नासिरा शर्मा की तीन बाल कहानियां

   नासिरा शर्मा


तुन्दल चूहा


एक किसान था। उसे कहीं जाना पड़ा। घर में गेहूं के आठ दस बोरे रखे हुए थे। ऐसे समय में वह घर से बाहर नहीं जाना चाहता था। दूसरे गाँव में उसकी बहन की ससुराल में शादी थी। बोरे को संभाल कर चौकी पर एक के ऊपर जमा दिया ताकि बारिश अचानक आ जाए तो कोठरी में पानी भर जाने से गेहूं को कोई नुकसान न पहुंचे। भारी मन से परिवार सहित वह घर में ताला डाल बाहर निकला।


उसी झोपड़ी में एक चूहे का बिल था जो घर में गिरे रोटी व चावल के टूकड़े खा कर अपना पेट भर लेता था। किसान के जाने के बाद रसोई ठंडी पड़ी थी। एक दिन तो उसने इधर-उधर पड़े टुकड़े खाकर पेट भर लिया। मगर दूसरे दिन तो दोपहर होते-होते उसके पेट में भूख के कारण दर्द होने लगा। इधर-उधर उचका। अलमारी में रखे डिब्बों पर उछला। तेल की शीशी को देखा कि अगर ढक्कर खुला हो तो वह अपनी दुम डाल कर तेल से भिगा कर पी लें और भूख को शांत कर डाले, मगर उसका भी मुँह बन्द था। दरवाजा, खिड़की बन्द थी। बाहर निकलना नहीं हो सकता था। मजबूर होकर वह बैठ गया।


दो दिन गुजर गए। कमजोरी से हाल खराब था। चाहता तो नहीं था मगर मजबूर था। न चाहने के बावजूद उसने गेहूं का बोरा अपने तेज दाँतों से काट लिया और छेद से गेहूं के तीन चार दाने गिरे। उसने झटपट खा लिया। खाने के बाद उसके जान में जान आई और वह बिल में जाकर सोने के बजाए वही गेहूं के बोरे पर पड़ कर सो गया।


सुबह जब उसकी आँख खुली तो वह बोरा देख मुस्कुराया और छोटे से छेद को कुतर-कुतर कर बोरे में बड़ा सा छेद बना लिया। एकाएक गेहूं के दाने छोटे से झरने की तरह गिरने लगे। उसने जी भर कर गेहूं खाया। पेट भर गया मगर नियत नहीं भरी। लालच के मारे उसका यह हाल था कि खा पीकर लेटता फिर उठकर खाता। उसका छोटा सा पेट बड़ा हो गया। मगर उसको अपनी तोन्द नजर नहीं आ रही थी।


इस तरह खाते पीते चार पाँच दिन गुजर गए थे। किसान के लौटने के दिन करीब थे। एक दिन चूहे ने सोचा कि आज चल कर अपने बिल में सोता हूं क्या पता झोपड़े का मालिक आज रात ही लौट आए और बोरा फटा देख गुस्से में मुझे मारने की तैयारी न कर ले। मगर जब चूहे ने बिल में घुसना चाहा तो उसका शरीर बिल में घुसे ही न। यह देखकर वह चिन्तित हो उठा और सोचने लगा अब क्या होगा। मैं इतना मोटा हो गया हूँ? मुझे बिल का मुँह बड़ा करना पड़ेगा। कल यह काम करूंगा। फैसला लेकर वह लौटा और जी भर कर गेहूं खाया और वहीं बोरे पर लेट खर्राटे लेने लगा।


दो दिन गुजर गए। आलस में चूहे ने बिल को भुला दिया और मस्त होकर पूरे झोंपड़े में दौड़ भाग करता। तीसरे दिन सुबह ताला खुलने की आवाज आई और फटाख से दरवाजा खुल गया। चूहे की नींद खुल गई। उछल कर बोरे से कूदा और भाग कर बिल की तरफ भागा तो पाया कि अब तो सिर्फ उसका मुँह ही अन्दर तक जा पा रहा है। घबरा गया। डर कर छुपने की जगह तलाश करने लगा। परिवार के सदस्य इधर-उधर आ जा रहे थे। किसान की अचानक निगाह बोरे के छेद पर पड़ी तो वह चीखा, ‘‘हे भगवान! यह कैसा अनर्थ हो गया?‘‘


“क्या हुआ?‘‘ पत्नी ने पूछा।


“देख चूहे ने क्या किया है?‘‘


“ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है।‘‘


‘‘चलो चूहे का बिल ढूंढो बच्चो।” किसान ने इतना कर बिखरा गेहूं समेटा जिसमें चूहे की मेंगनी मिली हुई थी। उसे उठाकर उसने घर के बाहर फेंका। दरवाजा खुला देखकर चूहा बाहर की तरफ भागा और मिट्टी के ढेर के पीछे छुप कर हाँफते हुए बोला, जान बची तो लाखों पाए।


किसान ने जब दरवाजा बन्द कर लिया तो वह मिट्टी के ढेर के पीछे से निकला तो सामने बढ़ई को काम करते देखा जो रंदे से लकड़ी को चिकना बना रहा था। चूहे को लगा कि यह बढ़ई उसकी समस्या हल कर सकता है। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा और लकड़ी के एक टुकड़े पर बैठ उसने बढ़ई से कहा -


बढ़ई भाई! बढ़ई भाई


मेरी बिपता सुन !


बढ़ई अपने काम में लगा रहा। यह देखकर चूहे ने उससे विनती की ....


“बढ़ई-बढ़ई मेरा तुन्दल छील


तुन्दल मोरी बिल मेंन समाए


बिल बिना मैं जिऊँ कैसे?‘‘


बढ़ई उसी तरह अपने काम में लगा रहा। उसे चूहे की आवाज अपनी ठोंक पीट में सुनाई नहीं पड़ी। वह कभी कील ठोंकता तो कभी आरी चलाता। चूहे ने फिर अपनी बात दोहराई।


बढ़ई उसी तरह काम में लगा रहा। चूहे को अब भूख लगने लगी थी। उसने बेचैन होकर इधर-उधर भागना शुरू कर दिया फिर थक कर बैठ गया और विलाप करने लगा।


एकाएक चूहे को इधर-उधर दौड़ता देखकर बढ़ई चौंका और बड़बड़ाया “गन्दगी फैलाने के लिए यहाँ कैसे आ गया?‘‘ फिर एक छड़ी उठाकर उसे भगाने लगा, “भाग यहां से वरना लकड़ी के नीचे दब कर मर जाऐगा समझे।‘‘


चूहा भागा और आधी बनी मेज पर चढ़ गया। उसके चढ़ने से बढ़ई को ताव आ गया। तभी चूहे ने अपनी विनती दोहराई -


बढ़ई भाई! बढ़ई भाई


मेरी बिपता सुन।


अनसुना कर मेरा दिल न दुखा


न खाना है न ठिकाना।


मैं एक चूहा हूँ बेचारा!


सुनकर बढ़ई को अफसोस हुआ और उससे पूछा कि मुझसे क्या चाहते हो?


बढ़ई! बढ़ई! तुन्दल छील


तुन्दल मोरी बिल न समाए


बिल बिना मैं जिऊँ कैसे?


सुनकर बढ़ई ने उसे समझाया।


चूहे मियां, चूहे मियां।


सुनजो मेरी बात।


मैंने जो तेरा पेट छांटा


तू हो जायेगा घायल।


चूहे ने पूछा, “फिर मैं क्या करूं बढ़ई भाई।‘‘ बढ़ई हंसा और बोला,


“कम खा, पेट कम कर


अपने बिल में तू घुस लेगा


एक दिन मेरे चूहे भाई!


यह सुनकर पहले चूहा उदास हुआ फिर मुस्कुराया और अपनी लालच पर पछताया। बढ़ई बोला,


‘‘तू ठहर सकता है मेरी दुकान पर


मिले ठिकाना दूसरा, तो चले जाना‘‘


चूहे ने गर्दन हिलाई और धीरे से कहा -


“धन्यवाद! धन्यवाद बढ़ई भाई!


मैं लौटूंगा अपने पुराने ठिकाने


खाऊँगा थोड़ा


नहीं दूंगा किसान को दुख।”


इतना कह कर चूहा: छोटी सी दुकान के एक कोने में जाकर बैठ गया। बढ़ई अपने काम में लग गया। चूहे ने देखा तीन चार दिन बाद वह दुबला हो गया है। एक दिन वह किसान के झोपड़े में गया ताकि देख आए कि उसका छिपा बिल बन्द तो नहीं हुआ है? जब वह झोपड़ी में घुसा तो किसान का परिवार रोटी प्याज खा रहा था। उसको जोर से भूख लगी। वह छुपते-छुपाते बिल के पास पहुंचा वह खुला था। चूहा खुश होकर अन्दर जाने लगा तो आराम से वह बिल में घुस गया फिर निकला और रसोई में इधर-उधर चावल के दाने व रोटी के टुकड़े खाने लगा फिर छुपता-छुपता अपने बिल में जाकर लेट गया और मन ही मन बोला।


“अपना घर सबसे प्यारा‘‘


धीरे-धीरे उसकी आंखें नींद से बोझल होने लगी और वह कुछ पल बाद गहरी नींद में डूब गया।


 


गिल्लो बी


एक था राजा। एक दिन उसका दिल शिकार खेलने को चाहा। तो रानी ने हठ बाँध ली कि वह भी साथ जायेंगी। राजा ने उन्हें लाख समझाया, मगर वह नहीं मानी। हर बात का जवाब देतीं, “मैं जंगल देखना चाहती हूँ। मैं राह की हर कठिनाई को सहने के लिए राजी हूँ। राजा मजबूर हो गए और रानी को साथ लेकर वह शिकार पर निकल पड़े।‘‘


जंगल काफी घना था। कहीं-कहीं पर पेड़ों की डालें एक दूसरे से लिपटी हुई इस तरह नजर आतीं जैसे किसी ने हरे पत्तों की छत बना दी हो। धूप की एक भी किरण अन्दर प्रवेश नहीं पा सकती थी जिसके कारण राजा व सिपाहियों को लगता जैसे वह किसी सुरंग से गुजर रहे हों। उस पर से तरह-तरह के परिन्दों का शोर। रानी इन दृश्यों को देखकर दंग रह गईं। लेकिन जब किसी जंगली जानवर की दहाड़ सुनती तो डर जातीं। रानी के साथ दासियाँ थीं। राजा शिकार की खोज में भटक रहे थे। उसी तरह उनके सिपाही भी शिकार ढूंढ रहे थे। रास्ता ऐसा था कि काफिला कभी साथ चलता कभी बिखर जाता था।


एक बार ऐसा हुआ कि रानी और राजा अकेले रह गए और दास व दासियां पीछे कहीं छूट गए। राजा रास्ता भटक चुके थे। रानी भी परेशान हो उठीं। गर्मी बहुत थी और पास में पानी भी न था। घोड़ा भी प्यासा था। राजा एक घने पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे और रानी भी बहते पसीने को पोंछने में व्यस्त हो गई। रानी के गले में प्यास की वजह से कांटे चुभने लगे और राजा के होंठ सूख गए थे। अचानक गर्मी व प्यास से बेहाल रानी मूर्छित हो गई। राजा परेशान। पानी का दूर-दूर कोई निशान न था। राजा समझ नहीं पा रहे थे कि रानी को कैसे होश में लाएं। तभी एक बारिक सी आवाज राजा के कानों से टकराई।“च च च राजा जी। मैं गिल्लो। चा चा चा, रानी को क्या हुआ है?‘‘ यह देखकर राजा चौंक पड़े। देखते क्या हैं कि पेड़ की झुकी डाल पर बैठी गिलहरी यह आवाजें निकाल रही है। राजा चकित हो उसे देखने लगे।


“च च च रानी रे रानी! आपको क्या हुआ है!‘‘ गिल्लो पेड़ से नीचे उतर रानी के पास पहुंची।


“रानी बेहोश है। उनको प्यास लगी है। यहाँ दूर-दूर तक न झरना नजर आ रहा है न ही कोई झोपड़ी दिख रही है। पीने के लिए तो दूर रानी के चेहरे पर छिड़कने तक को पानी नहीं है।‘‘ इतना सुनते ही गिल्लो पेड़ पर चढ़ गई और ऊपर जाकर बोली।‘‘राजा रे राजा! चा चा चा ... मेरे पास ठंडा पानी है चा चा चा रानी को पिला दो।‘‘ इतना कह कर उसने ठंडे पानी की छोटी सी मटकी दिखायी। राजा ने हाथ बढ़ा कर मटकी उठायी और रानी के चेहरे पर छीटें मोर। रानी को होश आ गया।


‘‘लो पानी पी लो।‘‘ राजा ने इतना कह कर मटकी रानी के हाथों थमाई, रानी ने गला तर किया और पूछा, “इतना ठंडा पानी कहाँ से मिला?‘‘ राजा ने ऊपर इशारा किया। रानी वहाँ गिलहरी को देखकर कुछ समझ नहीं पाईं।


“रानी रे रानी! चु चु चु मैं गिल्लो!‘‘


रानी सारी बात समझ गई और गिल्लो को धन्यवाद देती हुई बोली, “आज से हमारी मित्रता पक्की। महल पहुँचते ही आपको बुलवाऊँगी।‘‘


‘‘चा चा चा मैं जरूर आऊँगी, खुशी-खुशी आऊँगी। दौड़ी-दौड़ी आऊँगी।” गिल्लो ने हँसते हुए कहा।


“अच्छा अब हम चलते हैं।” राजा ने गिल्लो से कहा और घोड़े की तरफ बढ़े। घोड़ा पानी पीकर चुस्त हो गया था। राजा के बैठते ही वह सरपट भागा। रानी ने अपनी घोड़ी को ऐड लगाई तो वह भी फुर्ती से दौड़ने लगी।


आगे जाकर राजा को अपने सिपाही मिल गए और वे शिकार खेल कर महल लौट गए।


रानी जब महल पहुंची तो लगी राजा से कहने, “मैं अपनी सहेली गिल्लो बी से वायदा करके आई थी कि महल पहुंचते ही उसे बुलाऊँगी। अब उसे लेने किसी को भेजें।‘‘


‘‘मुझे याद है। मैं भूला नहीं हूँ। उसने हम तीनों की जान बचाई है। मैं अभी सात घोड़ों वाली बग्घी उसे लेने भेजता हूँ।‘‘ इतना कह राजा ने हुक्म दिया और सिपाहियों की टुकड़ी बग्घी के साथ गिल्लो को लेने चली। उनके जाने के बाद रानी गिल्लो के लिए पकवान बनवाने लगीं।


सजी सजाई बग्घी जिस पर एक छोटा सा खूबसूरत तख्त रखा था जिस पर कालीन बिछी थी और गाव तकिया रखा हुआ था। जब फौजी टुकड़ी मजीरा और ढोल के साथ जंगल में दाखिल हुई तो सारे पशु पक्षी जुलूस देखने को उतावले हो उठे। राजसी नगाड़ों का शोर जंगल में दूर-दूर तक गूंज उठा।


गिल्लो ने यह सब देखा तो आश्चर्य में पड़ गई। ऐसा दृश्य इससे पहले किसी जीव-जन्तु ने नहीं देखा था। सब अपने-अपने बिलों, घोंसलों और गुफाओं से निकल आए। गिल्लो ने उस जुलूस को जब अपने घोंसले की तरफ आते देखा तो व्याकुल हो सीटी बजाने लगी। सिपाहसलार ने आगे बढ़कर बड़े आदर से गिल्लो को सैल्यूट दिया और मीठे स्वर में कहा, “हमारे राजा-रानी ने आपके लिए सवारी भेजी है। वह आपके स्वागत की तैयारी कर रहे हैं।‘‘ यह सुनकर गिल्लो डर गई और घबरा कर पेड़ की सबसे ऊंची फुनगी पर चढ़ कर बोली।


‘‘चा चा चा, गिल्लो न जायेगी, गिल्लो मर जायेगी, गिल्लो कभी न जायेगी।‘‘


सिपाह सलार ने बहुत खुशामद की मगर गिल्लो इंकार करती रही। तंग आकर निराश जुलूस थके कदमों से वापस चला गया। जब रानी ने सुना तो वह रोने लगीं। राजा ने उन्हें समझाया कि हम कोई तरकीब निकालते हैं। उन्होंने दरबार लगाया और समस्या का हल ढूंढने के लिए कहा। सभी ने अपनी राय दी। आखिर राजा ने फैसला ले लिया और दूसरे दिन एक घोड़े पर दत्तर और पीठ पर छोटा सा हौदा लेकर चार पांच सिपाहियों के साथ गिल्लो को लेने शाही कर्मचारी जंगल की ओर गए। जंगल में किसी को पता नहीं चला कि कौन आया है। गिल्लो भी अखरोट फोड़-फोड़कर खाने में मगन थी तभी उसे घोड़ा दिखा और वह सचेत हो गई। यह वही घोड़ा था जिसने उस दिन पानी पिया था। घोड़ा प्यार से हिनहिनाया जैसे कह रहा हो मैं तुम्हें लेने आया हूँ। टुकड़ी में से एक आदमी ने आगे बढ़कर “गिल्लो से महल चलने की विनती की मगर गिल्लो ने साफ मना कर दिया।‘‘


‘‘चा चा चा गिल्लो नहीं जायेगी। चा चा चा गिल्लो डर जायेगी। चा चा चा गिल्लो कभी नहीं जायेगी। इतना कह वह पत्तों में छुप गई।कुछ देर सवारी ने इन्तजार किया फिर वह सब महल की ओर लौट गए। घोड़ा भी उदास हो गया।


रानी उदास थी। राजा उसे दिलासा दे रहा था। रानी भी गिल्लो को समझ नहीं पा रही थी कि आखिर उसके डरने और घबराने का कारण क्या है? जंगल में अकेली रहने वाली गिल्लो कैसे डरपोक हो सकती है।


तीसरे दिन राजा ने दो बाँस एक सिपाही के साथ गिल्लो को लिवाने के लिए जंगल भेजा। दूर से गिल्लो ने जो बाँस देखा तो खुशी से उछल गई। जल्दी-जल्दी उसने मुंह साफ किया। अच्छी तरह तैयार होकर वह पेड़ से नीचे उतर तने से लिपट गई।


बाँस पकड़े जब सिपाही पास पहुंचा तो गिल्लो चीख पड़ी, ‘‘चा चा चा गिल्लो जरूर जायेगी। चा चा चा गिल्लो खुशी खुशी आयेगी। चा चा चा गिल्लो इतराती जायेगी। ... चा चा चा गिल्लो नाचती गाती जायेगी।‘‘ इतना कह गिल्लो उछल कर बाँस पर चढ़ गई और आराम से बाँस के ऊपर छोटी सी टोकरी में बैठ गई।


महल की छत पर खड़ी रानी इन्तजार में टहल रही थी। दूर से आती गिल्लो उन्हें नजर आ गई। वह खुशी से नीचे आई और फौरन हुक्म दिया कि सारे पकवान मेज पर सजा दिए जाएं और दासियों को आदेश दिया कि वह गिल्लो के नहाने के लिए स्नानगृह तैयार करें। इतना कह कर रानी गिल्लो का कमरा स्वयं देखने गईं। बड़ी सी छप्परखट पर बड़ा शानदार बिस्तर बिछा था। सिरहाने फल, सूखे मेवे के थाल सजे हुए थे। रानी हर तरफ से संतोष करके महल के बड़े दरवाजे की तरफ बढ़ीं। जहां से पहरेदार की आवाज आ रही थी।


‘‘हमारी माननीय अतिथि गिल्लो बी, महल में पधार रही हैं।‘‘ महल के दरवाजे पर पहुंच कर बाँस झुकाए गए ताकि गिल्लो वहाँ से उतर कर डोली पर बैठ जायें जिसको विशेष रूप से रानी ने प्रसिद्ध कारीगरों से बनवाई थी।


गिल्लो को प्यार कर रानी ने गिल्लो से नहाने को पूछा तो उसने गर्दन हिला कर इंकार कर दिया। रानी गिल्लो को लेकर विभिन्न व्यंजनों से सजी मेज के किनारे गईं। ऊँची कुर्सी पर गिल्लो को प्यार से बिठाया। गिल्लो को तेज भूख लगी थी। जो भी प्याला रानी गिल्लो को दिखातीं। वह खाने के लिए इंकार कर देती।


“चा चा चा! गिल्लो नहीं खाएगी! गिल्लो भूखी रह जायेगी। चा चा चा गिल्लो ...‘‘


तभी राजा ने छिले अखरोट की तश्तरी आगे बढ़ाई तो गिल्लो खुश होकर बोली, चा चा चा, गिल्लो जरूर खायेगी ... चा चा चा ... गिल्लो मजे ले लेकर खायेगी ... चा चा चा ....‘‘गिल्लो पेट भरकर खायेगी।‘‘ इतना कह कर गिल्लो ने दोनों हाथों से आधा अखरोट उठाया और कुतर-कुतर कर खाने लगी। गिल्ली अखरोट खाते हुए इतनी प्यारी लग रही थी कि राजा रानी मुस्कुराने लगे और भोजन करना भूल गए। आसपास खड़े दास दासियां भी मुस्कुराने लगीं।


गिल्लो बी ने जी भर ढ़ेरों अखरोट खाए और जम्हाई ली। रानी समझ गईं कि गिल्लो को नींद आ रही है। फौरन कहारों ने डोली उठाई और गिल्लो उछल कर उस पर जा बैठी। रानी जब डोली के साथ कमरे में पहुंची तो गिल्लो डोली में बैठी रही। यह देखकर रानी ने गिल्लो से बड़े प्यार से कहा, “सखी! कुछ देर आराम कर लेतीं।‘‘


‘‘चा चा चा ... गिल्लो डर जायेगी ... गिल्लो सो नहीं पायेगी। चा चा चा गिल्लो वापस जायेगी।”


यह सुनकर रानी दुःखी हो उठी कि क्या करें जो गिल्लो को वह सुख-सुविधा प्राप्त हो सके जो वह चाहती हैं। राजा ने सुना तो वह भी चिन्ता में पड़ गए। फिर सोचने लगे, ‘‘आखिर गिल्लो जंगल में रहती है उसे कैसे गदबदे गद्दे पर नींद आ सकती है? हमारी कमी है कि हम जानवरों को अपनी तरह रखना चाहते हैं जब कि उनकी अपनी दुनिया, अपनी जिन्दगी, अपनी आदतें और पसन्द न पसन्द हैं।‘‘


यह सुनकर रानी ने गर्दन हिलाई और बाग में किसी पेड़ पर रहने की जगह उन्होंने जूते के डिब्बे में रूई बिछाई और कमरे के कोने में डिब्बा रख दिया। गिल्लो यह देखकर प्रसन्न हो गई और डोली से कूदकर डिब्बे में बैठ कर बोली, “चा चा चा गिल्लो खुश रहेगी। चा चा चा गिल्लो आराम से सोयेगी ... चा चा चा शुभरात्रि!‘


इतना कह गिल्लो सो गई।


राजा रानी ने भी इत्तमिनान की साँस ली। खाना खाया और गहरी नींद में डूब गए।


सुबह जब रानी की आँख खुली तो उसे अपनी सखी की याद आई। अपने कमरे से निकल कर वह गिल्लो के कमरे में कई तो रानी की आँखें यह देखकर फटी की फटी रह गईं। गिल्लो की खाल के कुछ टुकड़े इधर-उधर पड़े थे जूते का डिब्बा खाली था। रूई पर खून के घब्बे थे। हवा के लिए खोली खिड़की पर बैठी बिल्ली अपने हाथ पैर चाट रही थी।


यह देखकर रानी ने अपना दिल थाम लिया और उसके मुंह से चीख निकल गई, ‘‘गिल्लो! मेरी प्यारी सखी! और रानी मूर्छित हो जमीन पर गिर गईं।‘‘


 


 देव पनिल्ला


एक दिन कौव्वा जब सोकर उठा तो उसने देखा सामने वाले पेड़ पर से चिड़िया का बच्चा जमीन पर गिरा पड़ा है। गोश्त का मुलायम गुलाबी टुकड़ा। उसकी त्वचा पर अभी रोयें भी नहीं फूटे थे। कौव्वे के मुंह में पानी आ गया। कुछ देर डाल पर बैठा बैठा आहट लेने लगा फिर उड़ कर दूसरे पेड़ की डाली पर बैठ कर चिड़िया के घोसले में झांकने लगा। घोंसला खाली था। चिड्डे चिड़िया चुग्गा लेने गए हुए हैं। ऐसा सोच कर कौव्वा मुस्कुराया। “कितने दिनों बाद ऐसा स्वादिष्ट चारा खाने को मिलेगा ... आज मैं इसको छोड़ने वाला नहीं हूँ।‘‘


कौव्वा पेड़ के नीचे उतरा। बच्चा धीरे-धीरे साँस ले रहा था। कौव्वे ने धीरे से उसके पेट पर ठोंग मारी फिर उसे ख्याल आया, ‘‘ओह! मैंने अभी तक मुँह हाथ नहीं धोया है। चल कर पहले मुँह धोता हूँ फिर मजा ले ले कर इस गर्म-गर्म चेचड़े को खाता हूँ। वैसे भी अभी अन्धेरा है। रोशनी फूटने में देर है।” इतना कर कर कौव्वा उड़ा और पानी की तलाश में इधर-उधर भटकने लगा।


दूर-दूर तक उसे न तालाब दिखा न नदी नजर आई और न ही कोई टूटा नल का पाईप, जिससे पानी गिर रहा हो। वह परेशान सा उड़ता रहा। तभी एक मन्दिर के आँगन में एक पंडित जी पत्थर पर बैठे बाल्टी के पानी में लोटा डाल-डालकर स्नान कर रहे थे गिरता पानी पत्थर के नीचे किसी छेद में जाकर गायब हो रहा था। कौव्वा यह देखकर खुश हुआ और पंख फैला कर वह नीचे उतरा। पैरों से चलता हुआ पंडित जी के पास पहुंचा। खुशमद करते हुए बोला -


देव पनिल्ला धोई टुटिल्ला


खाई चिड़ि का चेचड़ा मटकाई कल्ला


पंडित जी बदन में साबुन मल रहे थे। धीरे-धीरे किसी मंत्र का जाप भी कर रहे थे। उन्हें कौव्वे की आवाज सुनाई नहीं पड़ी। कौवे ने अपनी विनती फिर दोहराई -


देव पनिल्ला धोई टुटिल्ला


खाई चिड़ि का चेंचड़ा मटकाई कल्ला


इस बार उनके कानों में जो कौव्वे की गुहार पहुंची तो वह चौंक पड़े। उसकी बात सुनकर बोल उठे, “राम! राम! पंडित जी ने खड़े होकर इतनी जोर से अपनी धोती फटकारी जिससे कौव्वा उचक कर उड़ गया। अभी वह थोड़ी दूर ही उड़ा था कि उसे एक गुड़ बनाने वाले का घर दिखा। चारों तरफ चूल्हे पर गन्ने का रस कढ़ाई में उबल रहा था। एक आदमी पास बने कुएँ से पानी निकाल-निकाल कर पास वाले चूल्हे पर चढ़े बर्तन में डाल रहा था। यह देखकरकौव्वा कुएँ की जगत पर जाकर बैठ गया और चापूलूसी वाले अन्दाज़ में बोला भैया-रे-भैया-


आदमी बोला, “क्या है?‘‘


कौव्वा बोला, “पानी चाहिए।‘‘


आदमी ने पूछा, ‘‘किसलिए?‘‘


कौव्वे ने फौरन आगे खिसक कर कहा -


‘‘देव पनिल्ला धोई टुटिल्ला खाई चिड़ि का चेचड़ा मटकाई कल्ला।‘‘


आदमी ने उसे गौर से देखा और हँसा। हँसते-हँसते कहने लगा फिर से बोल क्या कह रहा है? कौव्वे ने बड़ी तरंग में गाकर कहा -


‘देव पनिल्ला, धोई टुटिल्ला


खाई चिड़ि का चंचड़ा मटकाई कल्ला।


आदमी बोला, “चालाक कौव्वा गू खाता है ... चल भाग यहाँ से बड़ा आया है मुँह धोकर चिड़िया का बच्चा चबाने वाला! पड़ोसी होने का धर्म निभाया नहीं कि बच्चे की रखवाली करता या फिर चोंच से उठाकर घोंसले में रख देता।‘‘ यह कह कर उसने गन्ना उठाया और मारने दौड़ा। कौव्वा निराश होकर चिन्ता में डूब गया। पौ फट चुकी थी। सफेद उजाला चारों ओर से फूट रहा था। उसने फिर से उड़ान भरी और इधर-उधर ताका। एक घर में उसे बाल्टी से पानी डालती लड़की दिखी। वह बड़ी आशा से नीचे उतरा और लड़की के पास जाकर कहा।


‘देव पनिल्ला, धोई टुटिल्ला


खाई चिड़ि का चंचड़ा मटकाई कल्ला।‘


लड़की झुंझलाई हुई थी। मालकिन ने उसे झाड़ लगाई थी। कौव्वे की कायं-कायं सुन कर उसने पानी सूतना बन्द कर दिया और हाथ में पकड़ी झाडू हवा में लहराई। मार के डर से कौव्वा भयभीत हो उठा और रुहाँसा होकर उड़ गया। कुछ दूर जाने के बाद उसने देखा कि एक मकान की छत पर लगी टंकी से पानी गिर रहा है। यह दृश्य देख वह फुर्ती से उड़ा, मगर वहाँ पहुँचते पहुँचते पानी गिरना बन्द हो गया और चिकने फर्श से फिसल कर पानी पाइप की तरफ चला गया। उसको अब लगने लगा था कि पानी न मिलने के कारण उसे चिड़िया के बच्चे के मुलायम गुलाबी गोश्त खाने से हाथ धोना पड़ेगा। उसने फिर से हिम्मत बाँधी और उड़ कर बाजार की तरफ गया। जहाँ पानी बिक रहा था। ट्रक पर ढ़ेरों पानी की बोतलें रखी हुई थीं। ड्राइवर नीचे खड़ा हाथ में बोतल लिए था। कौव्वे ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर तेज उड़ान भरी और ट्रक के सामने ड्रइवर सीट के बाहर लगे शीशे पर बैठ कर बोला -देव पनिल्ला धोई टुटिल्ला खाई चिड़ि का चेंचड़ा मटकाई कल्ला ड्राइवर जो बोतल से पानी पी रहा था। कौव्वे को इतना करीब बैठकर काय-काय करता देख चौंका फिर खाली बोतल उछाल कर फेंक हँसते हुए बोला, “क्यों, अपने को कोयल समझ रखा है क्या? इतना कह कर उसने अपने अंगोछे को झाड़ा और मुँह पोंछ कर सीट पर बैठा और बोला चल भाग। चल भाग इतना कह उसने तेजी से हार्न बजा दिया। आवाज सुनकर कौव्वे का दिल एकाएक जोर-जोर से धड़कने लगा।


कौव्वा निराश हो चुका था। उसने मन ही मन तय किया अभी धूप छिटकी नहीं है। बस सूरज अपने पीले नारंगी मुखड़े को लेकर निकला है। मेरे लिए अच्छा यही है कि मैं बिना मुँह धोए लौट जाऊँ और चिड्डा चिड़िया के आने से पहले उनके चेचड़े को चबा लूँ। इस विचार के आते ही कौव्वे के शरीर में जान आ गई। वह गाता हुआ उड़ने लगा।


बिना पनिल्ला बिन धोए टुटिल्ला


खाऊँ चिड़ि का चेचड़ा और मटकाऊँ कल्ला


खुशी-खुशी हवा में पेंगे लेता हुआ कौव्वा जब पेड़ के पास पहुंचा तो देखता क्या है। जमीन पर गिरे नन्हे से गौरय्या के बच्चे को चिंटियों और चीटों ने मिल कर आधे से ज्यादा चट कर लिया है।


नई दिल्ली, मो. 9811119489


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य