बस मुझे निहारती रहो माँ
श्रीधर द्विवेदी, वाराणसी, मो.
हे माँ,
पंच तत्व का यह शरीर,
अनवरत नौ मास तक,
शीत ग्रीष्म वर्षा सह कर,
आपदाओं अभावों को झेलते हुए,
अपनी कोख में पाला पोषा,
अपना रक्त गुणसूत्र मांस मज्जा,
सब कुछ प्रदान किया
मेरी एक हिलोर से तुम झूम उठती,
मेरे स्पंदन से सहृदय चिकित्सिका,
प्रसन्नता से नाच उठती,
मेरे स्तब्ध होने पर,
तुम दोनों कितनी उद्विग्न होती ?
माँ तुम्ही ने,
निष्कलुष हृदय दिया,
निर्मल निर्विकार मन,
स्वस्थ तन,
नवजात स्वरूप दिया I
मेरा एक एक रोम,
अंग उपांग तुम्हारी ही देन है,
तुमने अपने लिए कुछ भी नहीं किया,
मैंने प्रतिदान में सहस्त्रांश भी नहीं किया I
समाज की कुटिल नजर से बचाया,
प्रचुर संस्कार करुणा वात्सल्य दिया,
भाषा मर्यादा लोकाचार ,
संस्कृति समत्व उपकार,
स्नेह सिक्त बनाया,
क्या क्या नहीं सिखाया ?
मेरे लिए आप,
सतत शास्वत पुण्यदायिनी भागीरथी स्वरूपा हैं,
जगदम्बा हैं महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती,
भारत माँ साक्षात् अन्नपूर्णा अनुरूपा हैं I
माँ तुम जहाँ कहीं भी हो,
सितारों में छिपी,
सृष्टि में विलीन
परमात्मा में लीन,
मुझे देख अवश्य रही होगी,
स्वप्न में व्यक्त - अव्यक्त में,
आशीर्वाद दो माँ,
तुम्हारे दिखाए मार्ग से,
कहीं पथ भ्रष्ट तो नहीं हुआ ?
भाव शब्दों के इन प्रसूनों से,
तुम्हे स्मरण करने का केवल ,
एक ही आशय और मंतव्य,
तुम्हारे द्वारा वर्जित पथ,
मेरा कदापि गंतव्य न हो I
मैं तुम्हारी धरोहर,
अगली पीढ़ी तक पहुंचा कर,
अंतिम पथ पर जब प्रयाण करूँ माँ,
तब तक आशीष देती रहो माँ,
बस मुझे निहारती रहो माँ