कलम की कहानी
डा. निर्मल सुन्दर, वसन्त कुंज, नई दिल्ली, मो. 9910778185
कलम की आँख से
बह रही थी अश्रुधारा
सुबक-सुबक कर
कहने लगी-
मैंने रचे थे वेद, उपनिषद
गीता और रामायण
कल्पना की थी
सुन्दर समाज की
कल्याण की पथ प्रदर्शन की।
ऋषियों की साधना से
निःसृत आसव पी कर
पथ बतलाया थ
त्याग, सत्य, अहिंसा का।
हाय! यह क्या हो गया?
भय से सब को
वशीभूत कर लिया है।
सन्तोष को दबा कर
डर ने आतंक के
पंख खोल लिये हैं
सभी भयभीत है
आतंकित है
कांप रहे हैं थर-थर।
इन सब को लिखने से पहले
मैं टूट क्यों न गई?
पर, मुझे तो लिखना है
उठाना भी है इन सब को
मेरी नियति ही यही है।
कुछ मुझे सरस्वती कहते हैं
मेरे श्वेत-धवल
विचारों में
कोई दाग़ न लग जाये
इसीलिये मुझे चलना होगा
निष्पक्ष होकर
जाति, धर्म, छोड़
ऊँचा उठना होगा
स्वतंत्र हो कर
सत्य कहना होगा
निर्भीकता मेरी आत्मा है
यही सन्देश सदा
देते रहना होगा।
हाँ! यह सत्य है-
मैंने ही लिखा था महाभारत
विकास और विनाश की
चरम सीमा
समाप्त हो गया था सब कुछ
विध्वंस ही विध्वंस।
क्योंकि-
मूल्य गिर रहे थे
हनन हो रहा था सत्य का।
मर्यादाएं टूट रही थीं
त्याग और अहिंसा को
दबा दिया गया था।
उस समय भी मैं
बहुत रोई
पर मुझे तो
लिखना था सत्य
आज भी मैं तड़प रही हूँ
विवश हो रही हूँ लिखने को
असहिष्णुता, बलात्कार
अमर्यादा समाज की।