेह और सम्मान देना जानते हैं। मुझे अपना अतिथि बनाकर कई बार उन्होंने सपत्नीक आतिथेय की भूमिका भी निभायी है और सागर में मेरे योग-क्षेम का स्वयं वह संवहन किया है।
कान्ति कुमार जी अपनी आँख का ऑपरेशन कराने अमृतसर के नेत्र-रोग के ख्यातिप्राप्त सर्जन डॉ० दिलजीत सिंह के अस्पताल में आने वाले थे और इसकी सूचना मुझे भेजी भी थी, पर उन्हीं-दिनों मैं अपनी प्रतिश्रुति के अनुरूप निश्चित कार्यक्रम में बाहर जा रहा था, और हमारा आरक्षण हो चुका था। अतः मैं रुक नहीं पाया। वे आये। ऑपरेशन कराकर लौट भी गये। दुर्योगवश मैं उनकी मेजमानी नहीं कर सका, जिसका मुझे खेद रहा। उन्होने कम-क्रम से अपनी पुस्तकें मुझे भेजी। इनमें ‘विट्ठलदास मोदी‘, होने का अर्थ इक्कीसवीं शती की हिन्दी और ‘महागुरु मुक्तिबोध: जुम्माक की सीढ़ियों पर‘ के नाम मुझे स्मरण हैं। मेरी दृष्टि में ‘विट्ठलदास मोदी‘ से ही उनका संस्मरण-लेखन आरंभ हो जाता है।
यदि मैं उनके नाम ‘कान्तिकुमार‘- को देरिदा के सिद्धांत से गुजरते हुए डी-कंस्ट्रक्ट (Deconstruct) करूँ, तो मैं उसे ‘क्रान्तिकुमार‘ कर दूंगा। ‘क्रान्तिकुमार‘ बनकर वह अपनी इस व्यक्तिवाची संज्ञा को सार्थकता दे देते हैं। संस्मरण के क्षेत्र में क्रान्ति कर अपने-आपको उसे स्मृत्यालोचन तक बना देने वाले सर्जक सिद्ध कर देते हैं। वे मिल (MILL) के उस कथन- ‘Proper names are not connotative‘ को खंडित कर अपने नाम को गुणात्मक सार्थकता दे देते हैं। इस तरह वह इस विधा को चमका देते है- अपने ‘कान्ति कुमार‘ नाम से।
कान्ति कुमार ने हिन्दी संस्मरण को ऊँचाई और परिपक्वता प्रदान की है। अभिव्यंजना की सफगोई के साथ भाषा को नये-नये तेवर भी दिये हैं। उनके संस्मरणों में तथ्यों के उपस्थापन के साथ-साथ तत्वों का उद्घाटन भी हुआ है। उनके संस्मरणों में संस्मरणकार की सर्जक दृष्टि सर्वत्र सक्रिय है। उनके पर्यवेक्षण में व्यापकता और गहनता- दोनों विद्यमान हैं। साथ ही उन्होंने अपने संस्मरण-लेखन को मार्बिड होने से बचाया है। संस्मरण को स्मृत्यालोचन बना देने का श्रेय और प्रेय दोनों उन्हें प्राप्त है।
पाण्डेय शशिभूषण ‘शीतांशु', मो० 09878647468
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