प्रकृति की पुकार

    गायत्री गौड़


 


प्रकृति पूछ रही है आज, क्यों सिसक रहा इंसान?


जैसा कर्म किया है, वैसा भोग रहा इंसान।


ईश्वर ने सुंदर रचना कर, मुझको खूब सजाया।


पर मानव, दानव बन कर सम्मान नहीं कर पाया।


भागीरथ ने घोर तपस्या से, गंगा उपहार दिया।


दूषित कर उसका मान घटाया, तू तनिक नहीं लज्जाया।


पुष्पित, पल्लवित वृक्षों से सज्जित, आँचल का हरण किया।


गगनचुम्बी गिरि काट-काट कर, हृदय विदीर्ण किया।


वन उपवन में विचरण करते, जीवों को मैंने पाला है।


रक्षण तो दूर रहा उनका, भक्षण तुमने कर डाला है।


धुंआधार प्रदूषण से, मेरा दम घोंट दिया।


चांद सितारों से सज्जित, आकाश विलीन किया।


क्षत विक्षत हो बिलख उठी मैं, भय से कंपन भी किया।


नहीं चेतना आयी मानव  को, फिर शंकर का आश्रय लिया।


 


तनिक क्रोध से केदारनाथ ने, फिर सचेत किया।


आर्तनाद से बिलख उठी मैं, पर मानव समझ न पाया।


‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ का उसने प्रमाण दिखाया।


‘कोरोना’ से हे मानव, अब इतना क्यों घबराया है?


माना है यह बड़ी  विपत्ति, पर तेरी ही  उत्पत्ति  है।


बहुत करी  मनमानी तूने, पर अब मेरी बारी है।


नहीं सचेत हुआ अब भी, फिर मेरी भी तैयारी है।


ये तो केवल महामारी है, प्रलय की गति न्यारी है।


जाग मानव, जाग! मुझको करना ना मजबूर।


गर तू संवारेगा मुझे, तो मैं भी नहीं हूँ दूर।।


 


नई दिल्ली, मो. 9810179659


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