ज़िन्दगी के रंग


प्रभा डोगरा, पंचकूला, मो. 9872577538


यह कहानी कहाँ से शुरु कर कहाँ तक कहूँ यह मैं ख़ुद भी नहीं समझ पाती ! कुछ तो है जो मेरी माँ की महसूस और भुगती गुज़रे ज़माने की कहानी (?)/सच्चाई को ज्यों का त्यों कहने से रोकता रहा है मुझे; शायद यह दो धर्मों या अब देशों के लोगोंपर हावी उस समय की हैवानियत को न बयां कर करने की ख़्वाहिश या इंन्सान की हैवानियत से पर्दा उठा; आईने में न झाँकपाने की औरत की शर्म !! जो भी हो, करोड़ों के बेघर और तबाह हो जाने की दर्दनाक और शर्मनाक हक़ीक़त को नई पीढ़ी के सामने ला मनों में जमी मैल की परतों को कुछ कम कर पाने की एक छोटी सी कोशिश है मेरी यह हक़ीक़त की दासतांन।


सन् 1962/63 का वह दिन जब एक सिविल इन्जीनियर एम .जी.कश्यप दफ़्तर से घर लौट अपनी पत्नि निर्मला को एक काग़ज़ दिखा कर कहते हैं कि- यह चिट्ठी दिल्ली के बैंक से आई है। हमने सन् 1947 में जो बक्सा बहावलपुर के बैंक में रखा था उसके दिल्ली आने की ख़बर केसाथ लिखा है कि ज़रूरी शिनाख़्त लेकर आएँ और अपनी अमानत ले जाएँ।" वह इन्जीनियर जो 15 साल पहले वह बक्सा बहावलपुर के इम्पीरियल बैंक में नाउम्मीदी और उम्मीद की पतली डोर पर झूलता रख आया था और अब तक उसके वापस मिलने की सारी उम्मीद छोड़ चुका था, समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या करे! वह एक तकनीकी शिक्षा पाया, मनुष्य को सर्वोपरि ताक़त मानने वाला भला इन्सान जिंन्दगी के कई रंग देख चुका था! उसकी पत्नि को जिंन्दगी की हर मुश्किल से निकलने के बाद, अपने गुरु जिन्हें वो भगवान से कम न मानती थीं, पर पूरा भरोसा था ! उसने उस बक्से के ताले की चाभी और  वह मोहर जिससे ताला सील किया था सम्हाल रखा था। नाउम्मीदी को उसने पूरी तरह नहीं ओढ़ा था, उसके विश्वास की लौ ना-उम्मीदी के अंधेरे से लड़ती रही!!


ख़ैर, पत्नि के ज़ोर देने पर कश्यप साहब दिल्ली के लिए रवाना हो गए। दिल्ली की  स्टेट बैंक की मेन ब्रांच जाकर जब बक्सा देखा तो उनका शक यक़ीन में बदल गया; बक्से के ताले पर लगी सील टूटी हुई थी !! उन्होंने धड़कते दिल से ताले में चाभी घुमाई और बक्से का ढक्कन खोला, बक्सा भरा देख ज्यों का त्यों बंद कर जंरूरी कार्रवाई की बक्सा लेकर बिहार (अब झारखण्ड) के शहर राँची  आ गए; जहाँ वे उड़ीसा में 15 साल नौकरी कर 'डेप्युटेशन' पर - कुछ साल पहले जवाहरलाल नेहरू द्वारा शुरु की परियोजना 'हेवी इन्जीनियरिंग कॉरपोरेशन' -नौकरी करने आए थे। मक़सद था 4,4/5-5 साल की उम्र में हॉस्टलों को भेजे बच्चों को घर के माहौल में लाना !!


कश्यप साहब की पत्नि निर्मला देवी ने जब उस बक्से को मन ही मन प्रार्थना करके बड़े भरोसे से खोला तो अपने पति की  ओर देखा। उनको 'इन्सानियत' या किसी 'सिस्टम' से ज़्यादा अपने भरोसे पर भरोसा था और उनका विश्वास जीत गया !! उस बक्से में रखी सारी चीज़ें - गहने, ज़ेवरात और कपड़े ज्यों के त्यों रखे थे। सिर्फ़ एक पश्मीना का दुशाला कीड़ों ने खा लिया था, उस पर लगी चाँदी और रेशमी तारों से बुनी पट्टी ( बॉर्डर ) बच रही थी ! इन गहनों, ज़ेवरातों और रेशम के थान से बाद में समय -समय पर उन्होंने अपने परिवार की ज़रूरतों -शादी ब्याह वग़ैरह की ज़रूरतों को पूरा किया ।


अब चर्चा इतिहास के उस काल-खण्ड की करनी होगी, जिसके चलते इस बक्से को भर बहावलपुर के इम्पीरियल बैंक में रखा गया। यह मानव इतिहास का सबसे अंधेरा, काला और नृशंस(बर्बर) समय था। सन् 1947 का वह साल महीने व दिन जब सारे धर्मों, मज़हबों को ताक पे रख 'इन्सानियत' का पुतला "मनुष्य" धर्म के नाम पर एक दूसरे से जानवरों से भी बत्तर, हैवानियत के सबसे निचले दर्ज़े क्या उससे भी गिर, बर्ताव कर उठा !!


यह एक देश के दो हिस्सों में बाँट दिए जाने की दर्दनाक हक़ीक़त है जिसके चश्मदीद गवाह और भुक्तभोगी  कश्यप साहब उनकी पत्नि निर्मला देवी व परिवार थे ! उन्हीं की बेटी मैं, उस ख़ौफ़नाक समय में छ:महीने की उम्र में अपने आठ साल के भाई और पाँच साल की बहन के साथ कैसे -कैसे हालात से गुज़र बच गए!!


यह सही है कि मैं जो कुछ लिखने जा रही हूँ, वह अपनी माँ की ज़ुबानी कई बार सुना था; हो सकता है उनकी भावनाओं ने इस कहानी पर,उनकी किस्सागोई पर कुछ असर डाला हो पर हर हाल में हक़ीक़त, हक़ीक़त ही रहती है।


"अंग्रेज़ों भारत छोड़ो" के नारों से 'इंन्डिया',  'हिन्दोस्तान ' मुग़लों का दिया नाम या भारत जिसे राजा भरत के नाम से जाना गया, गूँज रहा था। इसमें हर धर्म, मज़हब, तबके के औरत -मर्द और बच्चे शामिल थे। हिन्दोस्तान की यह कहानी सब जानते हैं कि अंग्रेज़ों ने जाते जाते हिन्दोस्तान को दो हिस्सों 'पाकिस्तान 'और 'हिन्दोस्तान' में बाँट दिया। गांधी जी की अगुवाई में जब यह आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया तो लगने लगा कि अंग्रेज़ भारत को आज़ाद देश का दर्ज़ा दे देंगे।ऐसे समय गांधी  जी के क़रीबी राजनीतिज्ञों ने धर्म के नाम अलग इलाक़े की माँग पर ज़ोर देना शुरु कर दिया जिनमें 'जिन्ना' साहब सबसे आगे थे। हर बार हर बात मनवाने के लिए अनशन और सत्याग्रह करने वाले गांधी जी; जिन्ना साहब की इस माँग -धर्म के आधार पर उन्हें इस्लाम बहुल राज्यों को एक नए मुल्क "पाकिस्तान" की शक्ल में चाहिए - को क्योंकर मान गए ??!! ख़ैर इस मुद्दे की तह में न जाकर इस कहानी के मुद्दे- हिन्दोस्तान के बँटवारे से हुए क़त्लेआम  और शर्मनाक मंज़र से गुज़रने के सच का बयां करें।


यह कहानी नए बने पाकिस्तान की बहावलपुर रियासत में जन्म लेती है। बहावलपुर की रियासत उस समय उत्तर भारत की सबसे बड़ी रियासत थी। बहावलपुर के नवाब के 'एस्टेट इंन्जीनियर ' कश्यप साहब जिन्होंने रुड़की में अंग्रेज़ों  के बनाए पहले  इन्जीनियरिंग कॉलेज' थॉम्सन एन्जीनियरिंग कॉलेज' से सिविल इन्जीनियर की डिग्री हासिल की थी, कई सालों से पश्चिमी पंजाब (अब पाकिस्तान) के इलाक़ों में नौकरी करने के बाद,बहावलपुर की रियासत में काम कर रहे थे। अंग्रेज़ों  का भारत छोड़ना जैसे -जैसे तय होता गया वैसे -वैसे उन इलाक़ों को जिन्हें बाँटा जाना था; एक ख़ौफ़, एक घबराहट के माहौल ने जकड़ना शुरु कर दिया।वही लोग - हिन्दू या मुसलमान -जो कन्धे से कन्धा मिला ताउम्र अंग्रेज़ों से लड़ते रहे ; एक दूसरे को शक की नज़र से देखने लगे ! ठीक उसी तरह जैसे एक परिवार के बँटवारे के समय उस परिवार में साथ जन्मे, पले,बढ़े लोगों में  होता है। यह बँटवारा उससे भी ज्य़ादा, इस क़दर  ख़ौफ़नाक और शर्मनाक होगा इसका इल्म किसी को नहीं था ! धर्म के नाम पर इन्सान,इन्सान के ख़ून का प्यासा ऐसा हुआ कि आज भी दोनों ही तरफ़ के लोगों के रौंगटे खड़े हो जाते हैं, जब इन क़िस्सों को सुनते हैं!


इन शिनाख्त़ किए गए दोनों ही तरफ़ के इलाक़ों में शाम ढलते ही मुहल्लों में "अल्लाह -हु-अकबर" और " हर हर महादेव " के नारे गूँजते, घरों में औरतें, बच्चे और बूढ़े अपने -अपने खुदा या ईश्वर से  मिन्नतें प्रार्थना किया करते - "उनके ज़िले,गाँव,मुहल्ले या घर पर यह दुधारी तलवार न पड़े !! अब भी कुछ बुज़ुर्गों और इन्सानियत में विश्वास रखने वालों को भरोसा था कि कुछ दंगे फ़साद शायद हो के फिर सब ठीक हो जाएगा। इन्हीं में बहावलपुर के दरबार के आला जज,जो मुसलमान भी थे और  एम जी कश्यप साहब,जो वहीं इन्जीनियर थे के क़रीबी भी थे, थे। उनका ख्य़ाल था इन हालातों का असर बहावलपुर में नहीं होगा; हुआ भी तो इतना वहशियाना न होगा !!


कश्यप साहब के घर 28 फरवरी 1947 को एक बेटी का जन्म हुआ। उस समय तक हवा काफ़ी गर्म हो चली थी, अंग्रेज़ों ने ऐलान किया कि इन इलाक़ों में जो कोई अपना क़ीमती सामन सम्हालकर रखना चाहें; उसे सीलबंदकर इम्पीरियल बैंक की  उस जगह की ब्रांच में रख दें। बँटवारे के बाद वो लोग जहाँ होंगे, उन्हें मिल जाएगा। जिन लोगों ने धड़कते दिल और कुछ नाउम्मीदी के साथ बैंक में सामान रखा उनमें कश्यप साहब व उनकी पत्नि भी थे। यही वह बक्सा था जो15 साल के लम्बे अरसे के बाद कश्यप साहब को मिला था ! पर, यह कहानी इतनी साफ़ और सपाट नहीं!! वह बहुत पेचीदा, विश्वास -अविश्वास और ख़ूँ-रेज़ी की है।


हाँ, तो अगस्त 1947 की वह मनहूस रात जब एक देश को टुकड़ों में बाँटने वाली सरहद का ऐलान किया गया ;वह बच्ची 6महीनों की हो चुकी थी। इस बीच कश्यप साहब जो 'हिन्दुत्व' के नए सुधारवादी तबके 'आर्य समाज' के सिद्धान्तों को मानते थे, इस्लाम की पाक क़िताब 'क़ुरान' भी पढ़ चुके थे;अपने साथी जज,खान साहब के साथ  बा -क़ायदा कलमा याद कर पढ़ने लग गए थे। उनका मानना और कहना था कि अगर ईश्वर हर इन्सान और जीव में है,हर कहीं है; तो मैं हवन यज्ञ करूँ, गायत्री का जाप करूँ या कलमा पढ़ूँ,इबादत तो उसी एक की होगी जिसने सबको बनाया !


14 अगस्त की रात जब क़त्लेआम शुरु हुई -चश्मदीद - मेरी माँ के कहे अनुसार वह सिर्फ़ क़त्ल का मंज़र नहीं था ;उन सभी लोगों को जो इस्लाम को मानते नहीं थे, इसलिए "काफ़िर" थे - क्या बच्चे क्या बूढ़े सभी को मौत के घाट उतारा जा रहा था। औरतों के कपड़े उतार,नंगा कर हर तरह से बेआबरू कर मारा जा रहा था; उनके शरीर के उन हिस्सों को जो उन्हें माँ  की गरिमा से नवाज़ते हैं काट - काट कर बर्छियों, भालों पर उछाला जा रहा था! नन्हें दुधमुँहे बच्चों को जीते जी हवा में उछाल बर्छियों -भालों पर रोक मारा जा रहा था !! कैसा ख़ौफ़नाक, दर्दनाक और शर्मनाक रहा होगा वह मंज़र !!


लोग अपने घरों में क़ैद हो रहे थे। ग़ैर- मुसलमानों के घर फूँक, बंद दरवाज़े ज़बरदस्ती तोड़ वहाँ रहने वालों को बेआबरू  कर उन्हें ख़ाक में मिलाया जा रहा था। जो लोग उस मनहूस रात के पहले ही अपने "वतन", घर को छोड़ नई शिनाख्त की सरहद के पार चले गए, उन्हें घर छोड़ने का दु:ख,अफ़सोस और उन हालातों से नफ़रत होना स्वाभाविक है। कश्यप साहब व उनका परिवार इसी आस पर रुके रहे कि हालात इतने ख़राब नहीं होंगे, फिर खान साहब का भरोसा और इन्सानियत का तक़ाज़ा भी था !


कुछ ही दिनों में हालात बद से बत्तर हो गए, कश्यप साहब को, जिनके लिए नवाब साहब / अमीर ने बहावलपुर न छोड़ने  का हुक्म देकर कहा कि कश्यप साहब व परिवार को  मिलेट्री की पूरी हिफ़ाज़त मिलेगी; अपने परिवार के साथ एक रात अपनी पर्दों लगी कार में  छुपकर बंगला छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। कुछ दूर जाने के बाद कार ख़राब हो बंद होने पर पास केगेस्ट हाउस की पिछवाड़े की दीवार तोड़ निकल पिछवाड़े के मकान में खानसाहब के घर पनाह लेनी पड़ी ! कश्यप साहब पाजामा कुर्ता शेरवानी और टोपी पहनते, उनकी पत्नि बुर्क़े में रहतीं, उनके बेटे (हितेष) को "हक्की" बड़ी बेटी (उषा)को "सुरइया" के नाम से पुकारते।खान साहब के घर में न इस्तेमाल होने वालेकमरे में दरवाज़े खिड़कियाँ  बंद कर एक अंधेरे कमरे में ताले बंद कर रहना पड़ा कि किसी को यह पता न चले कि वहाँ कोई रहता है ! खान साहब के अलावा उनकी बेग़म और बेटी ही यह राज़ जानते थे। उनकी बेटी मौक़ा देख दो बार उन्हें खाना पहुँचाती। कश्यप साहब खान साहब केसाथ हालात की ख़बर रखते। खान साहब को लॉ एंड ऑर्डर  रखने का ज़िम्मा सरकार ने दिया था।कश्यप साहब के परिवार को छुपाना ज़रूरी था क्योंकि खान  साहब का बड़ा बेटा कट्टरपंथी हो गया था पर वालिद के डर से घर से बाहर रहता था। छोटा बेटा कट्टर पंथी नहीं था पर यह बात उससे छुपाई गई। न जाने इस तरह कितने दिन बीते; एक दिन जब खान साहब और कश्यप साहब बाहर गए थे, खान साहब का बड़ा बेटा घर आया जाने कैसे उसे शक होगया और वह बंद दरवाज़े को ज़ोर ज़ोर से खटखटाने लगा,जब दरवाज़ा नहीं खुला तो ज़बरन दरवाज़ा तोड़ने की कोशिश करने लगा, ऐसे में जब निर्मला जी को लगने लगा कि दरवाज़ा टूट ही जायेगा तो उन्होंने इशारे से बेटे को समझाया बेटी की उँगली थाम,नन्ही बेटी को गोद में लेकर दूसरे दरवाज़े से दालान की ओर जहाँ बेगम साहिबा थीं बेतहाशा भागीं!! रौशनी में आँखें चुंधिया रहीं थीं पर किसी तरह वे बेग़म साहिबा तक पहुँच सारी बात बता पाईं। बाहर गए दोनों मर्दों के आने तक वे किसी तरह इस परिवार को बचाए रख पाईं।इसके बाद खान साहब को भी लगने लगा कि ज़्यादा दिन तक वे इस परिवार को नहीं बचा पाएँगे, कश्यप साहब ने भी ज़ोर दिया कि अब रहना नामुमकिन है, ऊपरवाला जो चाहेगा देखेंगे,हमें यहाँ से निकालिए। खान साहब जो अपने दो साथियों -मि. मेहता और मि. मून के साथ हालात पर नज़र रखे थे,और हिन्दोस्तान जाने वाली बसों ट्रेनों की ख़बर रखते थे, को पता चला कि उस रात किसी ख़ुफ़िया समय पर शरणार्थीयों को ट्रेन से हिन्दोस्तान भेजा जाएगा। कश्यप साहब को परिवार समेत एक पर्दा लगी कार से स्टेशन ले जा ट्रेन में बैठा दिया गया। माँ के कहे अनुसार उस ठसाठस भरी ट्रेन में मेरे जैसे कई दुधमुहें बच्चे थे, जिनके रोने पर कईयों ने डर कर उन्हें ट्रेन से फेंक दिया ! कुछ लोगों ने माँ से भी कहा,उन्होंने यह कह कर कि क्या पता इन बच्चों की तक़दीर से ही हम सब बच जाएँ,इन्कार कर दिया !! ख़ैर, हम भी जैसे तैसे ट्रेन पर लद फ़िरोज़पुर स्टेशन पहुँच गए। ईश्वर ने हमें हिन्दोस्तान की सरहद के अंदर तो पहुँचा दिया, पर हमारे दु:खों के दिन और हमारे हौसले को आज़माना अभी बाक़ी था!!


स्टेशन पर ट्रेन खड़ी ही हुई थी कि फिर भगदड़ मच गई ; सतलुज नदी पर फ़िरोज़पुर की सीमा से ऊपर बना बाँध टूट गया था जिससे नदी में पानी बढ़ने लगा ! धीरे धीरे पानी स्टेशन के प्लेटफ़ार्म, गाड़ी के डिब्बों की सीढ़ियों को पार कर डिब्बों में भरने लगा। पहले, डिब्बे का फ़र्श फिर नीचे की बर्थ को डुबोता पानी ऊपरी बर्थ तक पहुँच गया ! जैसे -जैसे पानी चढ़ता गया लोग ऊपर और ऊपर बैठते हुए डिब्बों की छतों पर बैठने को मजबूर हो गए ! पानी के तेज़ बहाव में कुछ डिब्बे उलट भी गए; बाढ़ के पानी में इन्सानों, जानवरों की लाशें, उखड़े दरख़्त और झाड़ियाँ बहे जा रहे थे !! तीन दिन और दो रातों के बाद पानी धीरे धीरे उतरने लगा, लोगों की सहमी सांसे कुछ सहज होने लगीं  तो लोग वहाँ से बाहर हिन्दोस्तान में अलग अलग ठिकानों कोजाने के ज़रिए का पता लगाने शहर जाने लगे। पानी की ज़रूरत सबको महसूस हो रह थी पर स्टेशन के सारे नलके टूट गए थे, जाने कैसे एक नलका बच रहा था ! कश्यप साहब शहर गए थे,जहाँ उनकी मुलाक़ात अपने एक क्लासमेट से हुई। उनकी पत्नी जो स्टेशन पर थीं, ने देखा स्टेशन पर एक ओर कुछ भीड़ जमा हो रही है; उन्होंने बेटे को भीड़ की वजह पता करने भेजा। पता चला वहाँ नल में पानी है सब वहीं जा रहे है।निर्मला जी भी बच्चों समेत जाकर लाईन में खड़ी हो गईं।लाईन में कुछ दूर पर निर्मला जी ने देखा कि एक जवान लड़का पानी भरने वालों का लेखा -जोखा रख रहा है, और आगे जब पहुँचीं तो लड़का जाना पहचाना लगा ! याद करने लगीं तो ख़्याल आया कि वह तो उनके मायके -मुकेरियां में  घर के सामने के मैदान में लड़कपन में खेलता था! उन्हें उसका नाम भी याद आ गया,उन्होंने बेटे हितेष को भेज कर उसका नाम व पता जाना; उनकी याददाश्त ने उनका साथ दिया था !! वो लड़का हैरान सा निर्मला जी के पास पहुँचा, सारी बातें जानने के बाद कश्यप साहब के वापस आने पर अपने क्वार्टर में ले  गया। वह लड़का उन दिनों रेलवे में कश्यप साहब के उसी क्लासमेट के साथ काम करता था,उसने बताया की रास्ते साफ़ होने में तो वक़्त लगेगा पर अगले कुछ दिनों में एक इंन्सपेक्शन ट्राली  रेल लाईन का मुआइना करने जाएगी जो उस पुल की लाईन का मुआइना करने वाली है जिसके कुछ खम्भे बाढ़ से टूट गए हैं और रेलवे लाईन बीच -बीच में झूलती सी है !! ख़ैर साहब, निर्मला जी के विश्वास और कश्यप साहब के हौसले ने यह जोखिम उठाने की हिम्मत भी दी,यह भी कि ऐसे ख़राब हालात से निकालने वाला यहाँ तो नहीं मारेगा ! वे परिवार,लाईन इंन्सपेक्टर और ट्राली चलाने वाले के साथ झूलती लाइनों से गुज़र सतलुज पार कर घरों को पहुँच गए !!


इसे कहते हैं जाको राखे साईंया, मार सके ना कोय।


बाल न बाँका कर सके, जो जग बैरी होय ।।


यह कहानी अपनी बच्चियों को मैं सुना चुकी हूँ पर आज, सिंगापुर में अपनी  1977 में जन्मी छोटी बेटी मिनी और उसकी कम्पनी में काम कर रहे साथी,1986 में पाकिस्तान में जन्मे हमज़ा के कहने पर काग़ज़ पर उतारने बैठी। शायद यह कहानी मेरे साथ ही दफ़्न हो जाती, शायद  इसे कभी न लिखती कि आने वाली पीढ़ियों में नफ़रत का ज़हर न फैले; पर मेरी कहानी में सबसे ग़ौर करने वाली बात -हमारी माँ कहती थी,जिन लोगों के कारण यह वहशियाना हालात पैदा हुए, उन्हीं में  ऐसे इन्सानी फ़रिश्ते भी थे जिनकी वजह से हम सलामत हैं !! यह कहानी एक तरफ़ा या एक परिवार की है, फिर भी सच यही है कि सरहद की दोनों ही तरफ़ ऐसी बहुत सी कहानियाँ होंगीं; क्योंकि कमोबेश दोनों ही तरफ़ हालात एक से थे !!


'जिंन्दगी हर रंग में जी जाती है, सहर होने तक !!! (शम्अ हर रंग में जलती है सहर होने तक)


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