मेरा निवेदन


निवेदिका -कमलेश चैधरी गाँव व डा. बाबैन, जिला, कुरूक्षेत्र पिन 1361561 


अपने उस प्रथम उपन्यास के लेखन के विषय में सोचती हूँ तो सबसे पहले मेरे मन में एक सवाल खड़ा हो जाता है कि यह उपन्यास मेरे भीतर था या मैं इसे कहीं बाहर से खोज कर कलम की सान पर चढ़ाया है। इसका सहीसही उत्तर देना मेरे लिए असम्भव की सीमा तक कठिन है।


लिखने के बारे में कभी सोचा नही था, मगर पढ़ने का शौक जो एक सनक या जनून बन गया था बचपन से आज तक ज्यों का त्यों कायम है। गुलशन नन्दा के सड़क छाप उपन्यासों से पढ़ने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह प्रेमचन्द गोर्की, व्लादिमीर नाबोकोव, कार्ल मार्क्स, चेखव, मैत्रेयी पुष्पा, तसलीमा नसरीन और अनेक समकालीन रचनाकारों तक जारी है। साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्म युग जैसी पत्रिकाओं ने मुझे साहित्यिक समझ प्रदान की। दुर्योग से ये दोनों पत्रिकाएं बहुत पहले बन्द हो चुकी है। वृन्दावन लाल वर्मा, चतुरसेन शास्त्री, कुर्रतुल- एन- हैदर के उपन्यासों में मुझे एतिहासिक दृष्टि प्रदान की। दादा कामरेड, शेखर एक जीवनी, आवारा मसीहा जैसी रचनाओं से मेरे अन्दर मानवीय भाव जागे। भगत सिंह और चेग्वारा के चरित्रों ने मुझे आत्मिक बल प्रदान किया। जार्ज आरवेन की पुस्तक 1984, जैक लन्डन की आयरन हील, महात्मा गाँधी की हिन्द स्वराज और जॉन स्टेन बैक की पुस्तक ‘द ग्रेप्स ऑफ रैथ‘ से मैंने पूंजीवाद और बाजारवाद के अमानवीय रूप को समझा। पढ़ने की आदत ने मुझे फंतासियों की दुनिया मे धकेल दिया। मेरे व्यक्तित्व में जो थोड़ी बहुत निडरता व जुझारूपन है वह मेरी इस पढ़ने की आदत के कारण ही है।


जब आप सत्य और न्याय के पक्ष में खड़े होते हैं तो आप का जीवन सामान्य नही रहता। यह मेरा भोगा हुआ सच है। सबसे पहले मुझे जिस चीज की आहुति देनी पड़ी, वह थी मेरी मानसिक शांति। इस दिलेरी और जूझने की ललक ने मुझे बहुत कुछ दिया- असफलता, अपमान, साथियों की बेरूखी, समाज के ताने, असहनीय तनाव, सही होने पर भी स्वीकार न किये जाने की कुण्ठा। ऐसी स्थिति मे मेरे लिए हालात से टकराना तथा उससे बच कर निकल जाना दोनों ही असम्भव हो गये। चारों तरफ से घिरे होने पर जबाब देने की तात्कालिक मजबूरी थी। इसी समय लेखनी ने मेरा साथ दिया। मैं पूरी ईमानदारी से कहती हूँ कि मेरा लेखन बहुजन सुखाय जैसे किसी उदार विचार पर आधारित नही था। यह तो सिर्फ व्यक्तिगत कुण्ठा, खीज व हताशा से छुटकारा पाने का माध्यम था। मन की भड़ास लेखनी उठाने का कारण बनी। इस तरह लेखन की शुरूआत हुई।


जहां तक इस उपन्यास का सम्बन्ध है मैं इसके विषय मे पूरी ईमानदारी से कहती हूँ की इस उपन्यास को न तो मैंने मन कर भड़ास निकालने के लिए लिखा है और न ही इसका सृजन किसी निजी कुण्ठा से मुक्ति पाने के लिए किया गया है। इसे तो विशुद्ध रूप से इसके पात्रों ने ही मुझे इसकी रचना करने पर विवश किया है। यह उपन्यास महानगर के विकास की भेंट चढ़ते एक गाँव की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। यह गाँव मेरा भी हो सकता है और आपका भी। शहरी विकास जिस गाँव को लील रहा है वह कोई भी गाँव हो सकता है। मैं जब भी गाँव जाती हूँ मेरा पुराना गाँव मेरी यादों में अनायास ही आकर खड़ा हो जाता है। कंकरीट के जंगल के नीचे मोहन जोदड़ो की तरह दफन होता गाँव मुझे पुकार उठता है। गाँव की आत्मा मोहन जोदड़ो बनने का विरोध करती है। उसकी करूण-कराह मुझे साफ सुनाई देती हैं। गाँव की आत्मा अपने अस्तित्व के खो जाने का अस्वीकार करती हुई छटपटाती है। और किसी आने को पुकार कर कहती है - मुझे इस भंयकर मौत से बचा लो। मुझे आज तक समझ नही आया कि गाँव मेरे भीतर वसा है या मैं गाँव में निवास करती हूँ।


जब आदमी विचारों के बीहड बियाबान में उलझ जाता है तो निकलना सरल नही होता। वहाँ पर विचारों का जंगल होता है और कोई साईन बोर्ड नही लटका होता जो आपको बता सके कि रास्ता ईधर है। एक दिन विचारों के बीहड़ बियावान में उलझी हुई थी तो मुझे इस उपन्यास के पात्र बाबा जी दिखाई दिये। मैंने कहा -“आदेश महाराज‘‘। बाबा जी बोले-‘मानोगी मेरा आदेश?‘ मेरा जबाब था- ‘हाँ, जरूर मानूंगी।‘ उन्होने मेरी बाँह पकड़ी और मुझे नारायण ताऊ के सामने खडा कर दिया। एकाएक इस उपन्यास के सभी पात्र एक- एक करके मेरे सामने खड़े होते रहे मानो अपनी- अपनी भूमिका अदा करने के लिए तैयार होकर आये हैं। नारायण ताऊ ने मेरी बाँह पकड़ी और मुझे अपने पीछे- पीछे ले चले। मेरे हठीले पात्र जैसा- जैसा मुझसे करवाते गये मैं किसी जादू से बंधी वैसा- वैसा ही करती गई। मैं वहीं लिखती गई जो मेरे पात्र मुझसे लिखवाते गये। मेरे पात्र ही मेरे नायक है, मेरे भाग्य विधाता है और वे ही मेरे मार्ग दर्शक है। इस उपन्यास में मेरा अपना कुछ नही है। जहां भी मैंने अपना कुछ उन पर थोपने की कोशिश की वहीं पर मेरे पात्र गड़बड़ा गये। यह देखकर मैंने पूरी तरह अपने आपको उनके हवाले कर दिया। परिणाम आपके सामने है। कंकरीट के तले दबे मोहन- जोदड़ो से गाँव को बाहर निकालने का मेरे पास यही एक तरीका था।


उपन्यास का फलक विस्तृत होता है। इसमें लेखक को कल्पना व यथार्थ को मिलाकर अपने ढंग से ताना-बाना बुनने की छूट मिल जाती है। इस लेखकीय छूट का लाभ मैने भी उठाया हैं। मैं अपने स्नेहशील बड़े भाई श्री रामेश्वर दास गुप्त के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ। जिनकी एक थपकी से इस उपन्यास की रचना सम्भव हो सकी। इस पागलपन के दौर में मेरा साथ देने के लिए मैं अपने परिवार जनों के प्रति भी आभार व्यक्त करना चाहती हूँ। मैं प्रवीन कुमार सैनी के प्रति विशेष दृष्टिकोण रखती हूँ। जिसने अत्यधिक व्यस्त दिनचर्या में से समय निकालकर इस उपन्यास को टाईप किया।


अपना प्रथम उपन्यास ‘खोया हुआ गाँव‘ आप की सेवा में प्रस्तुत करते हुऐ मुझे बहुत-बड़े संतोष का अनुभव हो रहा है। किसी रचना के दौरान लेखक जिस पीड़ा से गुजरता है वह उसकी अपनी होती है। मगर उस पीड़ा का प्रभाव पाठक अवश्य महसूस करता है। सुधी पाठक वर्ग की आलोचनाओं, सुझावों व अमूल्य राय का मुझे इन्तजार रहेगा।



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