लेखन वास्तव में एक तपस्या है।


साक्षात्कारकर्ता- डॉ. जगदीश भगत, प्रवक्ता, हिन्दी विभाग, विश्व भारती विश्वविद्यालय, बीरभूम (पं. बं.)
मो. 9434221015


डॉ. जगदीश भगत- आपको लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली? कृपया अपनी प्रारम्भिक रचनाओं के विषय में बताएं?


डॉ. विवेकी राय जी- लिखने की प्रेरणा मुझे किसी व्यक्ति विशेष से नहीं मिली। वह लिखित-साहित्य से मिली। बचपन में ही पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों से प्रेम हो गया था। यह प्रेम कैसे हुआ नहीं मालूम। पर जैसे भी हो, कहीं से भी हो, मैं खोज -खोज कर पठनीय चीजें पढ़ा करता था, विशेषकर 'कहानियों' को। यही लेखन के प्रेरणा स्रोत रहे।


लेखन का आरम्भ कविताओं से हुआ। उसमें मुझे सरलता प्रतीत होती थी। गद्य मेरे लिए आरम्भ में दुःसाध्य प्रतीत होता था। ऐसा लगता था कि मैं गद्य नहीं लिख सकता जबकि भीतर से इसके लिए बहुत छटपटाहट थी। इससे संबंधित दो पत्र ‘पत्रों की छांव' में प्रकाशित हैं। इसमें एक पत्र है 'सद्गुरु शरण अवस्थी' का तो दूसरा है 'आचार्य श्री राम शर्मा' का। मैंने अपनी 'छटपटाहट' को पत्रों के माध्यम से इन महानुभावों के सामने रखा था उनके उत्तरों (पत्रोत्तरों) ने मुझे बहुत प्रेरित और प्रोत्साहित किया था।


जब मैं अभी मिडिल स्कूल का विद्यार्थी था तभी से कविताएँ लिखने लगा था। तब कविता और जीवन के सम्बन्ध में कुछ खास जनता नहीं था। संभवतः अज्ञात मन में इस प्रकार के कुछ प्रेरक तत्त्व थे जो मेरी कविताओं को चिन्तन प्रधान बना रहे थे। उस समय की कविताओं की कुछ स्मृति तो नहीं है पर इतना तो मैं आपको जरुर बता दें कि मैंने पहली बार जब कक्षा छः का विद्यार्थी था उस समय 'दो दोहों' की रचना की थी। वह अब याद नहीं पर उन दोहों की रचना के बाद मुझे अभूतपूर्व संतोष मिला था। रचना का संदर्भ भी आपको बता दूं-उन दिनों बारातों में शास्त्रार्थ हुआ करता था। मेरे गाँव में शास्त्रार्थ करने वाले पण्डित जी का नाम था-पंडित हरतीर्थ पाण्डेय। वे अपने शास्त्रार्थ की शुरुआत मुझसे प्रश्न पुछवाकर प्रारम्भ करते थे। ऐसे ही एक बारात में मेरे द्वारा उनका प्रश्न था- “हिन्दी साहित्य में पहले गद्य की रचना हुई या पद्य की?" और इसी के उत्तर में मैं ने वह दोहे बनाए थे जिसकी लोगों द्वारा बहुत प्रशंसा हुई थी। उस समय की लिखी कुछ कविताएँ, जिनका शीर्षक कुछ इस प्रकार से हैं- "मैं सोच बहुत करता हूँ",2“साथी साथ कौन देता है","यह संसार कहा जाता है, यह संसार कहाँ जाता है" आदि। इनमें अन्तिम वाली कविता देखें। मैंने इसमें 'कहा' और 'कहाँ' का प्रयोग कर अपनी बाल्यकाल की शाब्दिक चुतराई को प्रस्तुत किया था। परन्तु इन सभी कविताओं को मैंने (इस तरह की और भी बहुत सी रही थी।) कमजोर मानकर नष्ट कर दिया था। इन आरम्भिक कविताओं में से सिर्फ दो कविताएँ जो सन् 1943 ई. में लिखी गयी हैं और जिनका शीर्षक है- "मानव भी क्या है?" और "आओ अपना दर्शन कर लें" मैंने अपने संग्रह “लौटकर देखना" में सम्मिलित किया है। यह कविताएँ मेरे तत्काली मनोदशाओं के वास्तविक स्वरूप का दर्शन कराने में सक्षम हैं।


डॉ.जगदीश भगत- सृजन के पूर्व, सृजन के समय और सृजन के बाद की अपनी मनःस्थितियों को कृपया स्पष्ट करें!


डॉ.विवेकी राय जी- इन तीनों क्षणों में पहले सृजन के बाद की स्थिति- तो यह स्थिति बहुत स्पष्ट है। इन क्षणों में एक प्रकार की अनिर्वचनीय तृप्ति होती है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि रचना पूरी हो जाती है परन्तु तृप्ति नही होती है। इसका अर्थ मैं यह समझता हूँ कि बिना शीघ्रता किए रचना पर और कुछ संशोधन होना चाहिए


और तब संशोधन परिवर्तन की मशक्कत प्रारम्भ होती है तथा यह तब तक चलती रहती है जब तक वह विशेष प्रकार की तृप्ति नहीं आ जाती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि एक झटके में रचना का अंत हो जाता है और वह तृप्ति उपलब्ध हो जाती है।


अब रचना के मध्य का अर्थात् रचना में संलग्न रहने का समय, तो आपको बताऊँ वह समय बहुत विचित्र प्रकार का होता है। वह एक झोंक में होता है तथा होता चलता है। यह झोंक जब मौजूद रहता है उस बीच में कोई दो-चार मिनट या एकाध घण्टे का भी अगर व्यवधान पड़ता है तब भी वह झोंक बना रहता है। व्यवधान के हटते ही रचना पुनः गतिशील हो जाती है और एक नियत समय तक चलती है कभी-कभी यह झोंक लिखने के लिए बैठने पर या बहुत चाहने पर भी नहीं आता है और कभी-कभी किसी अन्य कार्य में व्यस्त रहने पर भी वह भीतर उत्पन्न हो जाता है और समय निकालकर मुझे रचना के लिए बैठने को विवश कर देता है।


अब रही बात सृजन के पूर्व की मनः स्थिति की तो सजन से पूर्व अज्ञात रूप से विषय प्रवाह रूप में चलते रहते हैं, कभी पता चलता रहता है तो कभी-कभी नहीं भी। वास्तव में वह एक अज्ञात स्थिति होती है जिसके भीतर विषय वस्तु अनायास पड़ जाते हैं। इस स्थिति का आधार होता है-अपना ही देखा सुना हुआ संसार और उससे लगने वाले चोट पर चोट।


डॉ. जगदीश भगत- आपने प्रायः सभी विधाओं में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी हैं पर आपको अपने सर्वाधिक निकट कौन-सी विधा लगती है और क्यों?


डॉ. विवेकी राय जी- मुझे अपने सबसे अधिक निकट ललित निबंध वाली विधा ही लगती है क्योंकि इसमें मेरा कवि और कथाकार दोनों ही संतुष्टि पाते हैं। यह विधा मेरे ऊपर इतनी जबरदस्त रूप में छायी रहती है कि मेरे उपन्यासों और कहानियों में भी अनजाने इसकी घुस-पैठ हो जाती है। इस तथ्य को मेरे आलोचक भी रेखांकित करने से नहीं चूकते हैं।


डॉ. जगदीश भगत- परन्तु आपने डॉ. वेद प्रकाश अमिताभ से एक जगह बातचीत करते हुए कहा है कि"कथा में मैं शायद अधिक होता रहा।" इस पर आप कुछ कहना चाहेंगे।


डॉ. विवेकी राय जी- जी मेरी दोनों बातों में कोई अन्तर्विरोध नहीं है। कुछ खो जाने की स्थिति में भी वह ललित-निबंध विधा घुसपैठ कर जाती रही है अन्यथा आलोचकों की टिप्पणी से सजग मेरा कथाकार कैसे ऐसा साहस करता।


डॉ. जगदीश भगत- आपने कथा-साहित्य में इतना बड़ा मकाम पाने पर भी हमेशा चर्चा में रहे कथा आन्दोलनों से अपनी दूरी बनाए रखी ऐसा क्यों?


डॉ. विवेकी राय जी- इन कथा -आन्दोलनों से मैं जान बूझकर ही नहीं जुड़ा क्योंकि मैं उस आन्दोलनी के खोखलेपन को बहुत निकट से देख रहा था। वे आन्दोलन ऐसे थे जैसे उस दौर की राजनीतिक नारेबाजियाँ। मैं स्पष्ट देख रहा था कि एक ही व्यक्ति कई-कई कथा आन्दोलनों में शामिल रहता था। मैं यह भी स्पष्ट रूप से देख रहा था कि हिन्दी कहानी इन आन्दोलनों के सहारे नहीं बल्कि अपनी शक्ति से आगे बढ़ रही है। ये आंदोलन वाले कहानी के मूल धर्मों को अपने ऊपर नहीं बल्कि अपनी नवीनताओं तथा अपनी नयी मुद्राओं को कहानियों के ऊपर आरोपित कर अपने प्रचार का झण्डा बुलंद करते रहे। वास्तव में यह सब एक प्रकार से आत्मप्रचार का साधना मात्र था, जिससे मुझे कुछ भी लेना-देना नहीं था। हाँ ! इतना तो अवश्य मानना पड़ेगा कि इन आंदोलनों से कहानी साहित्य में कोई क्षति नहीं हुई बल्कि गहमा-गहमी के इस वातावरण से 'कथा-साहित्य' के विकास में कुछ लाभ ही हुआ।


डॉ. जगदीश भगत- कथा-साहित्य के साथ-साथ आपने कविताएँ भी खूब लिखी हैं आपके कई संग्रह एक के बाद एक आए बावजूद इसके आपके कवि-व्यक्तित्व को उतनी गहराई से नहीं लिया गया, इससे आपके अन्तःकरण में कहीं कोई शिकायत है?


डॉ. विवेकी राय जी- इस प्रकरण में एक बहुत ही प्रसिद्ध जवाब मेरा यह है- एक ही काल में लगभग दो बातें हुई। सन् 1960 ई. के इर्द गिर्द आवाज उठी- 'कविता मर गयी' और ठीक इसी समय लेखन की भी कुछ स्थितियाँ ऐसी आयीं तथा गद्य-लेखन का दबाव इतना बढ़ा कि कविता लिखना छूट गया। उसी गद्य में मेरी कविता वाली ‘भाव-व्यंजनाएँ' भी अनायास समाविष्ट होने लगीं तो मैंने भी यह मान लिया कि वह जो विश्व-व्यापी नारा (कविता के मरने का) था वह मेरे ऊपर भी घटित हुई। यहाँ मैं यह बता दूँ वह लेखन का दबाव “मनबोध मास्टर की डायरी" वाला था जो हर सप्ताह सिर पर सवार रहता था। उन दिनों सात-आठ कि.मी. पैदल आ-जा करके एक माध्यमिक विद्यालय में काम करना पड़ता था। घर-गृहस्थी संभालना पड़ता था और अपनी प्राइवेट परिक्षाओं की तैयारियाँ भी करनी पड़ती थी। इसके बाद कार्यों के शीर्ष स्थान पर था-रचना धर्म का निर्वाह। अर्थात् “मनबोध मास्टर की डायरी" की हर सप्ताह एक रचना। इन्हीं सब दबावों में कविता खो गयी या मर गयी या यूँ कहा जाए कि एक मार्ग बनाकर निकलने लगी।


जहाँ तक मेरे कवि-रूप की अनदेखी का प्रश्न है तो इस संबंध में मुझे यह कहना है कि इस प्रकार की कोई शिकायत मेरे मन में किंचित मात्र भी नहीं है क्योंकि मेरे समय में मुझसे बहुत उत्कृष्ट कविताएँ लिखने वाले मेरे कई मित्र कवि रहे जो अज्ञात के अंधेरे में दब गए हैं, ज्ञात के प्रकाश में उछलना या समादृत होना तो परम सौभाग्य की बात है परन्तु इस सौभाग्य के पीछे रचनाओं के अतिरिक्त और-और अनेक वस्तुएँ कारक होती हैं।


डॉ. जगदीश भगत-'साहित्य' में कुछ प्रतिभाएँ प्रायः उपेक्षित रह जाती हैं, प्रायः हर युग में ऐसा रहा है। इसे आपने भी स्वीकार किया है। ऐसे कुछ लोगों के संपर्क में भी आप रहे होंगे ही। उनमें से किसी को विशेष रूप से याद करना चाहेंगे?


डॉ. विवेकी राय जी- बहुत से लोग रहे हैं ऐसे। पर विस्तृत में न जाकर के सिर्फ एक उदाहरण दूंगा - गोरखपुर में महाराणा प्रताप कॉलेज में छठवें दशक में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे-राम आधार सिंह जी। वे उत्कृष्ट कोटि के छायावादी कवि थे। प्रख्यात समीक्षक/आलोचक डॉ. रामचन्द तिवारी के अनुसार - “वे अपने समय के जयशंकर प्रसाद कहे जाते थे।" उनकी लगभग आधा दर्जन पुस्तकें भी प्रकाशित हैं। वे मेरे बहुत अच्छे मित्र भी थे। दुर्योग से वे अल्पायु में ही काल-कलवित हो गए। उनके ऊपर आधारित एक संस्मरण मैंने लिखा भी है जो मेरी पुस्तक “आंगन के बन्दनवार" में प्रकाशित है। ऐसे स्मरणीय काव्य-सर्जक को कहाँ कहीं कोई आधुनिक काव्य साहित्य का इतिहास स्मरण कर रहा है।


डॉ. जगदीश भगत- सहित्य में एक समय रहा जब 'अंचल' को केन्द्र कर लिखी जाने वाली आंचलिक रचनाओं को केन्द्रीय भूमिका मिली। परंतु आज जो दौर ग्लोबलाइजेशन का है, उसमें इस 'अंचल' से संबंधित आंचलिक रचनाओं की स्थिति क्या है या फिर भविष्य में क्या रह जायेगी? साथ ही इस ग्लोबलाइजेशन ने 'अंचल' को कहाँ तक प्रभावित किया है? या स्वयं उससे कितनी दूर तक प्रभावित हुआ है?


डॉ. विवेकी राय जी- इस संदर्भ में मेरा यह मानना है कि 'भूमंडलीकरण' और 'आंचलिकता' दोनों दो चीजें हैं और दोनों के अपने दायरे अलग-अलग हैं जो एक-दूसरे को शायद उतना प्रभावित नहीं कर पायेंगे जितने की आशंका है। भूमण्डलीकरण बदलती हुई सभ्यता और आंचलिकता के भीतर प्रायः स्थिर रहने वाले सांस्कृतिक भाव हैं इसीलिए मेरा तो यह मानना है कि आंचलिकता तो क्रमशः बनी रहेगी। भूमण्डलीकरण से जुड़ी हुई एक चीज अवश्य ही अंचलों को प्रभावित कर सकती है और वह है- बाजार। किन्तु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि कितना और किस रूप में बाजारवाद आंचलिकता को प्रभावित कर रही है। वैसे तो देश की आर्थिक-क्रांति,औद्योगीकीकरण और विकास-योजनाओं ने भी अंचलों को तोड़ा है और आंचलिकता के स्वरूप को बिगाड़ा है। इतना होने पर भी जो भारतवर्ष की विशाल जातीय चेतना है, जो अपनी संस्कृति, मान्याताएँ, परम्पराएँ और तमाम तरह की रंग-बिरंगी मूलभूत जातीय जीवन की जो पगडंडिया हैं, वे बनी रहीं हैं और उनका रोमांच हमेशा बना रहेगा। वे नगर जीवन की एक-रस यांत्रिकता और उबाऊ कृत्रिम सभ्यता के बीच स्फूर्ति और ऊर्जा के स्रोत बने रहेंगे। 'अंचल' यदि कभी भूमण्डलीकरण के कारण इस धरती से विदा हो जाते हैं तो भी उनके जीवन के सूत्र जो साहित्य में विद्यमान रह जायेंगे, वे भविष्य को अनुप्राणित, अनुरंजित करते रहेंगे।


डॉ. जगदीश भगत- आप एक कथाकार के रूप में स्वयं को 'प्रेमचन्द' और 'रेणु' में से किसके साथ जोड़ना चाहेंगे जबकि प्रख्यात आलोचक डॉ. शिव कुमार मिश्र ने आपको- “संवेदनात्मक उद्देश्य के सवाल पर प्रेमचन्द की ग्राम-केन्द्रित कथा-परम्परा से जुड़ा हुआ" माना है, “आंचलिक कही या माने जाने वाली कथा-सृष्टि से नहीं।" हालांकि उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि- “आप रचना-शिल्प और अभिव्यक्ति के धरातल पर रेणु प्रणीत आंचलिक कहे जाने वाले उपन्यासों और उनमें आंचलिकता के तौर-तरीकों के उपयोग और उनके प्रति कुछ हद तक सम्मोहित होते हैं।" इस पर आपकी प्रतिक्रिया चाहूँगा।


डॉ. विवेकी राय जी- आपके इस प्रश्न में उत्तर भी निहित है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि प्रश्न मेरे द्वारा स्वयं अपने को जोड़ने का नहीं है क्योंकि हर लेखक किसी के जैसा नहीं लिखता, वह अपने जैसा लिखता है। इसके बाद यह काम आलोचक का है, जो यह देखता है और बताता है कि कौन किससे जुड़ा है। यह भी संभव है कि दो आलोचक एक ही राय न रखते हों। अतः इस संबंध में मैं स्वयं कुछ नहीं कह सकता। इतना अवश्य है कि मेरी दृष्टि में प्रेमचन्द और रेणु दोनों बहुत महान लेखक हैं। प्रेमचन्द को पढ़कर कथा-साहित्य के प्रति मेरी रुचि का विकास हुआ। उन्हें पढ़कर ही साहित्य की शक्ति का मुझे पहली बार जबरदस्त अनुभव हुआ। सन् 1945 ई. के लगभग एक परीक्षा के सिलसिले में मैंने प्रेमचन्द की कहानी “बैंक का दीवाला" पढ़ी थी, उस कहानी ने तब मेरे मन को ऐसा झकझोरा कि मैं घण्टों बैठा रोता रहा और बहुत दिनों तक वह कहानी मेरे मन पर छायी रही। मुझे पता नहीं वह किस प्रकार की भावाच्छन्न से ग्रस्त आयु थी फिर बहुत वर्षों बाद उसी कहानी को पढ़कर देखा कि वैसी ही भावावृत्ता फिर नहीं उत्पन्न हो रही हैं। अब उसकी जगह पर एक आलोचक बैठकर कहानी के तत्वों का विश्लेषण कर रहा है। यह बात मैंने इसलिए उठा दिया कि प्रेमचन्द का प्रभाव मुझ पर प्रारम्भ में ही बहुत गहरे रूप में पड़ा था।


डॉ. जगदीश भगत- हिन्दी के अतिरिक्त किस भाषा के साहित्य और साहित्यकारों ने आपको सर्वाधिक प्रभावित किया है?


डॉ. विवेकी राय- हिन्दी के अतिरिक्त बंगला भाषा के साहित्य और साहित्यकारों से मैं सर्वाधिक प्रभावित रहा। आरम्भ में मैं खोज-खोज कर शरतचन्द्र,बंकिमचन्द्र और रवि बाबू की रचनाओं को पढ़ता था विशेषतः उपन्यासों को। शरत बाबू के "शेष प्रश्न" को तो मैं ने तीन-चार बार पढ़ा था। इसके अतिरिक्त अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं के हिन्दी अनुवाद वाले उपन्यासों को भी समय-समय पर पढ़ता रहा किन्तु जहाँ तक आरम्भिक प्रभाव की बात है तो मैं हिन्दी के अतिरिक्त बंगला का ही नाम लूंगा।


डॉ. जगदीश भगत- डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने अपनी कृति ‘भोजपुरी साहित्य का इतिहास में ' भोजपुरी ललित निबंध की शुरुआत आपसे माना है। इस पर आपकी प्रतिक्रिया।


डॉ. विवेकी राय जी- यह महज संयोग है कि मैं प्रथम व्यक्ति हूँ ललित निबंध (भोजपुरी भाषा में) अपनी भाषा में लिखने वाला। मेरी ललित निबंध की पुस्तक “के कहल चुनरी रंगा ल" जो1968 ई. में भोजपुरी संसद, वाराणसी से प्रकाशित हुई जबकि इसके छः वर्ष पूर्व सन् 1962 ई. में खड़ी बोली का मेरा निबंध-संग्रह छप चुका था। सच तो यह है कि इन दोनों ही पुस्तकों को मैंने यह जानकर नहीं लिखा था कि मैं ललित-निबंध लिख रहा हूँ। अपने मौज में उन दिनों लिखता था। हाँ ! निबंधों में काव्य और कथा-रस ढालकर लिखने में बहुत रुचि थी। पाठकों का प्रोत्साहन भी खूब मिलता था। पुस्तकों के प्रकाशित होने के बाद उन्हें 'ललित-निबंध' कहा गया क्योंकि यह नयी-नयी विधा उन्हीं दिनों उभरकर पत्र-पत्रिकाओं में छाने लगी थी।


डॉ. जगदीश भगत- ललित निबंध के उद्भव से लेकर विकास की वर्तमान अवस्था तक के प्रत्येक चरण के आप एक रचनाकार के साथ-साथ प्रबुद्ध पाठक के रूप में गवाह भी रहे हैं। ऐसे में आपने प्रारम्भ से लेकर अब तक के ललित-निबंध में क्या स्वरूपगत एवं शिल्पगत बदलाव महसूस किए है?


डॉ. विवेकी राय जी- बदलते हुए समय के साथ साहित्य की अन्य विधाओं के वस्तु और शिल्प में भी परिवर्तन होते रहे किन्तु कुछ परिवर्तन इनमें बहुत सूक्ष्म रहे। ललित निबंध में भी कुछ सूक्ष्म बदलाव आए लेकिन मूलभूत रूप में यह बदलाव ऐसे नहीं है जो स्पष्ट रूप से रेखांकित किया जा सके। इसका कारण यह है कि ललित निबंध के खड़े होने का जो स्थान वह भारतीय संस्कृति थी, वह आज भी अपने स्वरूप में अविछिन्न और अविकृत है। ललित निबंध की इसी स्थिति के कारण कुछ लोगों को यह भ्रम भी कभी-कभी हो जाता है कि वह विधा मर गयी है। बावजूद इसके यह आज भी नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, श्री राम परिहार और श्याम सुन्दर दूबे जैसे वर्तमान ललित निबंधकारों के साथ पूरे वेग में गतिशील हैं।


डॉ. जगदीश भगत- आपकी रचनाओं में बार-बार “गांव मर रहा हैं की बात आती है और उसे जिलाने में आपका हर पात्र सचेष्ट दिखता है। अभी कल ही डॉ. आद्या प्रसाद द्विवेदी से बातचीत के दौरान आपने कहा भी था कि-“अब मैं लोक-कलाओं के मृत होते जाने की दशा में घोषणा कर सकता हूँ कि - गाँव पूरी तरह मर गया है। ऐसे में क्या यह मान लिया जाय कि सचमुच अब गाँव मर गया है, अब उसके बचने की कोई संभावना नहीं रह गयी है।


डॉ. विवेकी राय जी-जी, हाँ आद्याप्रसाद द्विवेदी के साथ हुई बातचीत में निश्चित रूप से गाँव के मर जाने की बात उठी थी। वास्तव में यह एक बड़ी व्यथा-कथा है। मेरे मन के भीतर अथवा मेरी सृजनात्मक चेतना में जो सन् 1930 ई. से लेकर सन् 1950 ई. तक का अथवा कुछ खींच-खांच कर 1960 ई. तक का गाँव है, वह तो अब वैसा रहा नहीं। अब कठिनाई यह है कि उसे तब हम क्या कहें? गाँव तो वही है, मगर इसके बाद अगर हमारा मन करता है कि कहें-“उस गाँव के बाग-बगीचे वही हैं, खेत खलिहान वही हैं तथा तीज-त्यौहार वही हैं" पर यह बात झूठी होगी। बगीचे कटकर खेत बनते जा रहे हैं। नए बगीचे लगते नहीं हैं। खलिहान की भी वही स्थिति है। मशीनों ने इसके सारे स्वरूप और अनुशासन को समाप्त कर दिया है। त्यौहार एक रस्म अदाएगी जैसे निपटा दिए जाते हैं तथा गांव के लिए हार्दिक उल्लास वाले जो अवसर थे, वे सब नयी पीढ़ी के हाथों ध्वस्त कर दिए गए हैं। ऐसे ही अंतहीन गिरावट के सिलसिलों के बीच न चाहते हुए भी गाँव को जीवित कहना कठिन प्रतीत हो रहा है। उसके पुराने आकार-प्रकार संस्कार से हम उसे साहित्य में जिलाए रखकर अनुप्राणित और आनन्दित होते रहें, शायद अब स्थिति ऐसी ही सामने है। परिवर्तन की तेज गति में गांव के ही भीतर जो एक नया आकार ग्रहण कर रहा है वह वास्तव में शहर और कस्बे का रूप भी नहीं है, वह एक सर्वथा नया रूप है। अब इसे चाहे तो आप विकसित कह लें या चाहे तो विकृत।


डॉ. जगदीश भगत- आपने अपने उपन्यासों में राजनीति के बदलते स्वरूप पर काफी कुछ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में कहा है। वर्तमान में साहित्य और राजनीति के परस्पर संबंध पर आपकी टिप्पणी चाहूँगा।


डॉ. विवेकी रायु जी- आपका प्रश्न बहुत भारी हो गया। मुझसे यह उठाया नहीं जा रहा है क्योंकि मुझे यह जो आज की राजनीति एक तो वह समझ में नहीं आती है दूसरे उसके वर्तमान भयानक स्वरूप से बहुत डर लगता है। मैं तो आरम्भ से ही गांधीवादी विचारधारा में ढला हूँ परन्तु आज बहुत समझने पर भी कुछ समझ में नहीं आता है कि कौन सा 'वाद' कहाँ है? और कहाँ नही है? शायद एक ही 'वाद', अवसरवाद' का आज झण्डा बुलंद है।


उपन्यास में राजनीति प्रायोजित रूप से यदि आती है तो वह उपन्यास नहीं है। जिए जाते हुए जीवन के बीच से सहज भाव से राजनीति जिस रूप में अपना प्रभाव छोड़ती है, उसे लेखक पकड़ता जाए यही बहुत है। यही वांछनीय भी है। किसी कथाकार का मार्गदर्शन कदापि वैसा मार्गदर्शन नहीं होना चाहिए जैसा समाज शास्त्री या राजनीतिकर्मी का होता है। कथाकार का उच्चासन जब पाठक के अन्तःप्रदेश में प्रतिष्ठित हो, तब उसकी महत्ता है और यह अन्तःप्रदेश ऐसा है जहाँ अगर राजनीति पहुँचती है तो उसका कलात्मक रूप भी स्थान पाता है।


डॉ. जगदीश भगत- ऐसे में साहित्य और साहित्यकार के सामने सबसे बड़ा उत्तरदायित्व क्या है?


डॉ. विवेकी राय जी- अब तो ऐसा लगने लगा है कि साहित्य और साहित्यकार दोनों हाशिए पर आ गए हैं। ऐसी स्थिति में किस प्रकार के उत्तरदायित्व की बात की जाए। सिद्धान्त रूप में तो बहुत कुछ कहा जा सकता है परन्तु व्यवहारिक स्थित यही है कि आज का साहित्यकार भौंचक्का होकर देख रहा है कि - “आज यह सब क्या हो रहा है?" साहित्यकारों की एक जमात सुख-सुविधा और सत्ता-भोगी रूप में उभर आयी है और उस प्रकार के उत्तर-दायित्वों को गहमा-गहमी के साथ उछाल रही है परन्तु उससे कोई तलवर्ती परिवर्तन नहीं होने को है।


डॉ. जगदीश भगत- ऐसा क्यों? कृपया इस स्थिति को स्पष्ट करें?


डॉ. विवेकी राय जी- इसका मूल कारण है- सुख-सुविधा का भोग। जिसका स्रोत राजनीति से उपलब्ध होने वाली सत्ता है। इस सत्ता की राजनीति से आयी है-मूल्यहीनता। अन्तहीन जैसा लगने वाला सिलसिला जब तक जारी रहेगा तब तक अंधेरे और अंधेरे की परतें नहीं टूटेगी। परिवर्तन की सारी कुंजी राजनीतिज्ञों के हाथ में चला जाना वास्तव में सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।


डॉ. जगदीश भगत- 'अखबारी-लेखन' भी आपने खूब की है। आपके लेखक के निर्माण में इसकी क्या भूमिका रही?


डॉ. विवेकी राय जी- मोटे रूप में जिसे 'अखबारी-लेखन' कहा जाता है, मैंने निश्चित रूप से खूब किया है लेकिन पता नहीं कैसे मैने बहुत कम ऐसा लिखा जो बाद में बासी होकर कूड़े में फेंक देने लायक हो जाए। एक ही उदाहरण काफी होगा-छठवें सातवें दशक में मैं प्रति सप्ताह दैनिक 'आज' में “मनबोध मास्टर की डायरी" लिखा करता था। उसी दौरान उस डायरी में प्रकाशित कुछ रचनाओं को मांगकर भारतीय ज्ञानपीठ जैसे प्रकाशनप्रतिष्ठान ने “फिर बैतलवा-डाल पर" शीर्षक से ललित-निबंध संग्रह के रूप में प्रकाशित किया। सन् 1999 ई. में पुनः उसका दूसरा संस्करण भी वहीं से आया। यह रचनाओं की स्थायी मूल्य-धर्मिता का प्रमाण है। इस प्रकार पूरी सजगता के साथ मैं अपने 'अखबारी लेखन' को स्तरीयता प्रदान करता चला गया। सुरेन्द्र प्रताप सिंह के संपादन में जो कलकत्ते से रविवार' नाम का साप्ताहिक निकलता था उसमें प्रकाशित “गाँव" शीर्षक स्तम्भ की रचनाएँ मेरे “नया गाँवनामा" नामक ललित-निबंध संग्रह में प्रकाशित हुए। यहाँ तक कि जनसत्ता' के बम्बई संस्करण में “अड़बड़ भईया की भोजपुरी चिट्ठी " नामक स्तम्भ में छपे मेरे फीचरों में भी स्थायित्व है और उनका संकलन भी मेरी पुस्तक “राम झरोखा बइठि के" में देखा जा सकता है।


इस प्रकार कितना गिनाएं,मेरे ‘अखबारी-लेखन' की एक-एक पंक्ति का भी उपयोग हो गया है और वह निरर्थक नहीं है क्योंकि आलोचकों ने भी इसके ऊपर प्रामाणिकता की मुहर लगायी है। आरम्भिक “मनबोध मास्टर की डायरी" ने अपनी निरन्तरता से मेरे लेखक को संवारने और उसके विकसित होने में बहुत मदद की। उसी का संस्कार लेकर मैं बाद में कल्पना, धर्मयुग, सारिका, हिन्दुस्तान, ज्ञानोदय, कादम्बिनी, वीणा आदि पत्रपत्रिकाओं में दीर्घ काल तक लिखता रहा।


डॉ. जगदीश भगत- “मुझे उपक्षाओं से ही बल मिलता है।"-आपकी इस उक्ति के आलोक में क्या यह माना जा सकता है कि आप अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं है या आपकी पर्याप्त उपेक्षा होती रही है, या फिर आपको साहित्यिक जगत् में अपने योगदान के बदले में जो उससे सम्मान मिलना चाहिए था, वह आज तक नहीं मिल पाया है?


डॉ. विवेकी राय जी- मैं जो यह कहता हूँ कि -"मुझे उपेक्षाओं से ही बल मिलता है।" तो इसका अर्थ यही है कि मैं अपने रचना-कर्म, अपनी उपलब्धियों और मिलने वाले सम्मान, पुरस्कारों से परम संतुष्ट हूँ। मुझे बराबर यह लगता है कि जहाँ पर मेरी उपेक्षा होती है, वहाँ ऐसा कुछ नहीं है, जो गंभीर या ध्यानाकर्षक है। इसीलिए उपेक्षाओं एवं अपेक्षाओं से निरपेक्ष होंकर मैं अपनी समूची शक्ति अपने रचना-कर्म पर ही केन्द्रित करता हूँ। मैंने आज तक कभी अपनी निन्दा, या कटु आलोचना की अथवा आरोपों-आक्षेपों का कभी भी उत्तर नहीं दिया है। ऐसे अवसरों का भीतर से एक प्रकार का आभार मानता हूँ कि कुछ लोग हैं ऐसे जो मुझे बराबर सजग, सचेत और जागरुक रखते हैं।


डॉ. जगदीश भगत- आपकी रचनाओं में आपके अन्दर का अध्यापक बार-बार मुखर हो उठता है। इस पर आपकी प्रतिक्रिया।


डॉ. विवेकी राय जी- आपने यह प्रश्न प्रमुख रूप से मेरे उपन्यासों को ध्यान में रखकर प्रस्तुत किया है तो इस संबंध में मेरा कहना यह है कि मैं अपने अध्यापक को ऐसी ही जगह खड़ा पाता हूँ जहाँ से समय और समाज के बाहर-भीतर दायें-बायें आगे-पीछे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।


डॉ. जगदीश भगत- आज के समय में दलित-विमर्श और नारी-विमर्श की सर्वाधिक और सर्वत्र चर्चा जोरों पर है। क्या आप साहित्य में इस प्रकार के बंटवारे से प्रसन्न हैं?


डॉ. विवेकी राय जी - मेरी दृष्टि में यह सब फैशनेबुल चर्चाएँ हैं।इसीलिए मैं इन सब पर कुछ गम्भीरता से विचार नहीं करता सिर्फ समस्याओं और स्थितियों के नाम बदल देने मात्र से उन पर विचार करने का कोई नया कोण नहीं बनता। वैसे डॉ. नीलिमा शाह ने एक पुस्तक का संपादन किया है जिसका नाम है-“दलित विमर्श और विवेकी राय की कहानियाँ" तथा यह पुस्तक इलाहाबाद से शीघ्र प्रकाश्य है।


डॉ. जगदीश भगत- आज 'उत्तर-आधुनिकता' भी चर्चा के केन्द्र में है। इसे लेकर आपकी विचारधारा क्या है?


डॉ. विवेकी राय जी- इस विषय को साहित्यिक रुचि प्रधान पाठक की भांति संबंधित पुस्तकों और पत्रपत्रिकाओं में सुरुचिपूर्वक पढ़ता हूँ और यह देखकर बहुत अच्छा लगता है कि आज के जागरुक समीक्षक काल की परतों के भीतर से टटोल-टटोल करके उसके सूक्ष्म विश्लेषण में उतरते हैं तथा भिन्नताओं का पृथकीकरण करते हैं अथवा यूँ कहा जाए कि विकास के सूत्रों को पकड़ने की कोशिश करते हैं। इतना होने पर भी इस विषय पर मैं अपनी कोई निर्णायक राय नहीं दे पाऊँगा क्योंकि इस दृष्टि से मैं इसके गंभीर अध्ययन में नहीं उतरता हूँ। मैं यह मान लेता हूँ कि यह मेरे क्षेत्र की बात नहीं है और अधकचरे-पन के साथ हर क्षेत्र में घुसपैठ करना ठीक नहीं है।


डॉ. जगदीश भगत-“मीडिया ने शब्दों के प्रति और मूल्यों के प्रति हमारी आस्थाओं को तोड़ा है।" क्या आप इससे सहमत है?


डॉ. विवेकी राय जी- जी मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ। मुझे यही लगता है कि मीडिया मात्र सेवा नहीं विशुद्ध व्यवसाय है और इस शुष्क यांत्रिक माध्यम से हम उस अन्तस्पर्शी संवेदना की आशा नहीं कर पा रहे हैं जो हमारी आस्था की जमीन से जुड़कर है। हमारी आस्था की इस जमीन को अभी भी महाप्राण सर्जकों के साहित्य से ही रस-ग्रहण की आशा रहती है।


डॉ. जगदीश भगत- अगर आपको दूबारा जीवन जीने को फिर से मिले तो आप क्या बनना चाहेंगे और इस जीवन में कौन-सी ऐसी गलती आप से हो गयी है जिसे आप नहीं करना चाहेंगे?


डॉ. विवेकी राय जी- यह सब कुछ मेरे हाथ में है ऐसा नहीं मानता मैं। बचपन से ही जो ईश्वरवाद मेरी चेतना में उतर आया था। वह इस समय पूर्ण रूप से परिपक्व हो गया है। अपनी जीवन-यात्रा के इस पड़ाव तक को तो मैं ने जी लिया है अब अगला पड़ाव ईश्वराधीन है। मेरे कर्मानुसार वह जो भी मुझे बनाएगा, बनूँगा। जिस कार्य में मुझे नियुक्त करेगा, वह करूँगा।


अब इस जीवन में हुई गलतियों की बात है तो भला ऐसा कौन होगा, जो गलतियाँ करना चाहेगा। मनुष्य गलतियाँ करता नहीं है वे हो जाती हैं। हाँ ! अगर गलती सुधारने की ही बात है तो यही चाहूँगा कि गाँव के किसान परिवार में जन्म हो तो मैं किसी लोभ में पड़कर गाँव न छोडूं।


डॉ. जगदीश भगत- आज उम्र के इस पड़ाव पर आकर इतना कुछ लिख लेने के बाद भी क्या कभी आपको ऐसा लगता है कि-"मैं वह अभी नहीं लिख सका जो मुझे लिखना था!?"


डॉ. विवेकी राय जी- नहीं, ऐसा नहीं लगता है। मैंने पीछे बताया भी है कि मैं अपने रचना-कर्म और उपलब्धियों से संतुष्ट हूँ। आज तक मेरी जो भी साहित्यिक सेवा हुई है वह योजनाबद्ध और लयबद्ध हुई है। मेरी सभी योजनाएँ लगभग पूरी हैं जो कुछ भी अधूरी हैं उन सब पर एक-साथ मन्दगति से काम चल रहा है और इस मानसिकता से चल रहा है कि जितना या जो कुछ भी होगा, वह होगा। कोई हड़बड़ी नहीं है। ध्यान बस इतना ही हैं कि-चरैवति,चरैवति।


डॉ. जगदीश भगत- आपको अपनी रचनाओं में सर्वाधिक प्रिय कौन-सी रचना लगती है? एवं आपका सर्वाधिक प्रिय पात्र कौन-सा है?


डॉ. विवेकी राय- यह प्रश्न बहुत बार मेरे सामने आया है और हर बार शायद मैंने एक ही उत्तर नहीं दिया है। इसका कारण यह है कि मुझे अपनी हर रचना प्रिय लगती है।


मैंने अपने लघु उपन्यास “बबूल" के नायक “महेसवा" को बड़े ही मनोयोग से खड़ा किया था। एक निबंध भी मैंने “मेरा सर्वाधिक प्रिय पात्र महेसवा" नाम से लिखा है। इससे तो यही लगता है कि “बबूल" ही मेरी प्रिय रचना है।


डॉ. जगदीश भगत- आजकल आप नया क्या लिख रहे हैं? क्या आप अपनी आगामी योजनाओं को अपने पाठकों को बताना चाहेंगे?


डॉ. विवेकी राय जी- यह बताने में कोई हर्ज नहीं है। सन् 2005 ई. में बहुत दिनों से अधूरी पड़ी हुई मैंने अपनी पाण्डुलिपियों को पूरा किया है। इसमें प्रथम “समय साहित्य और समीक्षा" नाम की पुस्तक है, इसका विषय इसके नाम से ही संकेतित है। दूसरी पुस्तक का नाम है- “शेष उपनिवेश"। यह गाजीपुर जन के रचनाकारों से संबंधित पुस्तक है। तीसरी पुस्तक मेरे साक्षात्कारों का संकलन है। चौथी पुस्तक बहुत पहले प्रकाशित पुस्तक "मनबोध मास्टर की डायरी" का नया परिवर्द्धित रूप है और पाँचवी पुस्तक एक कहानी-संग्रह है जिसका नामकरण अभी शेष है। इसके बाद चार-पाँच पुस्तकों की और परिकल्पना है जो रचनाओं के परिचय में घोषित है। इनमें सबसे बड़ा काम मेरी पुस्तक-"डायरी या रोजनामचा" की है जिसे मैंने सन् 1944 ई. से सन् 1994 ई. तक लिखा


वास्तव में यह एक बहुत बड़ा काम है। इस पुस्तक का नाम है-“आत्मा का न्यायालय" जो कई खण्डों में होगी। इसका बहुत सारा हिस्सा टाईप होकर पाण्डुलिपि के रूप में तैयार है परंतु अभी यह प्रकाशित होने के लिए नहीं दिया जाएगा। इस पर भी काम आगे बढ़ रहा है और जो काम होता जा रहा है वह उसमें जुड़ता जाएगा। जहाँ भी काम रुक जाएगा या रोक दिया जाएगा वहाँ से वह अधूरा नहीं लगेगा। ऐसी ही पूरी तैयारी होगी।


डॉ. जगदीश भगत- नवोदित रचनाकारों के सामने एक प्रश्न हमेशा मुँह बाए खड़ा रहता है- "रचना क्यों, और किसके लिए?" कृपया उनका मार्गदर्शन करते हुए उन्हें कुछ संदेश दें।


डॉ. विवेकी राय जी- नवोदित लेखकों को मैं एक विनम्र परामर्श दूँगा कि वे पुराना और जो कुछ भी श्रेष्ठ साहित्य है, उसे गंभीरतापूर्वक योजनाबद्ध ढंग से तथा उत्कृष्ट लेखन की अनिवार्य शर्त मानकर पढ़ें। उनके इस समर्पित स्वाध्याय के भीतर से ही वह ऊर्जा प्राप्त होगी जो उनके लेखन को चमकाएगी। इसके साथ ही उन्हें अनायास उन सारे प्रश्नों के उत्तर मिलते जायेंगे कि-"हम क्या लिखें ? और हम किसके लिए लिखें ?"


नवोदित लेखक आरम्भ में ही कम लिख कर अधिक प्रचार पाने की दौड़ में पड़कर अपनी प्रतिभा को कुंठित कर देते हैं। उनका कोई कदम हल्केपन, सस्तेपन की लाभ-लोभ से प्रेरित होकर न उठे तो अच्छा है क्योंकि लेखन वास्तव में एक तपस्या है।


डॉ.जगदीश भगत- आपने मुझे इतना समय दिया इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।


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