संपादकीय


देवेंद्र कुमार बहल, वसंतकुंज, नई दिल्ली, मो. 9910497972



श्रद्धेय सत्येन्द्र शरत्, नई दिल्ली


अभिनव इमरोज़ एवं साहित्य नंदिनी का संपादकीय पृष्ठ इस बार एक अज़ीम शख़्सियत, हमारे परम श्रद्धेय सत्येन्द्र शरत् जी को सादर शत शत नमन सहित समर्पित किया जा रहा है। उनके देहावसानोंपरान्त यह उनकी पहली रचना है जबकि इससे पहले भाई साहब हमारे यहाँ नियमित प्रकाशित होते रहते थे। अगर उषा जी ने हमारा अनुरोध स्वीकार कर लिया तो उन पर एक विशेषांक लाने की हमारी योजना विचाराधीन है। प्रस्तुत है उनकी एक बोध कथाः-


एक राजा था।


और राजा इसलिए था कि राजपरिवार में राजा के यहाँ जन्मा था; और क्योंकि बड़ा राजकुमार था, इसलिए पिता की मृत्यु के बाद उसी के गद्दी मिली और वह राजा बन गया।


कि वह राजा तो बन गया, लेकिन उसमें राजाओं जैसी कोई बात नहीं थी। पता नहीं, क्यों उसे राजाओं के संस्कार, राजाओं की बुद्धि और सूझ-बूझ नहीं मिली थी। कई बार वह इतनी मुर्खतापूर्ण बात करता कि उसकी राज्यसभा के सब सदस्य अवाक् होकर उसका मुंह ताकने लगते ।


जक एक बार उसने कहा-"संसार का सारा ज्ञान पुस्तकों में भरा हुआ है, लेकिन पुस्तकें ढेर सारी हैं और बिखरी हुई हैं। विज्ञान की पुस्तकें अलग हैं, ज्योतिष की अलग, भूगोल-खगोल शास्त्र की अलग, आयुर्वेद की अलग, समाज शास्त्र की अलग--यानी सब विषयों की पुस्तकें अलग-अलग हैं। मैं इतनी सारी पुस्तकें नहीं पढ़ सकता। लेकिन मैं विद्वान बनना चाहता हूँ, इसलिए आदेश देता हूँ कि संसार की सारी पुस्तकों को एकत्र किया जाये और सैकड़ों विद्वान् उन पुस्तकों को पढ़कर उनके महत्त्वपूर्ण अंश छाँटकर संकलित करें और मेरे लिए एक पुस्तक तैयार कर दें । मैं उसी एक पुस्तक को पढ़ूंगा और संसार का सारा ज्ञान अपनी मुट्ठी में कर लूंगा।"


जैसा हमेशा होता आया है, ऐसे अवसरों पर मंत्रीगण बहुत संकट में पड़ जाते हैं, किन्तु शीघ्र ही वे ऐसे संकटों से निकल बचने की युक्ति ढूंढ लेते हैं।


मुख्यमंत्री ने कुछ क्षण विचार करने के बाद कहा-"महाराज की आज्ञा शिरोधार्य है; किन्तु यह कार्य बहुत बड़ा है। इस पुस्तक के सम्पादन में बहुत समय, बहुत धन और बहुत विद्वानों की आवश्यकता होगी।"


राजा ने शीघ्रता से कहा, "हम ये सब कुछ नहीं जानते । जितने धन की आवश्यकता हो, राजकोष से ले लो। देश-विदेश के जितने विद्वानों को इस कार्य के लिए आमन्त्रित करना हो, कर लो और उन्हें इस पुस्तक को तैयार करने की आज्ञा दो। हमारे आदेश का पालन शीघ्र होना चाहिए। और हाँ, यह ग्रन्थ दस वर्ष के अन्दर तैयार हो जाना चाहिए।"


अनुभवी मंत्री जानते थे कि राजा से बहस करना बेकार है। उन्होंने सिर झुकाकर कहा-"जो आज्ञा, महाराज!" और उसी क्षण विद्वानों की सूची बनाने में व्यस्त हो गये । देश-विदेश के प्रसिद्ध समाज-शास्त्री, भूगोल-शास्त्री, खगोलशास्त्री, ज्योतिषाचार्य, वैद्य, राजवैद्य, आयुर्वेदाचार्य, संगीताचार्य, नृत्याचार्य, मूर्तिकार, चित्रकार, संगीतकार, इतिहासकार, प्राणी शास्त्र और जीव शास्त्र के धुरन्धर विद्वान्, पुरातत्त्व शास्त्री, यौगिक क्रिया में पारंगत योगी, वेद-पुराण और उपनिषदों के ज्ञाता विद्वान्—सभी गुणी जन इस महान् ग्रन्थ के सम्पादन के लिए राजधानी में आमन्त्रित किये गये। उसकी समस्त सुख-सुविधाओं की व्यवस्था की गई । सब विषयों की सारी उत्तम और प्रामाणिक पुस्तकें एकत्र कर दी गईं और इस प्रकार 'ज्ञानसागर' नाम के उस ग्रन्थ पर कार्य आरम्भ हो गया।


चौबीसों घण्टे अनवरत कार्य होते रहने के कारण दस वर्ष की अवधि में वह ग्रन्थ तैयार हो गया और एक दिन वह राजा को भेंट कर दिया गया, ताकि राजा उसे पढ़कर विद्वान् बन जाए।


राजा ग्रन्थ देखकर बहुत प्रसन्न हुआ; किन्तु जब उसे मालूम हुआ कि बारीक अक्षरों में लिखे हुए इस ग्रन्थ में दस हजार पृष्ठ हैं और प्रत्येक पृष्ठ में दो सौ पंक्तियाँ हैं, तो वह विद्वानों पर बहुत क्रोधित हुआ और ऊँचे स्वर में बोला-"मेरे पास दस हजार पृष्ठ पढ़ने का समय कहाँ है ? इस ग्रन्थ को संक्षिप्त करो और इसे पाँच हजार पृष्ठों का बना दो। तब शायद मैं समय निकालकर इसे पढ़ सकूँ । यह कार्य अभी आरम्भ हो जाना चाहिए।"


विद्वानों ने नये सिरे से कार्य आरम्भ कर दिया। दस वर्ष तक अनवरत - कार्य होने के बाद ग्रन्थ पाँच हजार पृष्ठ का बना दिया गया और राजा के सामने नये सिरे से प्रस्तुत किया गया। राजा ने पाँच हजार पृष्ठ देखकर नाक-भों सिकोड़ी और बोला-“पाँच हजार पृष्ठों को पढ़ने के लिए कम-से-कम दो वर्ष का समय चाहिए । मैं अपने  व्यस्त जीवन में से भला दो वर्ष कैसे निकाल सकता हूँ? मैं ज्यादा-से-ज्यादा एक वर्ष ग्रन्थ को दे सकता हूँ। इस ग्रन्थ को और छोटा किया जाये और इसे ढाई हजार पृष्ठ का बना दिया जाए, तब मैं इसे पढ़ूंगा।"


सम्पादन का कार्य फिर आरम्भ हो गया । सारा ग्रन्थ नये सिरे से छान लिया गया। दस वर्ष बाद वह ग्रन्थ ढाई हजार पृष्ठों का बन गया और राजा के सामने लाया गया।


ढाई हजार पृष्ठ के 'ज्ञानसागर' को देख, राजा के चेहरे पर मुस्कान आ गई; किन्तु शीघ्र ही वह उदास हो गया। जिस समय ग्रन्थ का सम्पादन-कार्य आरम्भ हुआ था, उसकी आयु चालीस वर्ष की थी। अब उसकी आयु सत्तर वर्ष थी। धीमे और उत्साहरहित स्वर में वह बोला-"अब मेरे अन्दर पहले वाली शक्ति और सामर्थ्य नहीं है। में जीवन के चौथे पहर में पहुंच रहा हूँ। मेरे लिए अब इस पुस्तक के पढ़ने के वास्ते एक वर्ष निकालना बहुत मुश्किल होगा। हाँ, यदि इसे किसी प्रकार एक हजार पृष्ठ का कर दिया जाए, तो मैं इसे छह महीने में पढ़ लूंगा और संसार का सारा ज्ञान प्राप्त कर लूंगा।"


पुस्तक पर फिर कार्य आरम्भ हो गया और पाँच वर्ष के अन्दर पुस्तक का एक हजार पृष्ठ का संस्करण तैयार हो गया। इस बीच अनेक विद्वान् मरखप चुके थे और उनकी जगह नये विद्वान् आ गये थे, जिन्होंने पुस्तक को संक्षिप्त बनाने में बहुत श्रम किया था।


किन्तु तब तक राजा की शक्ति और भी क्षीण हो चुकी थी। उसका शरीर शिथिल हो गया था। थोड़े-से श्रम से ही वह थक जाता था और उसे विश्राम करना पड़ता था। उसने हजार पृष्ठ के ग्रन्थ को देखकर विद्वानों से प्रार्थना की कि वे लोग उस ग्रन्थ को पाँच सौ पृष्ठ का बना दें, ताकि उसे पढ़ने में अधिक समय व्यय न हो।


विद्वानों ने राजा के अनुरोध को स्वीकार कर दुगनी शक्ति से संक्षिप्तकरण का कार्य आरम्भ कर दिया और पाँच वर्ष के अन्दर 'ज्ञानसागर' को पाँच सौ पृष्ठ को पुस्तक में परिवर्तित कर दिया। अब वह सचमुच गागर में सागर बन गया था। और अपने इस अन्तिम रूप में जब वह पुस्तक राजा की सेवा में प्रस्तुत की गई, तो राजा के स्वास्थ्य की यह दशा थी कि वह अधिकांश समय शय्या पर ही लेटा रहता था। उसे कम दीखने लगा था। वह ऊँचा सुनने लगा था और उसकी स्मृति बहुत क्षीण हो गई थी। उसके मस्तिष्क की ग्रहण-शक्ति लगभग समाप्त हो चुकी थी।


ग्रन्थ को देखकर राजा ने दूर से ही हाथ जोड़ दिये। जब विद्वानों ने ग्रंथ पढ़कर राजा को सुनाना शुरू किया, तो राजा बोला- "आप लोग क्या कह रहे हैं ? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। वैसे भी मेरी आयु समाप्त हो रही है। मैं विद्वान् बनकर क्या करूँगा ? आप इस ग्रन्थ को मेरी मृत्यु के बाद मेरे साथ ही जला दें। शायद उस लोक में मुझे इसे पढ़ने का अवसर मिल जाए । अब मैंने बहुत देर कर दी है।"


सचमुच नासमझ राजा ने बहुत देर कर दी थी।


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