कविता
सन्देह तो कभी नहीं था
न आपके प्रेम पर
न अपनी भक्ति पर।
लोकाचार किन्तु, एक विवशता
हम सबकी।
किस-किस से कहती
कि आप नहीं थे लघुमानव,
पूरी करनी थी भवितव्यता आपको अपनी।
कितना भी दग्ध किया जीवन ने मुझको
कितना भी टूटी विगर्हण में निज की,
तो भी भीतर-भीतर
मुझे गर्व था
कि मैंने भींच नहीं रखा मुट्ठी में
अपने पर आसक्त, अपना पति।
बस दुख इतना-सा केवल, हे प्राणाधार
ज्यों-ज्यों आप देदीप्य हुए जग-भर में
मैं उपहास हो गयी घर-घर में।
हे रत्ने!
प्रेम को अमर नहीं करते कभी प्रेमी
करती है कविता, अमर प्रेम को।
प्रेम अंजनीपुत्र का अद्भुत
श्री रघुनन्दन में मेरे
अद्वितीय ही तो है आदिकवि की कविता में।
प्रेम राधा का मधुसूदन से
हुआ सघन नित नूतन नव कविता में।
हाँ तू रख सकती थी मुझको
बाँधे बाँहों के घेरे में।
और मैं उस निद्रा में ही
रहता आजीवन डूबे।
पर तेरा संयम
तेरी गरुड़ दृष्टि लक्ष्य पर मेरे,
ऐसा प्रेम दूसरा
कहीं नहीं जगती में।
जब-जब मैं उठता था
प्रभु वन्दन को सुबह-सवेरे,
तुम फूलों की अँजुरी लेकर रहती पीछे मेरे।
वे मेरे आराध्य थे
तुम मार्ग-पुष्टि थीं, मेरे।
आ जन्म-जन्म सहचरी मेरी,
ले पुनर्जन्म कवि शब्द में।