अभाव का आनंद

     उपेन्द्र मिश्र


 


याद आता है


गरीबी का वह सुख


जब भीषण बरसात से बचने के लिए


सिमट जाता था पूरा परिवार


एक जगह


टूटी हुई झोपड़ी में


और एक-दूसरे की ओर देखकर


मुस्कराता रहता था


अपनत्व की ऊष्मा से


 


आज पैसा है


सम्मान है


आलीशान मकान है


लेकिन


अगर कुछ नहीं है


तो वह है अपनेपन की गरमाहट


होठों पर हँसी


और अभाव में भी खुश रहने का वह हौसला


 


अब सबके अपने


अलग-अलग कमरे हैं


रहने के अलग-अलग ढंग है


अलग-अलग दिनचर्या है


यह अलग-अलग होना


इस तरह बन गया है जीवन का हिस्सा


कि कहने को तो एक परिवार है


लेकिन आपस में अब बातचीत


होती है फोन से


हम तय नहीं कर पाते हैं


एक कमरे से दूसरे कमरे की दूरी


सारे संबंधों को


अब निभा रहा है


हमारा मोबाइल फोन


 


आजकल के स्मार्ट बच्चों में


खोजने की कोशिश करता हूँ


अपने बचपन को


ढिबरी की धुंधवाती रोशनी में


झूम-झूमकर याद करते


जीवन के ककहरे को


याद आती है वह दवात


उसमें घोली जाने वाली दुधिया


नरकट की कलम


और वह पटरी


उस पर कालिख पोतना


उसे मठकर चमकाना


धागे से सलाखना


फिर बोरे पर बैठकर


लिखना


सफलता के मंत्र


 


अब हो जाता हूँ निराश


यह देखकर


कि प्रगति और पैसों ने


हमसे छीन लिया है


हमारा बचपन


सादगी


सहजता


आत्मीयता


अनगढ़ प्रेम


हँसते-हँसते कठिनाइयों को हरा देने का हुनर


त्याग


सहनशीलता


परिवार का बोध


और संबंधों की सजीवता


 


संपन्नता के तनाव के बीच


याद आता है


अभाव का वह आनंद।


 


नई दिल्ली, मो. 9350899583
umishra668@gmail.com


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