अभिनव इमरोज आवरण पृष्ठ 3


पर्यावरण, चाय, मजदूर, व करोना


नार्थ-इस्ट के सात राज्यों में असम को छोड़कर बाकी सभी राज्य पहाड़ी हैं। अपने भौगोलिक अवस्थान के कारण असम सभी राज्यों से घिरा हुआ समतली राज्य है जो चाय की खेती के लिए सर्वथा अनुकूल है। चाय की अच्छी पैदावार के लिए जिस प्रकार के पर्यावरण की आवश्यकता है, असम उसमें भी सबसे अग्रणी है। शायद इसलिए अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को चाय की खेती के लिए चुना और उनका यह चुनाव सही निकला।


असम में चाय की खेती की शुरुआत सन् 1839 के आसपास हुई जब अंग्रेज साहब राबर्ट ब्रुश ने असम के ज़मींदार मणिराम देवान के साथ मिलकर यहाँ इस खेती की शुरुआत की। मणिराम एक अच्छे व इमानदार किसान थे। उन्होंने चिनामारा व चाबुआ नामक दो चाय बागानों की स्थापना की। बाद में पूरे असम में चाय की खेती होने लगी। अंग्रेजों के लालच के चलते मणिराम की उनसे नहीं बनी। उन्होंने विद्रोह किया और सिपाही विद्रोह में योगदान दिया, जिसके कारण उन्हें फाँसी दे दी गई।


खैर, असम में चाय की खेती चल निकली और धीरे-धीरे चाय असम की एक पहचान बन गई। आज भी पूरे देश का 51 प्रतिशत चाय असम की ही हैं। असम की चाय विदेशों में भी निर्यात होती है। इसका मूल्य न्यूनतम 100 रुपये से लेकर 50,000 हज़ार प्रति किलो हो सकती है। चाय के इस मूल्य को सुनकर पाठक चौंक भी सकते हैं मगर यह सर्वथा सत्य है। दरअसल चाय की कई किस्में पाई जाती हैं। जैसे- पीली चाय की कई किस्में पाईं जाती हैं। जैसे- पीली चाय, सफेद चाय, हरी चाय, काली चाय, ओलोंग चाय आदि। काली चाय की भी दो किस्में हैं- सी.टी.सी व आर्थोडाक्स। इन सब को बनाने की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न है जिससे इनका मूल्य तय होता है। देश में ज्यादातर सी.टी.सी. चाय की ही बिक्री होती है जिसका मूल्य औसतन-200-500 रुपये प्रति किलो ही होता है।


चाय का पर्यावरण के साथ बहुत ही गहरा नाता है। असम के पर्यावरण का अच्छा होना बहुत हद तक चाय की खेती के कारण ही है। चाय की खेती बहुत बड़े इलाके में की जाती है। असम में लगभग 800 छोटे व बड़े चाय बागान है। इस विशाल क्षेत्र में फैले चाय के पौधों को बचाए रखने के लिए बड़े छायादार वृक्षों की आवश्यकता होती है। और यह अनिवार्यता ही पर्यावरण को अनुकूल बनाए रखने में मददगार होती है। एक समान कटे चाय के पौधों की क्यारियाँ न सिर्फ धरती पर हरियाली का कालीन बिछा देती हैं बल्कि कई प्रकार के पंक्षियों, तितलियों एवं जानवरों को भी पनाहगाह देती हैं।


इतने विशाल उपक्रम को बचाए रखने के लिए मजदूरों की आवश्यकता है। इस बात को समझते हुए अंग्रेजों ने इस वीरान जंगली क्षेत्र में भारत के विभिन्न प्रांतों, जैसे-बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल आदि से मजदूरों को लाया और बसाया। वही मजदूर पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन चाय बागानों में कार्यरत हैं और इन्हें सींचपाल रहे हैं। लेकिन वक़्त के साथ इनमें बदलाव भी आया है। चाय की घटती लोकप्रियता, चाय, कंपनियों के निजी स्वार्थ तथा बदलती प्राथमिकताओं के चलते सैकड़ों चाय बागान बंद हो गए। जिनमें बसे मजदूरों की रोजी रोटी के लाले पड़ गए और वे अन्यत्र पलायन या कहें माइग्रेट करने को मजबूर हो गए। यही वजह है कि मजदूरों से समृद्ध चाय बागान आज मजदूरों की किल्लतें झेल रहे हैं और मानव संसाधन की जगह मशीनों का इस्तेमाल करने पर मजबूर हो रहे हैं। इधर असम के मजदूर आज बंगलोर, हैदराबाद, चेन्नई, मुम्बई, दिल्ली, सूरत, गुड़गांव आदि बड़े शहरों में काम कर रहे हैं। यह उन चाय मजदूरों की नई पीढ़ी है जो थोड़ी महत्वाकांक्षी है और बेहतर जिंदगी की तलाश में है। इनके जिंदगी में कोरोना जैसे महामारी, त्रासदी का आना किसी भूचाल से कम नहीं है। कोरोना ने इनके स्वाभाविक दिनचर्या को हिलाकर रख दिया है। ये वापस अपने घरों की ओर लौट रहे है। लाकडाउन के खुलते ही हज़ारों की तादात में मजदूर जो अब तक बाहर थे- वापस लौट रहे हैं और दोबारा बाहर न जाने की कसमें खा रहे हैं। यह खबर मजदूरों के लिए सही हो न हो, चाय कम्पनियों के लिए स्वस्तिदायक है। क्योंकि चाय बागानों में काम पुनः पटरी पर है। चाय पीने से रोग से लड़ने की क्षमता यानी इम्युनिटी बढ़ती है- इस खबर के चलते या फिर जो भी कारण हो, फिलहाल अच्छी चाय की अच्छी कीमतें भी मिलने लगी हैं। और लम्बी लाकडाउन के चलते पर्यावरण भी साफ-स्वच्छ हो चुका है।


सीमा सिंह राय, सिलचर, असम


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य