एक नई यात्रा की शुरुआत


ऊषा निगम, कैन्ट, कानपुर, मो. 9792733777


मेरी माँ प्रायः कुछ लिखती रहती थीं। कुछ-कुछ प्रकाशित भी होता रहा, लेकिन परिवार में किसी की भी रुचि उनकी प्रकाशित रचनाओं में नहीं थी, और न ही हमें कभी यह जानने की उत्सुकता रही कि वह कागज़ पर अपने हृदय की किन हलचलों को उतारती रहती थीं। एक बात वे कहा करती थीं कि जब वह नहीं रहेगी तब यदि किसी ने इन्हें पढ़ा तो न जाने कितना कुछ अनकहा, न जाने कितने अव्यक्त दर्द, उनके राज़ खुल जाएंगे। न जाने कितनी संवेदनाओं के ऊपर से समय की धूल हट जाएगी। सच ही कहा था उन्होंने।


उनके न जाने कितने प्रश्न अनुत्तरित रह गए। प्रत्येक व्यक्ति के पास उससे जुड़े प्रश्नों के उत्तर थे लेकिन किसी ने उन्हें जानने, समझने और उत्तर देने की अवश्यकता ही नहीं समझी, मैंने भी नहीं। संभवतः सभी के साथ ऐसा होता है। हमारे पास उनका लिखा शेष था। अतः हम उन्हें जान सके, अन्यथा मृत्यु के साथ ही सारे प्रश्न, दुविधाएं और दर्द जल कर राख हो जाते हैं। कोई कुछ नहीं जान पाता, नहीं समझ पाता।


मुझे याद है मेरी माँ कहा करती थीं कि वो जीनियस नहीं थी, लेकिन कुछ करने की उनकी प्रबल इच्छा रहीथी। संभवतः इसीलिए केवल 24 वर्ष की आयु में उन्होंने इतिहास विषय में पीएच.डी कर ली थी। अपने मार्ग दर्शक (गाइड) द्वारा प्राप्त प्रोत्साहन और प्रशंसा ने उनमें एक इतिहासकार बनने की अभिलाषा को जन्म दिया था। शोध के कठिन मार्ग पर वे चल चुकी थीं, उस सिस्टम की उनमें पूरी समझ थीं अनायास ही उनके जीवन की दिशाएं बदल गईं। और फिर वह सारा कुछ जो उन्होंने चाहा था पीछे कहीं छूट गया था। छूटने का यह दर्द कितनी शिद्दत से उनमें बना रहा यह हम सब कभी नहीं समझ सके। अब समझ पा रही हूँ।


जीवन के अड़सठ वर्ष गुज़ार देने के बाद भी कोई कैसे अपनी खोई हुई मंज़िल को पाना चाहता है, यह मैंने उन्हें पढ़ कर समझा। वह भी जानती थीं कि अब वे वहाँ तक नहीं पहुँच सकतीं जहाँ वह पहुँचना चाहती थी। आयु और स्वास्थ्य की कुछ सीमाएं थीं। फिर भी उन्होंने एक छोटी सी कोशिश की थी जो पर्याप्त कठिन रही होगी। वे लिखती हैं-


जून 2013


‘‘उस दिन जेनी को पत्र लिखा। एक लंबे अंतराल के बाद इसे लिखना बहुत कठिन लगा। ऐसा प्रतीत होता रहा कि मैं लिखना भूल गई हूँ- लिपि भी और विचारों का तारतम्य और प्रवाह भी। लिखते हुए जैसे तमाम बाधाओं को पार करना पड़ रहा था। कभी शब्द खो जाते थे तो कभी शब्द विन्यास की त्रुटियां तो कभी विचार बहक जाते थे। मेरे लेखन की यह स्थिति है और इस स्थिति में मैं क्रान्तिकारियों पर लिखने का हौसला रखती हूँ। वाह! क्या बात है!’’


जून 2013


‘‘भारतीय क्रान्तिकारियों के इतिहास के किसी भी काल खंड को जब कभी मैं पढ़ती हूँ तो जैसे वह युग मेरे भीतर सांसें लेने लगता है। न जाने क्यों मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि जैसे मैं उन्हीं का एक हिस्सा हूँ। ऐसा बड़ी शिद्दत से महसूस होता है कि किसी जन्म में मैं उनके बीच थी। सब कुछ बड़ा जीवंत होकर मेरी आँखों के सामने से गुज़रने लगता है, जैसे वे यहीं कहीं आसपास मेरे बहुत करीब हैं।’’


जुलाई 2013


‘‘लेखन में उतर जाना संभवतः ईश्वर से जुड़ जाने जैसा है। संगीत, नृत्य, चित्रकला, अभिनय आदि सारी कलाएं हमें ईश्वर के बहुत करीब ले जाती है। वैसे ही शायद लेखन भी है। मेरा लेखन रुक गया। मेरे लिए तो जैसे समय ठहर गया। मुझे इतिहास के जिन पथरीले रास्तों पर चलना था वहां भावनाओं का आकाश नहीं था, न ही कल्पना की उड़ान थी। वहां तो संसार की सुखद-दुःखद सच्चाइयों से होकर गुज़रना था; घटनाओं के हुजूम से सत्य के मोती चुनने थे। मार्ग अत्यधिक कठिन और कष्ट साध्य था। इस पर चलना मेरे लिए संभव नहीं हो सका।


‘‘जीवन के तीसरे प्रहर से गुज़र रही हूँ। अतीत के सपनों को वर्तमान में साकार करना चाहती हूँ। मैं लिखना चाहती हूँ। क्या मैं लिख सकूँगी? अभी तो किसी शिशु की भांति लिखने का अभ्यास करना है। छोटी छोटी शुरुआत करती हूँ, छोटे छोटे कदम उठाती हूँ; कुछ विशेष नहीं कर पा रही हूँ। जैसे रेगिस्तान की तपती धरतीपर जल की छोटी छोटी बूंदे गिरते ही छनन से कहीं विलीन हो जाती है, उनका अस्तित्व कहीं खो जाता है। जीवन का हम एक लक्ष्य बनाते हैं, उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं कि अनयास ही हमारी राहें बदल जाती हैं। मार्ग हम स्वयं बदलें अथवा नियति बदले, परिणाम दोनों का एक ही होता है। हम दिशाहीन, लक्ष्यहीन हो जाते हैं। सिलसिला टूट जाता है। 40-41 वर्षों के बाद इस सिलसिले को पुनः आरंभ करना, बिखरे सूत्रों को जोड़ना अत्यधिक कठिन प्रतीत हो रहा है। कहां से शुरु करुं, कैसे शुरु करूं? महत्वपूर्ण पुस्तके इधर उधर हो गईं, अब कोई पथ प्रदर्शक भी नहीं जो मेरा मार्ग दर्शन करे। यदि मुझमें कुछ करने की ललक और चाहत आज भी शेष है तो अपना दीपक मुझे स्वयं बनना होगा। ‘‘अप्प दीपो भव’’।’’


सितम्बर 2013


‘‘आज श्री गणेश चतुर्थी के दिन मैंने अपनी पहली रचना प्रेषित की है। परिणाम ज्ञात नहीं, लेकिन एक शुभ दिन को शुभारंभ हुआ है। ईश्वर से यही प्रार्थना करती हूँ कि अब बैक गियर न लगे। अपने विषय में लिखती हूँ तो अपने अतीत को नहीं छोड़ पाती हूँ; बार-बार किसी ज़िददी बच्चे सा मेरे सामने आकर खड़ा हो जाता है। मेरा अतीत तो मुझसे ऐसा छूटा जैसे वह अध्याय मेरे जीवन में कभी रहा ही नहीं। अनावश्यक समझ कर महत्वपूर्ण पुस्तकें बांट दीं या इधर उधर अवारा सी पड़ी इतनी जर्जर हो गई कि खोलना कठिन है। अब पुस्तकों की तलाश में इधर उधर भटक रही हूँ।


फिर एक दिन पापा ने उन्हें अपने मित्र श्री मनोज कपूर से मिलवाया। इस मुलाकात को उन्हीं के शब्दों में देखिए- ‘‘इनके मित्र श्री मनोज कपूर ने जैसे ही मुझे देखा तुरत बोले, ‘आज लिखने पढ़ने की याद आई है?’ मुझे यह प्रश्न बड़ा अजीब लगा क्योंकि यह हमारी पहली मुलाकात थी। दुकान (साहित्य निकेतन) की सीढ़ियां चढ़ने से पहले ही उन्होंने जो बाण अपने तरकश से निकाल कर मेरी ओर छोड़ा था, अपने संवेदनशील स्वभाव के बावजूद, वह मुझे आहत नहीं कर सका; अन्यथा सिलसिला आरंभ होने के पूर्व ही टूट गया होता।


‘‘बरसों से इसी निकेतन के सामने से गुज़रती रही हूँ। कभी भी इस निकेतन की ओर आँख उठा कर नहीं देखा। यही समय का चक्र है। तभी कहते हैं कि समय से पूर्व कोई कार्य नहीं होता है। सन् 1972 से चलते चलते यह समय 2013 में आकर रूका। समय ने रूक कर धीरे से मेरे कान में कहा कि तुझे अब वह व्यक्ति मिल गया है जिसकी तुझे तलाश थी। उस प्रथम भेंट में उन्होंने अपना पर्याप्त पर्याप्त समय मुझे दिया। क्रांतिकारियों के विषय में उन्हें पर्याप्त ज्ञान था। उनके पिता श्री श्याम नारायण कपूर उस आंदोलन से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहे थे। अपने वाले समय में यह ‘साहित्य निकेतन’ मेरे लिए मंदिर समान हो गया और श्री मनोज कपूर मेरे गुरु के समकक्ष। वर्तमान में उनका यही स्थान मेरे जीवन में बन गया है।’’


वह आगे लिखती हैं:-


‘‘अध्ययन मनन, लेखन के लिए अब पर्याप्त समय निकाल लेती हूँ। सब कुछ पहले जैसा ही है फिर भी न जाने कैसे समय मिल जाता है। यह भी सच है कि एक लक्ष्य बन जाने के उपरान्त अनावश्यक बातों की ओर से ध्यान हटा और मैं स्वयं में व्यवस्थित हो गई हूँ’’.


उनके परिश्रम और प्रयासों का परिणाम आना आरंभ होने लगा था। इस पर उनकी प्रतिक्रिया किसी नवयुवती की प्रथम उपलब्धि सी थी; कहीं से भी वे वयोवृद्ध महिला नहीं प्रतीत हो रही थीं-


अप्रैल 2014


‘‘आज मेरी प्रसन्नता का अनुमान कोई नहीं लगा सका। तीन चार महीनों से ‘‘अभिनव इमरोज़’’ के अंकों को बड़ी उत्सुकता से खोलती थी। प्रकाशित लेखों की सूची में अपना नाम न देख कर बेहद निराशा होती थी। अप्रैल अंक की प्रति मिलने पर आदतन विषय सूची देखना आरंभ किया। अंत से कुछ पहले अपना नाम देखा। क्षण भर को विश्वास नहीं हुआ, पुनः देखा कि कहीं दृष्टि भ्रम तो नहीं। यह सच था। खुशी से नाचने लगी हूँ। यह उपलब्धि बहुत छोटी है, लेकिन मेरे लिए बहुत बड़ी है।


इस रचना के प्रकाशित होने के बाद जून में पत्रिका के संपादक श्री देवेन्द्र बहल का फोन मम्मी के पास आया था। संभवतः मम्मी ने अपनी कोई रचना इन्हें भेजी होगी, जिसकी उन्होंने प्रशंसा की थी और उसे पत्रिका में स्थान देने का आश्वासन दिया था। उस दिन भी उनके पांव धरती पर नहीं पड़ रहे थे, वो उड़ रही थीं। इसके बाद मेरी माँ को विभिन्न पत्रिकाओं में स्थान मिलता चला गया।


उनकी यह यात्रा आसान नहीं रही थीं वर्षों से अकादमिक माहौल से नितांत भिन्न उनका एक सीमित परिवेश रहा था। श्री मनोज कपूर से उन्हें बहुत मदद मिली थी लेकिन आगे का रास्ता उन्हें स्वयं तय करना था। वे सदैव कहा करती थीं कि हम किसी को उंगली पकड़कर चलना सिखा सकते हैं; आगे तो स्वयं ही चलना होता है। वे स्वयं ही अपने स्तर से प्रयत्न करती रहीं, यथा- विभिन्न पत्रिकाओं के संपादकों से सपर्क करना, उन्हें अपने विषय के प्रति आश्वस्त करना आदि। स्वाधीनता संग्राम में क्रान्तिकारी आंदोलन के योगदान को देशवासियों के सम्मुख प्रस्तुत करते रहने की ही उनकी अभिलाषा थी और इसी का आग्रह वो सभी से करती थीं। मां का निरंतर यह आग्रह था कि पत्रिकाएं अपने केवल 2-3 पृष्ठ इस विषय को भी दे ताकि इन भूल-बिसरे क्रान्तिकारियों से पाठकों का परिचय होता रहे, वे पाठकों की स्मृति में रचे बसे रहें।


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