साहित्य
रामेश्वर शर्मा
ए मेरे साहित्यकार मित्र!
तुम सदैव नकारते रहे हो
मेरे गीत ग़ज़ल और कविताओं को
बताकर सत्य और वस्तु स्थिति से परे
और महज़ कल्पना की उपज या
साहित्यकार की व्यक्तिगत भावनाओं का प्रस्फुटन कहकर
यह सत्य होते हुए भी सत्य से परे है
उदाहरण के तौर पर भीड़ द्वारा सामूहिक रूप से
किसी व्यक्ति की पीट-पीट कर निर्मम हत्या
एक तथ्य है जो सत्य भी है और वस्तु स्थिति भी
जिसे देखा होता है सैकड़ों प्रत्यक्षदर्शियों ने
कैमरों ने और कभी कभी प्रशासन ने भी
और सच मानिये कि इसे बताने के लिये
आवश्यकता है न साहित्य की न साहित्यकार की!
लेकिन क्या कभी किसी ने देखा है
उन निर्ममता की भावनाओं को
उन प्रवृतियों को उस सोच को
जो उस भीड़ के हिस्सा रहे व्यक्तियों की
एक असहाय व्यक्ति की
निर्मम रूप से हत्या करने के समय उनके
मन में पल रही होती हैं।
या फिर किसी ने देखे होते हैं उस मरते
और पिटते व्यक्ति के मन में उठते विवशता
लाचारी और दया याचना के भाव जो उपजते हैं
उस व्यक्ति के मन में ऐसे समय।
क्या उतेजित भीड़ कभी देख या समझ
पाई है उस भीड़ हिंसा से प्रभावित व्यक्ति के माता-पिता,
स्त्री,बच्चों और दूसरे संबंधियों के भाव और भावनायें
जो ऐसी घटना के प्रति उनके मन में जगते हैं।
मेरे मित्र!
यहीं से अलग होता है साहित्यकार का कर्म और धर्म
साहित्यकार अपनी हुनरबरी प्रज्ञा से
आभास करता है उन विचार और भावनाओं को
जो उस घटना के समय भीड़ और उस
हिंसा के शिकार व्यक्ति के मन में जन्मते हैं।
ये भाव और विचार अस्तित्वहीन नहीं है
और न ही ये असत्य या कल्पना की उपज
ये वह तथ्य हैं जो आँखों से देखे नहीं
मन से समझे जाते हैं।
दृष्टिगोचर न होने से विचार और भावनायें
असत्य नहीं हो जाते।
यदि कोई साहित्यकार इन विचार और भावनाओं को अपने साहित्य में स्थान देता है तो न वह वस्तुस्थिति को नकारता है और न करता है सत्य की उपेक्षा साहित्यकार की रचना नहीं होती पुलिस की तफ़्तीश न ही साहित्यकार की रचना पर आधारित करते हैं-
न्यायालय अपने निर्णय
लेकिन साहित्यकार का योगदान नहीं है
नगन्य और शून्य।
यह जगाता है समाज में एक चेतना,
एक दृष्टि और एक प्रवृति
सही और गलत को जानने पहचानने की
आगरा, मो. 7042068926