नरेन्द्र मोहन : मेरे सहयात्री

          संस्मरण



       नरेन्द्र मोहन



    रामदरश मिश्र


सन् 1984 में मैं दिल्ली आ गया और मैं क्या आया, जाने वह कैसा शुभ समय था कि देश के कोने-कोने से साहित्यकार पत्रकार और शिक्षक आते गये और दिल्ली एक विशेष सारस्वत दीप्ति से भर गयी। उस दीप्ति का एक सघन रूप स्वयं माडल टाउन (जहाँ मेरा निवास था) में जगमगा उठा। डाॅ. कृपाशंकर सिंह की नियुक्ति खालसा कालेज में हो गयी थी और वे मेरे बहुत निकट थे। एक दिन उन्होंने बताया कि उनके कालेज में एक प्रवक्ता की नयी नियुक्ति हुई है।


‘‘तो ? ’’ के भाव से मैंने देखा और कहा, ‘‘इसमें कौन-सी नयी बात हो गयी, नियुक्तियों तो होती ही रहती हैं।’’


‘‘नहीं, वह बात नहीं है।’’


‘‘तो क्या बात है ? ’’


‘‘अरे भाई, वह व्यक्ति मुझे आम प्रवक्ता से कुछ अलग दिखायी पड़ता है। उसमें साहित्य की और विशेषतया समकालीन साहित्य कीबड़ी गहरी समझ प्रतीत होती है। आपके साहित्यकी उसे अच्छी जानकारी है। उससे आप की चर्चा होती रहती है।’’


‘‘नाम तो बताइये।’’


‘‘नाम ? नाम है डाॅ. नरेन्द्र मोहन शर्मा।’’


‘‘नरेन्द्र मोहन शर्मा’’? यानी दिल्ली आने वाली प्रतिभाओं में एक और नाम जुड़ गया।’’


‘‘हाँ मुझे भी लगता है। मैं चाहता हूँ कि आपकी 'छायावाद का पुनर्मूल्यांकन' पुस्तक की समीक्षा नरेन्द्र मोहन जी से करायी जाये।’’


‘‘मुझे खुशी होगी। आप उन्हें यह पुस्तक दे दीजिए।’’


खालसा काॅलेज मेरे लिये अपना सा कालेज हो गया था। उसमें महीप सिंह और कृपाशंकर सिंह जैसे मित्र तो पढ़ा ही रहे थे, हाँ, लक्ष्मीनारायण लाल भी वहाँ आ गये थे और उनसे मेरा लेखकीय सम्बन्ध तो था ही, व्यक्तिगत सम्बन्ध भी बन गया था। कभी-कभी इस काॅलेज में जाया करता था और मित्रों के साथ बैठक होती थी। सोचा इस बार जाऊँगा तो नरेन्द्र मोहन जी से भी भेंट हो जायेगी।


इस बीच नरेन्द्र मोहन जी ने मेरी पुस्तक पर समीक्षा लिख दी थी। वह कुछ बाद में किसी पत्रिका (शायद ‘समीक्षा’) में प्रकाशित भी हुई किन्तु छपने से पूर्व यह समीक्षा मुझे देखने को मिल गयी थी। देखकर मैं गहरे में प्रभावित हुआ। प्रभावित इसलिए हुआ कि समीक्षा में एक समीक्षक की अन्तर्दृष्टि थी, चीजों को उनकी केन्द्रीयता में पहचानने की दीप्ति थी और भाषा में समीक्षा भाषा की संश्लिष्टता थी और सबसे बड़ी बात यह थी कि मेरी सीमाओं को भी तटस्थ भाव से उजागर किया गया था। इसके बाद जब पहली बार उनसे भेंट हुई तो उनका प्रत्यक्ष व्यक्तित्व तो सामने था ही, उनकी समीक्षा का उजास भी उसमें मिला हुआ था। लम्बी-चौड़ी काया, चेहरे पर गहरी निश्छल मुस्कराहट, आँखों में स्वागत का भाव और अपनापन दे देने के लिए उत्सुकता। पहली ही भेंट में भा गये और अपने से हो गये नरेन्द्र मोहन। तब से आज तक मेरी और उनकी सहयात्रा चलती रही है। न जाने कितनी शामों, कितनी सुबहों, कितने गोष्ठी-प्रसंगों, कितनी यात्राओं में हम साथ-साथ रहे और संवेदनाओं और विचारों की आवाजाही एक दूसरे में होती रही है तथा हम साहित्यिक मित्र से पारिवारिक मित्र बनते चले गये। इस लम्बी यात्रा के अनन्त प्रसंगों और अनुभवों को स्मृति में उतारना, फिर उन्हें कागज पर ले आना सम्भव नहीं है। हम तो साथ जीते रहे। वह तो कभी मनमें आया ही नहीं कि उस जिये हुए को लिखना है, इसलिए उसे क्रमशः कागज पर अंकित करते चलना है। इसलिए रोजमर्रा की ज़िन्दगी में छनकर यादों में जो कुछ अलग से मुस्करा रहा है,चलो उसी के साथ हो लेते है।


जब मैंने नरेन्द्र मोहन को जाना तब वे एक समीक्षक के रूप में अपनी ओर ध्यान आकृष्ट कर रहे थे। बादमें उन्होंने कवि-रूप में भी पहचान बनायी और नाटक के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा का चमत्कार दिखाया।


इसके साथ ही सम्पादन के क्षेत्र में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। बहरहाल शुरु में वे एक आलोचक के रूप में ही हम लोगों के बीच उजागर हुए थे। मुझे याद है कि वे लगातार महत्त्वपूर्ण गोष्ठियों में अपने लेखों के माध्यम से शरीक होते रहे। महत्वपूर्ण रचनात्मक पुस्तकों पर समीक्षा लिखते रहे। लेखकों को अपनी पुस्तकों पर उनकी लिखित एवं मौखिक प्रतिक्रिया जानने की इच्छा होती रही। यानी समग्रतः वे साहित्य के नये वातावरण के एक अनिवार्य व्यक्ति बनते जा रहे थे। वह साहित्य समय अभी खराब नहीं हुआ था। लोगों का लोगों के यहाँ आना-जाना लगा हुआ था, पारस्परिक संवाद की उष्मा बनी हुई थी गोकि साहित्य कीमहत्ता के आकलन के दृष्टिकोण से अलग-अलग गुट बनने शुरु हो गये थे। कुछ लोग थे जो साहित्य के नियामक बनकर साहित्य का वारा-न्यारा कर रहे थे और कुछ रचनाकार उनके समीकरण में फिट बैठ रहे थे। इस नीयत के विरोध में अन्य अनेक रचनाकारों के छोटे-छोटे अनाम रचना मण्डल सक्रिय होने लगे थे। उनके प्रयास थे कि महत्वपूर्ण लिखने वाले अन्य अनेक रचराकारों की कृतियों की भी महत्ता रेखांकित की जाये और नयी-नयी उठने वाली प्रवृत्तियों का आकलन किया जाये। एक ऐसा हीअनाम रचना मण्डल हम लोगों का था जिसमें कई रचनाकार और आलोचक सम्मिलित थे। मैं, महीपसिंह, नरेन्द्र मोहन, विनय, बलदेव वंशी, हरदयाल, जगदीश चतुर्वेदी तो इसमें थे ही, अन्य अनेक नये पुराने लोगों का इसमें आना जाना होता रहता था। नित्यानन्द तिवारी की भी वैचारिक सहभागिता इसे प्राप्त होती ही रहती थी। गोष्ठियाँ होती रहती थीं कभी विनय के घर, कभी नरेन्द्र मोहन के घर, कभी महीप सिंह के घर, कभी किसी सार्वजनिक स्थान पर। महीप सिंह और नरेन्द्र मोहन की प्रेरणा से खालसा कालेज तो गोष्ठियों एवं संगोष्ठियों का केन्द्र बना हुआ था और हर जगह नरेन्द्र मोहन की वैचारिक सहभागिता महत्त्वपूर्ण बनी हुई थी।


क्रमशः नरेन्द्र मोहन के साथ मेरी साहित्यिक सहयात्रा तो सघन हो रही थी, व्यक्तिगत सम्बन्धों का उजास भी गहराता जा रहा था। उन के व्यवहार में प्यार की गरमाहट तो थी ही, शिष्टता और विनम्रता की शीतलता भी महसूस होती थी। वे मुझे सदा आदर सम्मान देते रहे हैं जैसे कोई छोटा भाई बड़े भाई को देता है। मुझे याद नहीं है कि मेरे उनके बीच कभी कोई अप्रिय प्रसंग आया हो, कोई कटुता उपजी हो। हमारी दोस्ती और भाईचारे का रहस्य था एक-दूसरे को समझना। यानी हम दोनों कई मायनों में अलग-अलग ज़मीन पर खड़े होकर भी समझदारी के नाते एक-दूसरे से गहरा जुड़ाव अनुभव करते थे। नरेन्द्र मोहन चण्डीगढ़ के आधुनिकतावादी चिन्तन माहौल से आये थे इसलिए समकालीन साहित्य की समझ और व्याख्या में उसका असर लक्षित होता रहता था और मैं ठेठ देहाती संस्कार का होने के नाते आधुनिकता को स्वीकारता था किन्तु आधुनिकतावाद को अपने आस-पास के समाज के जीवन-यथार्थ से जोड़ नहीं पाता था, किन्तु मुझे लगता है कि नरेन्द्र मोहन का भी मूल संस्कार देशी और सामाजिक था (यानी है)। उनकी आलोचनाओं में मूलभूत रूप में अपने परिवेश के सामाजिक यथार्थ की खोज पर ही बल होता था। अतः वे भी अकविता या उस तरह के साहित्य को दूर तक महत्त्व नहीं दे सके। अपने रचनात्मक साहित्य में तो वे एकदम अपनी देश जमीन पर खड़े होकर सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक छद्म से मुठभेड़ की मुद्रा में दिखायी पड़ते हैं।


महीप सिंह और नरेन्द्र मोहन एक ही कालेज में सहकर्मी तो थे ही बहुत गहरे मित्र भी थे, अतः दोनों में साहित्यिक संवाद चलते रहते थे और योजनाएं भी। महीप सिंह ने ‘‘संचेतना’ पत्रिका निकालनी शुरु की और कुछ समय बाद उन्होंने नरेन्द्र मोहन को भी संपादकीय दायित्व से जोड़ लिया। दोनों मित्रों के सहचिंतन से ‘संचेतना’ समकालीन साहित्य का विशिष्ट मंच बनने लगी। उसके कई विशिष्ट अंक निकले और हर अंक की रूपरेखा गढ़ते समय नरेन्द्र मोहन मुझसे विचार-विमर्श करते थे। विशेष अंकों में से एक विशेषांक की चर्चा करना चाहूँगा। विशेषांक था ‘विचार कविता’ अंक। ‘विचार कविता’ अंक के लिये हमारी काफी बहसें हुई। पहली बार तो मैं इस नाम से चौंक उठा। मेरी समझ में नहीं आया कि ‘विचार कविता’ कौन-सी कविता होती है? कविता में विचार होता है लेकिन कविता का प्राण तो संवेदना होती है। नरेन्द्र मोहन खूब सोच-समझ कर आये थे। उन्होंने बार-बार अपना पक्ष रखा और निष्कर्ष यह निकला कि आज कविता में विचार की भूमिका पहले से अधिक है और आज कविता में आये नये बदलाव की पहचान के लिये यह एक नाम मात्र है। इसमें संवेदना का निषेध नहीं किया जा रहा है। ‘‘संचेतना’ का ‘विचार कविता’ अंक बड़ी गरिमा के साथ प्रकाशित हुआ। उसमें विचार कविता के सम्बन्ध को लेकर कई महत्वपूर्ण निबन्ध थे और अनेक स्तरीय कविताएं थीं। यानी यह ‘विचार कविता’ के नाम से अच्छी कविताओं का एक विशेषांक था। कविता का अच्छी कविता होना ही बड़ी बात है, उसे नाम चाहे जो दिया जाये। इस विशेषांक पर चर्चा के लिए एक गोष्ठी आयोजित की गयी जिसमें उस समय के अनेक महत्त्वपूर्ण कवियों और चिन्तकों ने भाग लिया।


लम्बी कविताएं लिखी जा रही थीं। मुक्तिबोध ने तो अनेक लम्बी कविताएं लिखी ही थीं, अन्य कवियों ने भी लिखी थीं। धीरे-धीरे यह बात उठने लगी थी कि आखिर लम्बी कविता है क्या ? उसका अपना कोई शास्त्र है क्या ? हिन्दी-विभाग में इस विषय पर शोध करने की भी सुगबुगाहट उठने लगी थी किन्तु वास्तव में इस की स्पष्ट रूपरेखा नहीं बन पा रही थी। नरेन्द्र मोहन का सम्पादक सचेत हुआ और इस विषय पर उन्होंने पुस्तक की योजना बनायी। वे स्वयं तो इस पर चिंतन-मनन करने ही लगे, अपने सहयात्री लेखकों को भी सचेत किया। नरेन्द्र मोहन जब किसी मुद्दे को लेकर पत्रिका या पुस्तक का सम्पादन करते हैं तब उसमें पूरा रम जाते हैं। बहुत श्रम तथा तल्लीनता से सम्पादन-कर्म निभाते हैं। उन्होंने इस विषय से सम्बन्धित पुस्तकें प्रकाशित करायीं जिन में लंबी कविता के रचना-विधान को पहचानने की ईमानदार कोशिश तो थी ही, हिन्दी की विशिष्ट लम्बी कविताओं का संकलन भी किया गया था। फिर तो अनेक विश्वविद्यालयों में इस पर शोध भी होने शुरु हो गये और नरेन्द्र मोहन के सम्पादन में तैयार होने वाली लम्बी कविता की पुस्तकों में शामिल होने के लिये अनेक लोग अच्छी-बुरी लम्बी कविताएं लिखने लगे।


नरेन्द्र मोहन ने आलोचना के क्षेत्र में काफी काम किया। समकालीन कहानी, कविता, उपन्यास के भीतर से वे गुजरते रहे और उनकी पहचान के लिये सदा जागरूक रहे। इस प्रक्रिया में उनके महत्वपूर्ण समीक्षात्मक निबन्ध आते रहे और पुस्तक का रूप पाते रहे। नरेन्द्र मोहन या इस तरह के दलमुक्त समीक्षकों की समीक्षाओं की एक विशेषता यह भी रही कि उनमें साहित्य की एक बड़ी दुनिया उपस्थित दिखायी पड़ती रही। समीकरणों की माया से बहुत से अच्छे लेखक चर्चा से बाहर कर दिये जाते रहे हैं और थोड़े से लोग हैं जो घूम-फिर कर चर्चा में हँसते-विहँसते दिखायी पड़ते हैं। नरेन्द्र मोहन ने या इस तरह के अन्य समीक्षकों ने इस हँसने-विहँसने वालों की उपेक्षा नहीं की, उन्हें भी पूरा सम्मान दिया किन्तु उन लोगों को भी सम्मान दिया जो सम्मान के भागी हैं परन्तु समीकरणवाद द्वारा उससे वंचित होते रहे हैं। साहित्य की एक बड़ी दुनिया की पहचान उभारते चलना एक बड़ी बात है।


हमारी पहचान के कुछ ही दिनों बाद मुझे ज्ञात हुआ कि नरेन्द्र मोहन कविताएं भी लिखते हैं। उनका पहला संग्रह आया। उस पर संभवतः डाॅ, विनय के यहाँ गोष्ठी हुई, मैं उस संग्रह से बहुत प्रभावित नहीं था। मैंने अपनी बात कही और हम लोग गोष्ठियों में अपनी बात सही मन से कहते रहे, एकदूसरे की सीमाओं को उजागर करते रहे हैं और कोई भी इस बात का बुरा नहीं मानता था। नरेन्द्र मोहन तो बहुत ही सहिष्णु है, वे अपनी रचनाओं के प्रति व्यक्त अप्रिय प्रतिक्रियाओं को भी शान्त भाव से सुनते और सहते रहे हैं। मुझे लगा था कि उन का काव्य-सर्जना के साथ सहज लगाव नहीं है जबकि उनकी जिद थीकि वे कविता लिखेंगे। उनकी जिद न केवल उनसे निरन्तर कविता लिखवाती गयी, वरन् उनकी काव्य सर्जना में निखार और आन्तरिकता भरती गयी और एक दिन वे हम लोगों के बीच एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में पहचाने जाने लगे। अपनी सीमाओं से लड़ने, अपने कथ्य पर गहरा विचार-मन्थन करने तथा उसकी अभिव्यक्ति के लिये भाषा से जूझने की गजब की क्षमता है नरेन्द्र मोहनमें। इसी कारण उनकी कविताएं उत्तरोत्तर काव्यात्मक संयम, सांकेतिकता और सघनता पायी गयी हैं। लम्बी कविता ‘एक अग्निकाण्ड जगहें बदलता’ तो उनकी काव्य-साधना की उपलब्धि प्रतीत होती है। बाद में वे नाटक की ओर उन्मुख हुए और एक के बाद एक कई महत्वपूर्ण नाटकों की सर्जना की।


नरेन्द्र मोहन और मेरी साहित्यिक और व्यक्तिगत सहयात्राएँ होती रहीं। हम दोनों को एक-दूसरे के साथ होना अच्छा लगता रहा। आपातकाल के दौरान डाॅ, महीप सिंह के प्रयत्नों से ‘भारतीय लेखक संगठन’ की स्थापना हुई थी। श्री विष्णु प्रभाकर उसके अध्यक्ष थे और महीप सिंह महासचिव। कुछ वर्षों बाद मैं अध्यक्ष बना और नरेन्द्र मोहन महासचिव। शायद मेरे मन में था कि मैं अध्यक्ष तभी बनूँगा जब नरेन्द्र मोहन उसके महासचिव बनेंगे और उनके मन में था कि वे महासचिव का पद तभी स्वीकारेंगे जब अध्यक्ष रामदरश मिश्र होंगे। हम लोगों के मन के भीतर कीबातें सहज भाव से साकारहो गयीं। एक दूसरे के साथ काम करने और तत्सम्बन्धी यात्राएं करने का जो हमारा अनुभव रहा वह हमारी निधि है। ऐसा नहीं कि हम दोनों में किसी से असहमत होने और झगड़ने की प्रवृत्ति नहीं है। महीप सिंह और नरेन्द्र मोहन दोनों परम मित्र हैं और सुख-दुख के साथी किन्तु ‘‘भरतीय लेखक संगठन’’ की गोष्ठियों तथा अन्य प्रसंगों में उन्हें उग्र भाव से असहमत होते और झगड़ते देखा है, कई बार देखा है लेकिन असहमत होना और झगड़ना उन मित्रों का था जो झगड़ कर एक-दूसरे से अनासक्त नहीं होते थे। बल्कि बेचैन हो उठते थे और चाहते थे कि वे फिर पूर्ववत् सहज हो जायें किन्तु दोनों अपनी असहमतियों पर अड़े होते थे। ऐसी स्थिति में उन दोनों का मित्र मैं उन्हें याद आता था और दोनों मेरे यहाँ पहुँच जाते थे पंचायत के लिये ? फिर सब कुछ सहज हो जाता था और मैं इस भाव से अभिभूत हो जाता था कि दोनों मित्रों ने मुझे कितना प्यार और विश्वास दे रखा है। परन्तु मेरे और नरेन्द्र मोहन के बीच इस तरह की असहमति और झगड़े की नौबत कभी नहीं आयी, शायद इसलिए भी कि मैं अपनी असहमति के प्रति जिद्ददी नहीं होता और नरेन्द्र मोहन के लिये समवयस्क नहीं, उनका सम्मान्य अग्रज हूँ।


याद आती है गुजरात, चण्डीगढ़, मुम्बई, लुधियाना आदि की सहयात्राएं। और सब यात्राएं तो कई लोगों के साथ हुई किन्तु गुजरात (ईडर) की यात्रा में तो हम दो ही साथ थे। मै। अस्वस्थ था। ईडर में हिन्दी गुजराती साहित्य की सम्मिलित संगोष्ठी थी। ईडर कालेज के प्राचार्य हरि भाई का बार-बार फोन आ रहा था कि मुझे ईडर पहुँचना ही है। मैं अपने साथ किसी साहित्यकार मित्र को ले लूँ। दोनों की हवाई यात्रा का व्यय वे वहन करेंगे। मैंने नरेन्द्र मोहनजीसे बड़े संकोच से पूछा, ‘‘चलना चाहेंगे क्या?’’ संकोच इसलिए था कि समय कम था और संयोजक की ओर से मैं निमंत्रित कर रहा था। नरेन्द्र मोहन ने जो उत्तर दिया वह उनके योग्य ही था। बोले ‘‘डाॅक्टर साहब, आपके साथ यात्रा करने का जो सुख है वह मुझे कहीं भी ले जा सकता है। मैं आपके साथ चलूँगा।’’ और हम गये। मेरी तबीयत एमदम ढीली थी किन्तु नरेन्द्र मोहन मेरे साथ थे, अतः बड़ी आश्वस्ति थी और सुख तो था ही। हम लोगों ने विमान में, ईडर और अहमदाबाद में जो साथ-साथ होने का सुख पाया, उसे कहा नहीं जा सकता। वहाँ के शिक्षकों, छात्रों, साहित्यकारों की आत्मीयता के बीच हम दोनों साहचर्य अद्भुत आनन्द और तृप्ति अनुभव करता रहा। मेरे लिए गुजरात का अनुभव नया नहीं था किन्तु नरेन्द्र मोहन के साथ होकर यह अनुभव करना कुछ और ही था। इस सारस्वत चहल-पहल में स्वास्थ्य की चिन्ता कब गायब हो गयी, पता ही नहीं चला। हम दोनों जब वहाँ से लौटै तो बहुत भरा-भरा अनुभव कर रहे थे और इस के लिए एक-दूसरे के साहचर्य को श्रेय दे रहे थे।


कह चुका हूँ कि नरेन्द्र मोहन और मैं साहित्य में और व्यक्तित्व में भी काफी भिन्न हैं लेकिन आपसी समझदारी और एक-दूसरे को प्यार सम्मान देने की भावना हमें अभिन्न् बनाये रहती है। नरेन्द्र मोहन बहुत योजना-कल्पी व्यक्ति है। वे साहित्य के क्षेत्र में एक न एक योजना बनाते रहे हैं औरउस पर गम्भीरता से सोचते रहे हैं। शुरु में उसके बारेमें किसी को भान नहीं होने देते। जब वह योजना उनके मन में पक जाती है तब दोस्तों के बीच उसे खोलते हैं और जिनसे बात करनी होती है, बात करते हैं। व्यक्तिगत व्यवहार में भी वे बहुत-सी चीज़ों को अपने अन्दर छिपाये चलते हैं और अवसरपर ही उसे खोलते हैं। किसी से बिगाड़ हो गया तो उसके सम्बन्ध में भी चुप रहते हैं। कभी उसके विरुद्ध कुछ नहीं कहते। मुझसे भीनहीं कहते। काफी समय बाद धीरे-धीरे जब इस तथ्य का पता चलता है तब पूछने पर हँसते रहते हैं और कहते हैं, ‘‘अरे कुछ नहीं डाॅक्टर साहब, यह सब तो होता रहता है।’’ लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वे गुस्से में नहीं आते। आते हैं। चर्चा कर चुका हूँ कि कई साहित्यिक मुद्दों पर उनसे और महीप सिंह से गरमागरमी हो जाती थी, दोनों ओर से गरम संवाद फूटने लगते थे।


टी टाउस का भी एक दृश्य याद आ रहा है। मैं और धमेन्द्र गुप्त एक साथ बैठे हुए थे। सामने की एक सीट पर नरेन्द्रमोहन, जगदीश चतुर्वेदी, महीप सिंह तथा कुछ और लोग थे। जगदीश और नरेन्द्र मोहन में कुछ चर्चा हो रही थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या चर्चा हो रही है। बाद में ज्ञात हुआ कि नरेन्द्र मोहन से जगदीश चतुर्वेदी सवाल कर रहे थे, ‘‘मोना से तुम क्यों मिलते हो? ‘‘नरेन्द्र मोहन समझा रहे थे, ‘‘मैं उससे नहीं मिलता, वह मुझसे मिलने मेरे घर आती है। वह आती है तो उसे भगा दूँ क्या।’’ ‘‘हाँ भगा दो।’’ नहीं वह मेरी पारिवारिक संस्कृति के विरुद्ध है।’’ जगदीश अपनी जिद पर अड़े रहकर उग्र स्वर में नरेन्द्र मोहन को भला बुरा कहने लगे तो उन का सारा संयम टूट गया और उग्र होते हुए बोले, ‘‘बहुत मारूँगा साले, अब आगे यदि कुछ और बकवास की तो।’’ फिर क्या था जगदीश उठ खड़े हुए और बाहर आकर ऊँट-र्शट बकने लगे, किन्तु नरेन्द्र मोहन शान्त भाव से बैठे रहे। मुझे लग गया कि नरेन्द्र मोहन की लम्बी भरी काया में गम्भीरता और सौम्यता की दीप्ति ही नहीं है, अपनी शक्ति का अहसास और तज्जन्य निर्भीकता भी है। मैं तो इस दृश्य से घबरा गया। धर्मेन्द्र से कहा, ‘‘चलता हूँ।’’ धर्मेन्द्र हँस कर बोले- ‘‘अरे बैठिये भाई साहब, ये सब टी हाउस के नजारे हैं, इन्हें देखना चाहिए।’’


हाँ तो नरेन्द्र मोहन एक कुशल योजना-कल्पी व्यक्ति है। वे योजनाएं बनाते रहते हैं और उन्हें चरितार्थ करने के मार्ग ढूँढा करते हैं। वे यह भी समझते हैं कि आज के साहित्यिक माहौल में सिधाई से काम नहीं चलेगा, थोड़ी चतुराई भी जरूरी है और उनमें अपनी कृतियों तथा अपने को प्रोजेक्ट करते रहने की चतुराई भी है। दिल्ली, चण्डीगढ़, अमृतसर, लुधियाना, जालंधर आदि शहरों में उन्होंने खूब प्रशंसक मित्र बनाये हैं, उन्हें सहजते हैं और उनके बीच अपनी उपस्थिति की उष्मा बनाये रखते हैं। धीरे-धीरे महाराष्ट्र के इलाके में उन्होंने अपना स्नेह-प्रसार कर लिया है और वहाँ के साहित्यकारों के बीच उनकी रचनात्मक महत्ता प्रतीत हो रही है। नरेन्द्र मोहन बहुत कौशल के साथ अपने वांछित कार्य की महत्ता की प्रतीति कराते हैं।


नरेन्द्र मोहन बहुत संयत और संतुलित व्यक्ति हैं। वे घर और बाहर में संतुलन बनाये रखते हैं। मित्रों के बीच प्रेम की लय बनाये रखते हैं, स्वार्थ एवं परार्थ में सम्यक् संवाद कायम रखते हैं। मित्रों के बीच बैठ कर शराब पीते हैं लेकिन उन्हें शराब-प्रेमी नहीं कहा जा सकता। बहुत नाप-तौल कर उचित मात्रा में ही शराब पीते हैं। तमाम कवियों और लेखकों की तरह उनमें भी रसिकता है किन्तु वे अपने परिवार को बहुत प्यार करते रहे हैं। घर उनके लिए मन्दिर रहा है, जहाँ किसी बाहरी फूहड़ता की गुँजाइश नहीं। मित्रों के लिए उनका घर खुला रहता है। वहाँ जाने पर हर किसी को उष्मा भरा स्वागत-सत्कार प्राप्त होता रहा है। इसलिए बाहरके अनेक साहित्यकार मित्र उनके यहाँ ठहरते हैं और अपने घर में होने का-सा अनुभव करते हैं। संयम और संतुलन ने आज उन्हें संभाल रखा है। मुझे पता है कि अपनी पत्नी अनुराधा जी को वे कितना प्यार करते थे। उनके दिवंगत होने पर उन्हें कितनी पीड़ा हुई होगी और कितने गहरे सूनेपन और सन्नाटे ने घेरा होगा, इस की कल्पना की जा सकती है किन्तु नरेन्द्र जी सब कुछ साहस से झेल गये। घर में अकेले रहते हुए भी अकेलेपन को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। उनकी जिजीविषा एवं रचनाधर्मिता ने उन्हें पूर्ववत् ज़िन्दगी के साथ लगा दिया।


मैं सदा अनुभव करता रहा हूँ कि मैं जो कुछ बना हूँ, बहुतों के बीच बना हूँ। हम परस्पर वैचारिक और संवेदनात्मक आवाजाही करते हुए बहुत कुछ प्राप्त करते रहे हैं जिससे हमें अपने को समझने में सहायता मिलती है। मैं जिनके साथ बना हूँ उनमें नरेन्द्र मोहन भी एक है। उन्होंने मेरी अनेक कृतियों पर समीक्षाएं लिखी हैं और उन समीक्षाओं के आईने में मुझे अपनी शक्तियों और सीमाओं की सूरत दिखायी पड़ती रही है। मेरी कहानियों पर लिखा हुआ उनका लम्बा लेख तो बहुत ही विशिष्ट है और समय पर यहाँ-वहाँ जो हमारे बीच विचार विनिमय होते रहे हैं, हमारे बनने में उनकी भूमिका कम महत्वूपर्ण नहीं है।


 


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