विभाजन और रामलाल के अफ़साने


डा. मज़हर महमूद, नई दिल्ली, मो. 9891241192



रामलाल



 


रामलाल की गणना उर्दू के प्रख्यात कहानीकारों में होती है। कहानियों के अतिरिक्त उन्होंने उपन्यास, सफरनामे, आलोचनात्मक लेख और रेखा-चित्र भी लिखे एवं रेडियो ड्रामे व साहित्यिक दैनिकी भी। वह यद्यपि प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन से जुड़े हुए थे परन्तु अधुनिकता की ओर भी उनका झुकाव रहा था। उनकी मातृभाषा उर्दू नहीं, सरायकी थी लेकिन उन्होंने उर्दू को अपनी सृजनशीलता का माध्यम बनाया। उनके त्वरित पूर्ववती कहानीकारों में सआदत हसन मन्टो, राजेन्द्र सिंह बेदी, कृष्णचंद्र,हयातुल्लाह अंसारी,अहमद नदीम कासमी, इस्मत चुगताई, गुलाम अब्बास और मुम्ताज़ मुफ्ती जैसे बड़े और पथजनक नाम शामिल थे। उनकी मौजूदगी में कहानीकार के रूप में अपनी पहचान बनाना आसान नहीं था और रामलाल ने अपनी विशिष्ट पहचान कायम की। उनके अफ़सानों का पहला संकलन 1945 में "आईने" शीर्षक से प्रकाशित हुआ, जिसका प्राक्कथन अहमद नदीम कासमी ने लिखा था। इसके बाद उनके अफसाने अदबे-लतीफ,अदबी दुनिया, साकी,नैरंगे-खयाल और “सब-रस” जैसी श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। उन्होंने विभाजन से उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों पर भी कई कहाहनयाँ लिखी हैं। जिनकी ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा सका। आइये रामलाल के अफ़सानों के इस पहलू पर विस्तृत प्रकाश डाला जाए।


भारत की आज़ादी के साथ ही देश का विभाजन यूँ तो 15 अगस्त 1947 में क्रियान्वित हुआ लेकिन इसकी प्राप्ति के लिए द्विराष्ट्रीय-सिद्धांत के सर्मथकों और अखण्ड भारत के चाहने वालों के बीच तीव्र संघर्ष का रूझान 1940 के आस-पास प्रारंभ हो गया था। अंग्रेज़ भारत की स्वतंत्रता की स्पिरिट को कुचलने के लिए हर तरह की कूटनीतियाँ उपयोग में ला रहा था। 1943 में बंगाल में जो बहुत भयंकर अकाल पढ़ा था, उसके पीछे भी उसी का हाथ था। हिन्दू-मुसलमानों के बीच तनाव की खाई को गहरी और विशाल-काय बनाने में उसकी ही रणनीति क्रियाशील थी। देश के सभी भागों में यहाँ-वहाँ कई शहरों में सांप्रदायिक तनाव उतपन्न हो जाता था। कहीं-कहीं दंगे भी फूट पड़ते थे। इन सभी परिस्थितियों का प्रभाव हमारे साहित्यकारों पर भी पड़ रहा था। उदाहरणार्थ बंगाल के अकाल के बारे में सबसे बड़ी और सब से प्रभावशाली रचना एक लंबी कहानी के रूप में "अन्नदाता के शीर्षक से कृष्णचन्द्र जैसे महान कहानीकार के कलम से निकली। इस विषय पर ख्वाजा अहमद अब्बास,देवेंद्र सत्यार्थी और कई प्रगतिशील लेखकों ने भी यादगार अफसाने लिखे। ख्वाजा अहमद अब्बास ने इस विषय पर एक फिल्म भी बनाई। इसी तरह “भूखा है बंगाल" शीर्षक से वामिक जौनपुरी ने एक कविता लिखकर काव्यात्मक साहित्य में योगदान किया। सआदत हसन मंटो ने एक अफ़साना "ऑप्रेशन के नाम से तहरीर किया जिसमें उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति को एक बालक की ऑप्रेशन द्वारा उत्पत्ति को प्रतीकात्मक बनाकर प्रस्तुत किया। राजनीतिक तनाव केवल जनता या मुस्लिम लीग और कांग्रेस के नेताओं के मस्तिष्क में ही नहीं था बल्कि वह साहित्कारों के मानस में भी उभर रहा था। उदाहरर्णाथ मासिक “साकी” में इसके संपादक शाहिद अहमद देहलवी ने पाकिस्तान की हिमायत में संपादकीय लिखा। इसके पश्चात् मुहम्मद हसन अस्करी और अहमद नदीम कासमी ने भी पाकिस्तान की स्थापना के हक में लेख लिखे| यह वह समय था कि अंग्रेज़ ने देश के वास्तविक विभाजन के बारे में अपना दृष्टिकोण अभिव्यक्त कर दिया था और मुस्लिम लीग व काँग्रेस के साथ सीमा क्षेत्रों की फौजों की, राष्ट्रीय कोष और अन्य सम्पत्ति के बटवारे व आबादी के स्थानांतरण की समस्त व्यवस्था के बारे में भी बात-चीत शुरू कर दी थी देश का बटवारा शान्तिपूर्ण ढंग से नहीं हुआ बल्कि कुछ समय पूर्व ही से दंगों का एक अनंत सिलसिला शुरू हो गया, जो आजादी मिलने के एक अर्से बाद तक चलता रहा (बल्कि अब तक चलता आ रहा है) दंगों में लाखों इंसानों को मार डाला गया। उनके घर जला दिये गए,औरतों की इस्मत लूटी गई। दरिंदगी, वहशत, हैवानियत और अराजकता के माहौल में दोनों तरफ से लाखों आदमियों ने समूहों की सूरत में स्थनांतरण किया। रास्तों में भी उन पर कभी दंगाइयों ने हमला किया, कभी विभिन्न प्रकोपों ने। जो सैलाब में बह गए वह अलग। एक अनुमान के अनुसार इसमें कुल-मिलाकर एक लाख से अधिक स्त्री व पुरूष,बूढ़े और बच्चे मौत के घाट उतार दिये गए।


देश के विभाजन से उत्पन्न दयनीय परिस्थिनियाँ एक इतनी बड़ी भयावह दुर्घटना के समान थी, जिसके बारे में हमारे साहित्यकार खामोश नहीं रह सकते थे। इनमें सबसे पहले कृष्ण चन्द्र ने कई अफ़साने सर्जन किए जो "हम वहशी हैं' शीर्षक से किताबी सूरत में छपे।इन अफ़सानों में दंगों के पीछे विदेशी शक्ति का हाथ स्पष्ट रूप से दिखाया गया और हिन्दुओं और मुसलमानों के सदियों से चले आ रहे परस्पर परंपरागत सौहार्दपूर्ण रिश्तों को भी बड़ी भावात्मक्ता के साथ दर्शाया गया।


सआदत हसन मंटो ने "सियाह हाशिये " के शीर्षक से छोटी-छोटी लधुकथाओं (अफ़सांचों) में दंगों में लिप्त हत्यारों या वद् किए गए लोगों की मनोविज्ञानिक परिस्थतियों की सच्ची व प्रभावशाली तस्वीरें पेश कीं। फिक्र तोंसवी ने पंजाब के पांच दरियाओं के बटवारे पर आँसू बहाते हुए "छटा दरिया के शीर्षक से एक लंबा रिपोर्ताज़ लिखा जो वास्तव में एक ऐसा खून का दरिया था जो हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच बह रहा था। शाहिद अहमद देहलवी ने “दिल्ली की बिब्ता " शीर्षक से एक रिपोर्ताज लिखा, जिसका सम्बन्ध भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् घटने वाले दिल्ली के दंगों से था। पंजाबी की मशहूर कवियित्री अमृता प्रीतम ने, "अज अखाँ वारिस शाह नू” शीर्षक से काव्यात्मक शोकपूर्ण त्रासदी की संरचना की। तात्पर्य यह है कि उर्दू और पंजाबी के अतिरिक्त और भी कई भाषाओं के शुद्ध अंतः करणवाले और संवेदनशील साहित्यकार अपने विचारों की रचनात्मक अभिव्यक्ति कर रहे थे। ऐसे में नई पीढ़ी के अदीब रामलाल भी अकथनीय परिस्थितियों से गुज़र रहे थे और कहानियाँ भी लिख रहे थे। लेकिन रामलाल की कहानियों का सम्बन्ध दंगों से कम और जड़ों से उखड़े हुए शरणार्थियों और मुहाजिरों के पुनर्वास की समस्याओं से अधिक था। उदाहरणार्थ रामलाल की कई कहानियाँ "नई धरती पुराने गीत, " " एक शहरी पाकिस्तान का,” “नसीब जली ", " इन्किलाब आने तक", "एक औरत थी इलाजे गमे दुनिया तो न थी”, “भेड़िये”, “ खेतों की रानी ", " शगुन” इत्यादि पेश की जा सकती हैं। “ नई धरती पुराने गीत ", नसीम कुंजाही के अनुसार : “ एक ऐसी कहानी है जो कुछ ऐसे पंजाबी खानदानों के गिर्द घूमती है जो अपने वतने-अज़ीज़ से हजारों मील दूर लखनऊ में जिंदगी के दिन गुजार रहे हैं। जिंदगी जो बेशुमार यातनाओं से भरी हुई है, जिंदगी जिसकी तलखियों ने उन्हें एक-दूसरे से बदज़न और बदगुमान कर दिया है। इन्हीं बदगुमानियों ने दो कुंबों के दरमियान नफरत की एक दीवार खड़ी कर दी है जो पश्चिमी पंजाब के किसी शहर संभवतः मियाँवाली के रहने वाले थे और जिनके पिछले जीवन का अधिकतर हिस्सा एक साथ गुजरा था। यहाँ भी शादी ही की समारोह बज़ाहिर दोनों कुंबों को फिर से समीप ले आती है परन्तु कहानी के अंतरंग में उतर कर देखिए तो बड़े हसीन इंकिशाफ़त होंगे। यह चमत्कार वास्तव में उन लोक-गीतों की वजह से जहूर में आता है जो सदियों से उनके सीनों में महफूज़ चले आ रहे थे और जिन्हें वह एक संजोए धन की तरह अपने साथ लाए थे; गीत जिन्हें न तो चुराया जा सकता है,न कोई लुटेरा उन्हें लूट ही सकता है। नई धरती पर यह पुराने गीत ही सुलह का संदेश और प्रेम-पाठ बन जाते हैं। दिलों के मैल धुल जाते हैं और बिछुड़े हुए गले मिल जाते हैं। यह आर्ट की बहुत बड़ी फतह है। आर्ट जो वाकई जख्मों का मर्हम है और जिसकी वजह से जहर आबे-हयात की तलखियाँ भी गवारा हो जाती है जो नैश को नोश में बदल देने की कुव्वत रखता है। कहानी का यह मूल कल्पना-बिन्दू जिस दरजा हसीन व पाकीज़ा है। इससे भी कहीं हसीन व पाकीज़ातर फिज़ा कहानी में प्रारंभ से अंत तक स्थापित रहती है। लोक गीत के जादुई प्रभाव से साईंदास का बेचैन हो जाना एक अदम्य भावना के तहत महेफिले रक्सो-सुरूर में जा पहुंचना स्वयं अपने आप में एक रोचक पहल है, जिसकी दाद खुद-फरामोशियों ही से ली जा सकती है। गीत के उतार-चढ़ाव में अतीत के पावँ की चाप सुन लेना और बीते जीवन के लम्हों को लौटते हुए देखना किस दर्जा कैफ सामाँ है, इसका अनुमान कुछ वही लोग कर सकते हैं जिन्हें प्रकृति ने अतीत की प्रतिध्वनि सुनने की महत्ता भी अता की है। यह कहानी रामलाल की बेहतरीन कहानी है। प्रासंगिक्ता के लिहाज से भी और कलात्मक कोमलता और काव्यगत विनम्रता के लिहाज़ से भी रामलाल की कहानी का कौशल अन्तःमन इस कहानी में रवाँ-दवाँ मिलता है। रामलाल ने यहाँ कहानी-कला के उस शिखर को छू लिया है जिसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। विषय पर उसकी गिरिफत सिद्धि प्राप्त कर लेती है। सरला और त्रिलोक परस्पर सम्बन्ध को जिस सार्थकता से उसने व्यक्त किया है वह सौदर्यबोध-संपन्न और श्रेष्ठतम प्रतीकात्मक्त्ता का एक पवित्र उदाहरण है। रामलाल इस कहानी में पहली बार काव्यात्मक विचार शैली और साहित्यात्मक अभियव्यक्ति-कौशल की परंपरा स्थापित करता है।


एक अच्छे कहानीकार की तरह उसने यहाँ भी सादगी का दामन हाथ से नहीं छोड़ा सृजनात्मक्ता और शाब्दिक भव्यता से काम लेना उसे कभी पसंद नहीं आता। फिर भी इस कहानी के कुछ वाक्यांश ओस की उन बूंदों की याद दिलाते हैं जो फूल की पंखुड़ियों पर लुढ़क रहे हों, इस तरह कि सूरज की किरणें भी मर्मज्ञ हो रही हो। रामलाल के इस अति उत्कृष्ट साहित्यिक कृति में जो जीवन की महान वास्तविकता भी है, शब्दों में प्रसन्नता किसी तरह संभव नहीं विशेषतः दीवार को पार करने का टच तो बहुत ही सुंदर और उत्थान-जनक है। (“ नई धरती पुराने गीत" रामलाल, “पेशलफ्ज़ नसीम कुंजाही, पृष्ठ 22 से 23 प्रकाशित 1958 ) " एक शहरी पाकिस्तान का विभाजन से जन्म लेने वाली एक दुःखांत रचना है जिसमें वास्तविक्ता ने एक कहानी का रूप धारण कर लिया है। ऐसी कितनी ही अनसुलझी समस्याओं की मल्लाही आज भी हृदय से रक्त मांगती है। इस प्रकार की तलखियों का एहसास सिर्फ वही लोग कर सकते हैं जो नंगे-पैर कांटों भरी राहों से गुजरे हैं। यह किस्सा नहीं एक दिलदोज चीख है जो बेइख्तियार बुलन्द होती है और जिसमें गीतकार सा एहतिमाम आवश्यक नहीं (नसीम कुंजाही, पेश लफ्ज़, “नई धरती पुराने गीत” लेखक रामलाल, पृष्ठ 4 से 5)


दंगो के बारे में रामलाल की कहानी “एक औरत थी इलाजे गमे दुनिया तो न थी” अति श्रेष्ठ स्तरीय रचना है, जिसपर समीक्षकों का अधिक ध्यान नहीं गया है। इस कहानी का एक पात्र जो पूरे माजरे का प्रत्यक्षदर्शी है बहुत ही संवेदनशील युवक है, जिसके हृदय व मास्तिष्क पर दंगों के दौरान में एक मुसलमान औरत के सामुहिक बलात्कार के इस कदर गहरे प्रभाव अंकित हुए हैं कि वह अब किसी दूसरी औरत की तरफ देखने की हिम्मत तक खो बैठता है।


“वीरों के बाद यह दूसरी औरत थी जिसने मेरे जहन में मुस्तकिल कयाम किया चाहे उसका वजूद मैंने खुद उसका गला घोंट कर ख़तम कर डाला था लेकिन ऐसा मालूम होता था कि वह औरत अभी मेरी न थी। वह औरत मुझसे जुदा न हुई थी। इस वाकए ने मेरे जहन में एक ऐसा जमूद कायम कर दिया कि किसी औरत को देखते ही मुझे वहशत होने लगती। जो औरत भी मेरे सामने आती मुझे यूँ महसूस होता कि वह अभी चलते -चलते लेट जाएगी और एक हुजूम भागकर उसे घेर लेगा और फिर कतारें बननी शुरू हो जाएंगी। मैं औरत की ज़ात से ख़ौफ खाने लगा। पहले मैंने औरत का इतना भयानक तसव्वुर नहीं किया था। इस तसव्वुर से बचने के लिए मैंने अपने एक नए तसव्वुर की आढ़ ली, अपने आपको बहलाने के लिए, झाँसा देने के लिए एक बहुत ही, खूबसूरत, शौख, नर्म, नाजुक औरत को अपने तख़य्युल में जन्म दिया और उसकी परवरिश की। उसकी परवरिश अभी तक करता फिरता हूँ| वैसे तो मेरे जहन में बेशुमार हसीन औरतें घूम रही हैं। लेकिन मैंने तुम्हें बता दिया है कि ऐसी औरतों से मुझे खौफ आता है और जो नई औरत मेरे जहन में उभरी है उससे मुझे जरा डर नहीं लगता और मुझे यकीन है कि मुझे ऐसी औरत कहीं नहीं मिल सकती लेकिन मैं चूँकि जिंदा रहना चाहता हूँ इसलिए उसका सहारा लिया है। दूसरी औरतों की मानिंद तुम्हारी, कुर्बत का अहसास भी मेरी मौत को मेरे बहुत, करीब ला खड़ा करता है। मैंने इसलिए तुम से दूर-दूर रहने की सई की। लेकिन तुम मेरे नज़दीक सरकती आईं। मेरी रूह पर छा जाने की मुसलसल कोशिश करती रहीं और आज मैं तंग आकर तुम्हें यहाँ घसीट लाया हूँ ताकि जिस आग को तुम सीने में दबाए मेरे पीछे-पीछे घूम रही हो, आज उन शोलों को ठंडा कर दूँ। तुम्हारी आग मुझे जिंदा नहीं रख सकती। बल्कि मुझे एक ठंडी मौत का अहसास देती है। लो अब लेट जाओ। यह कपड़े उतार डालो और फिर मुझे इजाजत दो कि तुम्हारा भी गला घोंट दूं। शायद इस तरह वह औरत मुकम्मिल तौर पर मर सके। शायद इस तरह मेरा जहन भायनक उलझनों से धुल सके और एक नई सुबह की मानिंद निखर जाए। तुम मुझसे मुहब्बत करती हो ना......... ( कहानी “एक औरत थी इलाजे-गमे-दुनिया तो न थी " सम्मिलित “इन्किलाब आने तक लेखक रामलाल, बनारस, 1949 पृष्ठ 66 से 67 )


रामलाल की चार और कहानियाँ भेड़िये, खेतों की रानी, जहर थोड़ा सा, और नसीब जली अपने दृष्टिकोण से स्वस्थ मूल्यों की पासदारी भी करती हैं। लेकिन अधिकतर समीक्षकों के अनुसार उन पर कृष्ण-चन्द्र के असरात अधिक स्पष्ट नज़र आते हैं, जिन्होंने "हम वहशी हैं" किताब लिखकर उर्दू साहित्यकारों और पाठकों को भावनात्मक रूप से काफी प्रभावित ही नहीं किया था बल्कि किसी हद तक उनका जहन भी बदल कर रख दिया था। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि रामलाल की उक्त वर्णित कहानियों में पीत-पत्रकारिता, शाब्दिक अतिशयोक्ति और सुनी-सुनाई बातों का वृत्तांत कम है और निजि तौर पर उन अनुभूतियों को झेलने का अहसास अधिक मिलता है।


“भेड़िये” कहानी में रामलाल ने पाकिस्तान के एक ऐसे मुस्लिम बुजुर्ग करीम को पेश किया है जो उसके पड़ोसी की बेटी,जिसके माँ-बाप और जो अन्य करीबी रिश्तेदार मारे जा चुके हैं और अब उसकी पनाह में है, वह हर कीमत पर उसकी जान बचा लेना चाहता है। लेकिन गाँव वाले और उसकी बीवी तक उसके खिलाफ हो गए हैं और अंत में उसके दृढ़ संकल्प की प्रतिक्रिया में उसकी बीबी घर छोड़कर चल देती है। "जहर थोड़ा सा” कहानी में पश्चिमी पंजाब के अधेड़ आयु के एक सिख स्टेशन मास्टर की मुलाकात एक ऐसी मुसलमान लड़की से होती है जो अपने अपहरण करने वाले एक सिख ज़मींदार को जहर देकर पाकिस्तान चली जाना चाहती है। सिख स्टेशन मास्टर उसे इंडिया में नियत पाकिस्तानी डिप्टी हाई कमिश्नर के कार्यालय पर पहुंचाने में पूरी मदद करता है। लेकिन साथ ही उससे विनती करता है कि जब वह पाकिस्तान पहुँच जाए तो वहाँ उसकी दो बेटियों से भी जा कर मिले जिन्हें वहाँ के एक मुस्लिम ज़मीदार ने अपहरण करके अपने घर में डाल रखा है। वह उससे कहता है कि वह उसकी लड़कियों के हाथ में भी चोरी छुपे थोड़ा सा जहर पहुँचा दे ताकि वह भी उस जाबिर जमींदार का खात्मा कर सकें। "नसीब जली" भी रेलवे वर्कशॉप में कर्मचारी एक सज्जन सिख कारीगर की कहानी है जो अपने पड़ोसी अब्दुल कादिर जिसके पीछे दंगाई कुत्तों की तरह लगे हुए थे, अपनी बीमार बीवी के साथ रजाई में छुपाकर इस तरह जान बचा लेता है कि उसने अपनी बीवी के सीने पर कृपान रख कर कहा कि यदि दंगाई यहाँ आएं तो उन्हें यह मालूम न हो कि रजाई के अंदर तुम दो लेटे हुए हो या फिर वर्षों बाद वही अब्दुल कादिर अजमेर शरीफ के उर्स में हिन्दुस्तान आता है तो वह उससे भी मिलने का ख्वाहिशमंद है। इसलिए कि उसी ने उसकी जान बचाई थी जबकि सिख कारीगर की बीवी आज तक उस बात को नहीं भुला सकी कि उसने अपने पति के खौफ से एक गैर-मर्द को अपने सीने के साथ चिपका कर उसकी जान बचाई थी


सामान्यतः दंगों के अफ़सानों के संबन्ध में जो समीक्षा सामाग्रि उपलब्ध है उसमें कृष्णचन्द्र के अफसानों को जो “हम वहशी हैं" में शामिल हैं, ज्यादा महत्व दिया गया है। मंटो के “ सियाह हाशिये” के अफ़साने भी चर्चा के विषय रहे। इसमें काई संकोच नहीं कि कृष्णचन्द्र की सशक्त गद्य उनके इन्हीं अफ़सानों में अपने चरमोत्कर्ष पर थी। इसीलिए कृष्णचन्द्र की आवाज़ को ज़्यादा तवज्जोह से सुना गया और उसके बाद की पीढ़ी के लिखे हुए अफसानों को ज्यादा तवज्जोह से नहीं पढ़ा गया, जो अनुभूतियों की वास्तविक्ता और कला की विशिष्ठता के उच्च उदाहरण थे। उन पर कृष्णचन्द्र की तरह पत्रकारी व भावनात्मक मूल्य शैली की परछाइयाँ मौजूद नहीं थीं। लेकिन रामलाल और उनकी पीढ़ी के कहानीकारों जिनमें इन्तिज़ार हुसैन, जोगिन्दर पॉल, शौकत सिद्भीकी, सतीश बत्रा, खदीजा मस्तूर और हाजरा मसरूर शामिल हैं, की दंगों के परिप्रेक्ष्य में लिखी हुई कहानियों में मुहाजिरों के मानसिक पुनर्वास का महत्व बहुत अधिक है जिनका जिक्र कृष्णचन्द्र,बेदी, मंटो या उनके हम-उमर कहानीकारों के यहाँ लगभग नहीं मिलता। उस का कारण शायद यह रहा हो कि रामलाल और उनके साथी अफ़साना निगार जिनका ऊपर जिक्र किया गया है, मानसिक व शारिरिक दोनों रूपों में उन अनुभूतियों से स्वयं गुजरे, दूसरों की समस्याओं को भी अपनी आँखों से देखा और इन्हीं लोगों के बीच रह कर उनके पुनर्वास की समस्याओं का खुद भी हिस्सा बने।


रामलाल के अफ़साने उखड़े हुए लोग, एक शहरी पाकिस्तान का, कब्र, एक और पाकिस्तानी इत्यादि ऐसे अफ़साने हैं जिन्हें उर्दू साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो चुका है। इन अफ़सानों में वह सारी समस्याएँ जो जड़ों से उखड़े हुए लोगों को वर्षों-वर्ष तक पेश आती रहती हैं और वह मानसिक तौर पर नई धरती पर जाकर भी संतुष्ट हो जाने के बावजूद आबाद नहीं हो सकते बल्कि ज़मीन और आसमान के दरमियान दुविधाओं में पड़े रह जाते हैं और इससे मानसिक तौर पर उनकी नई पीढ़ियाँ भी किसी न किसी तरह प्रभावित रहती हैं, रामलाल ने बड़ी विशिष्टता से प्रस्तुत किए हैं।


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