अभिनव इमरोज़ आवरण पृष्ठ 1
कविता मुझे बचा लो!
कविता मुझे बचा लो
मेरे भीतर अपनी बेचैनियाँ भर दो!
झूठ बोलने में, बकबक में माहिर हो चुका हूँ
वाक्-छल में अव्वल
जोख़िम के अंदेसे-भर से घबराने लगा हूँ
एक अँधेरे से दूसरे में जाते हुए लानत-मलामत हुई इस तरह कि
सच से दूर जा पड़ा हूँ
सच की चैखट तक उजाले में ले आओ
कविता मुझे बचा लो!
कौन है जो विचार के भाल को ताबड़तोड़ फोड़ रहा
बुददिली के आलम में भय से मैं ठिठुर रहा
अंदर से पोला-पिलपिला
उठने के लालच में बेहद गिर गया
गिरते-गिरते देखो न शिखर पर चढ़ गया
सिरफिरों को गाली देने लगा, सूली पर चढ़ाने लगा
इतना विकास हुआ मेरा कि मैं शांति-पाठ करता
अमानवीय हो गया
मेरे कोहराम को सृजन में ढाल दो
कविता मुझे बचा लो!
कविता का रूतबा सब से बड़ा, कहता था मैं
अब वैसा कहने से कतराने लगा हूँ
पाबंदी में बंदगी में मस्तकों को झुकते-लुढ़कते देख
लज्जित-पराजित हूँ
अपनी ही परछाई से डरने लगा हूँ
मुझे स्वाधीनता की राह पर बेखौफ चलना सिखा दो
कविता मुझे बचा लो!
शब्द के कुंवे में झाँकता था दूर तक
उड़ता था अनन्त में उतरता था शब्द-संग समुद्र में
चमकीला वह शब्द नाद अब कहाँ संभव
सनसनाती पत्तियों में एक खंजर और चीत्कारों का
भयावह सिलसिला यहाँ से वहाँ, पता नहीं कहाँ-कहाँ
कँपकँपाती रूह
कल्पना काठ
कविता मुझे बचा लो
मेरे भीतर अपनी बेचैनियाँ भर दो!
नरेन्द्र मोहन, नई दिल्ली, मो. 9818749321