सुकून
राकेश भारतीय, द्वारका, नई दिल्ली, मो. 09968334756
शनिवार की रात है
पूरे सप्ताह की थकान
बस इसी ख़याल से
उतरती हुई लग रही है
कि कल सुबह देर तक सोयेंगे
नाश्ता स्वाद ले-लेकर खायेंगे
बस-मेट्रो पकड़ने की जल्दी नहीं होगी
दफ़्तर पहुंचने की कोई जल्दी नहीं होगी
और ये सारा ख़याली पुलाव पकाते हुए
ये ख़याल तक नहीं आता है कि
ये सुकून बस अगली रात तक है
आधुनिक मानव
मोम की झीनी पर्त से चमकाये गये सेब
हरे रंग के घोल से हरियाई गई भिंडी
पाउडर से गरमा कर पकाये गये आम
लगने-फलने-पकने की स्वाभाविक प्रक्रिया से
जबरन हटाये गये ऐसे फल-सब्ज़ी तमाम
खा-खाकर मैं रोज़ ही डकर रहा हूं
इस बात से बिलकुल ही बेपरवाह कि ऐसे
मैं रोज़ ही थोड़ा-थोड़ा मर रहा हूं
अपने वाहन का प्रदूषण दूसरी नाक में झोंककर
अपने कूड़े-कचरे को बाहरी सड़क पर फेंककर
आठ बाई दस के दड़बे को ‘अपना’ समझकर
बाकी दुनिया के ‘पराये’ को परे रखकर
सीमित सुख भोग-भोग मैं हंस-किलक रहा हूं
आसन्न असीमित दुख से आंखें मूंदे हुए
अपने ‘भाग्य’ पर लगातार इतरा रहा हूं
और दुर्भाग्य में धड़ तक धंसता जा रहा हूं
मैं ‘पढ़ा-लिखा’, ‘आधुनिक’, ‘तरक़्कीपसंद’ मानव
अपनी ‘तरक़्की’ से बना हुआ मत्त गयंद मानव
बावजूद तरक़्की के, मरने से नहीं बच पा रहा हूं
पर मरने से बचने की बेवकूफ़ाना हरकतों से
जीने की बची-खुची सम्भावना कम करता जा रहा हूं।