परिवर्तन
उपेन्द्र कुमार मिश्र, दिल्ली, मो. 9350899583
परिवर्तन
बंद समाज
खुलता है धीरे-धीरे
बदलते समय के साथ
बदलती सोच के दबाव से,
खुलने की इस प्रक्रिया में
खुलता है तन
खुलता है मन
खुलते हैं विचार
बौखलाते हैं कट्टरपंथी
टकराती हैं विचारधाराएँ
निकलती है चिंगारियाँ
मचती है उथल-पुथल
टूटने लगते हैं वर्जनाओं के बंधन
विरोधों, संघर्षों, विमर्शों और अवज्ञाओं के बीच
संस्कृतियों की होती है पुनव्र्याख्या
परम्परावादियों के चिरक्रन्दन को अनसुना कर
नए मूल्यों का किया जाता है स्वागत
उपयोगिता की कसौटी पर कसी जाती है विरासत
दम तोड़ने लगती हैं संकीर्ण मान्यताएँ
पीढ़ियों के मध्य गहराता है मतभेद
हर पीढ़ी तय करती है अपनी प्राथमिकताएँ
प्रत्येक बदलाव की होती है अपनी अन्तर्कथा
अपनी अन्तव्र्याथा
इतना आसान नहीं होता
किसी समाज का खुलना
आधुनिकता बनना।
चुनौती
जब भी,
‘टिक-टिक’ करती घड़ी पर
टिकती है मेरी नज़र
मैं घबरा जाता हूँ
इसलिए नहीं कि
इसकी ‘टिक-टिक’ की हर आवाज़
छीन ले रही है मुझसे
मेरे जीवन का एक पल
कर देती है मेरी उम्र को
थोड़ी और छोटी
इसलिए भी नहीं कि
मैं चाहता हूँ समय को रोकना
जिससे वह निर्धारित न कर सके
मेरी दिनचर्या
मुझे नरचा न सके
अपनी अंगुलियों पर,
बल्कि इसलिए कि
मैंने स्वीकार कर लिया है
समय की चुनौती
और अंकित करना चाहता हूँ
उसकी हर धड़कन पर
अपनी पहचान
अपनी उपलब्धि
मुझे पता है
एक दिन ऐसा आएगा
जब किसी मोड़ पर
जीवन छोड़ देगा मेरा साथ
और समय
निकल जाएगा मुझसे आगे
समय का इस तरह जीतना
मैं कैसे स्वीकार कर पाऊँगा ?