मुक्तक
डा. राजेन्द्र पंजियार
साँझ की सोनल किरण को नमन मेरा
प्यार की मधुरिम छुअन को नमन मेरा
शांत सर में जो कमल उत्फुल्ल दिखता
चूमते उस रवि किरण को नमन मेरा
कूप का होता अपावन जल नहीं है
हो विशुद्ध परन्तु गंगाजल नहीं है
आँजती है मां जिसे अपने तनय को
वह किसी बाजार का काजल नहीं है
चहकती थी जो चिरैया गांव-घर में
डाल सूनी,अब नहीं आती नजर में
हो रहा पर्यावरण जब आज घायल
क्यों न तब सबका फँसे जीवन भँवर में
दौर अब हैवानियत का क्या हुआ है
आदमी ने काम-सुख का नभ छुआ है
लनुप्त होता धर्म जब भी जिन्दगी से
हिंस्र पशु नर-कृत्य पर लज्जित हुआ है
थी प्रथा संयुक्त जीवन की हमारी
सांस अंतिम गिन रही यह खेद भारी
मोतियों का माल जब टूटे बिखर कर
एक मनके से न छवि जाती सँवारी
टूट मत जाना समय की मार खाकर
कदम के नीचे रखी असिन्धार पाकर
भीरू भोगासक्त होकर तोड़ते दम
वीर मरते मृत्यु को उत्सव बनाकर
बेटियों का विश्व होता है निराला
वे सदा सौगात में लातीं उजाला
गेह में जिसके नहीं मधुमास होता
वहाँ कैसे छलक सकता सुरभि प्याला
उड़ गई चिड़िया चमन से शाख सूनी
उठ गया योगी]बची बस राख धूनी
कब तलक रहती धरोहर पास अपने
घर हुआ सूना]व्यथा की रात दूनी
प्रगति का इतिहास बेटी रच रही है
शौर्य का संसार बेटीरच रही है
अरे पापी क्यों जलाते बेटियों को
बेटियां मधुमास घर-घर रच रही है
रात का अंधियार घुलकर ही रहेगा
रोशनी का द्वार खुलकर ही रहेगा
एक चिड़िया फुदकती जब आ गई घर
शोर बन संगीत घुलकर ही रहेगा
प्रकृति से वरदान में ही माँ मिली है
सृजन के संधान में ही माँ मिली है
वह न होती प्राणीमात्र न प्रकट हेाता
इसी दिव्य विधान से ही माँ मिली है
माँ न होती घर बड़ा सुनसान लगता
विहग के बिन ज्यों विपिन वीरान लगता
आरती के दीप ले जब वह निकलती
पौद तुलसी का खड़ा भगवान लगता
दुःख उदासी माँ तुम्हें देखा न जाता
जब रहे खुश हम, तभी सब कुछ सुहाता
हृदय की भाषा सहज ही पढ़ा करती
बनाया कुछ खास विधि ने समझ आता
रोशनी बाहर भरा,पर घर अंधेरा
दीप तुलसी में न, आंगन मौन घेरा
वंदना के छंद कानों में न पड़ते
सुबह तो होती, न माँ बिन वह सवेरा
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