साहित्य नंदिनी आवरण पृष्ठ 2
देहाती दुनिया
शिवपूजन सहाय जी की कलम से
इस पुस्तक के जीवन के साथ एक छोटा-सा इतिहास लगा हुआ है।
बात ऐसी हुई कि मैंने आज तक जितनी पुस्तकें लिखीं, उनकी भाषा अत्यंत कृत्रिम, जटिल, आडंबरपूर्ण, अस्वाभाविक और अलंकारयुक्त हो गई। उनसे मेरे शिक्षित मित्रों को तो संतोष हुआ, पर मेरे देहाती मित्रों का मनोरंजन कुछ भी न हुआ। देहाती मित्रों ने यह उलाहना दिया कि तुम्हारी एक भी पुस्तक हम लोगों की समझ में नहीं आती-क्या तुम कोई ऐसी पुस्तक नहीं लिख सकते, जिसके पढ़ने में हम लोगों का दिल लगे?
मैंने उसी समय अपने मन में यह बात ठान ली कि ठेठ देहाती मित्रों के लिये एक पुस्तक अवश्य लिखूगा। यह पुस्तक उसी का परिणाम है!
मुझे यह स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं है कि उपन्यास लिखने की शैली से मैं बिल्कुल अनभिज्ञ हूँ। फिर भी मैंने जान-बूझकर इतना बड़ा अपराध कर ही डाला; इसलिए क्षमा-प्रार्थना करने का साहस तो बिल्कुल न रहा-जो दंड मिलेगा, सिर चढ़ाऊँगा; क्योंकि इस पुस्तक के लिखते समय मैंने साहित्य-हितैषी सहृदय समालोचकों के आतंक को जबरदस्ती ताक पर रख दिया था। यदि मैं ऐसा न करता, तो अपनी ही अयोग्यता के आतंक से इतना त्रस्त हो जाता कि इस रूप में यह पुस्तक कभी नहीं लिख सकता।
जो सज्जन इस पुस्तक में किसी प्रकार का आदर्श चरित्र-चित्रण अथवा गंभीर विचार ढूँढेंगे वे सर्वथा हताश होंगे, और मेरी अनधिकार चेष्टा पर तिरस्कार की हँसी भी हँसेंगे; पर मैं इस पुस्तक के लिखने का उद्देश्य पहले ही बता चुका हूँ।
मैं ऐसी ठेठ देहात का रहनेवाला हूँ, जहाँ इस युग की नई सभ्यता का बहुत ही धुंधला प्रकाश पहुंचा है। वहाँ केवल दो ही चीजें प्रत्यक्ष देखने में आती हैंअज्ञानता का घोर अंधकार और दरिद्रता का तांडव नृत्य! वहीं पर मैंने स्वयं जो कुछ देखा-सुना है, उसे यथाशक्ति ज्यों-का-त्यों इसमें अंकित कर दिया है। इसका एक शब्द भी मेरे दिमाग की खास उपज या मेरी मौलिक कल्पना नहीं है। यहाँ तक कि भाषा का प्रवाह भी मैंने ठीक वैसा ही रखा है, जैसा ठेठ देहातियों के मुख से सुना देहाती दुनिया के प्रथम संस्करण की भूमिका का मुख्यांश है। अपने व्यक्तिगत अनुभव के बल पर मैं इतना निस्संकोच कह सकता हूँ कि देहाती लोग आपस की बातचीत में जितने मुहावरों और कहावतों का प्रयोग करते हैं, उतने तो क्या, उसका चतुर्थांश भी हम पढे-लिखे लोग नहीं करते। इस पुस्तक के किसी-किसी प्रकरण से यह बात स्पष्ट मालूम हो जायगी।
इस उपन्यास के जीवन के साथ लगे हुए उपर्युक्त इतिहास का उत्तरार्द्ध अभी बाकी है। पहले इसका कुछ अंश कलकत्ते के एक विद्वान् प्रकाशक के यहाँ छप चुका था। उसके बाद ही सुप्रसिद्ध ‘मतवाला’ निकलने लगा। फिर मुझे अवकाश ही नहीं मिला कि आगे लिखू। जब मैं वहाँ से लखनऊ के ‘माधुरी’ कार्यालय में गया, तब अवकाश के समय लिखने लगा। पर वहाँ जो कुछ लिखा, सब वहीं के दंगे में खो दिया। इस प्रकार आधा से अधिक और इसका सबसे अच्छा अंश हाथ से निकल गया। यदि वह अंश भी छप गया होता तो इससे दुगुने आकार की पुस्तक होती, और पाठकों को भी कुछ मजा मिलता। खैर, लखनऊ के दंगे के बाद जब मैं कलकत्ते गया, तब फिर श्मतवालेश् के नशे में चूर हो गया, और इसी बीच में उक्त प्रकाशक ने भी अपना काम-धाम बंद कर दिया! मैं हताश और हतोत्साह हो गया। तब तक ईश्वर की शुभ प्रेरणा से उसी निराशा के समय में अनायास मेरे प्रिय मित्र पं. रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी (‘बालक’-संपादक) कलकत्ते पहुँच गये। उन्होंने ही इसका भी उद्धार करा दिया। फलतः मैं काशीश्वर विश्वनाथ की शरण में आकर पहले के छपे हुए अंश के बाद का हिस्सा लिखने लगा, और शुरू से पुस्तक छपने लगी। पर दुबारा लिखते समय, न वह उत्साह रहा, न वह साहस, न वह धैर्य-और सच पूछिए तो प्रतिभा निगोड़ी भी ठेल-गाड़ी बन गई। किसी तरह संक्षेप में ही रस्म को पूरा करना पड़ा। जो कुछ बन पड़ा-भला या बुरा, आपके सामने है-अपनाइये या ठुकराइये। मैंने यश या प्रोत्साहन प्राप्त करने के लिये यह पुस्तक नहीं लिखी है, लिखी है केवल ‘स्वांतः सुखाय’।
अंत में महाकवि भवभूति के श्मालती-माधवश् से यही एक उपयुक्त श्लोक उद्धृत करके अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ
ये नाम केचिदिह न प्रथयंत्यवज्ञां /जानन्ति ते किमपि तान्प्रतिनैष यत्नः /उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा / कालोह्यहं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी।
उनवाँस, इटाढ़ी, शाहाबाद (बिहार) श्री रामनवमी, वि.सं. 1983 (1926 ई.)