संवेदना करुणा और नैतिकता के नैन-बैन सुनीता जैन!

 
                    श्रीमती सुनीता जैन



श्रीमती सुनीता जैन हिन्दी की महत्त्वपूर्ण महिला साहित्यकार थीं। उनके भाव-जगत् का निर्माण साहित्य की संवेदनशीलता, भारतीमता और मनुष्यता के त्रिक् से हुआ था। वे साहित्य-सर्जिका थीं। साहित्य-सेविका थीं और साहित्य की जिजीविषा-संवाहिका थीं। आज जब जिसे अवसर मिलता है वह, और जिसे अवसर नहीं मिलता है, वह अपनी प्रतिभा के सहारे और इसके अभाव में जुगाड़ के सहारे विदेश भागना चाहता है और जब एक बार वहाँ चला गया तो वहीं रस-बस जाना चाहता है। ऐसी विडम्बनात्मक स्थिति में श्रीमती सुनीता जैन ऐसी मानसिकता का अपवाद थीं, महत्त्वपूर्ण और प्रादर्श! उनके पति भौतिकशास्त्र के प्रोफेसर थे और एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद पर कार्यारत थे। सुनीता जैन अपने पति के साथ ही विदेश गई थीं। वहाँ की स्वावलम्बिनी महिलाओं को देखकर वह वहाँ घर-गृहस्थी के अलावा बाहर नौकरी करने की इच्छा से धीरे-धीरे उन्मथित होने लगीं। एक दिन उन्होंने अपने पति के सामने जब अपनी यह इच्छा व्यक्त की, तब पति ने उन्हें समझाया कि तुम यहाँ एक ही नौकरी कर सकती हो और वह है अध्यापन। पर तुम केवल ग्रैजुएट हो।


अतः तुम्हे इस तरह की कोई नौकरी नहीं मिल सकती। पति अपने ज्ञानानुशासन के वरिष्ठ प्रोफेसर थे। अध्ययन-अध्यापन और अनुसंधान में उनका सारा समय जाता था। ऐसे में सुनीता जी स्वयं ही एक दिन उस विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में चली गई और उस समय जो अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष थे उनके सामने अंग्रेजी में एम.ए. करने की अपनी संकल्पशील इच्छा व्यक्त की। पर उन्होंने सुनीता जैन को निराश किया और कहा कि तुम यहाँ का पाठ्यक्रम नहीं सँभाल पाओगी। सुनीता लौट आई, पर उनकी संकल्प-शक्ति ने उन्हें दोबारा उस विभाग में भेजा और उन्होंने पाठ्यक्रम देख लेने के बाद अध्यक्ष से संकल्पपूर्वक कहा कि मैं इसे पूरा कर सकती हूँ। आप मुझे अवसर तो दीजिए। तब जाकर उन्हें एक दिन बुलाकर विभाग ने इस शर्त पर उनको दाखिला लेने की स्वीकृति दे दी कि यदि वह इसे पहले समस्तर में पूरा नहीं कर पाई तो उनका दाखिला खारिज कर दिया जाएगा/प्रवेश, निरस्त कर दिया जाएगा। सुनीता जैन ने प्रवेश लिया और विश्वविद्यालय आने-जाने लगी। उन्होंने पहले समस्तर का पाठ्यक्रम पूरा किया। उन्हें सफलता मिली और वह एम.ए. कर गई। फिर उन्होंने वही से पीएच.डी. भी की और अमेरिका में अपना भरा-पूरा परिवार छोड़कर भारत लौट आई।


सुनीता जैन दिल्ली में इन्द्रप्रस्थ कॉलेज की छात्रा रही थीं और संयोग ऐसा हुआ कि उसी कॉलेज में वह प्राध्यापिका भी बनी। उनके विद्यार्थी-जीवन में हिन्दी और अंग्रेजी दोनों की प्राध्यापिकाएँ उन्हें अपने-अपने विषय में ऑनर्स ले लेने का आग्रह करती रहीं, पर सुनीता इस द्वन्द्व से उन्मथित थीं कि अगर अंग्रेजी लै लूँ, तो हिन्दी छूट जाती है और हिन्दी लूँ, तो अंग्रेजी छूट जाती है। उन्हें इन दोनों भाषाओं के साहित्य से असीम प्यार था। इस कारण सुनीता ने निर्मोह होकर ऑनर्स का पाठ्यक्रम नहीं पढ़ने का निश्चय किया और वह ऑनर्स-रहित सामान्य पाठ्यक्रम में अंग्रेजी हिन्दी दोनों विषयों को पढ़ती हुई बी.ए. कर गई।


सुनीता अपनी अध्यापिकाओं के प्रति आजीवन आभार और कृत्यज्ञता से भरी रहीं। अपनी प्राध्यापिकाओं के बोलने की अदा, उनका साहित्य-ज्ञान और उनकी भाषाओं से वह सदा प्रभावित रहीं। साथ ही उनकी फुर्तीली चाल, उनकी वेश-भूषा के विन्यास आदि ने भी उन्हें प्रभावित किया। परीक्षा पास कर लेने के बाद प्रायः विद्यार्थी जहाँ अपनी प्रभावशालिनी, यशस्विनी और मानने वाली अध्यापिकाओं को भी भूल जाते हैं, वहाँ सुनीता इसका अपवाद रहीं और अपनी उन विशिष्ट शिक्षिकाओं को सदा स्मरण में बनाये रखा। इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में अपनी नियुक्ति होने के बाद वह उन्हें खोजने भी गई। पर तबतक वे दोनो अध्यापिकाएं अवकाश ग्रहण कर वहाँ से जा चुकी थीं। अंग्रेजी में पीएच.डी. कर लेने के बाद वह विदेश आती-जाती तो रहीं पर वहाँ अपने परिवार के साथ बसना नहीं चाहा। उन्हें उसका कोई मोह भी नहीं था, न आकर्षण और न आधुनिकता का वैसा अद्म्य आग्रह ही, जहाँ भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए लोग वहाँ जाकर लौटना नहीं चाहते, जैसा सुषम बेदी के साथ हुआ। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने साहित्य में कही लिखा है कि ‘लौटना कभी नहीं होता। पर सुनीता जैन लौटी कहाँ थीं? वह तो मनसा कभी भारत से गई ही नहीं थीं। भारत से उनका मानसिक लगाव विदेश जाते और विदेश में रहते हुए भी सदा बना रहा था। यह नहीं कि उन्हें विदेश में आजीविका नहीं मिली, बल्कि उन्होंने विदेश में पहली बार जहाँ आवेदन किया था. वहीं उनका चयन हो गया था और वहाँ उन्होंने निष्ठा, श्रम और ईमानदारी के साथ अंग्रेजी साहित्य का प्रशंसनीय अध्यापन भी किया था। पर उनकी मानसिकता भारतीय थी। उनके मूल्यमान भारतीय थे। हिन्दी के प्रति उनका प्रेम अगाध था। इसीलिए उन्होंने अपनी सर्जना की आधार-भाषा हिन्दी को ही बनाए रखा।


वह आई.आई.टी. दिल्ली में अंग्रेजी की प्रोफेसर बनीं। अंग्रेजी में पीएच.डी. अनुसंधाताओं का सफल मार्गदर्शन किया। वह अपने ज्ञान और विवेक दोनों दृष्टियों से प्रतिभा-सम्पन्न थीं और उनकी प्रतिभा का मान उनके विशेषज्ञों ने भी किया और अन्य अभ्यर्थियों की ऊपरी सिफारिशी दबावों के बावजूद उनकी नियुक्ति की गयी। सुनीता जैन ने संस्कृत की उस उक्ति को सार्थक किया कि ‘अध्यापनं बृह्म यज्ञः‘ । उनका अध्यापन-धर्म और शोध-निर्देशन कर्म एक प्रकार का स्पृही ज्ञानयज्ञ था। कहते हैं- वह उस भारत-प्रेम से भरी-पूरी थीं, जिसके लिए यह कहा गया था कि- ‘गायन्ति देवाः किल गीतकानि/धन्यास्तु ते भारत भूमि भागः । ‘एक अध्यापक आजीवन एक विद्यार्थी रहता है। सुनीता ने अपनी वय के चैथे चरण में संस्कृत सीखी और अवस्था में अपने से काफी छोटे अपने गुरु को अपना समादर-भाव अर्पित किया तथा बाद में उनकी नियुक्ति करवाकर अपनी गुरुदक्षिणा भी चुकाई।


सुनीता जैन से मेरी मुलाकात 21वीं शताब्दी के पहले दशाब्द और दूसरे दशाब्द में मात्र दो बार हुई थी। पहले दशाब्द में कन्या महाविद्यालय, जालन्धर के स्त्री-शक्तीकरण पर आयोजित एक संगोष्ठी में हुई थी। वहाँ वह संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहीं थीं और मैं अपना बीज-व्याख्यान दे रहा था। एम.फिल. में मेरी छात्रा और शोधछात्रा रही डा. विनोद कालरा ने महाविद्यालय की ओर से इस गोष्ठी का आयोजन किया था। उस समय मैंने उन्हें स्त्री-विमर्श की स्वाभिमानिनी वक्ता के रूप में मूल्यांकित किया था। मेरी उनकी दूसरी भेंट तब हुई थी जब 2017 के मार्च महीने में वह गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में आयोजित एक संगोष्ठी की अध्यक्षता करने आयीं थीं। यहाँ भी मैं बीज व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित था।


अपने यहाँ मैंने उन्हें बाल्यकाल की अमृतसरी यादों से बेहद घिरी नास्टेल्जिक (Nostelgic) हुई एक साहित्य-सर्जिका को देखा था। मैंने मार्क किया था कि उनका स्वास्थ्य पहले की अपेक्षा क्षीण हो चुका था। दुर्बल हो गयी थीं वह। पर अधिक गंभीर भी हो गयी थीं। तब की सबल शक्त स्थिति से अधिक संयत और स्वयं ही अपने प्रति उन्हें अधिक अभिमुख भी पाया। उस दिन वह मेरे व्याख्यान से तथा भाषा-साहित्य के पारखी के रूप में मुझसे अधिक प्रभावित लगीं और ज्ञान के स्तर पर मेरे प्रति आकर्षित भी रहीं। समारोह समाप्त होने के साथ ही मेरे सुहृद और स्थानीय कवि-पत्रकार शुभदर्शन मेरे पास आ गए थे और मुझसे कहा था कि सुनीता जी का एक साक्षात्कार अपने अखबार- ‘पब्लिक दिलासा‘ के लिए लेना है। अभी, इसी समय, विश्वविद्यालय के अतिथि भवन में पहुँचते ही। पर वहाँ आप मेरे साथ चलेंगे साक्षात्कार आपको ही लेना है। प्रशाल से बाहर निकलते ही लंच की व्यवस्था थी। शुभदर्शन जी ने सुनीता जी से अपनी यह इच्छा व्यक्त की और उन्होंने अपनी हामी भर दी। हम लोगों ने अपनी-अपनी इच्छा और भोज्य पदार्थों के अनुरूप थोड़ा-बहुत लंच किया और गाड़ी से अतिथि-भवन की ओर चल पड़े। वहाँ हम लोग ड्राइंग रूम में बैठ गए। सुनीताजी पहले अपने कमरे में गईं, शायद अपना पर्स रखने फिर हमारे बीच सुविन्यस्त होकर बैठ गईं।


इस बीच शुभदर्शन जी ने मुझसे पुनः आग्रह किया कि उनका इंटरव्यू मुझे ही लेना है। तदनुरूप सुनीता जी से मैंने प्रश्न करना आरंभ किया। अमृतसर से उनके लगाव और जुड़ाव को लेकर मैंने उनसे पहला प्रश्न किया था। फिर उनकी लेखन-यात्रा के विषय में आरंभिक चरण से को लेकर अंतिम चरण तक के लेखन के विषय में अनेक प्रश्न किए थे। उनके पुरस्कार-सम्मान आदि से संतुष्ट होने-न-होने के विषय में भी पूछा था। लेखनधर्मी उनकी भविष्य-योजनाओं पर भी प्रश्न किए थे। उस दिन मुझे लगा था कि उनका हर उत्तर जैसे मुझे खुलकर यह कह रहा हो कि मैं साहित्य जीती हूँ, साहित्य रखती हूँ और इतने बड़े विश्व की भौतिक चहल-पहल में मैं केवल साहित्य के प्रति समर्पित हूँ। साहित्य मेरा दायित्व और प्रिय कर्म ही नहीं, अपितु यह मेरा व्यक्तित्व भी है, शील भी है, संस्कार भी है। मेरा इसमें भावोद्गार है तो मेरा विचार भी है। यहीं उन्होंने मुझे बताया था कि अपनी किशोरावस्था में उन्होंने पचासों कविताएँ लिखकर फाड़ डाली थीं। यहीं जब मैंने एक वर्ष पूर्व उनके व्यास सम्मान से विभूषित होने की आमने-सामने बधाई दी तो बधाई स्वीकार करने के साथ ही वह थोड़ा ठहर-सी गई। फिर दुःखी मन से मुझे बताना शुरू किया कि कैसे उसकी निर्णायक-समिति में एक विद्वान प्रोफेसर ने लगातार तीन वर्षों तक उनकी उस कृति को पुरस्कृत नहीं होने दिया ओर उनके विरोध में अपना अभिमत व्यक्त करते रहे। जिस वर्ष वह निर्णायक समिति से हटे, उसी वर्ष सुनीता जी को इस अलंकरण से सम्मानित किया गया। उन्होंने निर्णायक-समिति के माननीय सदस्य का नाम भी बताया। मैंने अनुभव किया कि उन जैसे शिविर-मुक्त आचार्य भी किस तरह एक शिविरमुक्त कवयित्री की ऐसी रचनाधर्मिता पर जो आघात किया वह कितना दुराग्रह और पक्षपातपूर्ण रहा होगा। पर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि कृति से अधिक उनकी पसन्द मानी रखती थी। सुनीता जैन ने मेरी सद्यः प्रकाशित आलोचना-कृति के बारे में जानकारी चाही थी। मैंने उन्हें अपनी वह पुस्तक ‘विसंरचनात्मक आलोचनाः अर्थ की सर्जना‘ की एक प्रति किसी के द्वारा अतिथि-भवन में उनके पास भिजवादी थी।


सुनीता जी अमृतसर से दिल्ली लौट गई। उसके बाद उन्होंने मुझे अपनी एक-एक पुस्तक भेजनी शुरू की। पहला डिस्पैच खोला तो उसमें उनकी छह-सात पुस्तकें थीं। फिर दूसरा डिस्पैच, फिर तीसरा डिस्पैच और अंत में उनकी एक पुस्तक ‘शब्दकाया‘ मिली। ‘शब्दकाया’ मै पड़ गया। यह उनकी अत्यंत संक्षिप्त आद्योपान्त आत्मकथा थी, इसमें उनके जीवन के चयनित अंश थे, जिसने मुझे झकझोर दिया।


मैं लगातार सुनीता जी पर कुछ लिखने को सोचता रहा पर अपनी व्यस्तता और किसी-न-किसी बाधा के कारण मैं उनपर उनके जीते-जी नहीं लिख पाया। अचानक एक दिन उनके आकस्मिक निधन के समाचार ने मुझे शोकाकुल कर दिया। उसके बाद मैंने उनकी शब्दकाया की समीक्षा की। गोवा विश्वविद्यालय के पुनस्चर्या पाठ्यक्रम में मैंने 21वीं शताब्दी की आत्मकथाओं पर बोलते हुए उनकी ‘शब्दकाया‘ पर विशेष रूप से प्रकाश डाला और उनकी इस छोटी-सी आत्मकथा की विशेषताओं और साहित्यिक अपराजेयताओं को रेखांक्ति किया।


सुनीता जी साहित्य की अन्दरूनी राजनीति से अलग रहती थीं। उनमें साहित्य के आदर्श संस्कार थे। उनमें आज के साहित्यकारों का टुच्चापन नहीं था। उनमें साहित्य के ऐसे संस्कार थे जो मनुष्यता को उच्चता देते और उसे संजीवित रखते हैं। साहित्य के क्षेत्र में सम्मानों और पुरस्कारों की चलने वाली होडा-होड़ी जुगाड्पना, दलबन्दी और शिविरबद्धता से उन्हें दुख होता था। वे साहित्यकार की वाणी में भाव-स्खलन और विचार-स्खलन को सह नहीं सकती थीं। मैं स्वयं साहित्य की उर्वरा भूमि और मुक्त आकाश का समर्थक रहा हूँ। सुनीता जी में मुझे यह मान्यतागत आत्मसदृशता प्राप्त होती थी और यहीं वह अपनी इन मानवीय साहित्यिक गुणधार्मिताओं के कारण मेरी दृष्टि में बहुत श्रेय-सम्पन्न और श्रेष्ठ हो उठती थीं। आज के साहित्यकारों में इसका नितांत अभाव है। उन्होंने अपने प्रशंसकों का न कोई दल बनाया था और न कभी आत्मप्रशंसकों की कोई घेराबंदी ही की थी। बड़े साहित्यकारों के प्रति उनमें मान-सम्मान का भाव था। अपनी ‘शब्दकाया‘ में इन्होंने ‘बाबू जी‘ कहकर आचार्य विद्यानिवास मिश्र को ऐसा ही सम्मान दिया था। एक आत्मीय नैकट्य के सहारे उन्होंने मिश्र जी से अपने गुरु की गुरु-दक्षिणा चुकाने के लिए, जो पुत्री-रूप में सहयोग-सहायता माँगी उसकी आपूर्ति विद्यानिवास जी ने की।


कमला सांकृत्यापन के साथ उनका आत्मीय संबंध था। उनके संपर्क में उन्होंने भाषा के मर्म की पहचान की। घर के नौकर को नौकर न समझ कर उसे एक सहायक के रूप में देखने की जो उनकी दृष्टि थी वह आज के युग में कही और देखने को नहीं मिल सकती। उनके हृदय में करुणा (Pathos) का संचार था, मानवीयता से भरी एक आर्द्रता थी। वह केवल नाम्ना सुनीता नहीं थी। वह हिन्दी साहित्य के आकाश में अदृश्य शक्ति के द्वारा अच्छी तरह लाई गई (सुनीता) एक समुज्ज्वल नक्षत्रिका थी, जिनकी साहित्यर्ढना अपने मूल्य-मान में विशिष्ट और प्रकाश-मंडित थी- "Her Soul was like a star that dwells apart".


आज जब मैं सुनीता जी को याद करता हूँ तब लगता है कि अमृतसर के मालरोड़ के एक सम्मान्य न्यायाधीश के घर से निकली बग्घी (चार पहियों वाली घोड़ागाड़ी) पर बैठी वह स्कूल जा रही है। आज अमृतसर में वह फिटिन गाड़ी कहाँ? अपने इस बचपन को वह कभी भुला नहीं पायीं। मैं अमृतसर के उस बिम्ब को अपनी बन्द आँखों में समो लेता हूँ और कुछ पलों बाद आँखें खोलता हूँ तब एक दूसरा बिम्ब सामने आता है। लम्बी, सुडौल काया! बड़ी-बड़ी आँखें! प्रभापूर्ण मुखमंडल! गरिमामयी भारतीय वेश-भूषा से सुसाज्जित! मन-प्राण में रसी-बसी भारतीयता! साहित्यर्ढना में ‘सत्यं, शिवं, सुन्दरम्‘ को अधिमानित स्वर देने के लिए संकल्पिंत! साहित्यकारों के अहम्मन्य दुच्चापन की विरोधिनी! शिक्षा और ज्ञानार्जन की युगीन विडम्बनाओं से मर्माहत!


भारत और विदेश के बीच वह सुषम बेदी की तरह कभी द्वन्द्व ग्रस्त नहीं थीं। भारतीयता में कुरूपता और पिछड़ापन देखने वाली नहीं थीं। राजी सेठ जहाँ चुप रह जा सकती। वहाँ वह साहित्यकारों के अहम्मन्य, अभद्र और अशालीन वक्तव्यों पर विरोधात्मक टिप्पणी करना साहित्यकार का धर्म और कर्तव्य समझती थीं। वह कवयित्री और कथाकत्र्री दोनों ही थीं। राजी जी जैसा उनमें चिन्तनात्मक लेखन नहीं था। वह संकल्पशील और दृढ़ व्यक्तित्व की स्वामिनी थी और स्वाभिमानिनी थी। ज्ञान के प्रति उनके मन में जागरूक औत्सुक्य था। वह ज्ञान को परीक्षा फल केन्द्रित नहीं मानती थीं। विद्यानिवास जी एक अंग्रेजी पुस्तक ढूँढ़ते हुए I.I.T. में व्याख्यान देने के बाद उनके आवास पर पहुंचे थे। उस समय तो नहीं, पर उन्हें वह पुस्तक अपने पुस्तकालय से निकाल कर उन्होंने उन्हें भिजवायी थी। उन्होंने हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी में भी लिखा है। साहित्यिक अनुवाद भी किये हैं। उनका साहित्य मूल्यवन्ती, न्यायप्रियता, मानवीयता और भारतीयता की धरोहर है।


मुझे उनकी कुछ कविताओं के अंश याद रह गये हैं- 1. लौटेंगे केदार नाथ सिंह और 2. नाचने से पहले। सहज कहन शैली में कविताई की अनोखी अदा है इनमें। ये शक-केन्द्रित न होकर प्रोक्ति (Discourse) सा कथन-केन्द्रित कविताएँ हैं


(1) जमीन पक रही है कहीं (दक्षिणापुरम में नहीं)/दौड़ रहे हैं उस पर/अपना नन्हा गुलाब भींचे/मुट्ठी में केदारनाथ सिंह/भूले नहीं हैं वे अपना जनपद/मौसम की भूलें भी सब याद उन्हें हैं-/भले परेशान हों कितना ही/कि याद नहीं रहते/ नाम पक्षियों के जब-तब/ उन्हें मालूम है फिर भी/कि तमाम सीढ़ियों की ऊँचाई के बाद/पहुँचता है जहाँ आदमी/वहाँ कोई नहीं रहता।‘‘ (लौटेंगे केदारनाथ सिंह)


(2) जब मैं नाचता हूँ तो नाचने से पहले/कहता हूँ, प्रभु मैं सज गया/अब आप नाचिए‘/-कहा बिरजू महाराज ने/एक दोपहर दिल्ली में/शायद यही कहते थे कालिदास/कविता से पहले,/कहते थे तानसेन/गायन से पहले,/कहती थी अमृता शेरगिल/चित्रण से पहले/मैं इनमें से एक भी नहीं/न हो सकती-/पर कहती हूँ- कह सकती कि/सज गयी हूँ वीणावादिनी-/प्रतीक्षा में आपकी।‘‘ (नाचने से पहले)


सुनीता जी संवेदन-संकल्पन से, मानवीय करुणा से, अतीत के प्रति पुनरावलोकन कराने वाली स्मृति-निधि से प्रातिभा और अर्जित, साहित्य-विवेक से साहित्य की जीवन्त प्रतिभा थी। वह अधीती थीं, सुपठित थीं और ज्ञान को जीवन से जोड़ने वाली थीं। उनमें उच्चकोटि की भावमित्री प्रतिभा भी थी। उन्होंने समकालीन कविता हो या समकालीन श्रेष्ठ औपन्यासिक कृतियाँ या महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक पुनर्विचार- उन्होंने इन सबकी बहुत ही समीचीन और मौलिक समीक्षाएँ की है। वह अपनी स्मृति-सम्पन्न, करुणावलोकिनी मौलिक सर्जना से हिन्दी साहित्य में अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति बना गयी हैं। वह लौटेंगी नहीं, पर उनकी शब्दकाया में उनकी अर्थान्वेषी आत्मा की यह उपस्थिति सदैव बनी रहेगी।



पाण्डेय शशिभूषण ‘शीतांशु' ‘साईकृपा‘ 58, लाल ऐविन्यू डाकघर- छेहर्टा, अमृतसर पिन-143105 (पंजाब)


मो. 09878647468 email: shitanshu.shashibhushan@yahoo.com


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