कोठेवाली

समीक्षा/ मूल्यांकन   



स्वदेश राणा का ‘कोठेवाली’ पूर्णिमा वर्मन की वेब पत्रिका ‘अभिव्यक्ति’ में संग्रहित तीन लघु उपन्यासों में से एक है।


कथाक्षेत्र विभाजन पूर्व के गुजरात तहसील के ढक्की दरवाजे की गली से लेकर से लेकर अमृतसर और लंदन तक फैला है और कथा समय 1930 से 1970 तक। 1930 का वह समय जब मनोरंजन के नाम पर अमीर और समर्थ लोगों के घर में मरफ़ी का रेडियो हुआ करता था और पूरा मुहल्ला इसका आनन्द उठाता था। घर में रेडियो होना संपन्नता का द्योतक था और गज़लें सुनना मनोरन्जन भी था और ऐय्याशी भी। कहानी की शुरुआत इस प्रकार है कि 1930 से हर शनिवार लाहौर देर शाम रेडियो से गज़लें सुनने के लिए रायसाहब बदरीलाल की हवेली में मुहल्ले के पुरुष एकत्रित होते हैं। सब गजल गायिका की आवाज़ पर पागल हैं और यह आवाज़ है बदरुनिसा की। उस आवाज़ का रंग उन्हें सतरंगी लहरिएदार चुनरी सा लगता है, जायका ठंडे जलजीरे सा, ताज़ा नानखताई सा, खनक अल्हड़ मुटियार की चूड़ियों सी, खुशबू मदमस्त करने वाली। लेकिन 1939 की एक शाम इस श्रोता मंडली द्वारा बदरून्निसा से एक नॉन- इश्किया गजल सुनने के बाद रेडियो स्टेशन पर जाकर बदरुन्निसा से सिर्फ इश्किया गज़लें गवाने की फर्माइश करने का निर्णय लिया जाता है। बदरीलाल लाहौर रेडियो पर अपनी फर्मायश पहुंचाने के बाद वापसी पर गुजरात की गंदे नाले के पार बसी रंगरेज बस्ती में कुम्हारिन माँ और रंगरेज पिता की मरासन कहलाने वाली बेटी बदरून्निसा के घर ही पहुँच जाते हैं और फिर बार-बार आने का सिलसिला चल पड़ता है।       


विभाजन से पहले हिन्दू- मुस्लिम मिल-जुल कर रहते थे। ढक्की दरवाजे की इस गली में बदरीलाल, लाजो, बेकरी वाला बख्तियार, अर्जी नफीस हुकुमचंद, ठेकेदार निसार अहमद, मुनियारी, पंसारी, लोहार, मोची, नाई, आढ़ती, दर्जी, कसाई, सराफ़-सब घी-शक्कर की तरह रहते हैं। जबकि विभाजन के समय हवा बदल जाती है। बेकरी वाले बख्तियार की घरवाली सात माह की गर्भवती बदरुनिस्सा से कहती है, “काफर की औलाद को इस मुसलमानों की गली में पैदा करोगी तो हम सब की खैर नहीं। तुम्हारे घर में लगाई आग हम सबको जला देगी। लाहौर चली जाओ, बाद में कभी लौट आना।“ बदरूनिस्सा छोटी बहन जाहिदा को लेकर लाहौर जाने वाली खचाखच भरी गाड़ी तो पकड़ती है, मगर उससे कभी उतरती नहीं। गाड़ी में ही मृत माँ की सतमाही बच्ची ताहिरा जन्म लेती है और मौसी जाहिदा की गोद भर जाती है। विभाजन के समय भारत आ रहा बदरीलाल भी रास्ते के खून- खराबे में ही दम तोड़ देता है। गोपाल द्वारा 1947 में लिखे खत को गुजरात पहुँचने और मिलने में बीस साल लग जाते हैं। गोपाल के परिवार का इक्कीस वर्ष बाद 1968 में ताहिरा से मेल हो पाता है। 


विभाजन से पूर्व अंग्रेज़ भारतीयों को उनकी वफादारी के पुरस्कार स्वरूप रायसाहब की उपाधि देते थे। फैज बाज़ार के इंकलाबी जुलूस से पुलिस कमिश्नर टामस रेडिंग को बचाने के पुरस्कार स्वरूप असिस्टेंट पुलिस सुपरिन्टेंडेंट मलिक केदारनाथ को राय साहब की उपाधि मिलती है। जबकि केदारनाथ ने हाथ नीचा करके आँसू गैस के कुछ गोले घुड़सवार पुलिस पर भी फेंक दिये थे कि इंकलाबी फैज बाज़ार की गलियों में गुम हो सकें। कथानायक बदरीलाल को अंग्रेजों की तरफ से राय साहब की उपाधि तो नहीं मिली, पर 1930 से वह अपने नाम के साथ रायसाहबी और उसके अंदाज़ जोड़ने लगे हैं। अँग्रेजियत के प्रति मोह सबमें था। बदरीनाथ अपने घर का नम्बर चौदह से फोर्टीन लिखवाते हैं। अंग्रेज़ औरतों के बारे में बातें ऐसे की जाती हैं, मानो परीलोक का कोई तिलस्म हो।


उपन्यास में हिन्दू, मुस्लिम और अंग्रेज़ पात्रों की भरमार है। कुम्हारिन माँ और रंगरेज बाप की गायिका बेटी बदरूनिसा (बिलकीस), बिन ब्याही बदरून्निसा की बेटी ताहिरा, बदरू मामा, पिता दीनू ललारी, रायसाहब बदरीलाल, उनकी बेवा बहन लाजो, रायसाहब की पत्नी चाँदरानी, बेटे इकबाल और गोपाल, उनका साला असिस्टेंट सुपेरिटेंडेंट पुलिस मलिक केदारनाथ, गोपाल की पत्नी मालती, बदरीलाल का मित्र अर्जी नफीस हुकुमचंद, ठेकेदार निसार अहमद, मियां बख्तियार, सर्राफ जमाली, दिल्ली का पुलिस कमिश्नर टामस रेडिंग, चित्रा, डेविड, ताहिरा का पति कश्मीरी ब्राह्मण करन, करन के चाचा शिवनाथ जुत्शी, इंस्टीट्यूट ऑफ कॉमनवैल्थ स्टडीज के डाइरेक्टर प्रो. मोस्ले, हिस्टरी विभाग के अध्यक्ष प्रो. रिचर्ड टेलर, स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में साउथ एशिया प्रोग्राम के डाइरेक्टर डॉ. टामस पेलिंग, करन की तरह इंस्टीट्यूट के फेलोज- कराची से असलमबेग और नैरोबी से आयूमा ओवुली, मिस्टर और मिसेज डाल्टन, उनके बच्चे टिम्मी, कैथी, हालैण्ड के यात्री हैंग और इंगा आदि। 


उपन्यास नारी की दशा, बल्कि दुर्दशा का अंकन लिए है। समाज में स्त्री पुरुष के लिए हमेशा अलग- अलग मानदंड रहे हैं- 1930-40 में भी, उसके बाद भी और आज भी। भारत में भी और भारत से दूर लंदन में बसे भारतियों में भी। पच्चास वर्षीय बदरीलाल रईस घर की चाँद सी खूबसूरत पत्नी और दो युवा बेटे होते हुए भी एक बदसूरत, मँझले कद, दोहरे बदन, कड़ी चाय से गहरे रंग, माथे पर जुड़ी भवों वाली, कुम्हारिन-रंगरेजन मरासिन पर रीझ जाता है। अवधारणा रही है कि हर कुंवारी कमसिन और मासूम होती है। पति की करतूत के बावजूद चांदरानी सोचती है कि बेटों की माँ कभी अकेली नहीं होती। फिर भी कैंसर उसे दबोच लेता है। पत्नी के मरते ही बदरीलाल बिना विवाह, बिना किसी कागजी कार्रवाही के बदरुनिस्सा को अपने घर बिठा लेता है। जिसके लिए पत्नी चांदरानी को कैंसर दिया, वह भी सिर्फ मौज मस्ती का जरिया ही है।


ताहिरा और करन की शादी अंतर्जातीय, अंतर्देशीय और अंतर्मजहबी शादी है। करन की कामेच्छाओं की पूर्ति के लिए उसे रोज़ पिल्ज़ लेने पड़ते हैं। करन अपना जीवन भरपूर जी रहा है और उसे विश्वास है कि ताहिरा को वह जिस हाल में रखेगा, उसी में खुश रहेगी। लंदन में ताहिरा हैडन सेंट्रल की जिस गंदी बस्ती में रहती है, वहाँ उसके पास न टी. वी. है, न टेप रिकॉर्डर, न रेडियो, न फ़र्निचर, न जरूरत की वस्तुएं, न ताजी हवा, न धूप। सब बेरंग, बेढंग, फटीचर, पैबंद लगा और भुतहा है। बिली जैसा मकान मालिक, राह जाती युवतियों को अपनी हवस का शिकार बनाने को आतुर गली के बूढ़े और वैसी ही अश्लीलता में निमग्न निम्नवर्गीय औरतें।    


पत्नी को मायके से मिला सतलड़ा हार या गोखड़ू का जोड़ा बेचने में बदरीलाल हिचकता नहीं, क्योंकि यह कौन से उसके खानदानी गहने हैं। 


पति की मृत्यु होते ही तीन बेटों की माँ लाजों को सास घर से निकाल बाहर करती है- “दफा हो जा साडियाँ नजरां तों। तैनू वेख के तेरे हट्टे खट्टे जिसम विच मैनू अपने पुत्तर डा निच्चुडिया खून दिसदा ऐ।“  जल्दी ही उसका गदराया बदन सूखा बबूल हो जाता है।


खाला जाहिदा जानती है कि जिससे करन ने शादी की वह ताहिरा नहीं, वह सिर्फ बदरूनिस्सा की बेटी है, बदरीलाल जिसका मुरीद तो था, पर शौहर नहीं। लंदन का खुला माहौल ताहिरा के जीवन में संजीवनी बन कर आता है और वह करन द्वारा ओढ़ाए गए उस वैवाहिक बंधन से छुटकारा पा लेती है, जो उस के अस्तित्व का सिर्फ मर्दन ही कर रहा था। पुरुष स्वार्थी, शंकालु, पोजेसिव है। वह अपने हिस्से का प्रत्येक पल पूरी मस्ती और ईमानदारी के साथ जी लेता है और औरत का जीवन उन पलों की प्रतीक्षा में ही बीत जाता है। उन्नीसवीं शती के सातवें आठवें दशक की, ब्रिटेन में रहने वाली इस स्त्री का करन की निरंकुशता से छुटकारा पा लेना अस्तित्व सम्पन्न स्त्री का चरित्र उभारता है। वह उन अंध गुफाओं से बाहर आने का रास्ता ढूंढ लेती है, जिनमें चाँद रानी, बदरुनिस्सा या लाजो ताउम्र घुटती रहती हैं। कहानी सौ- सवा सौ साल पहले की है, जब रेडियो पर गाने वालियों को मिरासिन कहा जाता था। बिना शादी के घर में बिठाना और बुरे वक्त में छोड़ आना बदरीलाल के अंधे प्रेम पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।  


रेडियो गायिका बदरूनिस्सा की कोख से जन्म ले, जाहिरा की गोद में पलने वाली एम. ए. पास ताहिरा को देश में लोग कोठेवाली की औलाद कहकर अति हेय दृष्टि से देखते हैं। गुजरात के बेकरी वाले बख्तियार की घरवाली लाहौर मिलने आती है, तो ताहिरा के रूप- सौंदर्य को देखते ही कहती है, “खुदा बुरी नज़र से बचाए इसे, क्या शहज़ादी जैसी लगती है। ढक्की दरवाज़ा गली वालों को न पता होता कि कोठेवाली की औलाद है तो मैं अपने फखरू के लिए ले जाती। ”  जबकि हकीकत यह है कि कोठे दुमंजिले, तिमंज़िले घरों के हुआ करते हैं। बदरूनिस्सा जहां पैदा हुई, पाली बढ़ी, वहाँ तो ऊपर छत को जाने वाली कोई सीढ़ी भी नहीं थी।


हमारी जींस में रची- बसी एक विरासत होती है। क्ले पोटरी यानी मिट्टी के बर्तन बनाने का हुनर ताहिरा के पास जन्मजात है। ब्रिटेन में भी वह ऐसे ही बाज़ार ढूंढती रहती है। मिसेज डेल्टन के यहाँ काम करते हुये भी वह एक ही सपना देखती है कि जाहिदा खाला को बुला क्ले पोटरी का कारोबार खोलेगी, गुलदान, गमले, चाटियाँ, कसोरे, मटकियाँ बनाएगी और अपनी दुकान का नाम रखेगी- कोठेवाली । देश में कोठेवाली की बेटी होना भले ही उसके अस्तित्व पर बदनुमा दाग हो, पर विदेश में वह इसे आभिजात्य का जामा पहनाने के लिए संकल्पबद्ध है।  


ज़मीन जायदाद के झगड़े और वृद्धों की उपेक्षा ढक्की दरवाजे की गली में रहने वाली उस विधवा वृदधा के संदर्भ में देख सकते हैं, जो जब तक जीवित रही, कोई संबंधी पास नहीं फटका और मरने के बाद उसके मकान के इतने वारिस पैदा हो गए कि बात गाली-गलौच, मुकदमे, कोर्ट कचहरी तक जा पहुंची। 


व्रत त्योहार भी आए हैं। एकादशी वाले दिन चांदरानी प्रात: नहा- धोकर पति के हाथों से कुटी मूंग की दाल, चावल, घी और तांबे के सिक्के मंसवाकर कुल पर आने वाली बलाए टालने के लिए मिसरानी को देती है और चाँद निकलने तक निर्जला व्रत करती है और पति के हाथों मिष्ठान और फूल ले व्रत खोलती है।   


1947 के बाद स्वदेश राणा पाठक को 1969 में ले आती है। कहानी उस रात की है, जिस रात अपोलो 11 से दुनिया के पहले आदमी आर्मस्ट्रांग को चाँद पर उतरना है। मौसी जाहिदा के संरक्षण में पली- बड़ी ताहिरा की कश्मीरी पंडित करन से शादी हो चुकी है और दोनों लंदन में हैं। यहीं चित्रा यानी बदरीलाल के छोटे बेटे गोपाल की बेटी अपने पति डेविड के साथ आभिजात्य कैसिंग्टन स्ट्रीट में बेसमेंट में रहती है। आज चित्रा ने ताहिरा यानी बुआ को उसकी शादी की मुबारकबाद देने के लिए आमंत्रित किया है। इंस्टीट्यूट ऑफ कॉमनवैल्थ स्टडीज के डाइरेक्टर प्रो. मोस्ले, हिस्टरी विभाग के अध्यक्ष प्रो. रिचर्ड टेलर, टामस पेलिंग आदि के बीच स्नेह और सम्मान का वातावरण ताहिरा को अच्छा लगता है।


कहानी पत्राचार के जमाने की है। ताहिरा और जाहिदा के, ताहिरा और गोपाल के पत्र तो हैं ही, ताहिरा अपनी मृत माँ को भी पत्र लिख थेम्स में नौका बना कर भेजती है।         


पात्रों की वेशभूषा और सौंदर्य का भी अंकन है। सरहदी पठान जैसे रायसाहब बदरीलाल शौकीन तबीयत के हैं। यह उपाधि उन्हें मिली नहीं, अपितु उन्हों ने जुटाई है। पेशे से वकील न होते हुये भी सब बारीकियों की समझ रखते हैं। “अचकन की जेब में घड़ी, चांदी की मूठ वाली छड़ी। झक- पाक सफ़ेद लट्ठे की सलवार, सीपी के बटनों वाला पापलीन का कुर्ता और - - भठवारी चप्पलें। गली से गुजरें तो गर्मियों में भी सलवार कुर्ते के ऊपर चुस्त काली शेरवानी, चमचम करते पंप शू, तिल्लेवाली टोपी पर कसकर बंधा सफ़ेद तुर्रेदार साफा।“ चांदरानी कहीं जाते समय बुरका ओढ़ लेती है। सीढ़ियाँ उतरती ताहिरा को बूढ़ा मकान मालिक कमेन्ट करता है। यू स्टिकिंग पाकीज़। उसकी आकर्षक वेशभूषा लाजवाब है।


स्वदेश राणा ने पात्रों के रूप-रंग और वेषभूषा का भी लाजवाब वर्णन किया है। रायसाहब बदरीनाथ के रूपरंग का वर्णन करते स्वदेश राणा लिखती हैं- “लम्बा कद, भखता हुआ खुला रंग, भूरी-नीली आँखें और तीखी नाक। पता नहीं क्या खाकर जना था कि पच्चास पार करने पर भी कद- काठी सरू के पेड़ जैसी तनी रहती थी। गली में रुक- रुक कर बात करते तो लगता कि जैसे कोई सरहदी पठान सैरी- तफरीह के लिए तराई में उतार आया हो।“ चित्रा खुलते हुये गेहुएं रंग और ज़हीन चेहरे वाली नाज़ुक सी कली है। डेविड मँझले कद, लम्बे भूरे बालों वाला दुबला- पतला युवक है। “ताहिरा एक हुनरमंद कहारिन के पुश्तैनी ओसारे से तपकर निकाला बेशकीमती तोहफा है। गूँधती माटी में सर का एक छोटा सा बाल भी रह गया होता तो तोहफे में खोट रह जाता। किसी खानदानी ललारी के सधे हुये हाथों से रंगा सतलहरिया दुपट्टा है ताहिरा। - - - गौरी चिट्टी ताहिरा, भूरी नीली आँखों वाली ताहिरा, घनी पलकों और घुँघराले बालों वाली ताहिरा, नाज़ुक अंगुलियों और नर्म हाथ पैरों वाली ताहिरा .....”.


हिन्दू या मुस्लिम- अधिकतर पात्र पंजाबी हैं। इसीलिए भाषा में पंजाबी और उर्दू शब्दों- वाक्यों की भरमार है- मुरीद, सबज़, कच्च, बेवा, खुदरंग, बुल्लियाँ, मुखतलिफ़, तफरीह आदि। बदरुनिस्सा गायिका/ मरासिन है। लाहौर रेडियो से हर शनिवार रात उसकी गज़लें आती हैं। जैसे –



  1. इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई, मेरे दुख की दवा करे कोई।

  2. रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह, अटका कहीं जो आपका भी दिल मेरी तरह।


उपन्यास का अंत न सुखांत है और न दुखांत। समझौते और मर्यादा, आत्म दमन और आत्म पीड़न के बाद ताहिरा स्वतन्त्र, आत्मनिर्भर और एकांत जीवन का चुनाव करती है। वह चांदरानी या बदरुनिस्सा की तरह न पुरुष की छाया बन कर रहती है और न लाजो की तरह आत्मदमन का वरण करती है। नायिका न वैशाली की नगरवधू है न चित्रलेखा। लेकिन विपरीत स्थितियों के बावजूद अपने अस्तित्व को न मिटाने का संकल्प लिए यह आधुनिक बौद्धिक और विवेक सम्पन्न स्त्री दृढ़ निश्चय के साथ  अडिग खड़ी है। अपने से जुड़े अपशब्द ‘कोठेवाली’ को उसे गरिमा देनी ही है।  



डॉ. मधु संधु,पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब ।   


मो. 6280880398  


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