पत्र

दिल्ली                                     


30 जुलाई 2020                


 


आदरणीय सर,  सादर नमन!                                                                                           


जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएँ और बधाइयाँ ! आप स्वस्थ हों और आपकी स्नेहिल छाया सदा मुझपर बनी रहे, यही कामना है। स्वयं आकर बधाई देना चाहती थी, किंतु अपरिहार्य कारणों से संभव न हो सका। आज, आपके जन्मदिन पर आपसे बहुत कुछ कहने की तीव्रतम इच्छा हुई तो स्वयं को रोक न पा रही, इसलिए पत्र लिख रही हूँ। हालाँकि, अंतर्जाल के इस युग में मेरा पत्र पाकर शायद आपको थोड़ा अजीब लगे, मगर फोन पर हुई बातचीत और मेल या वाट्सअप पर सीधे –सीधे लिखे दो शब्द भावनाओं और विचारों को कहाँ खुलने-खिलने देते हैं, जबतक कि वह पत्र की शक्ल अख़्तियार न करे, भले ही मेल के माध्यम से या फ़ैक्स मानकर भेजूँ। 


सर, समझ नहीं आ रहा, बात कहाँ से शुरू करूँ! आपके नाम पहला और बिलकुल अनौपचारिक पत्र लिखने बैठी हूँ तो बाईस वर्ष पीछे पहुँच गई हूँ जब माँ को पत्र लिखा करती थी। कितना इंतज़ार रहता था उन दिनों पत्र का! कितना संभाल कर रखते थे हम उन्हें! ख़ज़ाने की तरह! पत्र में लिखा एक-एक शब्द निश्छल भावों के झरने में नहलाता था। भीग जाता था पोर-पोर अंतस का। आप सोच रहे होंगे, माँ की बात तो अलग है, आपको पत्र क्यों लिख रही। दरअसल, मैं पिछले कई महीनों से आपके साहित्य से लगातार रू-ब-रू होती रही हूँ, उन्हें जीती रही हूँ। फिर कब अपने सारे पात्रों के साथ आप मेरे अपनों की तालिका में शामिल हो गए, मुझे पता ही नहीं चला। ख़ासकर, निंदर के साथ। मैं पत्र भी निंदर को ही लिखना चाहती थी, मगर उस तक पहुँचने के लिए मुझे आप से होकर गुज़रना ही होगा और इसी बहाने निंदर के अतिरिक्त भी कुछ बातें कर लूँगी, यही सोचकर लिखने बैठ गई हूँ। अब मैं हूँ , अपने पात्रों के सर्जक आप और आपका वह अपनापा है, जिससे बंधकर वर्षों बाद पत्र के माध्यम से भावनाओं/ विचारों की कोमलता को एक बार फिर जीने की तमन्ना जाग उठी है।


मैंने अक्सर यह पाया कि जीवन में अँधेरे को चीरकर अपनी उँगलियों के सिरे पर रोशनी स्थापित कर, साहित्य समाज को रोशन करने का काम आपने किया है। साथ ही, जीवन के उन घटाटोप अँधेरे को भी आपने जीया है, जिनकी संवेदना आपकी कृतियों में छलक- छलक पड़ी हैं। निस्संदेह इन जड़ों को जमने में समय लगा होगा! भीतरी -बाहरी थपेड़े झेलते हुए  आप फलदार छायादार वृक्ष बने और शायद इसलिए, सदैव प्रत्येक के प्रति विनम्र रहते हैं। अपनी बात कहूँ तो आपसे प्रथम मुलाक़ात ही पर्याप्त था व्यक्तित्व की ऊँचाई और गहराई समझने के लिए। हाँ, कृतित्व के बारे में कहूँ तो आपकी रचनाएँ मेरे समक्ष हर बार नए अर्थ के द्वार खोलती रही है, चाहे वे किसी भी विधा में हों।


आपकी आत्मकथा ‘कमबख़्त निंदर’ से गुज़रना स्वयं को आग के दरिया में धकेलने जैसा रहा। आपने तो आग की लपटों को वर्षों तक झेला है। आपसे क्या कहूँ, आपने संघर्ष को  सीढ़ी बनाकर स्वयं को ऊँची छत बनाया। ये बातें तब अधिक समझ पाई जब 'कमबख़्त निंदर' दूसरी बार साथ हो लिया। मैं कई दिनों तक सो नहीं सकी थी। जब मैं उसके स्वभाव से हैरान- परेशान हो  गई तभी उस दिन आपके पास गई थी और आपकी वह ईमानदार अभिव्यक्ति “शरारती निंदर ही है जो मुझे सक्रिय रखता है” कहीं न कहीं मुझे मुरीद बना गई।  


सर, आपसे पहली मुलाक़ात कैसे भूलूँ? शाम के यही कोई 5.  15 बज रहे होंगे।  सुमन जी ने दरवाज़ा खोला और  सामने भीतर के कमरे में आप मुस्कुराते नज़र आए थे। आपको इन छोटी-छोटी बातों का कहाँ ध्यान होगा! मुश्किल से 5 मिनट बीते होंगे, अपनी ख़ैर-ख़बर देने के बाद मैं आपसे बात करने लगी तो मेरे भीतर कहीं निंदर मुस्कुराया था। कह रहा था, ‘जो भी पूछना-कहना हो, पूछ- कह डालो’---- फिर तो मेरी जिज्ञासा का पिटारा खुलता ही गया था आपके सामने। मैं भूल ही गई कि आपसे यह इस तरह की पहली मुलाक़ात है। यह सब आपके निश्छल स्नेह और आत्मीय व्यवहार का असर था कि लगभग तीन घंटे गुज़र जाने पर भी समय के बढ़ते क़दम का एहसास न हुआ। एक अभिभावक की भाँति मुझे मेट्रो तक ऋत्विक के साथ भेजना और सकुशल पहुँच जाने की ख़बर लेना --- सचमुच कहीं अंतस तक भिगो गया मुझे। मैं गई तो थी वरिष्ठ साहित्यकार नरेंद्र मोहन जी से मिलने, मगर जब लौटी तो मेरे साथ आपके रूप में एक अभिभावक और एक आत्मीय मित्र भी थे। उस दिन समझ गई कि तमाम विषैले धुएँ के बावजूद दिल्ली में दम क्यों नहीं घुटता! जब तक आप सदृश व्यक्तित्व हैं, तब तक संवेदना मर नहीं सकती। इसे मेरी भावना की अतिरंजना न समझें। मैं जबतक प्रभावित न होऊँ, किसी से भी जुड़ नहीं सकती। आपके कृतित्व की विराटता एक लेखक और शिक्षाविद के रूप में जगजाहिर है।      


मैं जब 'कमबख़्त निंदर'  पढ़ रही थी। पढ़ते हुए कब उस कृति का हिस्सा बन गई, पता ही न चला। कई भाव उपजे -- समाप्त हुए। कहूँ कि ज्वार-भाटे की-सी स्थिति थी मन की। कुछ जिज्ञासाएँ जो मज़बूती से पैर टिकाए रहीं, उनके शमन के लिए आपके पास आना पड़ा था। सचमुच, निंदर के साथ यात्रा करना इतना आसान नहीं! जन्म से लेकर विभाजन और उसके कई वर्षों बाद तक आपने जितने बिगड़े हालात, देखे-भोगे; निज के खंडन और संयोजन के चक्र को भी महसूसा। आपके बाल मन ने जो ग्रहण किया, उसकी छाप और उसकी ही चाप बाद में भी महसूसते रहे हैं, ऐसा उस आत्मकथा से गुज़रते हुए मुझे महसूस हुआ। क्या वह परिवेश सचमुच आज से अधिक भयावह, दुखदायी और हंता था? क्योंकि आज स्वतंत्र भारत में हम नित -नित नए आडंबरों और सभ्यता के नाम पर पसरती कुसंस्कृतियों तले पिसे जा रहे हैं। दुखद यह है कि पिसे जाने -- रौंदे जाने का एहसास भी मरता जा रहा है। उस समय देश के जो भी हालात बने, वे थोपे हुए थे, जबकि आज के हालात पैदा किए हुए हैं ।  नई पीढ़ी भाषा और संस्कृति की महत्ता को समझ नहीं पा रही। अंग्रेज़ी और हिंगलिश का प्रभाव घर-घर में सेंध लगा चुका है। घर के भीतर की संस्कृति चरमराने लगी है। मुझे अच्छी तरह याद है, आपने भाषा और संस्कृति को लेकर मेरा चिंता को लक्षकर कहा था--- बात सिर्फ़ भाषा की नहीं है। आपका सपना अपनी भाषा में बुना जाएगा, मगर  जबतक आप सपना नहीं देखेंगे, तब तक कैसे--?


सच ही कहा था आपने! सब कुछ यांत्रिक  हो चुका है। आपने समय के साथ भाषा के स्वरूप के बदलते जाने की बात कही थी; भाषा के विश्व से संवेदना के जुड़े होने की बात की थी और भाषा को बचाने के लिए इसी संवेदना को बचाए रखने की ज़रूरत पर बल भी दिया था। क्षमा चाहूँगी सर, मगर संवेदना से जुड़े  सवाल मेरे ज़ेहन से टकराते रहते हैं, ख़ासकर किशोरों की मानसिकता को देखकर लगता है, कहीं न कहीं हम दोषी हैं। हमने उन्हें यांत्रिक बना दिया है।


आपसे जब भी संवाद हुआ, निश्चित तौर पर मेरी दृष्टि को विस्तार मिला।  नई पीढ़ी को देखने का नज़रिया बदला। आपको याद है, आपने कहा था—“नई पीढ़ी दक़ियानूस नहीं है, बहुत खुले विचारों वाली है। उनके अपने विचार हैं। ज्ञान के क्षेत्र में,सूचना  टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में इन्होंने बड़ा काम किया है। यहाँ तक कि साहित्य के क्षेत्र में भी बहुत अच्छे रचनाकार आ रहे हैं और यह पीढ़ी बिलकुल नई परिस्थितियों से टकराती, रास्ता बनाती, आगे बढ़ रही है। नई पीढ़ी ने लगातार संघर्ष करते हुए नई परिस्थितियों में  पुराने मूल्यों और आदर्शों को अस्वीकारने का साहस दिखाया है।”


मगर,पिछले कुछ वर्षों से साहित्य समाज की स्वाभाविक गति में कुछ अवरोध नज़र आने लगा है। स्त्री विमर्श के नाम पर केंद्र में स्त्री देह को रखकर, उसकी मुक्ति का आंदोलन छेड़ा गया और देहमुक्ति के नाम पर कई बार ऐसे रूप सामने आए जिसने मुझे झंझोरा कि ‘ अगर यह स्त्री विमर्श का हिस्सा है तो वह क्या था जो मीरा ने किया, जो महादेवी ने कहा’। क्या कहूँ, स्त्री होकर भी ऐसी मानसिकता का साथ नहीं दे सकती! आपने हमेशा मेरे मन में उठते झंझावातों को अपने ज़वाब से शांत करने की कोशिश की है और मुझे यह कहने से गुरेज़ नहीं कि आपके ज़वाब ने हर बार मुझे दिशा दी है।


आपकी कविता की एक पंक्ति मन में उमड़ती –घुमड़ती रहती है --- ‘घर से बाहर मैंने घर पा लिया।' यह एक पंक्ति जाने कितने आयाम लिए है, कितने सवालों के ज़वाब समेटे हुए है! आपकी कही बहुत-सी बातें मुझे इस पंक्ति के माध्यम से समझ में आईं। जैसे कि आपने कहा था—“एक स्वाधीन जीवन जीना, स्वाधीन व्यक्ति बन जाना भी है।” जब मैं वृद्धाश्र्म जाती हूँ और मुस्कान के भीतर क़ैद असह्य वेदना महसूसती हूँ और साथ में यह भी कि कुछ वृद्ध किस तरह नई परिस्थितियों में ख़ुद को ढालकर ख़ुश दिखने की कोशिश ही नहीं करते, सचमुच ख़ुश रहते हैं तो आपकी काव्य पंक्ति की यथार्थता कई गुना अधिक महसूस होने लगती है।सचमुच, निर्वासन और विस्थापन कई तरह के हैं जिन्हें हम कई स्तरों पर जी रहे हैं--- पारिवारिक, सामाजिक-राजनीतिक .... ।आपके कविता संग्रह 'एक अग्निकांड जगहें बदलता' में मुझे इसी संदर्भ को लेकर कई कविताएँ पढ़ने को मिलीं। आपने बहुत गहराई से, गहराई तक इन स्थितियों के मूल की छानबीन की और उसे पकड़ने की चेष्टा भी। मैंने जाने कितनी ही बार इन कविताओं को पढ़ा होगा!   


पत्र लिखने का एक बड़ा कारण 'कमबख़्त निंदर' भी है।इस कृति  में रावी का वर्णन पढ़कर लगा, रावी आपके भीतर एहसास बनकर बस गई है। एक बार तो मुझे ऐसा लगा, रावी आपके लिए नदी मात्र नहीं ,माँ है जिसकी गोद में बिताया बचपन आप कभी भूल नहीं सके। मेरी यह समझ कहाँ तक सही है, यह तो कभी आपसे मिलूँगी तभी जान पाऊँगी! क्योंकि नदी और पेड़ आपके जीवन से किस कदर जुड़े हैं, इसकी झलक आपकी डायरी में भी मिलती है। मैंने 'कमबख़्त निंदर ' में ही पढ़ा,  आपके पिता आपको 'मखबूतलहवास' बोला करते  थे। यह शब्द मैंने अपने पिता को अपने बेटों ,मतलब मेरे भाइयों के लिए कहते सुना है।


मैं इस बात से  हैरान  थी कि लोक प्रचलित यह  शब्द कितनी व्यापकता लिए हुए है!आज  हम धीरे-धीरे कितने लोकप्रचलित शब्दों को खोते जा रहे हैं!


एक बात मेरे मन को मथ रही है, पूछने का कभी अवसर नहीं मिला, क्योंकि आपसे रू-ब-रू होने के बाद व्यक्ति आपके खिलखिलाते चेहरे और सरल-तरल व्यक्तित्व के आकर्षण-पाश में ऐसा बंधता है कि वह एकबारगी आपकी रचनाओं में बहती दर्द की चीख और चीख़ों में व्याप्त दर्द को भूल जाता है, जिसे आपने बड़ी  सूक्ष्मता से जाने- अनजाने आत्मसात कर लिया और वह पीड़ा नदी बनकर, कृतियों में विस्तार पाती गई। मौन पीड़ा के रूप में यह मुझे आज भी आपके इर्द-गिर्द दिखती है मानो सारी दुनिया की वेदना आपके भीतर संवेदना बनकर इकट्ठी हो रही हो और रचना में ढलती जा रही हो। जहाँ तक मुझे याद है, आपने रचनावली की भूमिका में ऐसा ही कुछ लिखा भी था।


एक बात की प्रशंसा किए बग़ैर नहीं रह सकती कि आपने आत्मकथा और डायरी लिखते हुए जितनी पारदर्शिता बरती है, वह साहस बहुत ही कम साहित्यकारों में देखने को मिली है। एक–एक प्रसंग और संदर्भ आपने इस तरह उजागर किया है मानो बिलकुल स्वच्छ आइने में ख़ुद को भीतर-बाहर देखने की हठ किए बैठे हों। आपकी आत्मकथाओं और डायरियों से गुज़रने के बाद मेरे मुँह अनायास से निकला था, “इन्होंने तो अपनी ही कलम से अपनी ज़िंदगी का सिटी स्कैन, मेमोग्राफी और एमआरआई सबकुछ कर दिया।”


फिर भी एक बात पूछूँ? क्या आपके जीवन में ऐसा कोई कोमल क्षण नहीं आया, जिसकी स्मृति आज भी आग की लपटों के बीच शीतल फुहार-सा आनंद देती हो; आज भी तमाम उलझनों  के बीच वे क्षण अपनी स्मृति मात्र से आप में ताज़गी भर देते हों? कोई दोस्त या हमसफ़र ? क्योंकि बचपन की दोस्त किसी नन्हों का ज़िक्र तो है, मगर उस दोस्ती की तह तक पहुँच पाना मेरे लिए कठिन रहा और इसका कारण आपके लेखन में अस्पष्टता नहीं, मेरी मंदबुद्धि है या ऐसे संबंध को समझ न पाने की मेरी अक्षमता!


एक बात बताऊँ! बापू की आत्मकथा या अन्य पुस्तकें पढ़ते हुए मैंने महसूस किया कि बचपन में उनका एक ही दोस्त था और वह था उनका अपना मन। बाहर की दुनिया के लिए वे दब्बू या संकोची स्वभाव के थे। आपकी रचनाओं से गुज़रते हुए भी मुझे कुछ ऐसा ही एहसास हुआ कि बचपन में आपका सबसे निकटतम मित्र रहा -- आपका आत्म! ख़ासकर, उन दिनों में, आपकी आवाज़ बाहरी तौर पर गई, मगर भीतर तो उसकी गूँज थी ही, जिसे स्पष्ट रूप में सिर्फ़ आप सुन सकते थे। ओह, कैसे झेला होगा यह सब! मैं कल्पना-मात्र से सिहर उठती हूँ, फिर अपने आप से पूछती हूँ कि जब आदरणीय इतने बड़े संकट में नहीं टूटे, उन सन्नाटों को झेला ही नहीं, आत्मसात भी किया और उसी को अपनी लेखनी की स्याही बना डाली तो क्या तुम्हें हक़ है हार मानने का! और सर, मेरा दिल दुगुने साहस से भर उठता है। मुझे नहीं मालूम, कितने लोगों को आपके बचपन के उस सन्नाटे और खालीपन का पता है या कितने लोग उसकी अनुभूति करने में सक्षम हैं, मगर मैं जब भी बिखरने लगती हूँ आपकी आत्मकथा का वह हिस्सा मुझे बिखरने से बचा लेता है। निंदर मुझसे कहता है—“देखो मुझे! जब मैंने हार नहीं मानी तो तुम इतनी छोटी –सी चुनौती से कैसे हार सकती हो!” सर, आप यक़ीन मानें! वह महज़ एक पात्र नहीं, मेरे जीवन का ऊर्जास्रोत है।मुझ जैसी जाने कितनी होंगी, जिन्हें बतौर पाठक जुड़ने के बाद निंदर अपना सखा—अपना प्रेरक लगने लगा होगा!


 


सर, आपने बचपन से जाने कितने आघात झेले हैं! संवेदनशील हैं, इसलिए आत्मसात भी करते रहे। बाद में इसी को अलग -अलग विधाओं में ढाला। मैंने महसूस किया है,शब्द की शक्ति पर आपकी गहरी आस्था है। शब्द  महज़ शब्द नहीं है आपके लिए और  शब्द की शक्ति तो हर जगह मायने रखती है। है ना! मगर, विडंबना है कि मंच से शब्द को ब्रह्म कहने वाले कुछ लोग  व्यावहारिक रूप में शब्द की गरिमा तार-तार करते है। मैं आज तक नहीं समझ पाई, आम जीवन में शब्द के अर्थबोध से भी परहेज रखने वाला व्यक्ति अच्छा रचनाकार कैसे हो सकता है? उसकी रचना जीवंत कैसे हो सकती है? मगर अब लगने लगा है, साहित्य की राजनीतिक दुनिया में सब संभव है। आप किसी संस्था के ऊँचे पद पर किसी भी तरह --- दूसरे को सहारा देने के बहाने धक्का दे, गिराकर या अन्य प्रक्रियाओं से हासिल कर लें तो बिना कुछ नया लिखे भी युगप्रवर्तक साहित्यकार कहला सकते हैं। सच कहूँ तो घिन आती है ऐसे वातावरण से; उसका निर्माण करनेवाले लोगों से।


आप कभी किसी वाद में नहीं रहे, आदरणीय डॉ. रामदरश मिश्र जी भी वाद की संकीर्ण सीमा से आज़ाद रहे, यहाँ तक कि आदरणीय रमानाथ त्रिपाठी जी भी अन्याय के खिलाफ़ हमेशा अकेले लड़ते रहे। आप तीनों ने लॉबी को अस्वीकार करके अननोटिस्ड रहना स्वीकारा, मगर बुराई और संकीर्ण मानसिकता का साथ नहीं दिया ; आप तीनों बड़े शिक्षाविद हुए, कभी किसी पद के लिए मन में लिप्सा जन्मने नहीं दी, शायद इसलिए हम सब या कहूँ मैं और मेरे जैसे लोग इस उम्मीद में जी रहे हैं कि साहित्य जगत में कुछ तो शुचिता बची हुई है और सच धुँधलके में भी अपनी रोशनी का प्रभाव छोड़ता ही है। इसका प्रमाण स्वयं आप और आपकी कृतियाँ हैं। एक साहित्यकार को लॉबी क्या ज़िंदा रखेगी, ज़िंदा तो उसकी कृतियाँ ही रखेंगी और ये चुनौतियों के घर्षण से अपेक्षाकृत अधिक परिमार्जित होकर सामने आती हैं और अमरता को प्राप्त करती हैं। मंटो भी तो ऐसे ही थे।


आपकी कृतियों से गुज़रते हुए कभी- कभी मुझे लगता है मानो लेखन-कार्य आपके लिए एक नशा है । निरंतर संघर्ष, धैर्य और अपनी शर्तों पर चलने की हठधर्मिता के बावजूद साहित्य जगत में आपने जो जगह बनाई; साहित्य को जो अवदान दिए, वह सचमुच प्रेरक है।आपकी लिखी कुछ पंक्तियाँ मेरे भीतर उतर चुकी हैं---  इस दौर में कौन बचेगा ? आसमान को भेदती चीख के साथ गिरेगा --- नो मैस लैंड पर मंटो की तरह या शर्मिला  इरोम और विनायक सेन की तरह जेल में झेलेगा यातनाएँ!


कितनी पीड़ा समाई है इन पंक्तियों में ! आप मंटो को बहुत मानते थे ना!


आपकी नज़र में,  मंटो भी पागल थे। मखबूतलहवास! ‘टोबा टेक सिंह’ का जिस तरह आपने नाट्य रूपांतर ‘नो मेस लैंड’ के रूप में किया, वह मौलिक प्रतीत होता है। संभव है कि आप दोनों विभाजन के उस दर्दनाक हादसों के साक्षी ही नहीं भोक्ता भी रहे, इसलिए।     


कृतियों के ज़िक्र से याद आया, 1990 में आपकी एक किताब ‘शास्त्रीय आलोचना से विदाई’ आई थी, जिसमें आपने सर्जनात्मक आलोचना को प्रश्रय दिया। मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपकी रचनाओं को गुनने का अवसर मिला; आपसे मिलने और संवाद करने का अवसर मिला; अपनी जिज्ञासाओं को दूर करने और वर्तमान परिस्थिति की दुस्सह स्थिति में भी अपने आपको टिकाए रखने, अपनी लेखनी को स्वतंत्रता की अमोघ शक्ति देने का साहस मिला। मैं ‘आभार’ व्यक्त करके आपसे प्राप्त वात्सल्य के नैसर्गिक प्रवाह को संकुचित नहीं करूँगी। कितना कुछ कहना चाहता है मन, मगर शब्द खो-से गए हैं। अक्सर ऐसा होता है, मैं जिन संबंधों से बहुत पाती हूँ, उन्हें कभी शब्दों में बाँध नहीं पाती। शायद, यही संबंध का अतुल सौंदर्य है!


विचारों-भावनाओं के अविरल प्रवाह को रोकते हुए केवल इतना कहना चाहूँगी, ‘जितना बचा है मेरा होना’ कविता संग्रह की कुछ कविताओं ने अंतस में विचारों की लपटें उठाकर, कई जगह मूक बना दिया मुझे! निःशब्द! मैं कविताओं की ज्वाला से झुलस रही हूँ, किंतु उस झुलसन को अभिव्यक्त करने में स्वयं को अक्षम पा रही हूँ। जब तपिश असह्य होती है तो उसी संग्रह की रंगभरी पेंटिंग-सी  और लय और ताल पर थिरकती नृत्यांगना-सी  कविताओं के सान्निध्य में शीतलता पाती हूँ।


संग्रह की दो बार यात्रा कर चुकने के बाद भी ऐसी प्रतीति होती है मानो आपमें निंदर के बचे होने के अभिप्राय से संबद्ध  कोई बिंदु मेरी पकड़ से अब भी छूट रहा! इसलिए उसपर फिर कभी बात करूँगी। फिलहाल पत्र के माध्यम से एकालाप को विराम देती हूँ।


पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में ...


स्नेहाकांक्षिणी



    आरती स्मित


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