ग़ुलाम

    कैलाश आह्लुवालिया


निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ कि कहने लगा हूँ तो तुम्हारी बात कहूं कि अपनी। तुम्हारी कहने लगूं तो जाने क्या क्या कह जाऊं। पहले ही कितना कुछ कह चुका हूं। तुम्हारे साथ लिबर्टी लेते हुये मैं कई बार तुम से पूछे बिना ही तुम्हारी कहानियों के शीर्षक बदल देता था। यहां तक कि किसी किसी कहानी की अंतिम पंक्तियां भी।


तुम्हारी एक नायिका थी जो आज़ाद होना चाहती थी। वह दीवार फांदती है। दूसरी तरफ गिर कर बेहोश हो जाती है। और अस्पताल पहुंचते पहुंचते दम तोड़ती है। तुम्हारी कहानी का यही अंतिम दृश्य था। मैंने तुम्हारा मंतव्य जान लिया था। तुम नायिका को हर हालात में स्वच्छंद कर देना चाहती थी।


तो असल मुद्दा था आज़ादी, स्वतंत्रता, फ्रीडम। कड़े अनुशासन से निजात। मैंने तुम्हारी नायिका को आज़ादी एक और ढंग से दिलवा दी। वह दीवार फांदती ज़रूर है पर उसे कोई चोट नहीं लगती। उेस लगता है कि फूलों की सेज पर गिरी है। वह फौरन उठ कर भागती है और दीवार से दूर चली जाती है। शायद वह यही चाहती थीं और तुम भी तो यही चाहती थी। तुम स्वतंत्रता की दीवानी रही हो। अंधेरे बंद कमरों की घुटन तुम्हें भी पसंद न थी। रेडियो सुनती थी तो एकाध गीत या ग़ज़ल सुन कर ही अघा जाती थी। और बालकनी में आ कर खुली हवा में सांस लेना, देर तक वहीं खड़े रहना, उस पार के झिल-मिल संसार को देखना तुम्हें बेहद अच्छा लगता था। यदि मैं तुम्हारी इस कहानी को लिखता तो तुम्हारी नायिका को अस्तपताल में दम तोड़ते न दिखाता। और मेरे बस में यदि यह होता तो तुम्हारी नायिका की तरह तुम्हें भी स्वतंत्र कर देता।


अब देखो मैं तुम्हारी ही बात करने लगा। ऐसे सब गड़मड हो जाता है। डरता हूँ कि तुम यह न कहने लग जाओ कि मैंने तुम्हें अपमानित किया। तब तुम ने कैसे बिना सोचे यह कह दिया था- यह सब नहीं जानता। उसी क़यास से डरता हूँ। कहते हैं न, दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है।


परयूं आज तुम्हारे बारे में पहले ही से कितना कुछ नुमायां है। फिर भी मैं कोशिश करूंगा कि अपनी ही बात अधिक कहूं।


मैं पिछले कई दिनों से अस्तपताल में हूँ एक सरजरी के सिलसिले में। मेरे इर्दगिर्द इस विशाल भवन का आतंक भरा वातावरण हैं कितने कारिडर्ज, कितने लिफ्ट, और कितने मालों के पार, यह कमरा न. 1343, बहुत मन चाहता है कालिज के उन दिनों का उस एक फंतासी को एक बार फिर से जीने का-कि दूर पहाड़ और पहाड़ के एकांत कोने में सटे  सैनिटोरियम में लाचार पड़ा हूँ। नितान्त अकेला। सम्पर्क सूत्र हैं- दो एक चिकित्सक, तीन चार, नर्से, और एक समाचार पत्र जो देस विदेस की ढेरों खबरें, चिकित्सकों, नर्सों और अन्य कर्मचारियों के मध्य बातचीत और परस्पर बहस का विषयबनी रहती हैं।


जोरों की ठंड, वैसी ही जैसी तब हमारे आसपास होती थी। तुम ठिठुरती हुई, बरफ से ढंकी सीढ़ियों पर मेरी प्रतीक्षा करती थीं। गुलनारी कोट घुटनों से नीचे तक लम्बा और गले में मफलर बिंदास भाव। टिकटिकी बांधे आंखें। और बरफ का बारिश की हल्की फुहार सा बूर बूर गिरना। घरों की छतें बरफ की तहों के नीचे। देवदार बरफ के भार से झुके हुये। बुरांस के लाल फूल सफेद बरफ के लिहाफ में लिपटे हुये। और कुनमुनाती, चहचहाती असंख्य चिड़ियां।


उन दिनों तुम्हें भी मैं बरफ की चिड़िया कहा करता था। जो मेरे मानस के पेड़ की एक अकेली शाख़ पर आ बैठती थी। कभी पंखों से बरफ झाड़ती हुई। कभी बरफ को निवाला निवाला कुतरती हुई। बरफ का फर्श एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैला हुआ। बरफ का एक दसतरखान बिछ जाता। बरफ के खूबसूरत खिलौने। बरफ की झालरदार खिड़कियां। बरफ के दरवाजे़ और तुम। खिड़कियों का ज़िक्र आया तो यह खिड़की। अस्पताल को खोलती हुई सी मैं उठ कर बाहर झांक नहीं सकता। पर कुछ दिन आप्रेरशन से पहले बाहर के दृश्य देखता था। राजेंदर नगर, उड़ते हुए जहाज़ और आसपास फैले वन सरीखे भूखण्ड, औलिया की दरगाह, खुसरों की धीमी धीमी आवाज़। मुझे याद आने लगा है कालिज का लाॅन। हरी घास। तुम हरी घास पर अपनी सहेलियों के साथ बैठी हो। धीमी धीमी गुनगुनाहट, सहेलियां एक दम ग़ायब हो जाती है। कालेज के कारिडर सीढ़ियां और दीवारे ग़ायब होने लगती है। तुम गा रही हो- ग़म दिये मुस्तकिल, इतना नाजुक है दिल। दिल चाह रहा है कि तुम बार बार इसी पंक्ति को दुहराती रहो। तुम जितनी बार दुहराती हो वह और सघन और अर्थवान हो कर भीतर को छूने लगती है। भीतर के भूखण्ड, हिमखण्ड घुलने लगते हैं।


मैंने अपने आप से वायदा किया था कि तुम्हारी बात नहीं करूंगा। इस से निस्संदेह मन हल्का होने लगेगा। जो मैं नहीं चाहता सहमी सहमी हवा। नर्सों का आना जाना। सर, यह दवा। सर, यह इन्जैक्शन। अब थोड़ी सी एक्सरसाईज़। थोड़ा वाकर के साथ चुस्त स्मार्ट वार्ड कर्मचारी। एक दो बार छोटे बड़े डाक्टरों का आना जाना। डा. नागी हौसला बंधाते हैं- खूब पक्का कर दिया। बस एक हफ़्ता के बाद ही बिना वाकर के चलने लगोगे।


हिमपात हो रहा है रूई के फाहों की तरह। आसपास के घर की लाल हरी छतें समरंग हुई जा रही हैं। तुम द्वार खटखटाती हो। मैं द्वार खोलता हूँ। बिंडचीटर में भी ठिठुर रही हो तुम। मैं इधर उधर देखता हूँ। मेरे पास तपने तपाने के लिये कुछ नहीं हैं प्रभात मार्का एक पुराना घासलेटी स्टोब है जिसे मैं ठीक से जला भी नहीं पाता हूँ। कई तिलियां फूंक डालता हूं पर यह है कि आग पकड़ ही नहीं पा रहा। किसी वक़्त तो सूई से इसकी नाव को हल्के से छूने से  भभक उठता है। पर आज इसने भी ज़िद पकड़ ली है। और फिर अकस्मात धार धार तेल फव्वारे की तरह सारे स्टोब पर फैल जाता है। और भड़ भड़ आग जलने लगती है। मैं डर के मारे नाव ढीली कर देता हूं। आग बुझ जाती है। अब क्या करूं? इसी के साथ इक आस बंधी थी कि तुम्हें गर्म गर्म चाय पिलाऊंगा। दो कप भर बन जाते तो एक कप तुम्हें पिलाता, एक मैं पीता। तुम्हारी सर्दी कुछ कम होती। पर यह संभव नहीं है। कुदरत को भी शायद यह मन्जूर नहीं। पर अच्छा हुआ। दूध तो था ही नहीं। और इस बर्फवारी में दूध कहाँ से लाता। मैंने स्टोब की तरफ शुक्रगुज़ारी की नज़र से देखा।


अब तक तुम कमरे के भीतर आ जाती हो। कमरा क्या है। आठ फुट लंबा और सात फुट चौड़ा। न ढंग से बैठने की जगह बन पाती है, न ठीक से चारपाई सटाई जा सकती है। पिछले सप्ताह सोच विचार कर बैंत के दो मूड़े ले आया था। मूढ़े तो सुंदर है पर इन्हें रखूं किस दिशा में- यह आज तक सोचता रहा हूँ।


कहाँ रखूं? चारपाई के पास ? पर वहां जगह ही कितनी बचती है? तो क्या चारपाई से दूर लंबाई में ? तब बैठने जैसी जगह का आभास नहीं होगा।


मूढें एक दूसरे पर सटे मेरे निर्णय का इंतज़ार कर रहे थे। कमरे की दीवारों पर चूने की अपेक्षा कोयले का रंग पुता दिखाई देता है। मकान मालिक से कई बार प्रार्थना की सर कम से कम एक डिब्बा भर तो चूना पुतवा दो। पर उसके तो कान पर जूं तक नहीं रेंगती। तुम्हें अपने पास चारपाइ पर बिठा लेता हूँ। तुम पास बिल्कुल पास बैठ जाती हो। कम्बल का एक कोना तुम्हारी तरफ सरका देता हूँ। तुम्हारी तरफ देखता हूँ। तुम्हारे चेहरे पर मुझे बरफ की परत जमी नज़र आती है। मैं तुम्हारे हाथों को अपने हाथों में लेकर धीरे से सहलाने लगता हूँ। कितनी अद्भुत बात है कि चार ठिठुरते हाथ हरारत पैदा करते हैं। तुम्हारी आँखें डबडबा जाती हैं।


तुम बोलने लगती हो जैसे रात भर से बंद पानी का नल भभक के साथ ख़ुल गया हो। तुम बोली-


‘‘तुम्हें कहा था न। इतनी जल्दी फैसला लेने की क्या ज़रूरत थी। मैं जानती थी तुम से यह नहीं होगा। और नहीं होगा तो तुम मेरे बारे में क्या फैसला ले सकते हो। वहां तुम भले चंगे थे। यहां तुम्हारे इस छोटे से कमरे की हालत कभी सुधरने की नहीं। तुम नहीं माने तो भुगतो अब। अब मैं जान गई हूँ। तुम्हारा कुछ नहीं होने वाला।


मैं स्तब्ध, फिर बोला-


‘‘तो क्या करता? वहीं पड़ा रहता ? वहीं टूटता रहता धीरे-धीरे ? ’’


‘‘यहाँ कुछ अच्छा हो रहा है क्या ? वहीं रह जाते। धीरज भी कोई चीज़ होती है। पर नहीं, तीस मार खां हो न। अब रहो इसी स्याही में। इस अंधेरे में सूरज के सपने देखो।’’


यह उपालंभ है कि नाराज़गी ? या सिर्फ प्यार ? कन्सर्न ?


कुछ समझ में नहीं आया तो बोला-


‘‘मैंने तुम से तो कुछ नहीं कहा। कोई शिकायत न शिकवा। तुम्हें साथ चलने के लिये भी नहीं कहा। न यह चाहा कि तुम मेरे प्रति हमदर्दी जताओ। फिर क्यों चली आई इस भारी बर्फबारी में भी। तुम चीड़वन की चिड़िया। हमेशा आज़ाद रहने वाली। कैसे अपने को पंखकटी अवस्था में घिरा देख सकती हो।’’


तुम ने लम्बी सांस भरी। बोली - ‘‘तुम्हारी यही बातें समझ में नहीं आतीं। यही हठ तुम्हारा।’’


‘‘स्थितियां बदलती हैं। पर तुम नहीं। इन्सान कई कुछ चाहा अनचाहा कह जाता है। आवेश में होता है तो पता नहीं चलता। तुम एक बात को लेकर अड़े हो। अंगद का पांव हो जैसे।’’


लगा कि उसे पछतावा है। और कि वह अब समझौते के मूड में हो।


मैं कहता हूँ - तो क्या करूं ? क्या करता मैं?


तुम चुप रहती हो। तुम्हारी आंखों में काले भूरे बादल घिर आये हैं।


जान लेता हूँ कि कुछ नहीं कहोगी।


मैं एक सिगरिट जला देता हूँ।


एक बुझा कर दूसरी जला लेता हूँ।


तुम कुछ नहीं बोलती हो।


तुम्हें सताना अच्छा लगता था।


अच्छा इस लिये लगता था कि तुम खीझ जाती थी।


और फिर उन दिनों सिगरिट पीना बहुत रोमैंटिक लगता था। और विशेष कर तुम्हारे सामने। तुम्हें खिझाने चिढ़ाने में मज़ा आता था। तुम तड़प उठती थी। और पैर पटकती वहां से चली जाती थी। फिर कई दिनों तक दिखाई नहीं देती थी। मुझे देख कर रास्ता बदल लेती थी।


पर इस समय सिगरिट मेरी जरूरत थी।


मुझे लग रहा है कि मैं कठमूल्ला बांस हो गया हूं। मुझ में जिंदगी के आखरी मौसम के आखरी फूल खिल आये हों। कहते हैं बांस में फूल आ जायें तो वह बांझ हो जाता है। ठूंठ हो गये बांस से किसी को क्या वास्ता। एक दम निक्कमा। किसी काम का नहीं। बूढ़ा कठमूल्ला बांस।


तुम चली गई तो फिर कई दिन तक नहीं आई।


फिर एक दिन अचानक कैंटीन में मिल गई। और ऐसे मिली कि जैसे हम दोनों के बीच कुछ घटा ही न हो।


‘‘तुम?’’ मैंने अचम्भित हो कर पूछा।


उसने सिर हिलाया जिसका मतलब था- हां।


अच्छी बात है। तुम भूल गई हो तो मैं ही क्यों कुछ याद रखूं। वैसे भी मन मुटाव तो होता ही रहता है। और उस जगह तो और अधिक जहां अपनापन हो। एक दूसरे के लिये आदरभाव या अधिकार भाव हो। सोच कर, और उसे देख विभोर हो उठता हूँ।


‘‘बोलो तुम पर क्या न्यौछावर करूं?’’


मैं अचानक तुम्हारा बाजू थाम तुम से कहता हूँ।


‘‘कुछ ज़्यादा नहीं।’’ तुम दबी दबी हंसी में कहती हो।


‘‘बस एक कप चाय पिला दो।’’


तुम्हारे चेहरे पर अद्भुत खिलन देखता हूँ।


दो ही प्याली जितने पैसे थे मेरी जेब में। मैं जेब में टटोलते हुये उन्हें भीतर ही भीतर गिन लेता हूँ।


हम दोनों चाय पीते हैं। कुछ दिन पहले की कोई बात नहीं। न कोई कड़वाहट और न ही कोई संदर्भ। न कोई याद।


सिर्फ गर्म गर्म चाय। भाप के छोटे छोटे बादल दोनों के आस पास आवारगी से उड़ते रहते हैं।


और मैं सोचता हूँ-


‘‘तुम्हारी कहानी का वही तुम्हारे वाला अंत ही सही था। तुम जिस तरह से नायिका को स्वतंत्र देखना चाहती थी, वही ठीक था। मरे बिना अवतार नहीं होता।’’


पर कोई स्वतंत्र कैसे हो सकता है? कहां होता है कोई स्वतंत्र। मैं हुआ क्या ? और तुम भी हुई क्या ? और तुम्हारी वह नायिका ही आज़ाद हुई क्या ?


एक दूसरे के आस्मानों में उसी तरह चक्कर काटते रहते हैं। और एक दूसरे से स्वतंत्र हो जाने के उपक्रम में एक दूसरे के ग़ुलाम बने रहते हैं।


मो. 9888072599


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